16 दिसंबर, 2012 की सामूहिक बलात्कार की घटना ने देश को झकझोरा था या यूं कहें संप्रग-दो की सरकार से निराश और गुस्साए जनसमूहों को शिथिल शासन के विरोध की वजह मिल गई। दोयम-तीयम और—और भी निचले दर्जों को मजबूर स्त्रियां ज्योतिसिंह/निर्भया जैसा पहले भी भुगतती रहीं हैं, और इस घटना के बाद भी भुगत ही रही हैं। आंकड़े बताते हैं कि दिसम्बर, 2012 के बाद दुष्कर्म की घटनाएं दिल्ली में ही 269 प्रतिशत बढ़ गई। इन आंकड़ों के मानी यह भी ले सकते हैं कि अपराध के आंकड़ों में ज्यादा अंतर नहीं आया होगा। हां, ज्योति के साथ घटित और उसके विरोध में उमड़े जनाक्रोश ने पीडि़त स्त्रियों को हौसला जरूर दिया है। अब पीडि़ताएं अधिकांशत: मामले दर्ज करवाने लगी हैं और पुलिस ने ऐसी पीडि़ताओं की एफआईआर दर्ज न करना/टरकाना भी कम कर दिया होगा।
ज्योतिसिंह/निर्भया के मामले के सजायाफ्ताओं में से एक अपराधी वारदात के समय नाबालिग था और कानून के अनुसार उसे तीन वर्ष बाद छूट जाना था, सो छूट भी गया। उसके छूटने से कुछ दिन पूर्व ज्योति के माता-पिता सक्रिय हुए, उन्होंने अपनी तकलीफ और जायज आक्रोश को इस अवसर पर पहली बार सार्वजनिक किया, ठीक-ठाक मिले जन समर्थन के चलते ही किशोर-अपराधियों संबंधी लंबित नया कानून पारित भी हो गया। इस नये कानून में क्या जुड़ा-घटा उसकी समीक्षा करना कानूनविदों का काम है और यह देखना भी कि कुछ जुड़ा है तो जायज है या केवल मुखर जन-भावनाओं की तुष्टि मात्र ही है। वैसे दुनिया के अधिकांश हिस्सों में यह माना गया है कि बाल और किशोर अपराधियों के सुधरने की गुंजाइश अवश्य छोड़ी जानी चाहिए।
इस बीच सक्रिय आन्दोलनकारियों और सोशल साइट से अपनी बात रखने वालों में से कइयों ने इस मुद्दे पर अपनी-अपनी बातें रखीं। कई चाहते थे कि बालिग हो चुके उस अपराधी को फांसी या ताउम्र की कैद दे दी जाय। कुछ ऐसे भी थे जो यह कहने में भी संकोच नहीं करते कि उसे जनता को सौंप दिया जाय और भीड़ जो सजा तय करे उसे तुरंत अंजाम तक पहुंचाने दिया जाय। ऐसी राय रखने वालों में शामिल कुछ ऐसे भी हैं जो अपने से अलग राय रखने और संजीदा माने जाने वालों के खिलाफ अनर्गल लिखने-कहने से नहीं चूकते। यहां तक कि वे उनकी बेटियों का हश्र ज्योतिसिंह जैसा देखने लगते हैं। सामान्य विमर्श में ही जो लोग इस स्तर तक पहुंच जाते हैं ऐसों के बारे में मनोविज्ञान के आधार पर यह माना जा सकता है कि इनमें और अपराधियों की मन:स्थिति में कोई बड़ा अंतर नहीं होगा। हो सकता है पोल मिलने पर वे खुद वैसा ही करें जो जघन्य कृत्य प्रतिदिन स्त्रियों के साथ होते हैं। अन्यथा 16 दिसम्बर, 2012 से पखवाड़े भर जैसा जन-आक्रोश चला उसे देखते हुए ऐसे अपराधों का आंकड़ा बजाय बढऩे के कुछ तो कम होना चाहिए था।
