Wednesday, March 20, 2019

लोकसभा चुनाव : बिछती बिसात पर सरसरी

लोकसभा चुनाव पर क्रिकेट की शब्दावली में कहें तो मैच आसन्न है। लेकिन टीमें ही तय नहीं हैं। टीम बनाने में भाजपा आगे है तो विपक्षी दल अभी अपने-अपने खिलाड़ी तय करने में ही लगे हैं बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि विपक्ष गठबंधन की बनने वाली टीम में अपने अधिकतम खिलाडिय़ों को घुसाने में ही लगे हैं। भाजपा टीम को हराना सभी चाहते हैं, लेकिन अपनी-अपनी जीत के साथ। भाजपा को अच्छे से पता है कि 2014 वाली अनुकूलताएं तो रही दूर की बात, लाले सरकार बनने के भी पड़ सकते हैं। यही वजह है कि मोदी-शाह जैसे घोर हेकड़ीबाज जिन्हें भी साध सकते हैं उन छोटे-छोटे दलों को अपमानित होकर भी साधने में लगे हैं।
संघ और भाजपा ने मान लिया है कि यह चुनाव उनके लिए जीतो या मरो से कम नहीं। मोदी सरकार ने संघ के ऐजेन्डे को लागू करने के सिवाय कुछ किया होता तो यह स्थितियां नहीं होती। भाजपा को अपने बूते स्पष्ट बहुमत ना भी मिलेराष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन को तो मिल ही जाता। दुनिया का इतिहास गवाह है कि घोर अलोकतांत्रिक विचार वाली पार्टियां सत्ता बनाए रखने या सत्ता पर काबिज होने के लिए जो-जो हथकण्डे अपनाती रही हैं, संघ और भाजपाई उन सभी हथकंडों को समयानुकूल परिवर्तनों के साथ अपना रहे हैं। भाजपा सरकार ने राजद के लालूप्रसाद यादव को जिस तरह अन्दर करवा रखा है, उन्हें दिखा-दिखा कर सपा-बसपा नेताओं को भी भीगी बिल्ली बना दिया है। भ्रष्टाचार से ओत-प्रोत व्यावहारिक राजनीति के भ्रष्ट नेताओं में से एक लालू का खम ठोक कर खड़े रहना और बूढ़े पिता के लिहाज से अखिलेश का और मायावती का शासन के दिखाये भय से कठपुतली बन जाना राजनीतिक इतिहास में दर्ज हो रहा है। खैर, लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सबक सभी को देती है, सबक की क्लासें लम्बी हो सकती हैं, बस।
देश में सर्वाधिक राज कांग्रेस ने किया। बहुत कुछ किया भी है, तभी देश आज अंतरराष्ट्रीय फलक पर सम्मानजनक अवस्था में है। बहुत कुछ नहीं भी किया। जो सब से जरूरी नहीं किया, वह है जनता को एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर शिक्षित करना, यह ऐसा अनकिया  है जिसका सर्वाधिक खमियाजा स्वयं कांग्रेस भोग रही है। राजनीति और शासन व्यवस्था में गड़बडिय़ों में अनुकूलता ऐसी शिक्षा के अभाव में ही बनी है। अब तक के अनकिये को किया करना तत्काल संभव नहीं होता। कांग्रेस और अन्य पार्टियों की ऐसी मंशा भी नहीं है। इसलिए सभी पार्टियां और नेता तात्कालिक मुद्दों की तलाश में रहते हैं, नहीं मिलता है तो मुद्दे खड़े कर लेते हैं। रफाल ऐसा ही मुद्दा है, इसमें सन्देह नहीं कि यह घोटाला नहीं है वरन् इस राज का इससे भी बड़ा घोटाला फसल बीमा का है। इन महती कामों को निजी हाथों में सौंपना ना केवल सार्वजनिक क्षेत्र को फेल करना है, बल्कि मंत्रिमंडलीय शासन प्रणाली को नकारना भी है। कांग्रेस बजाय अब तक रही अपनी कमियों, गलतियों को स्वीकारने और मोदी सरकार की विफलताओं को गिनाने के, वे केवल रफाल का जाप ही कर रही है। भ्रष्टाचार को आयठाण मान चुके इस देश में अब यह मुद्दा बहुत प्रभावी नहीं रह गया है।
अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस का लक्ष्य स्पष्ट बहुमत पाना है ही नहीं। वह जैसे-तैसे 100-125 सीट लाने की जुगत में है ताकि या तो विपक्षी गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर सके या विपक्ष में सम्मानजनक स्थिति पा सके। वहीं मोदी-शाह स्पष्ट बहुमत की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं ताकि पार्टी और शासन में पुन: केवल उन्हीं की चल सके, जिसकी ऐसी उम्मीद फिलहाल कम ही लग रही है।
भाजपा यदि 175 के पार सीटें जीतती है तो सरकार चाहे बना ले, मोदी प्रधानमंत्री नहीं होंगे। ऐसी स्थिति में वे खुद ही किनारा कर लेंगे। जैसे तैसे बन भी गए तो साल-छ: महीने में उखड़ जायेंगे, क्योंकि राज करने की जिस तरह की उनकी फितरत है वह सब तो गठबंधन सरकार में संभव नहीं होगा। भाजपा को स्पष्ट बहुमत के चलते अभी का गठबंधन रस्म अदायगी भर है। मोदी-शाह का पार्टी और शासन से बाहर होना ना केवल देशहित में होगा बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में भाजपा के एक पार्टी होने के नाते खुद उसके दूरगामी हितों में भी है, ऐसा अटलबिहारी वाजपेयी ना केवल मानते-समझते रहे बल्कि वैसा ही व्यवहार भी करते थे।
वामपंथी पार्टियां विचार के बावजूद मुख्यधारा से बाहर इसलिए होती जा रही हैं कि वह राजनीति की व्यावहारिक प्रयोगशाला में प्रयोग के यूरोपियन तरीके नहीं छोडऩा चाहती, वह ना भारतीय समाज व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में व्यवहार करती हैं और ना ही यहां की तासीर से वाकिफ होना चाहती हैं।
भारत में जो भी अन्य प्रादेशिक दल हैं उनमें से अधिकांश व्यक्ति या परिवार आधारित हैं। स्थानीय मुद्दों को लेकर बने दल भी या तो किसी परिवार के अधीन हो लिए या स्थानीय चामत्कारिक व्यक्तित्व के। जिनके साथ ऐसा नहीं है, वे गौण हो रहे हैं। इनमें कश्मीर की पीडीपी, नेशनल कान्फे्रंस से लेकर पंजाब के अकाली दल, उत्तरप्रदेश में समाजवादी दल और बहुजन समाज पार्टी, बिहार का राष्ट्रीय जनता दल, बंगाल में तूणमूल कांग्रेस, असम में असम गण परिषद और अन्य प्रदेशों के अपने-अपने स्थानीय फ्रंट हो सकते हैं। ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र में शिवसेना, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, ओडिशा में बीजू जनता दल, झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्रीय समिति और आंध्र में तेलगुदेशम पार्टी और वाइएसआर कांग्रेस, कर्नाटक में जनता दल (सेक्यूलर), तमिलनाडु में डीएमके-एआइडीएमके के बारे में कह सकते हैं। इनमें अकाली दल, एआइडीमके, शिवसेना इन चुनावों में भी भाजपा के साथ है।
उल्लेखित प्रादेशिक दलों में अधिकांश भाजपा के वर्तमान नेतृृत्व के तौर-तरीकों से सहमत नहीं हैं, लेकिन वे अपने अस्तित्व की कीमत पर उस कांग्रेस के साथ भी गठबंधन नहीं करना चाहते जो खुद अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही अन्यथा मोदी-शाह के खिलाफ हैं सब। जैसा कि जिक्र किया इनमें सपा-बसपा का मामला अलग है और इन दोनों पार्टियों के नेतृत्व को ना चाहते हुए भी मोदी-शाह की रणनीति के अनुसार खेल खेलना पड़ रहा है।
कुल मिलाकर इस चुनाव में भी बिसात पिछले हर चुनाव की तरह भिन्न है। बाजी किसी के पक्ष में जाए, इस भिन्न दीखती बिसात की सरकार भी भिन्न होगी।
—दीपचन्द सांखला
20 मार्च, 2019

