Thursday, May 25, 2017

तलाक.तलाक.तलाक

शुरू में ही यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि ऐसा कोई सामाजिक व्यवहार, यहां तक, कोई रीति-रिवाज भी, जो किसी लिंग, जाति, धर्म और वर्ग समूह को दोयम हैसियत देता है, उनका समर्थन नहीं किया जा सकता। और यह भी कि इस विषय पर चर्चा करने का यह मकसद कतई नहीं है कि मुसलिम समुदाय में विवाह विच्छेद के इस शरीअती तरीके में आ गई व्यावहारिक बुराइयों का समर्थन किया जा रहा है। लेकिन वर्तमान केन्द्र सरकार ने इसे जब बहस का मुद्दा बनाया और उच्चतम न्यायालय ने भी पांच विभिन्न समुदायों के जजों की पीठ कायम कर जिरह को न्योता तो लगा इस विषय पर चर्चा करने का यह सही अवसर है। केवल मुसलमानों की ही क्यों अन्य भारतीय समुदायों की स्त्रियां भी स्त्री-धर्म के नाम पर वैवाहिक रिश्तों को ढोती और सहन करती रही हैं। अपनी जितनी जानकारी है, उतनी चर्चा कर लेते हैं :
     अपराधों पर नियंत्रण और व्यवस्था बनाए रखने के लिए बहुत से कानून-कायदे बने हैं और इनसे बच निकलने की गलियां जिस तरह निकाल ली जाती हैं वैसे ही विवाह विच्छेद की इस शरीअती व्यवस्था में भी पुरुष-वर्चस्वी अनुकूलताएं भी रूढ़ हो गई हैं।
     पुरुष प्रधान या कहें पुरुषों में भी उच्चवर्गीय पुरुषों की अनुकूलताओं के लिए बनी इस समाज व्यवस्था के अधिकांश रीति-रिवाजों और नियम कायदों तक में स्त्रियों व समाज के निम्न वर्गों के प्रति गैर बराबरी कहीं बारीकी से तो कहीं खुल्लम-खुल्ला जाहिर होती है जिससे ज्यादा प्रभावित स्त्रियां ही होती हैं। इसे इस तरह समझ सकते हैं : भारतीय समाज व्यवस्था में कोई वर्ग यदि दूसरी-तीसरी या चौथी हैसियत पाए हुए है तो उस वर्ग की स्त्री की हैसियत अपने वर्ग के सामाजिक दर्जे से एक दर्जा नीचे ही होगी। कानूनों और आरक्षण जैसी व्यवस्था के उदाहरण आजादी के सत्तर वर्षों बाद भले ही हम दें लेकिन असमानताएं इतनी बारीक काती जाने लगी है कि ये भेद अब दिखाई भी कम देते हैं।
     तलाक.तलाक.तलाक के बहाने अब इस मुद्दे के राजनैतिक उपयोग की बात कर लेते हैं। तीन तलाक जिस तरह व्यवहार में लाया जाने लगा है वह स्त्री विरोधी ही नहीं घोर अमानवीय भी है। इस शरीअती व्यवस्था का दुरुपयोग भले ही मुसलिम समुदाय के थोड़े पुरुष ही करते हों, केवल इसलिए इसकी चर्चा से इनकार नहीं किया जा सकता। इसकी चर्चा राजनैतिक लाभ के लिए की जाने लगी है, वह गलत है।
     बात अपने शहर के हवाले से ही करते हैं। इस शहर में हिन्दू-मुसलिम आबादी का अनुपात लगभग वही है जितना इस देश की आबादी में इन दोनों समुदायों का है। हर तबके के मुसलिमों से परिचय है, तीन तलाक का कोई मामला नहीं सुना। मतलब जो बुराई एक समुदाय में बहुत कम पायी जाती है उस पर चर्चा ना केवल सरकारी नुमाइंदे जोर-शोर से करने लगे हैं बल्कि लगभग पूरे मीडिया में अधिकांश चर्चा इसी विषय पर इन दिनों हो रही है। इस मुद्दे पर न्यायालय की सक्रियता पर अंगुली उठाना ठीक नहीं। लेकिन जो समय चुना गया और जिस तरह की तत्परता दिखाई गई है, उससे सन्देह तो बनता ही है। फिर भी किसी बहाने ही सही अगर समाज के किसी भी वर्ग को कोई स्थाई सुकून हासिल हो सकता है तो वह स्वीकार्य है।
