सभी तरह के चुनावों की चर्चाएं शुरू होते ही जाति, धर्म, वर्ग व क्षेत्रीयता
आदि-आदि की संकीर्णताएं
और दम्भ मुँह-बाए खड़े हो जाते हैं। बीकानेर के सन्दर्भ से बात करें तो इस तरह का सिलसिला मोटा-मोट 1967 के आम चुनावों से शुरू हुआ दिखता है। उसके बाद 1977 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों को छोड़ दें तो शेष सभी चुनावों में इस तरह की संकीर्णताएं
विभिन्न रूपों में घुसपैठ बढ़ाती देखी गई हैं। 1952 में हुए विधानसभा चुनावों में वणिक समुदाय के मोतीचन्द खजांची निर्दलीय खड़े होकर भी चुनाव इसलिए जीत गये क्योंकि लोकसभा उम्मीदवार और पूर्व शासक परिवार के डॉ करणीसिंह और मोतीचन्द का चुनाव चिह्न समान था। ऐसी खम्माघणी आत्महीनता विभिन्न रूपों में अब भी देखी जा सकती है। मोतीचन्द के निकटतम प्रतिद्वंद्वी ना कांग्रेसी रहे और ना ही समाजवादी बल्कि धार्मिक आधार पर बनी रामराज्य पार्टी के दीनानाथ रहे। यानी आजादी के तुरन्त बाद ही जिन कारणों से दो विभिन्न उम्मीदवारों
को ज्यादा वोट मिले वे दोनों ही कारण सकारात्मक नहीं थे।
उसके बाद 1957 व 1962 के विधानसभा चुनावों में प्रजा समाजवादी पार्टी के मुरलीधर व्यास विजयी रहे और लगने लगा कि उक्त उल्लेखित संकीर्णताओं
का कुहासा छंटने लगा है। विधानसभा में मुरलीधर के मुखर विरोध से तंग होकर तत्कालीन मुख्यमंत्री
मोहनलाल सुखाड़िया ने बीकानेर मूल के ट्रेड यूनियन नेता गोकुल प्रसाद पुरोहित को 1967 के विधानसभा चुनावों से पहले भीलवाड़ा से बीकानेर भेजा। पुरोहित ने व्यास को पटकनी देने के लिए यथासंभव सभी हथकंडे अपनाए। चूंकि दोनों पुष्करणा ब्राह्मण समुदाय से थे सो संकीर्णता का अस्त्र उन्होंने क्षेत्रीयता का काम में लिया और तब के उनके जीवन का कार्यक्षेत्र
भीलवाड़ा होते हुए और वहां मांडल से विधायकी कर चुकने के बावजूद अपने को स्थानीय और आजादी के समय से ही बीकानेर में रचे-बसे और यहीं के होकर रह गये मुरलीधर व्यास पर अपने समुदाय में ना केवल बाहरी होने का ठप्पा लगवाने में सफल हुए बल्कि चुनाव भी जीत गये।
1972 के चुनावों में गोपाल जोशी अपने राजनीतिक गुरु गोकुलप्रसाद को पटकनी देकर कांग्रेस का टिकट ले आए। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सत्यनारायण पारीक, जनसंघ के भंवरलाल कोठारी और बागी हुए गुरु गोकुलप्रसाद, सभी जोशी के सामने डटे थे पर अल्पसंख्यक समुदाय के निर्दलीय मोहम्मद हुसैन कोहरी ने चुनाव अभियान को जिस तरह से चलाया उससे मतदान की तारीख तक धार्मिक ध्रुवीकरण की आहट सुनाई देने लगी। शेष दिग्गज धरे रह गये और गोपाल जोशी निकटतम प्रतिद्वंद्वी
कोहरी से जीत गये।
इस तरह क्षेत्रीयता और धर्म आधारित ध्रुवीकरण की बुराइयों के बाद 1977 के चुनाव सिर्फ और सिर्फ जनता लहर में सम्पन्न हुए और समाजवादी महबूबअली नगर विधायक चुने गये। 1980 के चुनावों में तीन तरह की जनता पार्टी, सीपीआई, सीपीएम सहित लगभग सभी पार्टियों के और निर्दलीय जोड़ कर 15 उम्मीदवार मैदान में थे, पर सीधा मुकाबला 1972 के गोपाल जोशी की ही तर्ज पर कांग्रेसी टिकट की दौड़ में जोशी को पटकनी देकर उनके ही रिश्ते में साले बुलाकीदास कल्ला और जनसंघी घटक से तभी बनी भारतीय जनता पार्टी के ओम आचार्य मैदान में थे। कहा जाता है कि चुनावी राजनीति के चलते आचार्य अपने पुष्करणा जाति समाज में ही अल्पसंख्यक इसलिए मान लिए गये क्योंकि उनकी उपजाति अपने को श्रेष्ठ मानती है और इस तरह से ये श्रेष्ठ उपजातियां अपने ही समाज में अल्पसंख्यक मान ली गईं। कहते हैं ना तालाब में कंकर फेंको तो वलय (घेरे) बाहर की ओर बढ़कर व्यापक में लीन हो जाते हैं और जो मनुष्य समाज में कंकर फेंको तो वही वलय दिशा उलट कर संकीर्ण होता चला जाता है। राजनीति ने 1980 के बाद इसी तरह की गति को पकड़ लिया है। क्यों ना पकड़े? जब समाज के सभी ताने-बाने धर्म और जातीय आधार पर बुने जाते हों तो इसे कैसे रोका जा सकता है। जबकि असल में तो आजादी बाद इस जातीय ताने-बाने को छिन्न-भिन्न होना था.
10 दिसम्बर, 2013
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