Thursday, March 14, 2019

मीडिया की साख और अस्तित्व पर संकट

बात राजद नेता के उस पत्र से शुरू करते हैं जिसके माध्यम से तेजस्वी यादव ने विभिन्न विपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं से अपील की है कि वे उन टीवी चैनलों का बहिष्कार करें जो एक एजेण्डे के तहत पार्टी-विशेष को चुनावी लाभ दिलाने के लिए विपक्षी दलों की छवि खराब कर रहे हैं। तेजस्वी बदनाम-मसखरे लालूप्रसाद यादव जैसे नेता के राजनीतिक वारिस चाहें हों, लेकिन वे अपनी बात संजीदगी से कहते हैं। वर्तमान हैसियत उन्हें वंशवाद के चलते चाहे मिली हो लेकिन अपने समकक्ष वारिसों से ज्यादा परिपक्वता से वे पेश आते हैं।
जातिवाद, वंशवाद, धर्मांधता जैसी बुराइयां फिलहाल भारतीय समाज की वह बुराइयां हैं जिनसे छूट पाने का ना तात्कालिक उपाय कोई है और ना ही भगीरथ प्रयास कोई करता दीख रहा। इसमें कुतर्क यह आ सकता है कि फिर राजाओं-नवाबों का राज ही क्या बुरा था। बुरा था, उसमें वारिस व्यक्ति, दम्पती या परिवार तय करता था जिसे मानना प्रजा की मजबूरी थी। आज के वंशवाद को चला चाहे राजनेता रहे हों, उसे स्वीकारना-दुत्कारना जनता के हाथ है। कई नेताओं के वारिसों का हाशिए पर होना इसकी पुष्टि करता है। अब तो संघ पोषित भाजपा भी इससे मुक्त नहीं है। वामपंथी पार्टियां अपवादों में गिनायी जा सकती हैं वहां यह संभव इसलिए है कि उनकी बणत भारतीय नहीं है, इसी वजह से इनका सर्व स्वीकार्य होना संदिग्ध है। भारत जैसे देश को सुधारा और चलाया इसकी तासीर के अनुरूप ही जा सकता है। यह बात ना वामपंथियों की समझ में आई है और ना राष्ट्रवाद जैसे पश्चिमी अवधारणा से चलने वाले संघ और इसकी अनुगामी भाजपा के।
बात मीडिया के हवाले से शुरू की, वहीं लौटते हैं। भारतीय मीडिया चाहे इस वहम में जी रहा है कि उसे लोकतंत्र का चौथा पाया माना जाता है, लेकिन यह केवल धारणा है, संविधान सम्मत नहीं। संविधान सम्मत लोकतंत्र के तीन ही पाए हैंव्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। चढ़ाने की गरज भर से लोकतंत्र का चौथा पाया बता-बता कर मीडिया के वहम के गुब्बारे को इतना फुला दिया गया कि वह नियति के उस कगार पर पहुंचने को है जहां उसे फटना ही है।
भारतीय, खासकर हिन्दी मीडिया के संदर्भ से बात करें तो प्रिन्ट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के ये दोनों आयाम फिलहाल अंधेरे को हासिल हो गये हैं। व्यवसाय ही नहीं, धंधा बन चुके मीडिया के लिए पत्रकारिता के मूल्यों और आदर्श की बात करना 'भैंस के आगे बीन बजाना' जैसा है। मीडिया समूहों के मालिकों का तो क्या कहेंजो तथाकथित पत्रकार, संपादक, स्टींगर, न्यूज एंकर हैं, उन्होंने तो व्यवस्था के आगे समर्पण ही कर दिया है। अधिकांश तो अधजल गगरी छलकत जाय के साक्षात उदाहरण हैं। अधिकांश पत्रकार हेकड़ी और आत्मसम्मान तथा अधिकारों और लालच में अन्तर ही नहीं समझते। समाज के किसी प्रभावी व्यक्तित्व या राजनेता के दिए अतिरिक्त मान और तवज्जो की मंशा को समझने और ना समझने वाले-दोनों ही तरह के मीडियाकर्मी ऐसे मान-तवज्जो पर मुग्ध होने से नहीं बच पाते हैं।
बीते पांच-छह वर्षों में कर्तव्यच्युत हुए मीडिया समूह देश-धर्म की भी परवा नहीं कर रहे हैं। वजह साफ है कि मीडिया समूहों को चलाने वालों का अपनी कमाई लगातार बढ़ाने के सिवाय अन्य कोई मकसद होता ही नहीं है। वहीं पत्रकार अपनी आजीविका को बनाए और बचाए रखने की जुगत में पेशेवर मूल्यों को या तो त्याग चुका है या ऐसी उसकी समझ विकसित ही नहीं हो पाई है। आजादी के आन्दोलन के समय जो भारतीय पत्रकारिता सभी तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद कर्तव्यच्युत नहीं हुई, उसी का वारिस आज का मीडिया आजादी बाद की अनेक अनुकूलताओं के होते हुए भी यदि अपनी साख बनाए-बचाए नहीं रख रहा है तो अपने महत्त्व और जरूरत को वह खुद ही खत्म कर लेगा।
आजादी बाद जिस महती जिम्मेदारी की ओर ध्यान नहीं दिया गया, वह हैजनता को एक लोकतांत्रिक देश का नागरिक होने के तौर पर प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी। यह जिम्मेदारी तीन संवैधानिक आधार स्तम्भों व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका की तो थी ही। चौथे मानद स्तम्भ मीडिया की भी कम नहीं थी। इस जिम्मेदारी के प्रति इन चारों स्तम्भों के उदासीन रवैये के चलते हुआ यह कि उक्त तीनों संवैधानिक संस्थाओं तक पहुंचने वाले लोगों में से अधिकांश में संवैधानिक नागरिक होने का अभाव नजर आता है। इसका प्रत्यक्ष खमियाजा अब तक अधिकतम शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस ने तो भुगता ही है पर असल में नुकसान देश का हो रहा है। गैर-संवैधानिक विचार वाले समूहों का बोलबाला बढ़ गया। मीडिया इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार इसलिए है कि उसने कभी भी ऐसी अपनी जिम्मेदारी की ओर ध्यान नहीं दिया जबकि तीनों संवैधानिक स्तम्भों को इस जिम्मेदारी का लगातार अहसास करवाने का काम मीडिया का ही था। खुद मीडिया भी इसी कारण से संवैधानिक मूल्यों के साथ काम करने वालों की कमी से जूझ रहा है। बाकी के तीन स्तम्भों को तो सम्भालने की जिम्मेदारी संविधान की है। लोकतंत्र का मान लिया गया चौथा स्तम्भ मीडिया यह भूल गया कि उसे अपनी हैसियत तो खुद बचाये रखनी है। इस घोर प्रतिकूल समय में अपनी साख और हैसियत दोनों को मीडिया के लिए जैसे-तैसे भी बचाना जरूरी है। इस ओर सक्रिय होने का समय यही है, अन्यथा इतिहास मीडिया को भी कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूकेगा।
—दीपचन्द सांखला
14 मार्च, 2019

