प्रदेश में वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्रित्व के दो वर्ष पूरे हो रहे हैं।
राजनेताओं की ओर से आकलन किया जाय तो पांच वर्षों का कार्यकाल कोई लम्बा नहीं होता,
चुटकियों में गुजर जाता है। लेकिन किसी क्षेत्र-विशेष और
शहर की उम्मीदों के सन्दर्भ से बात करें तो समय कुछ ज्यादा ही लम्बा अहसास देता
है। वर्ष 2003 से 2008 तक के वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्रित्व की हाल के इन दो
वर्षों से तुलना करें तो यह कहीं नहीं ठहरता। तब भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व न
केवल कमजोर था बल्कि सत्ताधारी क्षेत्रीय क्षत्रपों पर आश्रित भी था। अब जब
वसुंधरा के भी समकक्ष रहे नरेन्द्र मोदी और अधीनस्थ से रहे अमित शाह की जोड़ी डांग
और अपने धनपतियों के बूते सत्ता और पार्टी पर काबिज है तब क्षेत्रीय क्षत्रपों और
मोदी-शाह की जोड़ी के बीच शीत युद्ध की सी स्थितियां हैं। ऐसी स्थितियों में
भुगतती जनता ही है। इन दो वर्षों में वसुंधरा राजे ऐसे दौरे से गुजरी हैं कि शायद
उन्हें भान ही नहीं रहा कि जनता से किए किन वादों से वे सत्ता पर काबिज हुईं।
शासन-प्रशासन पर लगातार नजर रखने वालों को यह भ्रम होने लगता है कि प्रदेश में राज
किसी चुनी हुई सरकार का है या राष्ट्रपति शासन के माध्यम से प्रदेश को प्रशासकीय
अमला चला रहा है।
वसुंधरा जब से सत्ता में आई हैं तब से कुछ विशेष नहीं कर पा रहीं। कह सकते हैं
उनके सत्ता संभालने के साथ ही नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव अभियान
शुरू हो गया। मोदी और वसुंधरा दोनों ही सर्वसत्तावादी मानसिकता वाले भले ही हों
लेकिन दोनों की कार्यशैली में झीना अन्तर यह है कि मोदी जहां अधिनायकत्व शैली में
ही काम करते हैं वहीं वसुंधरा सामन्ती शैली में। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यद्यपि
दोनों ही कार्यशैलियां स्वीकार्य नहीं हैं मगर जब किसी एक को चुनने की मजबूरी हो
तो अधिनायकत्व से सामन्तशाही को कम अमानवीय कह सकते हैं। इस भारत देश ने सामन्ती
सनकों को बहुत भोगा है लेकिन अधिनायकत्व के चरम रूप हिटलर की कल्पना ही सिहरा देती
है।
भारी बहुमत के साथ मोदी-शाह के केन्द्र मेंं काबिज होने के बाद ठिठकी वसुंधरा
में जुम्बिश अभी तक नहीं लौटी है। वह यह अच्छी तरह जानती हैं कि मौका मिलते ही
मोदी-शाह की कम्पनी उन्हें समर्पित न होने वालों के बट कैसे निकालती है। यही कारण
है कि पिछले वर्ष आए हरियाणा, महाराष्ट्र के चुनावी नतीजे
और उनमें मोदी-शाह की सफलता के बाद वह कुछ ऐसी सहमीं कि इस वर्ष शुरू के दिल्ली
विधानसभा चुनाव के मोदी-शाह को धो देने वाले नतीजों के बाद भी आत्मविश्वास नहीं
लौटा पायीं।
बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजे नीतीश के अनुकूल हों ऐसा चाहने वाले केवल
नीतीश के शुभचिन्तक ही नहीं, भाजपा का एक बड़ा समूह भी
अपनी पार्टी की पराजय की कामना कर रहा था जो मोदी-शाह की कार्यशैली से खफा है और
नापसंद करते हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के
मुख्यमंत्रियों को लगने लगा था कि बिहार में यदि मोदी-शाह का गिरोह सफल होता है तो
सब से पहले उन्हें हटाकर ये लोग अपने प्यादे बिठायेंगे। बिहार के मतदाताओं ने ऐसे
भाजपाइयों को सुकून ही बख्श दिया है। बिहार के परिणाम आए को ठीक-ठाक समय बीतने के
बाद भी वसुंधरा अपने पिछले कार्यकाल के जलवे की ओर नहीं लौट पा रही हैं। लगता है
वे अभी मोदी-शाह को भांपने में लगी हैं।
पांच वर्ष के कार्यकाल में दो वर्ष कम नहीं होते। एक वर्ष और गुजरा नहीं कि
उलटी गिनती की बारी आ जायेगी। वसुंधरा न जनता के लिए कुछ करने की मन:स्थिति में
लगती हैं और ना ही अपने दरबारी नेताओं का भला कर पायी हैं। कार्यकर्ताओं का नम्बर
तो अभी दूर की बात है। अवाम के काम-धाम की उम्मीद तो तब की जा सकेगी जब वसुंधरा
अपने 'बेरोजगार' दरबारी नेताओं और कार्यकर्ताओं को कहीं फिट कर दे।
दो वर्ष के कार्यकाल के जश्न के तर्क न पार्टी संगठन को सूझ रहे हैं और न ही
सरकारी अमले को पर इधर रीत का रायता बनाने की कवायद शुरू हो चुकी है। संकट उन
अफसरों पर है जिन्हें इन निठल्ले दो वर्षों की बिरुदावली न केवल गानी है बल्कि
मुख्यमंंत्री सहित मंत्रियों और संगठन के उच्च पदस्थों की उपलब्धियों की फेहरिस्त
भी देनी है। जीरो उपलब्धियों को सूचीबद्ध करना कम चुनौतीपूर्ण नहीं होता। अफसरों
की भाषाई प्रतिभा भले कोई काम आ जाए लेकिन अधिकांश अफसरों के पास इस प्रतिभा का
अभाव ही दिखता है।
पिछले वर्ष 10 अक्टूबर के 'विनायक' में लिखे गए संपादकीय 'वसुंधरा राजे : न वो नखरा, न जलवा और न ही इकबाल' शीर्षक आलेख की इन पंक्तियों
का उल्लेख आज भी प्रासंगिक लगता है-
हाइकमान अब राजनाथसिंह जैसे धाका-धिकयाने वालों की नहीं रही। मोदी-शाह एसोसिएट
फिलहाल न केवल हीक-छडि़ंदे की मुद्रा में है बल्कि इन्होंने मौके का फायदा उठाकर
अनुकूलताएं इतनी बना ली कि वे वसुन्धरा जैसों का नखरा भांगने का दुस्साहस भले ही न
करें पर उनमें पिंजरे के पंछी की फडफ़ड़ाहट तो पैदा करवा ही सकते हैं।
पिछले कई माह से वसुन्धरा को शासन में आप-मते कुछ करने की छूट न देकर हाइकमान
ने अपनी हैसियत जता ही दी है। मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों की सूची
लेकर पखवाड़े भर पहले गई वसुन्धरा को इसके लिए पहले तो डेरा डालने को मजबूर कर
दिया और फिर बैरंग लौटा दिया। यह वसुन्धरा के लिए बर्दाश्त के बाहर था। बट-बटीजती
वसुन्धरा ने इशारों-इशारों में ही सही कल पहली बार यह कह कुछ साहस दिखाया कि पिछले
चुनावों में पार्टी की सफलता का श्रेय किसी एक व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता। राजे
का इशारा सीधे-सीधे नरेन्द्र मोदी की ओर है।
3 नवम्बर, 2015
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