दरअसल अपराधी उसी मनोवैज्ञानिक दशा में होता है जो सामान्यत: समाज में ही पल्लवित होती है या कहें घटित अच्छा-बुरा समाज का बाइस्कोप ही होता है। आज जिस तरह के रहन-सहन और कार्य-व्यापार को समाज ने अपना लिया है उसमें सभी तरह के अपराधों की गुंजाइश न केवल बढ़ी है बल्कि मीडिया के आधुनिक साधनों से उनका संचरण आसान और इतना तीव्र हो गया कि विवेकहीन प्रतिक्रियाओं की बाढ़ सी आने लगी है। इस अति में हो यह रहा है कि ठिठक कर प्रतिक्रिया देने, दूरगामी और व्यापक हित में विचारने की गुंजाइश दिन-ब-दिन कम होती जा रही है।
कानूनी-दण्ड और सजाएं ही समाधान होते तो प्राचीन काल में और वर्तमान में भी कई देशों में सजा के कड़े प्रावधान हैं, बावजूद इसके अपराध नई-नई युक्तियों और गुंजाइशों से होते ही हैं। जरूरत दरअसल उन अनुकूलताओं की पड़ताल करने की है जिनके चलते सबसे सभ्य माने जाने वाले मनुष्य के मन में अपराध जगह बनाता है। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच, स्त्री-पुरुष के बीच, विभिन्न समूहों में सभी तरह की विषमताएं आक्रोश की आशंका बनाती हैं। वर्तमान व्यवस्था में समृद्धि और सामथ्र्य बढ़ाने में भ्रष्टाचार भी एक बड़े सहायक के रूप में देखा गया है। शासकों को भी इसी में अनुकूलता दीखती है और वे बिना संकोच किये भ्रष्टाचार में रमते भी रहे हैं। दुखद है कि लोकतंत्र में भी ऐसी प्रवृत्तियां लगातार बढ़ रही हैं।
इस पूरे दौर को या तो जैसे है वैसे ही अपनी दुर्गत को हासिल होने दें या निज से ऊपर उठकर व्यापक हित में विचारने वालों की बात को ताकत दें। ऐसा छिटपुट जब-जब भी होता है तब-तब सुकून और उम्मीदें बनाए रखता है। सोशलसाइट्स को देखें तो सही विचार भी व्यक्त हो रहे हैं। लेकिन इसके लिए धैर्य और विवेक, दोनों की जरूरत है लेकिन समर्थों में यही लगातार कम हो रहा है।
24 दिसंबर, 2015
ज्योतिसिंह/निर्भया के मामले के सजायाफ्ताओं में से एक अपराधी वारदात के समय नाबालिग था और कानून के अनुसार उसे तीन वर्ष बाद छूट जाना था, सो छूट भी गया। उसके छूटने से कुछ दिन पूर्व ज्योति के माता-पिता सक्रिय हुए, उन्होंने अपनी तकलीफ और जायज आक्रोश को इस अवसर पर पहली बार सार्वजनिक किया, ठीक-ठाक मिले जन समर्थन के चलते ही किशोर-अपराधियों संबंधी लंबित नया कानून पारित भी हो गया। इस नये कानून में क्या जुड़ा-घटा उसकी समीक्षा करना कानूनविदों का काम है और यह देखना भी कि कुछ जुड़ा है तो जायज है या केवल मुखर जन-भावनाओं की तुष्टि मात्र ही है। वैसे दुनिया के अधिकांश हिस्सों में यह माना गया है कि बाल और किशोर अपराधियों के सुधरने की गुंजाइश अवश्य छोड़ी जानी चाहिए।