Thursday, March 7, 2019

मोदीजी! देश ने आपको प्रधानमंत्री चुना है


एतराज करने वाले कह सकते हैं कि मोदीजी देश के प्रधानमंत्री हैं, पद की गरिमा का खयाल रखें। इसका जवाब यह है कि जो खुद बीते पांच वर्षों से इस पद की गरिमा को जार-जार करने में ही जुटा हो उनकी गरिमा का कैसा लिहाज? हम संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और अपने चुने प्रतिनिधियों की नीर-क्षीर आलोचना करने का हमें संवैधानिक हक हासिल है, उसी का उपयोग कर रहे हैं। जिन्हें इसके उलट लगता है, वे विरुदावलियां गाते रहें, उन्हें भी कौन रोक रहा है। कहा यह भी जा सकता है कि पिछले प्रधानमंत्रियों के लिए तो ऐसा नहीं कहा गया। ऐसा इतिहास से अनभिज्ञ ही कह सकते हैं। 1967 के चुनावों से सक्रिय रहा हूंंतब की नासमझी से लेकर थोड़े बाद की अधकचरी समझ से और फिर 1993 तक सक्रिय राजनीति कर सत्ता-व्यवस्था की ना केवल जमकर आलोचना करता रहा हूं बल्कि सड़कों पर उतरा हूं। इस दौरान जिन प्रधानमंत्रियों का जमकर विरोध किया उनमें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी दोनों शामिल हैं। 1993 के बाद सक्रिय राजनीति छोड़ दी तब से विरोध का तरीका जरूर बदल गया लेकिन कर्तव्यच्युत नहीं हुआ।
इस जरूरी प्रारंभिक घोषणा के बाद शीर्षक पर आ लेते हैं। प्रधानमंत्री मोदी 2013 में जब से भाजपा के नेता के तौर पर केन्द्र की राजनीति में आए, तब से इनके भाषणों का पुनरावलोकन कर लें, शायद ही कोई भाषण निकलेगा कि जिसमें कोई झूठ ना बोला गया हो, गुमराह नहीं किया गया हो, किसी पर भद्दा व्यंग्य ना किया गया हो। इतना भर ही नहीं, प्रधानमंत्री बनने के बाद कोई भी सार्वजनिक भाषण उनका ऐसा नहीं रहा जो चुनावी भाषण ना लगे। यहां तक कि औपचारिक सरकारी आयोजन के उद्बोधनों और विदेश में किए भाषणों में अब तक के प्रधानमंत्रियों ने जो गरिमा और मर्यादाएं कायम की थीं, उन सभी को मोदीजी ने ध्वस्त किया है।
2013-14 के चुनावों से पूर्व मोदीजी ने देश की जनता के साथ जो-जो वादे किए उन्हें गिनाना अनावश्यक विस्तार से बचने के लिए जरूरी लगता है। इनमें से किसी एक भी वादे को पूरा करने की मंशा मोदीजी ने जताई हो तो बताएं। बीते 65 वर्षों का स्यापा लेकर ना बैठें। किसी एक भी वादे पर मोदीजी खरे नहीं उतरे हैं। अलावा इसके प्रधानमंत्री बनने के बाद जिन नई योजनाओं की घोषणा की गई, उनमें से अधिकांश तो पुरानी योजनाओं में मामूली फेरबदल के साथ नये नामों की घोषणाएं भर हैं, बावजूद इस सब के सभी योजनाओं में या तो शिथिलता आयी है या औंधे मुंह गिरी हैं। मोदीजी द्वारा घोषित आदर्श ग्राम योजना, स्मार्ट सिटी योजना और उज्ज्वला योजना किस हश्र को हासिल हुई हैं, थोड़ा देख लें।
उपलब्धियां बताने के लिए योजनाओं के परिणामों के आंकड़ों के मानक बदले गये। उदाहरण के तौर पर नये बने राष्ट्रीय राजमार्गों की लम्बाई के आंकड़े अंतरराष्ट्रीय मानक की आड़ देकर डबल, ट्रिपल, फोर लेन, छह लेन के निर्माण के आंकड़े को दुगुना-तिगुना, चार-छह गुणा बता कर सड़कों के एकल लम्बाई के पिछले आंकड़ों से तुलना कर अपनी पीठ थपथपाई जा रही है। ऐसा ही सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आधार को बदल कर गुमराह किया गया। नोटबंदी लागू करने के मूर्खतापूर्ण निर्णय और अनाड़ीपने से लागू की गई जीएसटी प्रणाली के परिणाम न केवल पूरे देश का व्यापार जगत बल्कि देश की अर्थव्यवस्था भुगत रही है। इन दो निर्णयों से लडख़ड़ाई अर्थव्यवस्था अभी तक संभलने का नाम नहीं ले रही। सरकार के मूर्खतापूर्ण अधिनायकत्वी निर्णयों से किनारा कर महती जिम्मेदारियां संभालने वाले पद छोडऩे लगे हैं। इनमें रिजर्व बैंक के दो गवर्नर और देश के वित्तीय सलाहकार के अलावा नीति आयोग के सदस्य तक शामिल हैं।
भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बनाकर सत्ता में आए मोदीजी ने जहां अंबानी-अडानी जैसों को निहाल कर उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के तरीके बदल दिए हैं वहीं इन्हें चौड़े लाने वाली संवैधानिक इकाइयों को पंगु बना दिया। सूचना के अधिकार कानून को खुद प्रधानमंत्री कार्यालय नहीं मानता, वहीं सीबीआई और सीएजी जैसी जांच एजेंसियों का दुरुपयोग जिस तरह किया जा रहा है, वह  किसी से छिपा नहीं। कांग्रेस इनका उपयोग दिखाऊ संकोच के साथ एक सीमा में ही करती आई वहीं मोदी सरकार ने सीएजी और सीबीआई का दुरुपयोग जिस निर्लज्जता के साथ किया वह मिसाल बन रहा है। निचले स्तर के भ्रष्टाचार पर कमी कहीं नहीं दिख रही बल्कि लोकतंत्र के जिस सबसे कलंकित आपातकाल में भी भ्रष्टाचार पर अंकुश दिखने लगा था, वह शेखी बघारू मोदीजी के कार्यकाल में विकराल हुआ है। रोजमर्रा के कामों की रिश्वत की दरें पिछले पांच वर्षों में कितने गुना हो गई, जिनका वास्ता सरकारी कार्यालयों से पड़ता हैउन अपने निकटस्थों से इसकी पुख्ता जानकारी कर लें।
बढ़ते बलात्कार, कानून व्यवस्था की बदहाली, आतंकवाद की बढ़ी वारदातें और उनसे बढ़ी कैजुअल्टीज में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी मोदीजी के कानून के राज की पोल खोलती है। विदेशनीति को मोदीजी द्वारा भायलेपने जैसे अनाड़ीपने से साधने के परिणाम सामने आने लगे हैं। जब मालदीव, नेपाल जैसे छोटे पड़ोसी देश ही मोदी को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं तो बड़े देशों से उम्मीद कैसी? वाट्सएप पर आइटी सेल की देश-विदेश संबंधी अधिकांश खबरें प्रामाणिक नहीं होती, इन पर भरोसा ना करें। विदेशों में मोदीजी की साख विदेशी मीडिया को पढ़-देख कर समझी जा सकती है। अधिकांश विदेशी मीडिया की निष्पक्षता पर सन्देह नहीं किया जा सकता। बानगी के तौर पर हाल की भारत-पाकिस्तान के बीच हवाई लड़ाई का न्यूयार्क टाइम्स ने निचोड़ दिया है कि इसमें भारत की हेटी हुई है।
किसी मंत्रालय को स्वतंत्रता ना देना और विदेश, रक्षा, गृह जैसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों को संभालने वाले सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण या राजनाथसिंह की हैसियत खेत में खड़े बिजूका सी बना दी गई। अपने मंत्रालय से संबंधित कामकाज तक की जानकारी इन्हें नहीं होती। ताजा घटनाक्रम को लें तो बालाकोट पर वायुसेना की कार्रवाई की वाररूम की बैठकों में रक्षामंत्री को बुलाना तो दूर, बताया तक नहीं गया। ऐसी नियति ही विदेश मामलों में सुषमा स्वराज की है और ऐसा ही हाल राजनाथसिंह का, इन्हें अपने विभागों के कई महत्त्वपूर्ण कार्यकलापों की जानकारी मीडिया से मिलती है। इन दिग्गजों का जब यह हाल है तो छुटभैया मंत्रियों की औकात क्या समझ लें। सभी मंत्रालय सचिवों के माध्यम से या तो खुद मोदीजी हैण्डिल कर रहे हैं या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह। संसदीय प्रणाली का ऐसा हश्र इससे पूर्व नहीं देखा गया। दिन के प्रत्येक आयोजन में नये कोरे कपड़े पहनना, उसके लिए ड्रेस डिजाइनर से डिस्कशन, ब्यूटीशियन को प्रतिदिन सिटिंग देना, डायटिशियन और हेल्थ एडवाइजर को समय देने आदि-आदि के अलावा अपने को सजाए रख या तो चुनावी भाषण देना या अम्बानी अडानी जैसों के लिए देश-विदेशों में काम दिलवाने के लिए यात्रा करने के अलावा मोदीजी काम के 18 घण्टों में और क्या करते हैं, आरटीआई बता दे तो पूछ लें। ये भी पता कीजिए प्रधानमंत्री के तौर पर मोदीजी अपने कार्यालय में कितने घंटे बैठते हैं।
आतंकवादी घटनाओं के बीते दस वर्षों के सरकारी आंकड़े ही देखें जो कम होने की बजाय बढ़े हैं। 2014 के बाद की 12 बड़ी आतंक की घटनाएं जो मोदी राज में ही हुई हैंउड़ी-मोहरा हमला : दिसम्बर 2014, मणिपुर में सेना पर हमला : जून 2015, गुरदासपुर का हमला : जुलाई 2015, पठानकोट हमला : जनवरी 2016, अनंतनाग हमला : जून 2016, पंपोर हमला : जून 2016, खाना बाग हमला : अगस्त 2016, पुंछ हमला : सितम्बर 2016, उड़ी हमला : सितम्बर 2016, अमरनाथ यात्रियों पर हमला : जुलाई 2017, पुलवामा सीआरपीएफ कैम्प पर हमला : दिसम्बर 2017 और अभी 14 फरवरी 2019 को पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हमला। यह सभी हमले इंटैलिजेंस फैल्योर के नतीजे हैं जिसकी जिम्मेदारी कहने भर को गृहमंत्री राजनाथसिंह की है लेकिन बिजूका गृहमंत्री पर कुछ भी वार करो कुछ नहीं होना।
पुलवामा सीआरपीएफ काफिले पर हमले की अपनी खुफिया कमी को आड़ देने के लिए प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी कि हमने सेना को खुली छूट दे दी कि समय और स्थान खुद तय कर कार्रवाई करें। इससे पहले भी सेना सर्जिकल स्ट्राइक करती रही है और जरूरत होने पर एलओसी पार हवाई हमले भी। लेकिन उसकी पूर्व मुनादी कभी नहीं होती थी। डपोरशंखी मोदीजी से रहा नहीं गयाऐसी घोषणा के बाद कोई आतंकवादी समूह अपने ठिकाने बार-बार नहीं बदलेंगे, ऐसा मानना मासूमियत है। शायद इसीलिए बालाकोट में चाही गई सफलता सेना को नहीं मिली हो। लेकिन मोदीजी और इनके अनुगामी उसे नहीं मानते। विंग कमांडर अभिनंदन की गुमशुदगी पर भी सरकार मुंह छुपाती रही, वह तो मूर्खता कर पाकिस्तान ने वीडियो जारी कर दिया अन्यथा सरकार शायद मिग-21 के नुकसान को गिट जाती। अब मोदी सरकार इस पूरे प्रकरण में अपनी शर्मिन्दगी से बचने के लिए सेना और सेनाध्यक्षों को आगे कर रही है। ऐसा आजादी बाद कभी नहीं हुआ। बल्कि वायुसेना अध्यक्ष के इस  जवाब से उलटे सरकार की किरकिरी हुई है कि मृतकों की संख्या बताना हमारा काम नहीं है। तो फिर बालाकोट कार्रवाई में मीडिया में जो 300 से 600 आतंकी मरने की खबरें फ्लैश हुई किसने की? इसके लिए संवेदनशील मीडिया की भी जवाबदेही बनती है। तब और भी ज्यादा जब दुनिया का मीडिया कह रहा है कि एक भी नहीं मरा। मतलब मोदीजी की मुनादी के बाद आतंकवादियों ने स्थान बदल लिया!
दो ही उदाहरण काफी हैं, दोनों के वीडियो यू-ट्यूब पर मिल जाएंगे। पहला, नोटबंदी के तुरंत बाद जापान में उनका उद्बोधन जिसमें मोदीजी ताली बजाकर और अंगूठा दिखाकर इतराते हुए विदेश में बताते हैं कि 'घर में शादी है और पास में पैसा नहीं है।' यह सीन निकृष्टता की पराकाष्ठा इसलिए है कि शादियों के उस मौसम में कितने सामान्य लोगों को परेशान होना पड़ा, उसका आंकड़ा नहीं। दूसरा, अभी हाल में आइआइटी के छात्रों को संबोधित करते हुए मोदीजी डिस्लेक्शिया जैसी मानसिक व्याधि की खिल्ली केवल इसलिए उड़ाते हैं कि उन्हें एक विपक्षी नेता को नीचा दिखाना था। इससे ज्यादा बेशर्मी की बात हमारे लिए और क्या हो सकती है कि हमने देश का प्रधानमंत्री ऐसा चुना है, जिन्हें मानवीय गरिमा की तो छोडि़ए सामान्यजन की तकलीफों से भी कोई वास्ता नहीं है।
दीपचन्द सांखला
07 मार्च, 2019

Thursday, February 21, 2019

पुलवामा : दु:खद समय में खम्भा नोचू प्रतिक्रियाएं


जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में एक आत्मघाती हमले में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 40 जवानों का शहीद होना और कइयों का घायल होना बहुत दु:खद है। हालांकि इस घटना से पहले और बाद में होने वाली छिटपुट घटनाओं में मरने वालों की खबरें आए दिन आती रही हैंं जिन्हें पढ़कर हमारे ललाट पर सलवट भी नहीं आती। जिस समय में हम जी रहे हैं, लगता है ऐसी छिटपुट घटनाओं को सुनना-पढऩा हमारी नियति हो चुका है। पुलवामा की घटना बड़ी है, इसलिए उद्वेलन स्वाभाविक था, लेकिन कितने'क दिन का? ना वर्तमान की और ना ही पूर्व की केन्द्र सरकारें कश्मीर मसले पर कभी खास गंभीर लगींं। पड़ोसी देश पाकिस्तान में बैठे कुछ जहर-बुझे बदमिजाज लोगों के बरगलाने से बहुत थोड़े से दहशतगर्द अपनी जान पर खेलकर ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। दु:खद और कार्यरतापूर्ण ऐसे कृत्यों से ना केवल पूरी कश्मीरियत बल्कि पूरी एक कौम भी बदनाम होती है। कश्मीर की कुल आबादी लगभग एक करोड़ है, गृह मंत्रालय की रिपोर्ट पर भरोसा करें तो इनमें से दहशतगर्द चार सौ से भी कम हैंं, इन्हें सहयोग करने वाले प्रति दहशतगर्द चार और गिन लें, क्योंकि घाटी में जितनी चाकचौबंद सुरक्षा व्यवस्थाएं हैं, उसके चलते दहशतगर्दी में ज्यादा लोगों की लिप्तता संभव नहीं है। लगभग एक करोड़ की आबादी में मात्र 2000 लोग यदि गलत हैं तो सभी कश्मीरियों को निशाने पर लेना कितना उचित है। पिछले बीस वर्षों से कश्मीर में पांच से साढ़े सात लाख सैनिक, अद्र्धसैनिक और पुलिस बल तैनात रहते हैं यानी चौदह-पन्द्रह कश्मीरियों पर एक सिपाही तैनात है। अटलबिहारी सरकार की कश्मीरियों के साथ सदाशयता के बाद वहां माहौल बदला, दहशतगर्दी की घटनाओं पर अंकुश लगा और कश्मीर घूमने आने वाले पर्यटकों में जबरदस्त इजाफा हुआ। कश्मीरियों को रोजगार की सहूलियतें बढ़ी। कश्मीर में इस सदाशयता को मनमोहनसिंह सरकार ने बनाये रखा। उम्मीद थी कि मनमोहनसिंह अटलबिहारी सरकार के प्रयासों को आगे बढ़ायेंगे लेकिन ऐसा नहीं किया गया। अटल सरकार के ही प्रयासों का परिणाम था कि लगभग दस वर्षों तक कश्मीर में असंतोष कम रहा। मोदी सरकार के आने के बाद असंतोष और दहशतगर्दी की घटनाओं में अचानक बढ़ोतरी के कारणों का विश्लेषण अभी होना है। कहां क्या गड़बडिय़ां रही जिनकी वजह से घाटी फिर उद्वेलित हुई और देश का सुकून छिनता जा रहा है।

देश के विभिन्न हिस्सों में कश्मीरियों और कश्मीर के विद्यार्थियों के साथ जो बदमजगियां हो रही हैं वह चिन्ताजनक और दु:खद इसलिए हैंं कि अटलबिहारी सरकार और पिछली सरकारों ने कश्मीरी विद्यार्थियों को भटकावों से बचाने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में उन्हें पढ़ाने की व्यवस्था की, जिनके सकारात्मक परिणामों का जिक्र ऊपर किया है। पुलवामा पर जयपुर की निम्फ यूनिवर्सिटी और अन्य कई जगह पढ़ रहे कश्मीरी विद्यार्थियों की प्रतिक्रिया, कश्मीरी युवतियों के साथ बलात्कार जैसी बदमजगियां कभी-कभार होती हैं उसे लेकर उनमें आक्रोश है। ऐसे विद्यार्थियों को आज अच्छी काउंसलिंग की जरूरत है ना कि दण्डित करने की। ऐसे अराजक दुव्र्यवहारों के चलते यदि ये विद्यार्थी वापस कश्मीर लौटते हैं तो वे अपने गांव-कस्बे पहुंचकर क्या करेंगे इसका अन्दाजा अभी नहीं लगाया जा सकता।

जिस 20 वर्षीय आदिल डार ने पुलवामा की घटना को अकेले अंजाम दिया उसकी जानकारी होना जरूरी है। तीन वर्ष पूर्व आदिल जब मात्र 17 वर्ष का था, अपने सहपाठी विद्यार्थियों के साथ जब वह घर लौट रहा था तो अद्र्धसैनिक बलों के कुछ जवानों ने यह आरोप लगाते हुए कि तुम पत्थरबाज हो, उससे ना केवल उठक-बैठक करवाई बल्कि अपने जूतों पर नाक भी रगड़वाई। घर लौटकर उसने अपने माता-पिता से शिकायत कीजैसा अधिकांशत: होता है, माता-पिता निरुतर थे। आदिल घर छोड़कर चला गया और नहीं लौटा। उसके माता-पिता ने बताया कि उन्होंने मान लिया था कि अब उसकी मौत के समाचार ही आएंगेवही हुआ। यह बताने का मकसद आदिल के कृत्य को जस्टीफाई करना कतई नहीं है। पर हमें ऐसी घटनाओं पर एकांगी होकर विचार नहीं करना चाहिए। देश में जो कुछ भी गड़बड़ है तो किसी न किसी प्रतिकूल परिस्थितियों की वजह से है, अत: उग्र तो हरगिज नहीं होना चाहिए। इस तरह देश के नागरिक होने के नाते इन गड़बडिय़ों के लिए अंशमात्र ही सही हम प्रत्येक जिम्मेदार होते हैं और इसलिए भी चूंकि हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और उस राज को हम मिलकर चुनते हैं जिसकी लापरवाहियों की वजह ऐसी गड़बडिय़ां होती है। खैर, इतनी बारीक बातों से आपको कोफ्त हो सकती है, लेकिन सच यही है।

यह सब लिखने का मकसद इतना भर ही है कि हमें एक जिम्मेदार नागरिक होने की शर्त के अनुसार विवेकशील भी होना चाहिए। बिना उत्तेजना, घृणा के और बिना बदले की भावना के सभी पक्षों को ऐसी घटनाओं और बदमजगियों पर विचारना चाहिए अन्यथा हमारा आक्रोश 'खिसयानी बिल्ली खंभा नोचे' कहावत के आधार पर खिसियाना माना जाएगा और हमारा रियेक्शन लोक प्रचलित उस चुटकले 'रामस्वरूप ने चोरी की, फलस्वरूप पकड़ा गया' में गिना जाएगा। गलती कौन कर रहा, सजा का भागी आप किसी और को बना रहे हैं? यदि न्याय यही है तो फिर एक दिन इस आदिम न्याय से कोई भी बच नहीं पाएगा।
दीपचन्द सांखला
20 फरवरी, 2019

