Thursday, January 23, 2020

तानाशाही की आहट और 'संविधान-कवच सत्याग्रह' की जरूरत

'मैं डंके की चोट पर कहने आया हूं कि जिसको विरोध करना है करें, CAA वापस नहीं होगा।'
यह अलोकतांत्रिक चुनौती देश के शासन-सुप्रीमो केन्द्रीय गृहमंत्री और संभावित तानाशाह शासक अमित शाह ने धारा 144 के बावजूद 21 जनवरी, 2020 को लखनऊ में आयोजित आमसभा में दी है। ये कहते हुए उन्होंने इसे भी नजरअन्दाज कर दिया कि उनके द्वारा थोपे गये संविधान विरोधी CAA  यानी नागरिकता संशोधन कानून की समीक्षा सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। यद्यपि जिस तरह के दबावों में सुप्रीम कोर्ट फैसले दे रहा है, उसको देखते हुए उससे भी उम्मीदें अब ज्यादा नहीं है। अमित शाह जिस मानसिकता से हैं और जिस अलोकतांत्रिक विचार वाले संघ और नरेन्द्र मोदी के सहारे इस हैसियत तक पहुंचे हैं, वे अमित शाह लोकतंत्र को तभी तक निभायेंगे जब तक उनसे निभेगा, जब भी लगेगा कि यह लोकतंत्र अब उनके काम का नहीं है, छिटकाते देर नहीं लगायेंगे।
भारत के लोकतंत्र की स्थिति रोगी-शय्या पर लेटे उस घायल रोगी की सी है, जिसे, उसके विरोधियों ने ठोक-पींद कर लगभग कोमा में पहुंचा दिया है, धर्म की पीनक में रोगी के अधिकांश परिजन (नागरिक) उदासीन हैं। लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम वेंटिलेटर (सुप्रीम कोर्ट) के पाइपों को लीक कर दिया गया है और देख-भाल करने वाला नर्सिंग स्टाफ (मीडिया) प्रलोभनों में आकर अपने धर्म-ड्यूटी से च्युत हो लिया है। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी लोकतंत्र की रक्षा हो पायेगी तो खुद उसकी अपनी जिजीविषा और उन चंद परिजनों (नागरिकों) की वजह से, जो ऐसी भीषण व विपरीत परिस्थितियों में भी उसे जिन्दा रखने में जुटे हैं।
यह नागरिक हैं शाहीन बाग सहित देश के विभिन्न हिस्सों में जुटी वह महिलाएं जिन्हें परम्परा और संस्कृति के नाम पर खास तवज्जुह कभी दी नहीं गयी। कहने को महिलाओं के इस सत्याग्रह को मुस्लिम महिलाओं का सत्याग्रह कहा जा रहा है, लेकिन उनके साथ लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हिन्दू-सिख-ईसाई और नास्तिकता में  विश्वास करने वाले अनेक स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियां भी हैं, जिन्होंने ऐसे आपातकाल में अपने असल धर्म को ना केवल पहचाना, बल्कि उस पर अडिग हैं।
यह पूरा आन्दोलन CAA-NRC और नये प्रावधानों के साथ लाये गये NPR  के विरोध में है। कहने को शाह-मोदी की सरकार असम राज्य के असंतोष को शांत करने के लिए केवल एक प्रदेश के लिए लाए NRC को कांग्रेस शासन के प्रधानमंत्री राजीव गांधी की देन बताये भले ही, लेकिन यह बताते हुए इसे छुपा रहे हैं कि 35 वर्ष पूर्व समझौते की मजबूरी में लाये गये हृक्रष्ट के प्रति केन्द्र की गैर कांग्रेसी सरकारें भी क्यों उदासीन रही, जबकि असम समझौते के बाद के इन 35 वर्षों में पन्द्रह वर्ष भाजपा या उनके समर्थन की सरकारें केन्द्र में काबिज रहीं, जिनमें प्रधानमंत्री के तौर पर भाजपा के अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग की सरकार भी छह वर्ष रही।
राजीव गांधी ने समझौते के दबाव में NRC की हामी चाहे भरी हो लेकिन बाद में खुद उन्हें भी और असम गण परिषद को भी उसकी पेचीदगियों का भान हो गया होगा, तभी इसे धीमे क्रियान्वयन में डाल रखा था। वे सही थे, इसकी पुष्टि NRC के परिणामों और उससे राजनीतिक लाभ पाने के लिए लाये गये CAA के बाद उसका हिंसक विरोध उसी असम में हुआ जिसे केन्द्र की वर्तमान सरकार ने प्रयोगशाला बनाना चाहा।
