लोकसभा चुनाव पर क्रिकेट की शब्दावली में कहें तो मैच आसन्न है। लेकिन टीमें ही तय नहीं हैं। टीम बनाने में भाजपा आगे है तो विपक्षी दल अभी अपने-अपने खिलाड़ी तय करने में ही लगे हैं बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि विपक्ष गठबंधन की बनने वाली टीम में अपने अधिकतम खिलाडिय़ों को घुसाने में ही लगे हैं। भाजपा टीम को हराना सभी चाहते हैं, लेकिन अपनी-अपनी जीत के साथ। भाजपा को अच्छे से पता है कि 2014 वाली अनुकूलताएं तो रही दूर की बात, लाले सरकार बनने के भी पड़ सकते हैं। यही वजह है कि मोदी-शाह जैसे घोर हेकड़ीबाज जिन्हें भी साध सकते हैं उन छोटे-छोटे दलों को अपमानित होकर भी साधने में लगे हैं।
संघ और भाजपा ने मान लिया है कि यह चुनाव उनके लिए जीतो या मरो से कम नहीं। मोदी सरकार ने संघ के ऐजेन्डे को लागू करने के सिवाय कुछ किया होता तो यह स्थितियां नहीं होती। भाजपा को अपने बूते स्पष्ट बहुमत ना भी मिले—राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन को तो मिल ही जाता। दुनिया का इतिहास गवाह है कि घोर अलोकतांत्रिक विचार वाली पार्टियां सत्ता बनाए रखने या सत्ता पर काबिज होने के लिए जो-जो हथकण्डे अपनाती रही हैं, संघ और भाजपाई उन सभी हथकंडों को समयानुकूल परिवर्तनों के साथ अपना रहे हैं। भाजपा सरकार ने राजद के लालूप्रसाद यादव को जिस तरह अन्दर करवा रखा है, उन्हें दिखा-दिखा कर सपा-बसपा नेताओं को भी भीगी बिल्ली बना दिया है। भ्रष्टाचार से ओत-प्रोत व्यावहारिक राजनीति के भ्रष्ट नेताओं में से एक लालू का खम ठोक कर खड़े रहना और बूढ़े पिता के लिहाज से अखिलेश का और मायावती का शासन के दिखाये भय से कठपुतली बन जाना राजनीतिक इतिहास में दर्ज हो रहा है। खैर, लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सबक सभी को देती है, सबक की क्लासें लम्बी हो सकती हैं, बस।
देश में सर्वाधिक राज कांग्रेस ने किया। बहुत कुछ किया भी है, तभी देश आज अंतरराष्ट्रीय फलक पर सम्मानजनक अवस्था में है। बहुत कुछ नहीं भी किया। जो सब से जरूरी नहीं किया, वह है जनता को एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर शिक्षित करना, यह ऐसा अनकिया है जिसका सर्वाधिक खमियाजा स्वयं कांग्रेस भोग रही है। राजनीति और शासन व्यवस्था में गड़बडिय़ों में अनुकूलता ऐसी शिक्षा के अभाव में ही बनी है। अब तक के अनकिये को किया करना तत्काल संभव नहीं होता। कांग्रेस और अन्य पार्टियों की ऐसी मंशा भी नहीं है। इसलिए सभी पार्टियां और नेता तात्कालिक मुद्दों की तलाश में रहते हैं, नहीं मिलता है तो मुद्दे खड़े कर लेते हैं। रफाल ऐसा ही मुद्दा है, इसमें सन्देह नहीं कि यह घोटाला नहीं है वरन् इस राज का इससे भी बड़ा घोटाला फसल बीमा का है। इन महती कामों को निजी हाथों में सौंपना ना केवल सार्वजनिक क्षेत्र को फेल करना है, बल्कि मंत्रिमंडलीय शासन प्रणाली को नकारना भी है। कांग्रेस बजाय अब तक रही अपनी कमियों, गलतियों को स्वीकारने और मोदी सरकार की विफलताओं को गिनाने के, वे केवल रफाल का जाप ही कर रही है। भ्रष्टाचार को आयठाण मान चुके इस देश में अब यह मुद्दा बहुत प्रभावी नहीं रह गया है।
अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस का लक्ष्य स्पष्ट बहुमत पाना है ही नहीं। वह जैसे-तैसे 100-125 सीट लाने की जुगत में है ताकि या तो विपक्षी गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर सके या विपक्ष में सम्मानजनक स्थिति पा सके। वहीं मोदी-शाह स्पष्ट बहुमत की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं ताकि पार्टी और शासन में पुन: केवल उन्हीं की चल सके, जिसकी ऐसी उम्मीद फिलहाल कम ही लग रही है।
भाजपा यदि 175 के पार सीटें जीतती है तो सरकार चाहे बना ले, मोदी प्रधानमंत्री नहीं होंगे। ऐसी स्थिति में वे खुद ही किनारा कर लेंगे। जैसे तैसे बन भी गए तो साल-छ: महीने में उखड़ जायेंगे, क्योंकि राज करने की जिस तरह की उनकी फितरत है वह सब तो गठबंधन सरकार में संभव नहीं होगा। भाजपा को स्पष्ट बहुमत के चलते अभी का गठबंधन रस्म अदायगी भर है। मोदी-शाह का पार्टी और शासन से बाहर होना ना केवल देशहित में होगा बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में भाजपा के एक पार्टी होने के नाते खुद उसके दूरगामी हितों में भी है, ऐसा अटलबिहारी वाजपेयी ना केवल मानते-समझते रहे बल्कि वैसा ही व्यवहार भी करते थे।
वामपंथी पार्टियां विचार के बावजूद मुख्यधारा से बाहर इसलिए होती जा रही हैं कि वह राजनीति की व्यावहारिक प्रयोगशाला में प्रयोग के यूरोपियन तरीके नहीं छोडऩा चाहती, वह ना भारतीय समाज व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में व्यवहार करती हैं और ना ही यहां की तासीर से वाकिफ होना चाहती हैं।
भारत में जो भी अन्य प्रादेशिक दल हैं उनमें से अधिकांश व्यक्ति या परिवार आधारित हैं। स्थानीय मुद्दों को लेकर बने दल भी या तो किसी परिवार के अधीन हो लिए या स्थानीय चामत्कारिक व्यक्तित्व के। जिनके साथ ऐसा नहीं है, वे गौण हो रहे हैं। इनमें कश्मीर की पीडीपी, नेशनल कान्फे्रंस से लेकर पंजाब के अकाली दल, उत्तरप्रदेश में समाजवादी दल और बहुजन समाज पार्टी, बिहार का राष्ट्रीय जनता दल, बंगाल में तूणमूल कांग्रेस, असम में असम गण परिषद और अन्य प्रदेशों के अपने-अपने स्थानीय फ्रंट हो सकते हैं। ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र में शिवसेना, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, ओडिशा में बीजू जनता दल, झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्रीय समिति और आंध्र में तेलगुदेशम पार्टी और वाइएसआर कांग्रेस, कर्नाटक में जनता दल (सेक्यूलर), तमिलनाडु में डीएमके-एआइडीएमके के बारे में कह सकते हैं। इनमें अकाली दल, एआइडीमके, शिवसेना इन चुनावों में भी भाजपा के साथ है।
उल्लेखित प्रादेशिक दलों में अधिकांश भाजपा के वर्तमान नेतृृत्व के तौर-तरीकों से सहमत नहीं हैं, लेकिन वे अपने अस्तित्व की कीमत पर उस कांग्रेस के साथ भी गठबंधन नहीं करना चाहते जो खुद अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही अन्यथा मोदी-शाह के खिलाफ हैं सब। जैसा कि जिक्र किया इनमें सपा-बसपा का मामला अलग है और इन दोनों पार्टियों के नेतृत्व को ना चाहते हुए भी मोदी-शाह की रणनीति के अनुसार खेल खेलना पड़ रहा है।
कुल मिलाकर इस चुनाव में भी बिसात पिछले हर चुनाव की तरह भिन्न है। बाजी किसी के पक्ष में जाए, इस भिन्न दीखती बिसात की सरकार भी भिन्न होगी।
—दीपचन्द सांखला
20 मार्च, 2019
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