Thursday, February 14, 2019

भारतीय जनता पार्टी के लिए आत्ममंथन और बदलाव का समय


लोकतंत्र की आदर्शतम बहुदलीय संसदीय प्रणाली में ही धुर विरोधी विचार वाली और व्यक्ति आधारित पार्टियों का अस्तित्व एक साथ संभव है। लोकतंत्र के इस नकारात्मक पक्ष को उसका सकारात्मक पक्ष मान सकते हैं। यह छूट लोकतंत्र में ही संभव है। शासन की आदर्शतम व्यवस्था के तौर पर 'अराजकÓ शासन की कल्पना की जाती है, लेकिन उसके लिए नागरिक के त्रुटिहीन होने की शर्त है जबकि कमियां होना ही मनुष्य होने की पहचान है। अन्य जीवों की जो कमियां गिनवाई जाती है, वे कमियां नहीं जीव विशेष की प्रकृति में आ जाता है।
बात भारतीय जनता पार्टी के सन्दर्भ से करनी है, वहीं लौटते हैं। दक्षिणपंथी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 1951 में स्थापित राजनीतिक इकाई जनसंघ नामांतरण के बाद भाजपा हुई, इस तरह इस राजनीतिक दल का इतिहास लगभग अड़सठ वर्षों का हो रहा है। संघ और भाजपा के घालमेली अस्तित्व की अब तक कई रंगतें रही हैं। जनसंघ अपने विचारों पर जब तक अडिग रहा उसका कोई खास अस्तित्व नहीं बन पायाउदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में कट्टरपंथ की गुंजाइश या कहें अवधि लम्बी नहीं हो सकती। इसे वामपंथी पार्टियों के अस्तित्व से भी समझा जा सकता है।
भाजपा के वर्तमान अस्तित्व का मूल श्रेय अटलबिहारी वाजपेयी को दिया जाना चाहिए। वाजपेयी का शुरुआती प्रशिक्षण संघ का चाहे हो लेकिन व्यावहारिक राजनीति का प्रशिक्षण देश के शुरुआती संसदीय नेताओं की संगत में हुआ जो वर्तमान नेताओं से ज्यादा लोकतांत्रिक, उदार और संजीदा थे। ऐसे प्रशिक्षण का अभाव नरेन्द्र मोदी में आसानी से देखा जा सकता है। वाजपेयी के नेतृत्व में ही भाजपा ने अपनी उपस्थिति देशव्यापी बनायी। यह वही भाजपा है, जिसके 1984 में लोकसभा में मात्र दो सदस्य थे और उसके 12 वर्ष बाद ही ऐसी स्थितियां बनी कि मात्र सोलह दिन के लिए ही सही देश की इस दक्षिणपंथी रुझान वाली पार्टी के अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और फिर 1999 से वे ही पूरे पांच वर्ष प्रधानमंत्री रहे। यह स्पष्ट करना जरूरी है कि ना पूर्ण बहुमत की सरकार की ही पैरवी करने वालों को पूर्ण लोकतांत्रिक कहा जा सकता और ना ही किसी विशेष पार्टी मुक्त भारत की बात करने वालों को। बहुदलीय संसदीय प्रणाली ना केवल राष्ट्रपति प्रणाली से ज्यादा लोकतांत्रिक है बल्कि दो दलीय संसदीय प्रणाली से भी बेहतर है। अधिनायकत्व की आशंका जिस तरह राष्ट्रपति प्रणाली और दो दलीय प्रणाली में बनी रहती है, वैसी ही आशंकाएं बहुदलीय संसदीय प्रणाली में किसी एक पार्टी को पूर्ण या तीन चौथाई बहुमत में भी कम नहीं होती। बहुदलीय संसदीय प्रणाली में ही गठबंधन सरकारों की संभावना बनती है जो प्रकारान्तर से समन्वय की जरूरत के साथ अपनी प्रकृति में ज्यादा लोकतांत्रिक होने की गुंजाइश लिए होती है। गठबंधन सरकारों में अनैतिक दबाव की बात हो सकती है, लेकिन इतना बर्दाश्त तो करना होता है।
आजादी बाद के शुरुआती चुनाव परिणामों पर इसलिए बात नहीं करते क्योंकि आजादी की लड़ाई कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ी गई और देशव्यापी अस्तित्व तब उसी पार्टी का था, अन्य पार्टियां अपना अस्तित्व बनाने में लगी थी। लेकिन 1967 आते-आते अन्य दल ज्यों ही अस्तित्व में आए, कांग्रेस के लिए वे चुनौती बन गये। इसके अलावा जिन चुनावों में पूर्ण बहुमत से सरकारें बनी उनका विश्लेषण इन्हीं सन्दर्भों में करेंगे तो यह विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता। 1971, 1977, 1980, 1984 या 1991 अथवा 2014 के चुनावों के परिणाम या तो जनता की प्रतिक्रिया स्वरूप थे या आवेश से ग्रस्त। हालांकि अधिनायकत्व की आंच 1971 और 2014 में बनी सरकारों से ही महसूस की गई, इसीलिए गठबंधन की सरकारें लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए ज्यादा अनुकूल कही जा सकती हैं। अलग-अलग विचार वाली पार्टियों की गुंजाइश वाली लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विमर्श की संभावनाएं एवं अनुकूलताएं ज्यादा होती हैं।
इसलिए जो नेता पूर्ण बहुमत के शासन की बात करते हैं उनमें अधिनायकत्व की बू महसूस की जा सकती है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह इसी प्रवृत्ति के नेता हैं। भाजपा वर्तमान में जब अपने सबसे अच्छे दौर से गुजर रही है तो उसे अपने भीतर को टटोलना चाहिए कि यह सर्वोत्कृष्ट दौर उसे एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव हो सका है। 2011 और उसके बाद जब अन्ना हजारे के प्रायोजित विरोध के चलते कांग्रेस विरोध का देशव्यापी माहौल बना और भाजपा ने जून 2013 में नरेन्द्र मोदी को पार्टी का लगभग सर्वेसर्वा नियुक्त कर दिया तभी अपनी एक टिप्पणी में आगाह कर दिया था कि भाजपा ने अपने अनुकूल समय में प्रतिकूल निर्णय ले लिया है। लोकतांत्रिक मूल्यों में थोड़ा-बहुत विश्वास करने वाले भाजपाइयों को अब वह बात सत्य लग सकती है। 2013 में मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य में नहीं भी आते तब भी 2014 में केन्द्र में भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनने की पूरी गुंजाइश थी। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी ने अपने इतिहास का दिखावटी अच्छा दौर चाहे देख लिया हो लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि शीर्ष के बाद ढलान को भोगना नियति होता है। पार्टी के लिए यह समय है मोदी और शाह के विकल्पों पर विचारने का अन्यथा इतिहास इसी स्वर्णकाल को कलिकाल में दर्ज करते देर नहीं लगाएगा। रही संघ की बात तो अटलबिहारी वाजपेयी ने संघ के साथ संतुलन को जिस तरह साध रखा था उसी चतुराई की जरूरत अब भी है।
लोकतांत्रिक आकाश के इन्द्रधनुष में अनेक विचारों का होना ही उसे खूबसूरत बनाता है। द्वन्द्व की गुंजाइश भिन्न विचारों में ही संभव है, बिना वैचारिक द्वन्द्व के अधिकतम मानवीय व्यवस्था संभव नहीं। फुलप्रूफ शासन व्यवस्था की उम्मीद करने वाले को विचारना इस तरह भी चाहिए कि जब मनुष्य खुद ही पूर्ण नहीं है तो उससे किसी फुलप्रूफ शासन व्यवस्था की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि व्यक्ति या विचार-विशेष के प्रभुत्व की पैरवी करना राख में दबी हिंसा की चिनगारी को ही हवा देना है। इसलिए संजीदा राजनेताओं का लोकतांत्रिक मूल्यों के आलोक में सक्रिय होना जरूरी है, फिर वह भाजपा हो या कांग्रेस या वामपंथी-समाजवादी और व्यक्तिवादी पार्टी ही क्यों ना हो। चूंकि अभी देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा है इसलिए भाजपा के हवाले से ही बात की गई है।
दीपचन्द सांखला
14 फरवरी, 2019

Thursday, February 7, 2019

मोदी-शाह की करतूतों को समझना और उनसे बचना जरूरी


बीते चार वर्षों से देश अजब अनर्गलताओं से गुजर रहा है। इससे पूर्व जब केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकारें रहीं तब यही लग रहा था कि देश में या तो घोटाले हो रहे हैं या बलात्कार। लगातार बढ़ती महंगाई से जनता में रोष व्याप्त हो रहा था। तब लगभग तय हो गया था कि यह सरकार तो वापस नहीं आनी, वही हुआ। संप्रग सरकार के खिलाफ आक्रोश बढ़ाने में संघानुगामियों ने अन्ना हजारे जैसे डाफाचूक का ओर योगधंधी रामदेव व धर्मधंधी रविशंकर जैसों का भरपूर उपयोग किया। इस बीच दूसरे विकल्प के तौर पर भारतीय जनता पार्टी ही थी जो उस समय सुन्नपात में थी और आत्मविश्वासहीन भी। भाजपा की ऐसी परिस्थितियों में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके सर्किट अमित शाह ने धनबल के आधार पर योजनाबद्ध तरीके से पूरी पार्टी का अपहरण कर लिया। लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ नेता हक्का-बक्का रह गये तो सुषमा स्वराज और राजनाथसिंह जैसे दूसरी लाइन के नेता मोदी-शाह के चंवर डुलाने लगे। चुनाव हुए, अप्रत्याशित तौर पर स्पष्ट बहुमत के साथ नाम मात्र के राजग गठबंधन के बैनर से भाजपा सत्ता में आ गई।
मोदी सरकार के पांच वर्ष बीतते न बीतते उपलब्ध्यिां गिनें तो बलात्कारों की दरों में कोई कमी नहीं आयी, संप्रग सरकार के सभी घोटाले ना केवल काफूर हो लिए बल्कि खुद कांग्रेसनीत राज में उनके जो मंत्री घोटालों में अन्दर हुए थे, एक-एक कर सभी बाहर आ लिए। महंगाई का बढऩा लगातार जारी है। जिन मुद्दों पर नरेन्द्र मोदी ने 2013-14 का चुनाव लड़ा उन पर कोई सत्ताधारी अब बात तक नहीं करना चाहता। भ्रष्टाचार का इंवेट हो लिए चुनाव पहले से ज्यादा खर्चीले हो गये। चुनावी खर्च, पार्टी और उसके नेताओं के खर्चे उठाने के लिए कांग्रेस और अन्य पार्टियां जिन भ्रष्ट तौर-तरीकों से पैसे जमा करती थी, मोदी-शाह ने उसका तरीका बदल लिया। उन्हें लगा कि इस नये तरीके से बदनाम कम होंगे। बदले तरीके में कुछ घराने तय कर लिए कि पार्टी के चुनावी और नेताओं के खर्चें यही घराने उठायेंगे-बदले में उनके लिए लूट के सभी दरवाजे खोल दिए गए। यह तरीका मोदी ना केवल गुजरात में कारगर तौर से आजमा चुके थे बल्कि प्रमोद महाजन की असमय मृत्यु के बाद पार्टी के केन्द्रीय संगठन से संबंधित सभी खर्चों की पूर्ति वे इसी तरह से करवाने लगे। अंबानी-अडानी जैसे बड़े समूहों से लेकर मेहुल, नीरव मोदी जैसे छुटभैयों को इसी के मद्देनजर परोटा जाने लगा है। प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी की अब तक की विदेश यात्राएं देश के लिए कम और इन घरानों के लिए ज्यादा हुई हैं।
मोदी की बड़ी कमजोरी अधिनायकवादी तरीके से राज करने की रही है। गुजरात में विपक्ष और तटस्थ मीडिया की लगभग समाप्ति के बाद उन्होंने वहां निर्बाध राज चलाया। दिल्ली के राज को वे उस तरह मैनेज नहीं कर पाये जिस तरह गुजरात में कर लिया करते थे। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते उन्होंने प्रगति के सभी मानकों और आंकड़ों में 7 से 14 वें नम्बर पर रहने वाले अपने प्रदेश का गुजरात मॉडल के नाम पर ढिंढोरा ऐसे पिटवाया कि वह सभी प्रदेशों में सिरमौर है। मोदी को जब यह समझ आ जायेगा कि भारत जैसे देश को चलाना गुजरात को हांकने जैसा नहीं है, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
कहने को मोदी राज के बड़े घोटाले सामने नहीं आ रहे, क्योंकि उन्हें पुराने तरीके से अंजाम नहीं दिया जा रहा। रफाल की खरीद और कृषि व स्वास्थ्य बीमा जैसी भारी गड़बडिय़ां हैं। लेकिन इनके चौड़े आने के सभी रास्ते इस राज में बन्द कर दिये गये हैं। आरटीआइ के जवाब नहीं दिये जा रहे है। वहीं महालेखा परीक्षक (CAG) और संसदीय समितियों को कुछ करने जैसा छोड़ा ही नहीं हैं। जबकि ऐसे ही माध्यमों से संप्रग सरकार की गड़बडिय़ां सामने लाईं गई थी।
कोढ़ में खाज यह कि नोटबंदी और अनाड़ीपने से जीएसटी लागू करने जैसी मुर्खताओं से देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया गया। मोदी सरकार अपनी अक्षमताओं को बीते 70 वर्ष की जो आड़ देती रही उसकी पोल भी धीरे-धीरे सामने आने लगी है। रिजर्व बैंक ने हाल ही में बताया है कि संप्रग-2 सरकार के मुकाबले मोदी राज में बैंक घोटाले तीन गुना बढ़े हैं, विकास दर बताने में जो घपले किये जा रहे हैं वह अलग है।
चार वर्षों बाद भी स्मार्ट सिटी, आदर्श गांव, उज्ज्वला योजना, मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत अभियान, स्टार्टअप आदि-आदि या तो धरातल पर कहीं दीख नहीं रहे हैं या दम तोड़ते नजर आ रहे हैं। इनके बजट का आधे से ज्यादा खर्च तो इनके विज्ञापनों पर ही लगा दिया गया।
भ्रष्टाचार कम होने का ढिंढोरा सबसे ज्यादा पीटा जा रहा है। जबकि इस राज में रिश्वत की दरें पिछले राज से तीन से चार गुना बढ़ी हैं, आम आदमी का वास्ता तो इसी से पड़ता है। 2 करोड़ युवाओं को प्रतिवर्ष रोजगार देने का वादा था, पर 30 लाख रोजगार भी प्रतिवर्ष यह सरकार नहीं दे पायी है। झूठे आंकड़ों से भरमाने के अलावा प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के मंत्री कुछ कर नहीं पा रहे हैं। खुद प्रधानमंत्री विलासिता का जीवन जीने के अलावा क्या करते हैं, समझ से परे है।
उक्त सबके अलावा संघानुगामियों द्वारा फैलाई जाती रही गलत धारणाएं इस राज में विस्फोटक होने लगी। राजग की सरकारें पहले भी रही हैं लेकिन ऐसी स्थितियां पहले कभी नहीं आयी। मुस्लिम समुदाय के खिलाफ एक शताब्दी से घोले जा रहे जहर के दुष्परिणाम सामने आने लगे। गाय के नाम पर मनुष्यों की हत्याएं होने लगी। संघ-विचार और मोदी के खिलाफ बोलने वाले को बर्दाश्त नहीं किया जाता, असहिष्णुता चरम पर है। किसानों व सेवानिवृत्त सैनिकों को केवल लॉलीपॉप थमाये जा रहे हैं। अच्छे दिनों के नाम पर शासन में आने वाले खुद इस जुमले से अब बचने लगे हैं। जुमले की बात आई तो प्रत्येक भारतीय के खाते में 15 लाख आने के आश्वासन को खुद अमित शाह जुमला बता चुके हैं। पाकिस्तान-चीन की छोडिय़े यहां तो नेपाल, म्यंमार, मालदीप जैसे छोटे पड़ोसी देश भी आंखें दिखाने और मुंह मोडऩे लगे हैं। सीबीआइ, प्रवर्तन निदेशालय और इनकम टैक्स जैसे विभागों का उपयोग विरोधियों की नकेल कसने में किया जा रहा है।
देश की जनता इतनी भोली है कि वह आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी नेताओं के भरमाने में आ जाती है। कांग्रेस का भरमाना लो-पिच का भरमाना था, मोदी-शाह हाइ-पिच पर भरमाते हैं, जनता है कि इनकी बातों में आ लेती है। ऐसा जब तक चलेगा, ये नेता नहीं सुधरेंगे-फिर वह चाहे किसी भी पार्टी का हो।
समय आ गया है कि भाजपा के संजीदा नेताओं को मुखर होना चाहिए, पार्टी की साख और देश के सौहार्द को बचाना ज्यादा जरूरी है। मोदी और शाह को शासन और पार्टी से बेदखल करने की जुगत बिठानी चाहिए, अन्यथा ये दोनों दीमक की तरह पार्टी और देश को पूरी तरह जर्जर करने से नहीं चूकेंगे।
पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया आदि के वर्तमान हालात कट्टरपंथ और तानाशाही के चलते ही हुए। क्या भारत को भी हम वैसा ही देखना चाहते हैं?
दीपचन्द सांखला
07 फरवरी, 2019