Thursday, December 10, 2015

बात सर्कस के अखाड़े की

शहर में सर्कस लगा है। सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज के मैदान में तम्बू तान कर जमाए अखाड़े में प्रतिदिन तीन शो हो रहे हैं। कतिपय इस छोटे सर्कस के साधन और सुविधाएं कम लग रही हैं। लगता है शो में न वैसी दक्षता है और न ही तत्परता। फिर भी इतने बड़े अखाड़े को चलाए रखने के लिए दर्शकों की जरूरत तो होती ही है। शो की अधिकांश कुर्सियां खाली देखकर चिन्ता होती है कि इस तरह ये सर्कस कितने'क दिन चलेंगे। जो कुछ कुर्सियां भरी दिखी भी तो लगा इनमें से कई तो मुफ्तिएं हैं। अच्छे-भले और कमाने-खाने वाले लोग भी ऐसे कूपनों की फिराक में दीखें तो यह मानने में देर नहीं लगेगी कि इस तरह यह सर्कस चल पाएंगे कि नहीं। वैसे भी जो समर्थ नहीं उनकी पहुंच मुफ्त के इन कूपनों तक होती भी नहीं है।
सर्कसों के अच्छे दिन समाप्त होने तब शुरू हो गए जब पिछली सदी के आखिरी दशक में जहां एक ओर मनोरंजन के क्षेत्र में निजी टीवी चैनलों ने जगह बनाईं वहीं 1990 में उच्चतम न्यायालय ने वन्य जीवों के ऐसे प्रदर्शनों पर रोक लगा दी। बाद इसके कुछ पालतू जानवरों के साथ जैसे-तैसे इन सर्कसों को चला रहे थे लेकिन अब तो ऐसे सभी तरह के जानवरों से करतबी काम लेने पर रोक लग गई, जो अवाम का मनोरंजन कर सकते हैं। यह अच्छी बात नहीं है कि निरीह जानवरों को जबरदस्ती प्रशिक्षित कर मनुष्य अपना मनोरंजन करें। लेकिन मानवीय हिड़काव के इस युग में पक्षियों और जंगली जानवरों के रहने-विचरने के नैसर्गिक स्थानों पर ही जब लगातार अतिक्रमण कर उन्हें खदेड़ा जाने लगा और जैविक पार्क विकसित कर उनमें जानवरों को अपनी जगहों से विस्थापित करवा रखा जाना भी कितना उचित है। विचार अब इस पर भी होना चाहिए।
सर्कस पर लौटते हैं, मनोरंजन के इस साधन की दुनिया में शुरुआत ईसवी सन् 1768 में इंग्लैण्ड से मानी जाती है। भारत में 1880 में इंग्लैण्ड से एक सर्कस आया। मुम्बई में हुए शो के दौरान सर्कस मालिक ने पहले शो के दौरान भारतीयों को खुली चुनौती दी कि दौड़ते घोड़े पर कोई खड़ा होकर करतब दिखा दे तो उसे पांच सौ पाउण्ड इनाम में दिए जायेंगे। शो में कोल्हापुर शासक के अस्तबल प्रशिक्षक विष्णुकांत छत्रे भी थे। छह माह में ही उन्होंने यह कर दिखाया और पांच सौ पाउण्ड पा भी लिए, पांच सौ पाउण्ड तब बहुत बड़ी रकम होती थी। बाद इसके छत्रे को सर्कस कम्पनी खोलने की सूझी इसके लिए केरल में तब मार्शल आर्ट की कक्षाएं चलाने वाले कीलेरी कुन्हीं कन्नन के सहयोग से ग्रेट इण्डियन सर्कस की शुरुआत की। कुन्हीं कन्नन की स्कूल के ही अन्य विद्यार्थियों ने सर्कस की कई कम्पनियां बनाईं और 1970-80 तक बहुत सफलता से इन्हें चलाया भी।
इनमें से कल्लन गोपालन ने 1920 में ग्रेट रैमन सर्कस की स्थापना की। इसका विशेष उल्लेख बीकानेरियों के लिए इसलिए भी है कि पिछली सदी के सातवें दशक के उत्तराद्र्ध में जेलवेल क्षेत्र में स्थित सादुल स्कूल के खेल मैदान में यह सर्कस लगा था। तब न तो राजीव मार्ग था और न ही लेडी एल्गिन स्कूल की तरफ से जेल टंकी की ओर जाने की कोई व्यवस्थित सड़क थी। शो के चालू होने के बाद सर्कस के प्रबन्धकों ने जद्दोजेहद से फोर्ट स्कूल का तब वही गेट खुलवाया जहां से अभी राजीव मार्ग शुरू होता है।
रैमन सर्कस की प्रस्तुतियां इतनी भव्य, दक्ष और तत्परता लिए होती थीं कि आज भी अन्य सर्कसों में दर्शक उसी को तलाशते रहते हैं। अन्य जंगली पशु-पक्षियों के साथ पानी में रहने वाले गेंडेनुमा दरियाई घोड़े का प्रदर्शन तब विशेष आकर्षण का केन्द्र होता था। जीपों से आसपास के गांवों में प्रचार के अलावा रैमन सर्कस ने शहर में शोभायात्रा भी निकाली जिसमें सभी स्त्री-पुरुष कलाकार झण्डे आदि विशिष्ट गणवेश में मार्च पॉस्ट कर रहे थे। यहां तक कि हाथी-शेर-भालू आदि ने भी उस शोभायात्रा में रोमांच पैदा किया। सर्कस तब बहुत ही दक्ष कलाकारों का आर्केस्ट्रा भी होता था। आजकल विवाह समारोह में आसमान की ओर फेंकी जाने वाली भारी भरकम टार्च की रोशनी तब पहली बार देखी गई। लोग तब ये बताते थे कि इससे पहले आया कमला सर्कस इससे भी भव्य था जो रानी बाजार स्थित खतूरिया गली में लगा था। रैमन सर्कस जब बीकानेर आया उससे थोड़ा पहले ही पानी के जहाज से विदेश जाते हुए कमला सर्कस का पूरा कारवां समुद्र में डूब गया। तैरना जानने वाले कुछेक वे कलाकार बचे जिन तक बचाव दल पहुंच सका। उन कलाकारों को रैमन सर्कस में तब सम्मान के साथ दर्शकों से केवल मिलवाया जाता था। यद्यपि आठ-दस वर्ष बाद रैमन सर्कस शहर में फिर आया लेकिन वैसी भव्यता नहीं थी। तब से अब तक छिट-पुट दसियों सर्कस अपने शो यहां कर चुके हैं। लेकिन जिन्होंने पिछली सदी के सातवें दशक में रैमन सर्कस के शो देखे हैं वे आज भी उसे उसी तरह याद करते हैं जैसे तब कमला सर्कस को याद करने वाले थे।
अब जब मनोरंजन का यह बड़ा साधन अपने बुरे दौर से गुजर रहा है, कहते हैं तब भी देश में छोटी-बड़ी 200 सर्कस कम्पनियां चालीस हजार लोगों को रोजगार उपलब्ध करवा रही हैं। बीकानेर के लोगों से अपील है कि इस कला को सुचारु रखने के लिए शो देखने का समय एकबार तो निकालें वह भी टिकट खरीद कर। सर्कस प्रबन्धकों से भी अपील है कि वे अपने कलाकारों को थुलथुल न होने दें, उन्हें चुस्त-दुरुस्त रहने के साधन उपलब्ध करवाएं और शो में अच्छे ऑर्केस्ट्रा के साथ करतबों में तत्परता दिखाएं। आजकल के सर्कसों में जोकर तो जोकर की तरह लगते ही नहीं हैं। थके-हारे खड़े रहते हैं, कुछ कहते-करते भी हैं तो हंसाते तो हरगिज नहीं, वे ये क्यों भूल जाते हैं कि पिछली सदी के बड़े फिल्मी कलाकार राजकपूर ने उन्हीं से प्रेरित होकर अपने जीवन की न केवल पूरी कमाई 'मेरा नाम जोकर' फिल्म बनाने में झोंक दी बल्कि कर्जदार भी हो गये थे।

10 दिसम्बर, 2015

No comments: