Thursday, February 21, 2019

पुलवामा : दु:खद समय में खम्भा नोचू प्रतिक्रियाएं


जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में एक आत्मघाती हमले में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 40 जवानों का शहीद होना और कइयों का घायल होना बहुत दु:खद है। हालांकि इस घटना से पहले और बाद में होने वाली छिटपुट घटनाओं में मरने वालों की खबरें आए दिन आती रही हैंं जिन्हें पढ़कर हमारे ललाट पर सलवट भी नहीं आती। जिस समय में हम जी रहे हैं, लगता है ऐसी छिटपुट घटनाओं को सुनना-पढऩा हमारी नियति हो चुका है। पुलवामा की घटना बड़ी है, इसलिए उद्वेलन स्वाभाविक था, लेकिन कितने'क दिन का? ना वर्तमान की और ना ही पूर्व की केन्द्र सरकारें कश्मीर मसले पर कभी खास गंभीर लगींं। पड़ोसी देश पाकिस्तान में बैठे कुछ जहर-बुझे बदमिजाज लोगों के बरगलाने से बहुत थोड़े से दहशतगर्द अपनी जान पर खेलकर ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। दु:खद और कार्यरतापूर्ण ऐसे कृत्यों से ना केवल पूरी कश्मीरियत बल्कि पूरी एक कौम भी बदनाम होती है। कश्मीर की कुल आबादी लगभग एक करोड़ है, गृह मंत्रालय की रिपोर्ट पर भरोसा करें तो इनमें से दहशतगर्द चार सौ से भी कम हैंं, इन्हें सहयोग करने वाले प्रति दहशतगर्द चार और गिन लें, क्योंकि घाटी में जितनी चाकचौबंद सुरक्षा व्यवस्थाएं हैं, उसके चलते दहशतगर्दी में ज्यादा लोगों की लिप्तता संभव नहीं है। लगभग एक करोड़ की आबादी में मात्र 2000 लोग यदि गलत हैं तो सभी कश्मीरियों को निशाने पर लेना कितना उचित है। पिछले बीस वर्षों से कश्मीर में पांच से साढ़े सात लाख सैनिक, अद्र्धसैनिक और पुलिस बल तैनात रहते हैं यानी चौदह-पन्द्रह कश्मीरियों पर एक सिपाही तैनात है। अटलबिहारी सरकार की कश्मीरियों के साथ सदाशयता के बाद वहां माहौल बदला, दहशतगर्दी की घटनाओं पर अंकुश लगा और कश्मीर घूमने आने वाले पर्यटकों में जबरदस्त इजाफा हुआ। कश्मीरियों को रोजगार की सहूलियतें बढ़ी। कश्मीर में इस सदाशयता को मनमोहनसिंह सरकार ने बनाये रखा। उम्मीद थी कि मनमोहनसिंह अटलबिहारी सरकार के प्रयासों को आगे बढ़ायेंगे लेकिन ऐसा नहीं किया गया। अटल सरकार के ही प्रयासों का परिणाम था कि लगभग दस वर्षों तक कश्मीर में असंतोष कम रहा। मोदी सरकार के आने के बाद असंतोष और दहशतगर्दी की घटनाओं में अचानक बढ़ोतरी के कारणों का विश्लेषण अभी होना है। कहां क्या गड़बडिय़ां रही जिनकी वजह से घाटी फिर उद्वेलित हुई और देश का सुकून छिनता जा रहा है।

देश के विभिन्न हिस्सों में कश्मीरियों और कश्मीर के विद्यार्थियों के साथ जो बदमजगियां हो रही हैं वह चिन्ताजनक और दु:खद इसलिए हैंं कि अटलबिहारी सरकार और पिछली सरकारों ने कश्मीरी विद्यार्थियों को भटकावों से बचाने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में उन्हें पढ़ाने की व्यवस्था की, जिनके सकारात्मक परिणामों का जिक्र ऊपर किया है। पुलवामा पर जयपुर की निम्फ यूनिवर्सिटी और अन्य कई जगह पढ़ रहे कश्मीरी विद्यार्थियों की प्रतिक्रिया, कश्मीरी युवतियों के साथ बलात्कार जैसी बदमजगियां कभी-कभार होती हैं उसे लेकर उनमें आक्रोश है। ऐसे विद्यार्थियों को आज अच्छी काउंसलिंग की जरूरत है ना कि दण्डित करने की। ऐसे अराजक दुव्र्यवहारों के चलते यदि ये विद्यार्थी वापस कश्मीर लौटते हैं तो वे अपने गांव-कस्बे पहुंचकर क्या करेंगे इसका अन्दाजा अभी नहीं लगाया जा सकता।

जिस 20 वर्षीय आदिल डार ने पुलवामा की घटना को अकेले अंजाम दिया उसकी जानकारी होना जरूरी है। तीन वर्ष पूर्व आदिल जब मात्र 17 वर्ष का था, अपने सहपाठी विद्यार्थियों के साथ जब वह घर लौट रहा था तो अद्र्धसैनिक बलों के कुछ जवानों ने यह आरोप लगाते हुए कि तुम पत्थरबाज हो, उससे ना केवल उठक-बैठक करवाई बल्कि अपने जूतों पर नाक भी रगड़वाई। घर लौटकर उसने अपने माता-पिता से शिकायत कीजैसा अधिकांशत: होता है, माता-पिता निरुतर थे। आदिल घर छोड़कर चला गया और नहीं लौटा। उसके माता-पिता ने बताया कि उन्होंने मान लिया था कि अब उसकी मौत के समाचार ही आएंगेवही हुआ। यह बताने का मकसद आदिल के कृत्य को जस्टीफाई करना कतई नहीं है। पर हमें ऐसी घटनाओं पर एकांगी होकर विचार नहीं करना चाहिए। देश में जो कुछ भी गड़बड़ है तो किसी न किसी प्रतिकूल परिस्थितियों की वजह से है, अत: उग्र तो हरगिज नहीं होना चाहिए। इस तरह देश के नागरिक होने के नाते इन गड़बडिय़ों के लिए अंशमात्र ही सही हम प्रत्येक जिम्मेदार होते हैं और इसलिए भी चूंकि हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और उस राज को हम मिलकर चुनते हैं जिसकी लापरवाहियों की वजह ऐसी गड़बडिय़ां होती है। खैर, इतनी बारीक बातों से आपको कोफ्त हो सकती है, लेकिन सच यही है।

यह सब लिखने का मकसद इतना भर ही है कि हमें एक जिम्मेदार नागरिक होने की शर्त के अनुसार विवेकशील भी होना चाहिए। बिना उत्तेजना, घृणा के और बिना बदले की भावना के सभी पक्षों को ऐसी घटनाओं और बदमजगियों पर विचारना चाहिए अन्यथा हमारा आक्रोश 'खिसयानी बिल्ली खंभा नोचे' कहावत के आधार पर खिसियाना माना जाएगा और हमारा रियेक्शन लोक प्रचलित उस चुटकले 'रामस्वरूप ने चोरी की, फलस्वरूप पकड़ा गया' में गिना जाएगा। गलती कौन कर रहा, सजा का भागी आप किसी और को बना रहे हैं? यदि न्याय यही है तो फिर एक दिन इस आदिम न्याय से कोई भी बच नहीं पाएगा।
दीपचन्द सांखला
20 फरवरी, 2019

No comments: