बीकानेर संभाग का सबसे बड़ा अस्पताल पीबीएम पिछले कई वर्षों से सकारात्मक सुर्खियों में शायद ही रहा होगा। तिमारदारों और ड्यूटी डॉक्टरों के बीच झड़पों से लेकर, अव्यवस्थाएं
और घोटाले लगातार खबरों में रहने लगे हैं। अस्पताल का प्रशासन संभालने वाला बेड़ा लगभग ‘ठठेरे की बिल्ली’ की सी अवस्था में इन सबकी अनदेखी करता रहा है।
सामान्य शिक्षा एवं स्वास्थ्य, पानी, बिजली, गंदा पानी निकासी, सड़कों-गलियों का रखरखाव, रात में सड़कों-गलियों में रोशनी और साफ-सफाई की ही तरह और उन से भी ज्यादा जरूरी इस हॉस्पिटल सेेवा की व्यवस्था को भी राज ने लगभग खूंटी टांग रखा है। इस सेवा में लगे अधिकांश बस पड़ती लूट-खसोट में लगे हैं। राज अभी बदला है, उसे इस बदलाव का भान कराना है सो कुछ रिमझिम शुरू हो गई है। देखना होगा कि ‘ढाक के तीन पात’ वापस कब होते हैं। उक्त सारी अव्यवस्थाओं और इनके कारणों से इसके लिए जिम्मेदार और जागरूक वाकफियत ना रखते हों, ऐसा मानना नादानी होगी। फिर भी ‘राज का भान’ करवाने की प्रक्रिया जितने दिन चलती है उसे ‘न्हाया जिता ही पुन्न’ मान कर संतोष कर लेंगे और फिर उन्हीं मैदानों पर उन्हीं घोड़ों को देखने की विवशता मान कर चुप हो लेंगे। आजादी के इन छियासठ सालों के छोटे-बड़े सभी कबाड़ों की बड़ी जिम्मेदार तो आम आवाम की यह चुप्पी ही है। उसने गलत और गड़बड़ी पर टोकना-बरजना छोड़ दिया। इसीलिए स्थितियां लगातार बद से बद्तर होती जा रही हैं। प्रश्न यह भी है कि सभी सार्वजनिक सेवाएं जब आम आदमी से वसूले गये राजस्व यानी सभी तरह के टैक्सों से संचालित होती हैं तो आम आवाम उन्हें अपना हक मानने में क्यों झिझकता है?
अस्पताल की बात करें तो इसकी अधिकांश व्यवस्थाएं ठेके पर दे दी गई हैं और ठेकेदारी व्यवस्था संचालित किस तरह होती है, किसी से छिपी नहीं। साफ-सफाई ठेके पर है पर अस्पताल की गन्दगी के चलते वहां जाना दूभर है। यहां इसका उल्लेख भी जरूरी है कि इस गन्दगी के लिए वहां आनेवाले भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। मन में आए जहां थूकना, गंदगी फेंकना, अधिकांश आगंतुकों की आदत में शुमार हो गया है। इसी तरह वाहन स्टैण्ड ठेके पर है, ठेकेदार धड़ल्ले से तयशुदा शुल्क से डबल वसूलते हैं, आम आवाम बिना हिल्लो-हुज्जत के दे भी देता है। वाहन स्टैण्डों पर दरें, समय और नियम कायदों के न साइनबोर्ड हैं और न ही दिये जाने वाले टोकनों पर अंकित हैं। इस पर अस्पताल प्रशासन का आंखें मूंदे रखना इन करतूतों में उसके शामिल होने की पुष्टि करता है।
अस्पतालों के कुछ सुधारों के लिए ‘विनायक’ एक से अधिक बार व्यावहारिक सुझाव दे चुका है उसका उल्लेख आज फिर किए देते हैं :
‘राज्य सरकार को चाहिए कि हॉस्पिटल प्रशासन की नई सेवा शुरू करे और इन अस्पतालों के अधीक्षक और उपाधीक्षक पद पर उससे चयनितों को ही लगाएं ताकि डॉक्टर आजीवन अपने पेशे के साथ न्याय कर सके और सोलह सौ वर्षों से उनके द्वारा ली जा रही डॉक्टरी प्रतिज्ञा पर भी वे खरे उतरें।
इस सेवा की परीक्षा के लिए वही पात्रता रखेंगे जिन्होंने एमबीबीएस के बाद ‘मास्टर्स इन हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशन’ की डिग्री ले रखी हो, यदि ऐसा होता है तो अकादमिकों और प्रशासनिकों के अहम् टकराने की सम्भावनाएं भी कम रहेंगी और इन अस्पतालों का ढर्रा भी कुछ ठीक होगा। लेकिन कोई चमत्कार घटित हो जायेगा, ऐसी उम्मीदों के आसार फिलहाल नहीं हैं। ऐसी उम्मीदें तभी की जा सकती हैं जब प्रत्येक नागरिक का मन बदलेगा। इसकी गुंजाइश इसलिए नहीं लगती कि अभी तो लगभग सभी समर्थ स्वार्थी से घोर स्वार्थी होने को तत्पर हैं, इस ओर से लौटने की प्रक्रिया जब शुरू होगी तभी कुछ अच्छी उम्मीदें की जा सकेंगी।’
विनायक, 3 नवम्बर, 2012
23
दिसम्बर, 2013
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