देश भर के बहुसंख्यकों को बीते पचास वर्षों से संघानुगामी यह कहकर बरगलाते रहे कि असम में तीन करोड़ बांग्लादेशी मुसलमान आ गये हैं, जिन्हें निकालना जरूरी है। उनके इस झूठ को सुनकर मानने वालों ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि उत्तर-पूर्व के सात प्रदेशों में कुल जनसंख्या आज भी जब सवा चार करोड़ है तो केवल असम में तीन करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठियों की बात उनके गले कैसे उतर रही है। NRC सूची जारी होने के बाद भी उनकी समझ को क्या हो गया। असम की NRC सूची से बहार 19 लाख लोग बताये गये हैं, जिनमें से 12 लाख से ज्यादा हिन्दू हैं और 5 से 6 लाख के लगभग मुसलमान, यानी संघ के दावे के अनुसार 3 करोड़ मुस्लिम घुसपैठियों के मुकाबले निकले 5-6 लाख ही।
राजीव गांधी और उनके बाद की केन्द्र सरकारों की संविधान के अनुच्छेद 14 के आलोक में जिम्मेदारी तो यह थी कि विपत्तियों के चलते जितने भी बांग्लादेशी असम, बंगाल और अन्य सीमावर्ती राज्यों में आ लिये, उन्हें पहले तो बांग्लादेश लौटाने के प्रयास करते, यदि ऐसा संभव नहीं हो पाया तो केवल उन्हीं राज्यों पर बोझ नहीं बनाये रखकर उनके लिए विभिन्न राज्यों में पुनर्वास की योजना बनाते, यदि ऐसा किया जाता तो मानवीय आधार पर कोई रास्ता निकल सकता था।
हर मोर्चे पर नाकारा केन्द्र की वर्तमान सरकार हिन्दू-मुसलमान के नाम पर जनता को भरमाये इसलिए रखना चाहती है कि वह विकास-रोजगार के मामले में ना केवल शत-प्रतिशत असफल रही बल्कि आर्थिक मोर्च पर इस कदर धड़ाम हुई है कि उसका असर पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर होने लगा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की गीता गोपीनाथ का हालिया बयान इसकी पुष्टि करता है।
मेरा मानना है कि राज्यों में खारिज भाजपा को मोदी-शाह के चलते केन्द्र में समर्थन आज भी कायम है तो इसलिए कि उन्होंने सहिष्णु माने जाने वाले हिन्दू समाज में भय बिठाकर भीरू बना दिया है। बीते 90 से ज्यादा वर्षों से संघ इसी काम में लगा हुआ था। हिन्दू समाज का असहिष्णु और साम्प्रदायिक होना देश और हिन्दू समाज दोनों के लिए घातक है। इस तरह का जहर भरने की छूट जिस लोकतंत्र ने उन्हें दी, वे उसी लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं। सर्वथा अलोकतांत्रिक विचारों के संघ की नीतियों को शाह-मोदी जनता के समर्थन के नाम पर थोप रहे हैं। मासूम जनता का वह बहुसंख्यक पिछड़ा, आदिवासी, दलित वर्ग इससे अनभिज्ञ है कि जिस तरह का मान-सम्मान उन्हें आजादी बाद लोकतंत्र ने दिया है, वह संघ के हिन्दुत्वी राज में संभव नहीं होगाइसका अहसास जब होगा तब तक शेष कुछ बचा भी रहेगा, कहना मुश्किल है। मुसलमान उनके टारगेट में सबसे ऊपर हैं, इससे खुश होकर अन्य पिछड़े-दलित और आदिवासी चुप भले ही हों, बारी उनकी भी आने में देर नहीं लगेगी।
अन्त में एक बात जो मेरी समझ में नहीं आ रही, वह यह कि संविधान को खुर्द-बुर्द करने के अमित शाह के कुकर्मों का विरोध केवल उन्हीं राज्यों में परवान चढ़ रहा है, जहां भाजपा या भाजपा समर्थित सरकारें हैं। गैर भाजपा सरकारों वाले राज्यों की उदासीनता क्या इस मुगालते की वजह से कि NRC, CAA और NPR का संकट उन तक नहीं पहुंचेगा या यह वैसी ही भारतीय मानसिकता है जिसमें कश्मीर और उत्तर-पूर्वी राज्यों में सरकारों की ज्यादतियों से शेष भारत के लोग ना केवल उदासीन रहते आएं हैं, बल्कि वहां की खबरें तक यहां तक नहीं पहुंचती। ऐसे में यह नहीं भूलना चाहिए कि हमें जोड़ कर रखने वाला भारत का संविधान ही हैन धर्म है, न संस्कृति है और ना ही भू-भाग विशेष। इसलिए देश को बचाए रखने के लिए देश के संविधान को बचाना जरूरी है और उसके लिए 'संविधान-कवच सत्याग्रह' देशव्यापी होना चाहिए। जिन हिन्दुत्वियों को यह वहम है कि हम डंडे के जोर पर देश को एक रख लेंगे, उन्हें इतिहास में झांक लेना चाहिए। डंडे के जोर पर जिस ब्रिटिश राज में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, उसे अब सूर्य के दर्शन के लिए तरसना पड़ता है। इससे पहले के भी ऐसी ही उदाहरण इतिहास में अनेक मिल जाएंगे।
—दीपचन्द सांखला
23 जनवरी, 2020

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