Tuesday, December 31, 2013

दिन, महीने, साल

पिछली सदी के नवें दशक में लता मंगेशकर और किशोरकुमार का गायाअवतारफिल्म का एक गानादिन, महीने, साल गुजरते जाएंगे...’ बड़ा लोकप्रिय हुआ था। 2013 के आज आखिरी दिन तीस साल पहले रिलीज उक्त फिल्म का यह गाना फिर याद गया है। इसी गाने की दूसरी लाइनहम प्यार में जीते प्यार में मरते जाएंगे...देखेंगे...देख लेनारूमानियत के हिसाब से तो ठीक है, पर असल जीवन में इन पंक्तियों का कोई लेना-देना, समझ से परे लगता है। इस तरह की सामान्यकृत बातें जब की जाती हैं तब हम उस तरह की जीवनशैली जीने वालों के सन्दर्भ से बात करते हैं, जिनका एक हिस्सा हम भी हैं। इस तरह से कुल आबादी का हम छोटा हिस्सा भले ही हों, चूंकि दिखते और प्रभावी समुदाय के हमारे इस मध्यम, उच्च मध्यम और तथाकथित उच्च वर्ग के किये-धरे के हिसाब से ही सामान्यकृत बातें की जाती हैं।
बीते पूरे वर्ष पर नजर डालें तो ऐसा बहुत कुछ हुआ लगता है जो इससे पहले नहीं हुआ। वर्ष 2012 की 16 दिसम्बर को दिल्ली की चलती बस में हुए जघन्य बलात्कार ने पूरे देश को झकझोर दिया था। उसके बाद तथाकथित जागरूकों, पढ़े-लिखों और मुखर लोगों के उद्वेलन ने काफी कुछ बदलाव ला दिए। बलात्कार सम्बन्धी कानून बदला गया, कुछ उन स्त्रियों-युवतियों ने हौसला दिखाया जिनके साथ इस तरह की हरकतें हुई और होती रही हैं। ऐसा नहीं है कि सन् 2012 के 16 दिसम्बर की घटना से पहले वैसी कोई जघन्यता हुई हो। भारतीय समाज में दोयम हैसियत को अभिशप्त स्त्री के साथ भिन्न-भिन्न तरीकों से ऐसा कुछ सदियों से होता आया है। अधिकांश स्त्रियां इसे अपनी नियति मान कर बर्दाश्त करती आईं इसलिए उनके साथ ऐसा बदस्तूर जारी रहा है। पिछले वर्ष कुछ स्त्रियों की मुखरता ने पुरुषों को उनके द्वारा ऐसा कुछ करने से पूर्व ठिठकने को मजबूर जरूर किया है लेकिन ऐसा मान लेना गलत होगा कि स्त्रियों के साथ वह सब होना बिलकुल बन्द हो गया या हो जायेगा। नये कानून के बाद इसके दुरुपयोग की घटनाएं भी सामने आएंगी।दहेजके मामलों में तथा अनुसूचित जाति प्रताड़ना कानून के दुरुपयोग के उदाहरण जब-तब दिए जाते रहे हैं। इन सब कानूनों का दुरुपयोग होता ही है, लेकिन क्या केवल इस बिना पर इन कानूनों को हटाना उचित होगा कि इनके अन्तर्गत झूठे मुकदमें दर्ज हो रहे हैं? इन्हीं कानूनों में यह सब होता हो, ऐसा नहीं है, लगभग कानूनों के परखचे गाहे-बगाहे (बल-पड़ते) इसी तरह उड़ाए जाते रहे हैं।
समाज में लिंग, जाति, धर्म और धन keके आधार पर विषमताएं जब तक रहेंगी तब तक निर्दोषों को भी गाहे-बगाहे प्रताड़ित होते रहना होगा। यदि कानूनी प्रक्रियाओं को तत्पर और चाक-चौबन्द कर दिया जाय तो कुछ बचाव सम्भव है लेकिन इन कानूनी प्रक्रियाओं को अंजाम देने वाले भी हमारे इसी समाज का हिस्सा हैं जिसमें सभी तरह की बुराइयां प्रतिष्ठा पाने लगी हैं-तब न्याय व्यवस्था को उनसे अछूता कैसे और कब तक रख सकेंगे?
प्रत्येक को प्यार में जीने-मरने का आदी होना होगा अन्यथा दिन, महीने, साल को बद से बदतर होने से रोकना मुश्किल है।

31 दिसम्बर, 2013

No comments: