Thursday, December 24, 2015

आईना देखने से कतराता समाज

16 दिसंबर, 2012 की सामूहिक बलात्कार की घटना ने देश को झकझोरा था या यूं कहें संप्रग-दो की सरकार से निराश और गुस्साए जनसमूहों को शिथिल शासन के विरोध की वजह मिल गई। दोयम-तीयम और—और भी निचले दर्जों को मजबूर स्त्रियां ज्योतिसिंह/निर्भया जैसा पहले भी भुगतती रहीं हैं, और इस घटना के बाद भी भुगत ही रही हैं। आंकड़े बताते हैं कि दिसम्बर, 2012 के बाद दुष्कर्म की घटनाएं दिल्ली में ही 269 प्रतिशत बढ़ गई। इन आंकड़ों के मानी यह भी ले सकते हैं कि अपराध के आंकड़ों में ज्यादा अंतर नहीं आया होगा। हां, ज्योति के साथ घटित और उसके विरोध में उमड़े जनाक्रोश ने पीडि़त स्त्रियों को हौसला जरूर दिया है। अब पीडि़ताएं अधिकांशत: मामले दर्ज करवाने लगी हैं और पुलिस ने ऐसी पीडि़ताओं की एफआईआर दर्ज न करना/टरकाना भी कम कर दिया होगा।
ज्योतिसिंह/निर्भया के मामले के सजायाफ्ताओं में से एक अपराधी वारदात के समय नाबालिग था और कानून के अनुसार उसे तीन वर्ष बाद छूट जाना था, सो छूट भी गया। उसके छूटने से कुछ दिन पूर्व ज्योति के माता-पिता सक्रिय हुए, उन्होंने अपनी तकलीफ और जायज आक्रोश को इस अवसर पर पहली बार सार्वजनिक किया, ठीक-ठाक मिले जन समर्थन के चलते ही किशोर-अपराधियों संबंधी लंबित नया कानून पारित भी हो गया। इस नये कानून में क्या जुड़ा-घटा उसकी समीक्षा करना कानूनविदों का काम है और यह देखना भी कि कुछ जुड़ा है तो जायज है या केवल मुखर जन-भावनाओं की तुष्टि मात्र ही है। वैसे दुनिया के अधिकांश हिस्सों में यह माना गया है कि बाल और किशोर अपराधियों के सुधरने की गुंजाइश अवश्य छोड़ी जानी चाहिए।
इस बीच सक्रिय आन्दोलनकारियों और सोशल साइट से अपनी बात रखने वालों में से कइयों ने इस मुद्दे पर अपनी-अपनी बातें रखीं। कई चाहते थे कि बालिग हो चुके उस अपराधी को फांसी या ताउम्र की कैद दे दी जाय। कुछ ऐसे भी थे जो यह कहने में भी संकोच नहीं करते कि उसे जनता को सौंप दिया जाय और भीड़ जो सजा तय करे उसे तुरंत अंजाम तक पहुंचाने दिया जाय। ऐसी राय रखने वालों में शामिल कुछ ऐसे भी हैं जो अपने से अलग राय रखने और संजीदा माने जाने वालों के खिलाफ अनर्गल लिखने-कहने से नहीं चूकते। यहां तक कि वे उनकी बेटियों का हश्र ज्योतिसिंह जैसा देखने लगते हैं। सामान्य विमर्श में ही जो लोग इस स्तर तक पहुंच जाते हैं ऐसों के बारे में मनोविज्ञान के आधार पर यह माना जा सकता है कि इनमें और अपराधियों की मन:स्थिति में कोई बड़ा अंतर नहीं होगा। हो सकता है पोल मिलने पर वे खुद वैसा ही करें जो जघन्य कृत्य प्रतिदिन स्त्रियों के साथ होते हैं। अन्यथा 16 दिसम्बर, 2012 से पखवाड़े भर जैसा जन-आक्रोश चला उसे देखते हुए ऐसे अपराधों का आंकड़ा बजाय बढऩे के कुछ तो कम होना चाहिए था।
दरअसल अपराधी उसी मनोवैज्ञानिक दशा में होता है जो सामान्यत: समाज में ही पल्लवित होती है या कहें घटित अच्छा-बुरा समाज का बाइस्कोप ही होता है। आज जिस तरह के रहन-सहन और कार्य-व्यापार को समाज ने अपना लिया है उसमें सभी तरह के अपराधों की गुंजाइश न केवल बढ़ी है बल्कि मीडिया के आधुनिक साधनों से उनका संचरण आसान और इतना तीव्र हो गया कि विवेकहीन प्रतिक्रियाओं की बाढ़ सी आने लगी है। इस अति में हो यह रहा है कि ठिठक कर प्रतिक्रिया देने, दूरगामी और व्यापक हित में विचारने की गुंजाइश दिन-ब-दिन कम होती जा रही है।
कानूनी-दण्ड और सजाएं ही समाधान होते तो प्राचीन काल में और वर्तमान में भी कई देशों में सजा के कड़े प्रावधान हैं, बावजूद इसके अपराध नई-नई युक्तियों और गुंजाइशों से होते ही हैं। जरूरत दरअसल उन अनुकूलताओं की पड़ताल करने की है जिनके चलते सबसे सभ्य माने जाने वाले मनुष्य के मन में अपराध जगह बनाता है। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच, स्त्री-पुरुष के बीच, विभिन्न समूहों में सभी तरह की विषमताएं आक्रोश की आशंका बनाती हैं। वर्तमान व्यवस्था में समृद्धि और सामथ्र्य बढ़ाने में भ्रष्टाचार भी एक बड़े सहायक के रूप में देखा गया है। शासकों को भी इसी में अनुकूलता दीखती है और वे बिना संकोच किये भ्रष्टाचार में रमते भी रहे हैं। दुखद है कि लोकतंत्र में भी ऐसी प्रवृत्तियां लगातार बढ़ रही हैं।
इस पूरे दौर को या तो जैसे है वैसे ही अपनी दुर्गत को हासिल होने दें या निज से ऊपर उठकर व्यापक हित में विचारने वालों की बात को ताकत दें। ऐसा छिटपुट जब-जब भी होता है तब-तब सुकून और उम्मीदें बनाए रखता है। सोशलसाइट्स को देखें तो सही विचार भी व्यक्त हो रहे हैं। लेकिन इसके लिए धैर्य और विवेक, दोनों की जरूरत है लेकिन समर्थों में यही लगातार कम हो रहा है।
24 दिसंबर, 2015

Wednesday, December 16, 2015

देश और प्रदेश : उम्मीद के अलावा कोई चारा भी नही

ऐसा अभद्र माहौल पहले कभी नहीं देखा गया। हो सकता है इस अनर्गलता को काम न करने पाने की आड़ के तौर पर आजमाया जा रहा हो! क्योंकि केन्द्र में मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता के अठारह महीने हो लिए हैं तो सूबे में वसुंधरा राजे के नेतृत्व में भाजपा की ही सरकार ने दो वर्ष पूर्ण कर लिए। जितने वायदों को करके दोनों ही जगह भाजपा ने अच्छा-खासा बहुमत हासिल किया लेकिन इनमें से किसी एक को पूरा करना तो दूर वैसी मंशा का आभास देती भी ये सरकारें नहीं दिख रही। वसुंधरा के शासकीय और प्रशासकीय दोनों बेड़े पिछले दिनों तब बगलें झांकते देखे गये जब उन्हें फरमान मिला कि सूबे की सरकार के दो वर्ष की उपलब्ध्यिों की फेहरिस्त बनाएं। ऐसी फेहरिस्त तो तब बनती है जब कोई मजमून हो, यहां तो पहली पंक्ति लिखनी भी नहीं सूझ रही थी। मंत्रियों की स्थिति देखने वाली थी, मंत्रिमंडल के सत्तरह मंत्री इसलिए नहीं आए कि उन्हें अपना किया कुछ नजर ही नहीं आया। खैर, घाघ अधिकारियों ने जैसा-तैसा जुगाड़ कर जश्न करवा दिया। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष आ भी लिए, जब लगा कि डब्बा सफा गोल है तो 15 दिसम्बर की मंत्रियों की क्लास ही रद्द कर दी। इस दो साला जश्न का नारा था 'दो साल बेमिसाल'। मानना पड़ेगा जिसने भी नारा दिया बेहद सटीक दिया। आजादी बाद से ऐसे अ-राज के दो वर्ष कभी रहे नहीं होंगे। लगभग कोमा को हासिल कांग्रेस को कुछ सूझता तो सरकार को फुस्स करने के लिए इनका यह नारा ही पर्याप्त था।
कांग्रेस पार्टी सूबे की हो या देश की लगता है 'बिना ऊपरी मंजिल' के ही चल रही है। युवा नेता भी तो इन्हें ऐसा ही जो मिला है। कांग्रेस मुस्तैद होती तो भाजपा अकर्मण्यता की सभी आड़ों पर काउण्टर कर सकती थी। लगता है कांग्रेस के जिन नेताओं की ऊपरी मंजिल आबाद है, वे सभी हाशिए पर सुस्ता रहे हैं और जो कहार की भूमिका में हैं वे उस बिल्ली की सी उम्मीद में हैं कि छींका टूटेगा तो मलाई फिर हाथ लगेगी। भाजपा की सरकार केन्द्र की हो या राज्य की, उनके द्वारा वादे पूरा न कर पाने से बिल्ली मुद्राई कांग्रेसियों की बांछें खिलने लगी हैं। जनता का क्या, उसे तो कुएं और खाई की नियति को बारी-बारी भुगतना है।
 केन्द्र में नये राज के बाद बेधड़क हुई असहिष्णुता फिलहाल ठिठकी जरूर है लेकिन शासकीय पोल के चलते कभी भी चौफालिया हो सकती है। बोलचाल की लपालपी इतनी बढ़ गई है कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ही भाषाई मर्यादा का खयाल नहीं रख रहे तो देश में कहा-सुनी का माहौल खराब होना ही है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में पटखनी खाए मोदी ने जब बिहार चुनाव को अपनी मूंछ का बाल मान लिया और शुरुआती सभाओं में ही जब वे भाषाई मर्यादाओं को लांघने लगे तभी 'विनायक' ने चेता दिया था कि मोदी ऐसी लपालपी में लालू को नहीं जीत पाएंगे और वही हुआ भी। अब मामला उससे भी आगे बढ़ चला है और भाजपा को यही अनुकूल भी लगने लगा है। क्योंकि वादा तो ये एक भी पूरा कर नहीं पा रहे हैं जैसा कि 'विनायक' में पहले भी कहा गया कि मोदी को यह अच्छी तरह समझ में आ गया है कि गुजरात को हांकना और देश को चलाने में बहुत अंतर है। छप्पन इंची सीने की गत तो नेपाल ने ही खराब कर रखी है, चीन-पाकिस्तान की हकीकत तो उन्हें अभी भी समझनी है—मंहगाई, बलात्कार, अपराध न केवल बदस्तूर जारी हैं बल्कि इजाफा ही हो रहा है। इन सबकी जड़ में भ्रष्टाचार है, लेकिन मोदी को लगता है कि इस जड़ को उखाड़े बिना ही वे देश के अच्छे दिन ले आएंगे। वे अब भी नहीं मान रहे हैं कि भ्रष्टाचार को बिना काबू में लाए अच्छे दिन नहीं आ पाएंगे। कोई एक उदाहरण ऐसा नहीं है जिससे लगे कि भ्रष्टाचार में कोई कमी आई है। काम करने-करवाने के तौर तरीके वही हैं। ऊपर से कमजोर तबकों के लिए राहत मुहैया करवाने वाली सार्वजनिक सेवाओं की दुर्गति कांग्रेस राज से ज्यादा बदतर हो ली है।
उधर सत्ता के साफ-सुथरेपन की बिना पर दिल्ली की सत्ता में आए अरविन्द केजरीवाल अभद्र भाषा के मामले में प्रधानमंत्री मोदी से जुगलबंदी करने लगे हैं। कांग्रेस के बबुआ राहुल गांधी क्या बोलते हैं, खुद उन्हें समझ नहीं आता तो दूसरे उनसे उम्मीद भी क्या करें। खैर, खुद जनता ने जिन्हें या जैसों को  जो हैसियत बख्शी है, उन्हीं को उसे भुगतना है। लोकतंत्र में सुधार की प्रक्रिया लम्बी इसलिए होती है कि इसकी प्रयोगशाला पूरा देश होता है। और विकल्पहीनता यही है कि शासन की लोकतांत्रिक प्रणाली के अलावा शेष सभी प्रणालियां अमानवीय साबित हो चुकी हैं।
17 दिसम्बर, 2015

Thursday, December 10, 2015

बात सर्कस के अखाड़े की

शहर में सर्कस लगा है। सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज के मैदान में तम्बू तान कर जमाए अखाड़े में प्रतिदिन तीन शो हो रहे हैं। कतिपय इस छोटे सर्कस के साधन और सुविधाएं कम लग रही हैं। लगता है शो में न वैसी दक्षता है और न ही तत्परता। फिर भी इतने बड़े अखाड़े को चलाए रखने के लिए दर्शकों की जरूरत तो होती ही है। शो की अधिकांश कुर्सियां खाली देखकर चिन्ता होती है कि इस तरह ये सर्कस कितने'क दिन चलेंगे। जो कुछ कुर्सियां भरी दिखी भी तो लगा इनमें से कई तो मुफ्तिएं हैं। अच्छे-भले और कमाने-खाने वाले लोग भी ऐसे कूपनों की फिराक में दीखें तो यह मानने में देर नहीं लगेगी कि इस तरह यह सर्कस चल पाएंगे कि नहीं। वैसे भी जो समर्थ नहीं उनकी पहुंच मुफ्त के इन कूपनों तक होती भी नहीं है।
सर्कसों के अच्छे दिन समाप्त होने तब शुरू हो गए जब पिछली सदी के आखिरी दशक में जहां एक ओर मनोरंजन के क्षेत्र में निजी टीवी चैनलों ने जगह बनाईं वहीं 1990 में उच्चतम न्यायालय ने वन्य जीवों के ऐसे प्रदर्शनों पर रोक लगा दी। बाद इसके कुछ पालतू जानवरों के साथ जैसे-तैसे इन सर्कसों को चला रहे थे लेकिन अब तो ऐसे सभी तरह के जानवरों से करतबी काम लेने पर रोक लग गई, जो अवाम का मनोरंजन कर सकते हैं। यह अच्छी बात नहीं है कि निरीह जानवरों को जबरदस्ती प्रशिक्षित कर मनुष्य अपना मनोरंजन करें। लेकिन मानवीय हिड़काव के इस युग में पक्षियों और जंगली जानवरों के रहने-विचरने के नैसर्गिक स्थानों पर ही जब लगातार अतिक्रमण कर उन्हें खदेड़ा जाने लगा और जैविक पार्क विकसित कर उनमें जानवरों को अपनी जगहों से विस्थापित करवा रखा जाना भी कितना उचित है। विचार अब इस पर भी होना चाहिए।
सर्कस पर लौटते हैं, मनोरंजन के इस साधन की दुनिया में शुरुआत ईसवी सन् 1768 में इंग्लैण्ड से मानी जाती है। भारत में 1880 में इंग्लैण्ड से एक सर्कस आया। मुम्बई में हुए शो के दौरान सर्कस मालिक ने पहले शो के दौरान भारतीयों को खुली चुनौती दी कि दौड़ते घोड़े पर कोई खड़ा होकर करतब दिखा दे तो उसे पांच सौ पाउण्ड इनाम में दिए जायेंगे। शो में कोल्हापुर शासक के अस्तबल प्रशिक्षक विष्णुकांत छत्रे भी थे। छह माह में ही उन्होंने यह कर दिखाया और पांच सौ पाउण्ड पा भी लिए, पांच सौ पाउण्ड तब बहुत बड़ी रकम होती थी। बाद इसके छत्रे को सर्कस कम्पनी खोलने की सूझी इसके लिए केरल में तब मार्शल आर्ट की कक्षाएं चलाने वाले कीलेरी कुन्हीं कन्नन के सहयोग से ग्रेट इण्डियन सर्कस की शुरुआत की। कुन्हीं कन्नन की स्कूल के ही अन्य विद्यार्थियों ने सर्कस की कई कम्पनियां बनाईं और 1970-80 तक बहुत सफलता से इन्हें चलाया भी।
इनमें से कल्लन गोपालन ने 1920 में ग्रेट रैमन सर्कस की स्थापना की। इसका विशेष उल्लेख बीकानेरियों के लिए इसलिए भी है कि पिछली सदी के सातवें दशक के उत्तराद्र्ध में जेलवेल क्षेत्र में स्थित सादुल स्कूल के खेल मैदान में यह सर्कस लगा था। तब न तो राजीव मार्ग था और न ही लेडी एल्गिन स्कूल की तरफ से जेल टंकी की ओर जाने की कोई व्यवस्थित सड़क थी। शो के चालू होने के बाद सर्कस के प्रबन्धकों ने जद्दोजेहद से फोर्ट स्कूल का तब वही गेट खुलवाया जहां से अभी राजीव मार्ग शुरू होता है।
रैमन सर्कस की प्रस्तुतियां इतनी भव्य, दक्ष और तत्परता लिए होती थीं कि आज भी अन्य सर्कसों में दर्शक उसी को तलाशते रहते हैं। अन्य जंगली पशु-पक्षियों के साथ पानी में रहने वाले गेंडेनुमा दरियाई घोड़े का प्रदर्शन तब विशेष आकर्षण का केन्द्र होता था। जीपों से आसपास के गांवों में प्रचार के अलावा रैमन सर्कस ने शहर में शोभायात्रा भी निकाली जिसमें सभी स्त्री-पुरुष कलाकार झण्डे आदि विशिष्ट गणवेश में मार्च पॉस्ट कर रहे थे। यहां तक कि हाथी-शेर-भालू आदि ने भी उस शोभायात्रा में रोमांच पैदा किया। सर्कस तब बहुत ही दक्ष कलाकारों का आर्केस्ट्रा भी होता था। आजकल विवाह समारोह में आसमान की ओर फेंकी जाने वाली भारी भरकम टार्च की रोशनी तब पहली बार देखी गई। लोग तब ये बताते थे कि इससे पहले आया कमला सर्कस इससे भी भव्य था जो रानी बाजार स्थित खतूरिया गली में लगा था। रैमन सर्कस जब बीकानेर आया उससे थोड़ा पहले ही पानी के जहाज से विदेश जाते हुए कमला सर्कस का पूरा कारवां समुद्र में डूब गया। तैरना जानने वाले कुछेक वे कलाकार बचे जिन तक बचाव दल पहुंच सका। उन कलाकारों को रैमन सर्कस में तब सम्मान के साथ दर्शकों से केवल मिलवाया जाता था। यद्यपि आठ-दस वर्ष बाद रैमन सर्कस शहर में फिर आया लेकिन वैसी भव्यता नहीं थी। तब से अब तक छिट-पुट दसियों सर्कस अपने शो यहां कर चुके हैं। लेकिन जिन्होंने पिछली सदी के सातवें दशक में रैमन सर्कस के शो देखे हैं वे आज भी उसे उसी तरह याद करते हैं जैसे तब कमला सर्कस को याद करने वाले थे।
अब जब मनोरंजन का यह बड़ा साधन अपने बुरे दौर से गुजर रहा है, कहते हैं तब भी देश में छोटी-बड़ी 200 सर्कस कम्पनियां चालीस हजार लोगों को रोजगार उपलब्ध करवा रही हैं। बीकानेर के लोगों से अपील है कि इस कला को सुचारु रखने के लिए शो देखने का समय एकबार तो निकालें वह भी टिकट खरीद कर। सर्कस प्रबन्धकों से भी अपील है कि वे अपने कलाकारों को थुलथुल न होने दें, उन्हें चुस्त-दुरुस्त रहने के साधन उपलब्ध करवाएं और शो में अच्छे ऑर्केस्ट्रा के साथ करतबों में तत्परता दिखाएं। आजकल के सर्कसों में जोकर तो जोकर की तरह लगते ही नहीं हैं। थके-हारे खड़े रहते हैं, कुछ कहते-करते भी हैं तो हंसाते तो हरगिज नहीं, वे ये क्यों भूल जाते हैं कि पिछली सदी के बड़े फिल्मी कलाकार राजकपूर ने उन्हीं से प्रेरित होकर अपने जीवन की न केवल पूरी कमाई 'मेरा नाम जोकर' फिल्म बनाने में झोंक दी बल्कि कर्जदार भी हो गये थे।

10 दिसम्बर, 2015

Thursday, December 3, 2015

वसुंधरा अ-राज के दो वर्ष

प्रदेश में वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्रित्व के दो वर्ष पूरे हो रहे हैं। राजनेताओं की ओर से आकलन किया जाय तो पांच वर्षों का कार्यकाल कोई लम्बा नहीं होता, चुटकियों में गुजर जाता है। लेकिन किसी क्षेत्र-विशेष और शहर की उम्मीदों के सन्दर्भ से बात करें तो समय कुछ ज्यादा ही लम्बा अहसास देता है। वर्ष 2003 से 2008 तक के वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्रित्व की हाल के इन दो वर्षों से तुलना करें तो यह कहीं नहीं ठहरता। तब भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व न केवल कमजोर था बल्कि सत्ताधारी क्षेत्रीय क्षत्रपों पर आश्रित भी था। अब जब वसुंधरा के भी समकक्ष रहे नरेन्द्र मोदी और अधीनस्थ से रहे अमित शाह की जोड़ी डांग और अपने धनपतियों के बूते सत्ता और पार्टी पर काबिज है तब क्षेत्रीय क्षत्रपों और मोदी-शाह की जोड़ी के बीच शीत युद्ध की सी स्थितियां हैं। ऐसी स्थितियों में भुगतती जनता ही है। इन दो वर्षों में वसुंधरा राजे ऐसे दौरे से गुजरी हैं कि शायद उन्हें भान ही नहीं रहा कि जनता से किए किन वादों से वे सत्ता पर काबिज हुईं। शासन-प्रशासन पर लगातार नजर रखने वालों को यह भ्रम होने लगता है कि प्रदेश में राज किसी चुनी हुई सरकार का है या राष्ट्रपति शासन के माध्यम से प्रदेश को प्रशासकीय अमला चला रहा है।
वसुंधरा जब से सत्ता में आई हैं तब से कुछ विशेष नहीं कर पा रहीं। कह सकते हैं उनके सत्ता संभालने के साथ ही नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव अभियान शुरू हो गया। मोदी और वसुंधरा दोनों ही सर्वसत्तावादी मानसिकता वाले भले ही हों लेकिन दोनों की कार्यशैली में झीना अन्तर यह है कि मोदी जहां अधिनायकत्व शैली में ही काम करते हैं वहीं वसुंधरा सामन्ती शैली में। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यद्यपि दोनों ही कार्यशैलियां स्वीकार्य नहीं हैं मगर जब किसी एक को चुनने की मजबूरी हो तो अधिनायकत्व से सामन्तशाही को कम अमानवीय कह सकते हैं। इस भारत देश ने सामन्ती सनकों को बहुत भोगा है लेकिन अधिनायकत्व के चरम रूप हिटलर की कल्पना ही सिहरा देती है।
भारी बहुमत के साथ मोदी-शाह के केन्द्र मेंं काबिज होने के बाद ठिठकी वसुंधरा में जुम्बिश अभी तक नहीं लौटी है। वह यह अच्छी तरह जानती हैं कि मौका मिलते ही मोदी-शाह की कम्पनी उन्हें समर्पित न होने वालों के बट कैसे निकालती है। यही कारण है कि पिछले वर्ष आए हरियाणा, महाराष्ट्र के चुनावी नतीजे और उनमें मोदी-शाह की सफलता के बाद वह कुछ ऐसी सहमीं कि इस वर्ष शुरू के दिल्ली विधानसभा चुनाव के मोदी-शाह को धो देने वाले नतीजों के बाद भी आत्मविश्वास नहीं लौटा पायीं।
बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजे नीतीश के अनुकूल हों ऐसा चाहने वाले केवल नीतीश के शुभचिन्तक ही नहीं, भाजपा का एक बड़ा समूह भी अपनी पार्टी की पराजय की कामना कर रहा था जो मोदी-शाह की कार्यशैली से खफा है और नापसंद करते हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों को लगने लगा था कि बिहार में यदि मोदी-शाह का गिरोह सफल होता है तो सब से पहले उन्हें हटाकर ये लोग अपने प्यादे बिठायेंगे। बिहार के मतदाताओं ने ऐसे भाजपाइयों को सुकून ही बख्श दिया है। बिहार के परिणाम आए को ठीक-ठाक समय बीतने के बाद भी वसुंधरा अपने पिछले कार्यकाल के जलवे की ओर नहीं लौट पा रही हैं। लगता है वे अभी मोदी-शाह को भांपने में लगी हैं।
पांच वर्ष के कार्यकाल में दो वर्ष कम नहीं होते। एक वर्ष और गुजरा नहीं कि उलटी गिनती की बारी आ जायेगी। वसुंधरा न जनता के लिए कुछ करने की मन:स्थिति में लगती हैं और ना ही अपने दरबारी नेताओं का भला कर पायी हैं। कार्यकर्ताओं का नम्बर तो अभी दूर की बात है। अवाम के काम-धाम की उम्मीद तो तब की जा सकेगी जब वसुंधरा अपने 'बेरोजगार' दरबारी नेताओं और कार्यकर्ताओं को कहीं फिट कर दे।
दो वर्ष के कार्यकाल के जश्न के तर्क न पार्टी संगठन को सूझ रहे हैं और न ही सरकारी अमले को पर इधर रीत का रायता बनाने की कवायद शुरू हो चुकी है। संकट उन अफसरों पर है जिन्हें इन निठल्ले दो वर्षों की बिरुदावली न केवल गानी है बल्कि मुख्यमंंत्री सहित मंत्रियों और संगठन के उच्च पदस्थों की उपलब्धियों की फेहरिस्त भी देनी है। जीरो उपलब्धियों को सूचीबद्ध करना कम चुनौतीपूर्ण नहीं होता। अफसरों की भाषाई प्रतिभा भले कोई काम आ जाए लेकिन अधिकांश अफसरों के पास इस प्रतिभा का अभाव ही दिखता है।
पिछले वर्ष 10 अक्टूबर के 'विनायक' में लिखे गए संपादकीय 'वसुंधरा राजे : न वो नखरा, न जलवा और न ही इकबाल' शीर्षक आलेख की इन पंक्तियों का उल्लेख आज भी प्रासंगिक लगता है-
हाइकमान अब राजनाथसिंह जैसे धाका-धिकयाने वालों की नहीं रही। मोदी-शाह एसोसिएट फिलहाल न केवल हीक-छडि़ंदे की मुद्रा में है बल्कि इन्होंने मौके का फायदा उठाकर अनुकूलताएं इतनी बना ली कि वे वसुन्धरा जैसों का नखरा भांगने का दुस्साहस भले ही न करें पर उनमें पिंजरे के पंछी की फडफ़ड़ाहट तो पैदा करवा ही सकते हैं।
पिछले कई माह से वसुन्धरा को शासन में आप-मते कुछ करने की छूट न देकर हाइकमान ने अपनी हैसियत जता ही दी है। मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों की सूची लेकर पखवाड़े भर पहले गई वसुन्धरा को इसके लिए पहले तो डेरा डालने को मजबूर कर दिया और फिर बैरंग लौटा दिया। यह वसुन्धरा के लिए बर्दाश्त के बाहर था। बट-बटीजती वसुन्धरा ने इशारों-इशारों में ही सही कल पहली बार यह कह कुछ साहस दिखाया कि पिछले चुनावों में पार्टी की सफलता का श्रेय किसी एक व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता। राजे का इशारा सीधे-सीधे नरेन्द्र मोदी की ओर है।

3 नवम्बर, 2015

Thursday, November 26, 2015

सहिष्णुता के मर्म को समझने की जरूरत

फेसबुक जैसी वैश्‍विक सोशल साइटों पर सक्रियता से यह आश्‍वस्ति होती है कि लगभग एक जैसा विचारने वाले लोग देश और दुनिया में हैं, बहुत हैं। इन साइटों ने अन्यों और मित्रों के विचारों को साझा करने का विकल्प देकर इसकी पुष्टि भी की हैं।
अभी जब सहिष्णु और असहिष्णु मन:स्थितियों पर बजाय गंभीर विचार होने के छिछालेदर होने लगी तो इस पर विचारने और विनायक के पाठकों से फिर से साझा करने का मन हुआ। पुराने मित्र, सहधर्मी और अहा! जिन्दगी के संपादक आलोक श्रीवास्तव की ऐसी विचारणा की पोस्ट फेसबुक पर पढ़ने को मिल गई। जब वैसा ही फिर लिखना हो तो लगा कि उसी पोस्ट को पाठकों से साझा क्यों न किया जाय। औपचारिक स्वीकृति के लिए जब मित्र आलोक से बात की तो उन्होंने सहजता से हां कर दीˆविनायक उनका आभार मानता है। उनका आलेख ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत है:ˆ
बहुत दयनीय किस्म की बहसें चल रही हैं, बड़े ही कुटिलतापूर्ण बयान आ रहे हैं। कोई मुद्दे को देश की सहिष्णुता की ओर मोड़ रहा है तो कोई भारत की सदियों पुरानी सहअस्तित्व की परंपरा की दुहाई दे रहा है, तो कोई सरकार की सफाई पेश कर रहा है। सच कहां है? बेशक यह देश असहिष्णु नहीं है, और सरकार भी नहीं हैˆतब तक तो नहीं ही, जब तक कि वह इस संविधान के तहत है और इस तरह है कि भविष्य के समस्त चुनावों के लिए भारतीय जनता ने उसे अंतिम रूप से अपना भाग्य नहीं सौंप दिया है। फिर यह मसला क्यों? क्या सिर्फ दादरी की हत्या इसके पीछे कारण है या महाराष्ट्र और कर्नाटक में हुई बुद्धिजीवियों की हत्याएं या चंद नेताओं के भड़काऊ बयान? शायद ये भी इतने बड़े कारण नहीं हैं। राक्षस की जान किस तोते में है?
भारतीय जनता पार्टी सिर्फ एक राजनीतिक दल नहीं है, वह सांस्कृतिक संगठन की एक प्रशाखा मात्र है। इस सांस्कृतिक संगठन की ढेरों प्रशाखाएं हैं। ये समस्त प्रशाखाएं हिंदुओं का भयादोहन करने, हिंदू राष्ट्र निर्माण के अपने प्रकट एजेंडे में सुविधानुसार गुप्त या गोचर तरीकों से कोई सदी भर से संलग्न हैं। अब इन्हें तरह-तरह से केंद्रीय सत्ता का समर्थन और मदद हासिल है। ये समस्त संगठन जमीनी तौर पर जो कुछ कर रहे हैं, उससे भय और असहिष्णुता का माहौल बनता दिख रहा है। बेशक अभी बना नहीं है, बेशक अभी तो नाटक का परदा भी नहीं उठा है, अभी तो सिर्फ नंदीपाठ हुआ है। स्थूल घटनाओं के पीछे संस्कृति के स्तर पर, शिक्षा के  स्तर पर, समाज के स्तर पर जो कुछ हो रहा है, वह भारत को बांटने वाला है, और संवेदनशील लोगों को अपने लिए नहीं, देश के भविष्य के लिए भयभीत करने वाला है। भाजपा को इसमें विरोधी दलों की राजनीति दीखती है। हो सकता है, हो भी, विरोधी दलों को इसमें अपना भविष्य भी दिख सकता है। बेशक अभी इस संवेदनशीलता ने राजनीतिक शक्ल अख्तियार नहीं की है। इसे राजनीतिक होना ही होगा। राजनीति होनी ही चाहिए आरएसएस और भाजपा समेत उसके समस्त आनुषंगिक दलों और उनके  एजेंडों के प्रतिरोध में सहिष्णु भारत, उदार भारत, जागृत भारत को एक बड़ी राजनीति खड़ी करनी ही चाहिए। अगर यह प्रतिरोध फिलहाल छोटे दिख रहे हैं, पर भविष्य में दैत्याकार होने वाले विचारों और एजेंडों के  खिलाफ बड़ी राजनीति में न बदला तो भारत भारत नहीं रह पाएगा। इसे बहस की झूठी गलियों में मत ले जाइए। यह मत कहिए कि भारत पाकिस्तान नहीं है। भारत जो कुछ है वह आरएसएस और इसकी विचारधारा से जुड़े समस्त संगठनोंˆराजनीतिक व सांस्कृतिकˆके बावजूद और उससे परे राज राममोहन राय, विवेकानंद, गांधी, अरविंद.... आदि के उदार मानवतावादी राष्ट्रवाद की परिणति है। आरएसएस और भाजपा उस भारत का विलोम है जो सदियों के संघर्ष से और असंख्य कुर्बानियों के  बाद हासिल किया गया है। यह भारत इनकी सांप्रदायिक प्रयोगशाला में वध की वस्तु नहीं बनने दिया जाएगा। वह पाकिस्तान है नहीं, आप उसे बनाना चाहते हैं और बहुस्तरीय, बारीक, क्रमागत राजनीति के  जरिए बनाना चाहते हैं।
आप बहुमत का हवाला देते हैं। आप जनादेश का राग अलापते हैं। हिम्मत है तो हिंदू भारत, हिंदुत्व और आरएसएस के विचारों को चुनाव सभाओं में पूरी ईमानदारी से प्रचारित करें और जनादेश लें और बनाएं हिंदू भारत। आपको अधिकार होगा। इतिहास में चोर दरवाजों से सेंध नहीं लगाई जाती। सहिष्णुता एक शब्द नहीं है भारत की आत्मा है, और इसमें आपने अपनी बरछी घुसा दी है। यह राष्ट्र इसकी पीड़ा महसूस कर रहा हैˆहालांकि अभी बहुत मद्धम बहुत क्षीण। और इस पूरे बदले हुए माहौल में, सरकार के रूप में इनकी चुप्पी, संगठनों के रूप में इनकी रणनीति और बड़-बोले नेताओं के रूप में इनकी बयानबाजी का कौशल देखने के काबिल है।

26 नवंबर, 2015

Thursday, November 19, 2015

बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल और उसके संविधान की गरिमा

बीकानेर के व्यापारियों और उद्योगपतियों की छह दशक से ज्यादा पुरानी और प्रतिनिधि संस्था बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल पिछले लगभग पांच वर्षों से संक्रमण काल से गुजर रही है। जिन प्रतिष्ठ शिवरतन अग्रवाल पर भरोसा और उम्मीदें कर अध्यक्ष बनाया, नहीं पता किन दबावों में या कौनसी नाड़ दबने के चलते वह लगभग कब्जाधारी होकर अपने मान को धूल-धूसरित होने दे रहे हैं। 'विनायक' में इस संस्था की कार्यप्रणाली को लेकर पहले भी कई बार लिखा जा चुका है। 2011 में जब अग्रवाल ने पहले तो अपने द्वारा मनोनीत कार्यकारिणी को ही इस्तीफा सौंपा और बाद इसके कार्यकारिणी द्वारा मंजूर न करने की बिना पर आज भी अध्यक्ष पद पर काबिज हैं। जबकि विधान के अनुसार अध्यक्ष का कार्यकाल दो वर्ष का ही होता है।
लगभग देश की आजादी के साथ ही स्थापित बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल के विधान में अपर हाउस की तर्ज पर संरक्षक परिषद का प्रावधान है। शिवरतन अग्रवाल का संस्थान के विधान में अगर विश्वास होता तो वे इस संरक्षक परिषद के मुखातिब होते न कि स्वयं द्वारा ही घोषित कार्यकारिणी के। अग्रवाल 27 जनवरी, 2009 को अध्यक्ष निर्वाचित हुए उस हिसाब से 26 जनवरी, 2011 से पहले मण्डल अध्यक्ष का चुनाव हो जाना चाहिए था, जो आज तक लंबित है।
इस संस्था से संबंधित ताजा सन्दर्भ यह है कि पिछले दिनों संस्था की संरक्षक परिषद की ओर से मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को इस्तगासे की दरख्वास्त लगाई गई, जिसे स्वीकार कर शिवरतन अग्रवाल और उनके साथियों के खिलाफ एफआइआर दर्ज कर आरोपों की जांच करने के आदेश दिए गए हैं।
मंडल अध्यक्ष अग्रवाल पर संरक्षक परिषद का एक आरोप बेहद गंभीर है और जो उनकी नीयत में खोट को भी साफ दरसाता है। मण्डल की अचल जायदाद को अग्रवाल द्वारा अपनी ही कम्पनी के नाम किराए पर लेने को किसी भी तरह से नैतिक नहीं ठहराया जा सकता। अग्रवाल जिस हैसियत को हासिल हो चुके हैं उसमें इस तरह का कृत्य तुच्छता की श्रेणी में ही माना जाएगा। जिन ऐसे अधूरे लोगों की सलाह पर वे यह कर रहे हैं, उनका वजूद हमेशा ही से परजीवी का सा रहा है। लगता है अग्रवाल को अपनी प्रतिष्ठा की परवाह बिलकुल नहीं है।
शिवरतन अग्रवाल चाहें तो बीकानेर व्यापार उद्योग मण्डल जैसी संस्था अपने बूते भी खड़ी कर सकते हैं। बावजूद इस सब के 2011 के बाद वे अनैतिक और अवैधानिक तरीके से पद पर क्यों जमे हुए हैं? अग्रवाल से तो उम्मीद यह की जाती है कि वे संस्था के संरक्षक की भूमिका में आएं और किसी की मंशा उचित नहीं लगे तो उसे बरजें ताकि यह संस्था सिरमौर प्रतिष्ठा के साथ अपने संवैधानिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सन्नद्ध हो। लेकिन हो इसके उलट रहा है, वे खुद तुच्छ तौर पर इस संस्था में उलझे हुए हैं, और जैसा कि संरक्षक परिषद का आरोप है, उलटे-सुलटे कृत्यों में पता नहीं किनकी दुष्प्रेरणा से संलिप्त हैं। दरअसल ऐसे लोगों को शिवरतन अग्रवाल का शुभचिन्तक तो नहीं कहा जा सकता। जरूरत इस बात की है कि जिनकी नीयत में खोट है, उनसे अपने को अलग कर मण्डल और संरक्षक परिषद को सुचारु करवाने में प्रवृत्त हों। अन्यथा संस्था का कबाड़ा तो इससे ज्यादा क्या होगा, खुद अग्रवाल अपने सहधर्मियों के अन्तर्मन में मैले होते जाएंगे। हो सकता है धनबल का लिहाज करके कोई मुंह पर नहीं बोलते हों लेकिन दबी जबान सहधर्मियों द्वारा शिवरतन अग्रवाल भुंडाये जाने लगे हैं।
इस प्रकरण में मीडिया भी एक्सपोज हुआ है। उसने पिछले दिनों शिवरतन अग्रवाल के खिलाफ न्यायालय के आए फैसले की खबर को तवज्जो संभवत: इसलिए नहीं दी कि अग्रवाल का उद्योग समूह उनका बड़ा विज्ञापनदाता है। एक अखबार ने उक्त खबर लगाई भी तो पल्ला-बचा कर। ऐसे में मीडिया क्या अपनी सीमाएं जाहिर नहीं करने लगा है। यानी जो विज्ञापन देता है उसके खिलाफ यह मीडिया अपने पाठकों और दर्शकों से कुछ भी साझा नहीं करेगा। मीडिया की मलिन होती छवि को इस तरह की करतूतें और भी मैला कर रही है, भरोसा तो धीरे-धीरे जा ही रहा है।