इस बीच सक्रिय आन्दोलनकारियों और सोशल साइट से अपनी बात रखने वालों में से कइयों ने इस मुद्दे पर अपनी-अपनी बातें रखीं। कई चाहते थे कि बालिग हो चुके उस अपराधी को फांसी या ताउम्र की कैद दे दी जाय। कुछ ऐसे भी थे जो यह कहने में भी संकोच नहीं करते कि उसे जनता को सौंप दिया जाय और भीड़ जो सजा तय करे उसे तुरंत अंजाम तक पहुंचाने दिया जाय। ऐसी राय रखने वालों में शामिल कुछ ऐसे भी हैं जो अपने से अलग राय रखने और संजीदा माने जाने वालों के खिलाफ अनर्गल लिखने-कहने से नहीं चूकते। यहां तक कि वे उनकी बेटियों का हश्र ज्योतिसिंह जैसा देखने लगते हैं। सामान्य विमर्श में ही जो लोग इस स्तर तक पहुंच जाते हैं ऐसों के बारे में मनोविज्ञान के आधार पर यह माना जा सकता है कि इनमें और अपराधियों की मन:स्थिति में कोई बड़ा अंतर नहीं होगा। हो सकता है पोल मिलने पर वे खुद वैसा ही करें जो जघन्य कृत्य प्रतिदिन स्त्रियों के साथ होते हैं। अन्यथा 16 दिसम्बर, 2012 से पखवाड़े भर जैसा जन-आक्रोश चला उसे देखते हुए ऐसे अपराधों का आंकड़ा बजाय बढऩे के कुछ तो कम होना चाहिए था।
दरअसल अपराधी उसी मनोवैज्ञानिक दशा में होता है जो सामान्यत: समाज में ही पल्लवित होती है या कहें घटित अच्छा-बुरा समाज का बाइस्कोप ही होता है। आज जिस तरह के रहन-सहन और कार्य-व्यापार को समाज ने अपना लिया है उसमें सभी तरह के अपराधों की गुंजाइश न केवल बढ़ी है बल्कि मीडिया के आधुनिक साधनों से उनका संचरण आसान और इतना तीव्र हो गया कि विवेकहीन प्रतिक्रियाओं की बाढ़ सी आने लगी है। इस अति में हो यह रहा है कि ठिठक कर प्रतिक्रिया देने, दूरगामी और व्यापक हित में विचारने की गुंजाइश दिन-ब-दिन कम होती जा रही है।
कानूनी-दण्ड और सजाएं ही समाधान होते तो प्राचीन काल में और वर्तमान में भी कई देशों में सजा के कड़े प्रावधान हैं, बावजूद इसके अपराध नई-नई युक्तियों और गुंजाइशों से होते ही हैं। जरूरत दरअसल उन अनुकूलताओं की पड़ताल करने की है जिनके चलते सबसे सभ्य माने जाने वाले मनुष्य के मन में अपराध जगह बनाता है। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच, स्त्री-पुरुष के बीच, विभिन्न समूहों में सभी तरह की विषमताएं आक्रोश की आशंका बनाती हैं। वर्तमान व्यवस्था में समृद्धि और सामथ्र्य बढ़ाने में भ्रष्टाचार भी एक बड़े सहायक के रूप में देखा गया है। शासकों को भी इसी में अनुकूलता दीखती है और वे बिना संकोच किये भ्रष्टाचार में रमते भी रहे हैं। दुखद है कि लोकतंत्र में भी ऐसी प्रवृत्तियां लगातार बढ़ रही हैं।
इस पूरे दौर को या तो जैसे है वैसे ही अपनी दुर्गत को हासिल होने दें या निज से ऊपर उठकर व्यापक हित में विचारने वालों की बात को ताकत दें। ऐसा छिटपुट जब-जब भी होता है तब-तब सुकून और उम्मीदें बनाए रखता है। सोशलसाइट्स को देखें तो सही विचार भी व्यक्त हो रहे हैं। लेकिन इसके लिए धैर्य और विवेक, दोनों की जरूरत है लेकिन समर्थों में यही लगातार कम हो रहा है।
24 दिसंबर, 2015
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