                ऐसे मुद्दों का राजनीतिक लाभ उठाने की दोषी मात्र यही सरकार नहीं है। शाहबानो नाम की तलाकशुदा मुसलिम महिला ने सात वर्ष की कानूनी लड़ाई के बाद 1985 मेंं उच्चतम न्यायालय में गुजारा भत्ते का मुकदमा जीत लिया। प्रगतिशील माने जाने वाले राजीव गांधी तब आज की मोदी सरकार से भी ज्यादा बहुमत के साथ सरकार में आए थे। मौलवियों के दबाव में अपने बहुमत का उन्होंने दुरुपयोग किया और उच्चतम न्यायालय के उक्त फैसले को कानून बना कर उलट दिया। उनके इस तरह के लिजलिजेपन ने भी वर्तमान सरकार को सब-कुछ मन माफिक करने की अनुकूलता दी है।
ठीक इसके बरअक्स हिन्दू समुदाय की विवाह व्यवस्थाओं में स्त्रियों के साथ क्या-क्या होता है उसका कुछ जिक्र भी कर लिया जाना चाहिए।
     मुसलिम समुदाय में तीन तलाक के बाद शरीअती आधार पर स्त्री दूसरा जीवन साथी चुनने को स्वतंत्र हो लेती है। लेकिन हिन्दू समाज में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिसमें पत्नी को बिना किसी कायदे के छोड़ दिया जाता है। सामाजिक रूढिय़ों के चलते वह स्त्री जीवनभर उसी को पति मानने पर मजबूर होती है जिसके साथ उसकी शादी हो चुकी।
     मुसलिम समाज की तरह ही हिन्दुओं के कई समाजों में भी एक से अधिक पत्नियां रखने की छूट है। ऐसी प्रथाओं में अधिकांशत: स्त्री ही पीडि़त व प्रताडि़त होती है। ऐसा पहली पत्नी की रजामंदी के बिना, यहां तक कि उसे सूचना दिए बिना ही होता है। एक प्रथा जिसमें स्त्री को रखेल जैसे अपमानजनक शब्द से संबोधित किया जाता है उसमें स्त्री को पत्नी का दर्जा दिए बिना रखने का चलन भी समाज में जारी है। एक दलित समुदाय में तो ऐसा भी है जिसमें दो पुरुष रीति-रिवाज की आड़ में अपनी पत्नियों की अदला-बदली बिना उनकी सहमति के जब इच्छा हो तब कर लेते हैं। ऐसा होना भी उतना ही निंदनीय है जितना तीन तलाक दिया जाना।
प्रश्न यह बनाता है कि घोर अपमानजनक ऐसे रीति-रिवाजों, प्रथाओं और बिना नियम-कायदों के भी स्त्रियों के साथ होने वाले ऐसे व्यवहारों पर तीन तलाक की तरह चर्चाएं क्यों नहीं हो रही हैंं। आपवादिक उदाहरण कृपया ना दें। आदर्श उदाहरण गिनती के ही मिलते हैं इसीलिए उन्हें अपवाद कहा जाता है।
यहां फिर स्पष्ट कर दूं कि व्यक्तिगत तौर पर हर उस प्रथा, रीति-रिवाज और शरीअत या धार्मिक व्यवस्था की चर्चा और आलोचना करता रहा हूं जिसमें लिंग, धर्म, जाति और आर्थिक हैसियत के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव किया जाता हो। इसीलिए यह भी मानता हूं कि स्त्री की दोयम हैसियत इस पारिवारिक व्यवस्था का ही अभिन्न अंग है, इस व्यवस्था के रहते स्त्री को पुरुषों की बराबरी का हक मिलना लगभग असंभव है।
यह सरकारें अपने को बनाने, बनाए रखने और अपनी असफलताओं को आड़ देने के लिए भी जब-तब ऐसे मुद्दों को हवा देती रहीं हंै ताकि सनसनी पैदा हो और उसकी सुर्खियों में उनका निकम्मापन छिप जाए। जनता ऐसी चतुराइयों को जब तक समझना शुरू नहीं करेगी तब तक शासकों की पोल यूं ही चलती रहेगी।
दीपचन्द सांखला

25 मई, 2017

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