19 नवम्बर, 2015

Tuesday, November 10, 2015

बिहार के चुनाव परिणाम और बेधड़क असहिष्णुता

सहिष्णुता का मुद्दा और बिहार विधानसभा चुनाव के मतदान के बाद के चरण लगभग साथ-साथ चलते रहे। एक टीवी चैनल पर जब भाजपा के वरिष्ठ प्रवक्ता प्रभात झा से पूछा गया कि लोकसभा चुनाव आपने विकास के मुद्दे पर लड़ा लेकिन अब आपके लोग और अनुषंगी कभी बीफ तो कभी लव जिहाद, घर वापसी और पाकिस्तान भेजने जैसी बातें उठाकर माहौल को क्यों खराब कर रहे हैं? इस पर प्रभात झा ने विकास के मुद्दे को दरकिनार करते हुए साफ कहा कि हमारी पार्टी को वोट देने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि हमारी विचारधारा क्या है। यानी उनका आशय यह था कि जो कुछ भी हो रहा है उस पर मतदाताओं की मुहर लगी हुई है।
अभी जब रविवार, 8 नवंबर को बिहार चुनाव के परिणाम आए और उसमें जदयू-राजद व कांग्रेस के महागठबंधन ने चारों पार्टियों भाजपा, लोजपा, रालोसपा और हम के राजग गठबंधन से तीन गुना से ज्यादा सीटों के साथ जीत दर्ज की तो प्रभात झा की कही उक्त बात का स्मरण यूं ही हो आया।
इधर केन्द्र में मोदी नेतृत्व की राजग सरकार ने अपने कार्यकाल के सत्तरह महीनों बाद भी लोकसभा चुनाव के दौरान किए महंगाई, बेरोजगारी, स्त्रियों पर अत्याचार, किसानों की दुर्दशा में सुधार और चीन-पाकिस्तान को डपटने जैसे किसी भी वादे को पूरा करना तो दूर, उन पर तत्पर होने की भी कोई मंशा नहीं जताई। उलटे, अपूर्व बहुमत से सत्ता में आने के बाद भाजपा, उसकी पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसके अनुषंगी संगठनों में आस्था जताने वाले लोग पिछले नब्बे वर्षों से विद्वेषपूर्ण, गैर तथ्यात्मक और अनर्गल जो बातें करते रहे, अब मानों उन्हें मन की सब करने की छूट मिल गई है।
उच्च वर्गीय मानसिकता वाली यह विचारधारा ऐसा मानती रही है कि जिस तरह की जाति आधारित समाज व्यवस्था पहले थी वही उनके रुतबे को कायम रख सकती है। अत: गैर भारतीय भू-भागों से आए धर्म-सम्प्रदाय वाले तथा यहां के मध्यम और निम्न जातियों के लोगों की हैसियत दोयम दर्जे की ही है और उन्हें उसी तरह व्यवहार भी करना चाहिए। केन्द्र में मोदी नेतृत्व की सरकार आने के बाद इस तरह की अमानवीय मानसिकता अब न केवल मुखर होने लगी बल्कि बेधड़क भी हो गई। यहां तक, पार्टी और सरकार के अधिकृत लोग भी अनर्गल बोलने लगे हैं। इससे हुआ यह कि जो लोग मन में वर्षों से ऐसे उन समुदायों को, जिन्हें वे दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक मानते रहे हैं, निशाना बनाने लगे हैं। उन पर भी आक्रमण होने लगे जो इस तरह की अमानवीय बातें खारिज करते हैं। सत्ताधीशों ने जिस तरह 1984 और 2002 के संहार होने दिए वैसे ही इस तरह की अनर्गलता को रोकने की मंशा न सरकार में देखी गई और ना ही सत्ताधारी पार्टी में। जिन लोगों में घृणा के बीज वर्षों से बहुत व्यवस्थित ढंग से बोए गये, ऐसे सभी लोग अब अगर उसी फसल को काटने में जुट जाएं तो देश की स्थिति बड़ी भयावह हो जाएगी।
इसी सबके मद्देनजर विचारवान लोगों ने जब मुखर होने की ठानी और यह कहना शुरू किया कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है तो दूसरे पक्ष की ओर से अभियान के तहत इसे खारिज करना भी शुरू किया जाने लगा। जबकि हो यह रहा है कि कई दशकों से या कहें लगभग एक शताब्दी से योजनागत तरीके से तैयार असहिष्णु जमात की केन्द्र में पूर्ण बहुमत की अपनी सरकार आने के बाद मिले मौके पर अपनी करतूतों को पूरे देश में आजमाने को आतुर है।
भारतीय समाज की जिस तरह की संरचना है उसमें प्रत्येक उच्च वर्ग ने अपने से निम्न के साथ किए जाने वाले व्यवहार का हक नैसर्गिक मान रखा है। ऐसे में अनर्गल और असहिष्णु व्यवहार का सामान्यत: उन्हें भान ही नहीं होता और फट से यह कह दिया जाता है कि आखिर असहिष्णुता है कहां। चिन्ता का बड़ा कारण ऐसी मानसिकता ही है। इसे यदि नजरअंदाज करेंगे तो देश भीषण स्थितियों को प्राप्त हो जायेगा जिसकी कल्पना मात्र ही सिहरा देती है।
अब संक्षिप्त में बिहार के नतीजों की बात कर लेते हैं। ये नतीजे मोटा-मोट पिछले लोकसभा चुनावों के नतीजों का ही प्रतिबिम्ब हैं। जिस तरह मनमोहनसिंह की सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोपों में अपनी साख खोई और कांग्रेस लोकसभा में चौवालीस सीटों पर सिमट गई, ठीक वैसे ही मोदी ने केन्द्र में कुछ न करके और ऊपर से बिहार की चुनावी सभाओं में कुछ न करने की अपनी ग्लानि को ओछी बातों से ढककर साख खो दी। वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा पिछले दस वर्षों में करवाए काम अनेक मतदाताओं की भावभूमि का हिस्सा बने देखे गए। रही जातिवाद के आरोप की बात तो सोचें कि इस देश में कौन-सा संस्कार और काम जातीय भूमिका से अछूता है? ऐसे में उम्मीद कैसे की जा सकती है कि लूट के सर्वाधिक अवसर उपलब्ध करवाने वाली राजनीति जाति से अछूती हो ले। इस जाति व्यवस्था को बनाए रखने में सर्वाधिक सचेष्ट अगड़ी जातियां ही हैं क्योंकि उनकी सुविधाओं की सभी अनुकूलताएं इसी व्यवस्था में निहित हैं।
बिहार के चुनाव की सभी गोटियां दोनों ही प्रतिद्वंद्वियों ने जातीय आधार पर ही फिट कीं। भाजपा को जब लगा कि उनका समीकरण कमजोर हो रहा तो उसकी भरपाई में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की उसकी गंदी कोशिशें तो नहीं चल पायी लेकिन जिन अगड़ी जातियों के माध्यम से उसने ऐसा करने की कोशिश की उन्होंने भारतीय चुनावों के इतिहास में पहली बार अगड़ी जातियों के ध्रुवीकरण के साथ भाजपा को समर्थन दिया। इसमें कह सकते हैं कि लालू का अगड़ी-पिछड़ी जातियों वाला आह्वान जरूर बहाना बना।
गठबंधन के आपसी भरोसे की बात करें तो महागठबंधन के तीनों दलों ने अपने-अपने वोटों को एक-दूसरे को ट्रांसफर करवाया, परिणामस्वरूप बिहार में कांग्रेस जैसे समाप्तप्राय दल ने जहां इकतालीस में से सत्ताइस सीटें हासिल कर लीं वहीं भाजपा अपने गठबंधन धर्म पर खरी नहीं उतरी। भाजपा के सहयोगियों ने जहां अपने वोटों को भाजपा के उम्मीदवारों को ट्रांसफर करवा कर उसे तिरपन सीटें दिलवा दीं वहीं उच्चवर्गीय मानसिकता वाले भाजपाई वोटरों ने ऐसा नहीं किया और उसके सहयोगी दल दो, दो और एक सीट पर ही सिमटकर रह गये।
बिहार के इन परिणामों से भी ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। क्योंकि आजादी बाद से वर्तमान तक भारतीय मतदाता बिना मानवीय विवेक के हंकीज कर वोट करता रहा है। हां, उसे हांके जाने के मकसद, कुतर्क और प्रलोभन समय-समय पर बदलते रहे हैं। ऐसे में जब तक प्रत्येक मतदाता को एक लोकतांत्रिक नागरिक के रूप में दीक्षित-शिक्षित नहीं किया जाता, तब तक उसे भ्रमित करने और बरगलाने की पूरी-पूरी गुंजाइश बनी रहेगी। इस बरगलाने में पढ़े-लिखे, समर्थ और समृद्ध माने जाने वाले भी अछूते नहीं हैं, बल्कि वे ऐसा सोच-समझ कर और स्वार्थ के वशीभूत हो कर करते हैं।

12 नवम्बर, 2015