Wednesday, July 21, 2021

पाती देवीसिंह भाटी के नाम

मान्य देवीसिंहजी!

आपातकाल के दौरान 1977 के लोकसभा चुनावों में आपको जब पहले-पहल देखा, तब मैं 18 वर्ष का भी नहीं हुआ था। बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से हरिराम मक्कासर जनता पार्टी से उम्मीदवार थे। इन चुनावों में जनता में जैसा उत्साह था वैसा माहौल उससे पहले (1967 से चुनावी राजनीति में सक्रिय हूं) और आज तक किसी चुनाव में नहीं देखा। 

तब का वह दृश्य याद है जब दिनभर घूम-घुमाकर शाम को डागा बिल्डिंग पहुंचते और पांच नम्बर से लेकर नीचे सड़क तक खड़े समूहों से फीडबैक सुनते और खुश होते। उन्हीं चर्चाओं में सर्वाधिक जिस नाम की चर्चा होती वह देवीसिंह भाटी था। बिना हुड की जीप में शाम और देर शाम जब भी आप डागा बिल्डिंग पहुंचते-हमारे जैसे कई नवयुवा घेर लेते और पूछते—क्या रिपोर्ट है। आप इतना ही कहते...बढिय़ा और मुख्य चुनाव कार्यालय की ओर चल देते। नायक सी वह छवि स्मृतियों में आज भी कहीं अंकित है।

अभी पत्र लिखने का हेतु इसलिए बना कि इन दिनों आपने बीकानेर शहर से लगती ओरण (गोचर) को बचाने का बीड़ा उठाया है। इस लंबी-चौड़ी ओरण को बचाने के लिए बनवाई जा रही चारदीवारी इस काल में छोटे-मोटे भागीरथी प्रयास से कम नहीं है। इसे आप पूर्ण करवा देंगे तो महानगरीय शब्दावली में यह ग्रीन जोन कहलायेगा।

यह काम शुरू हो गया और आपकी देख-रेख में हो रहा है तो पूरा होगा ही। मेरे इस पत्र के प्रयोजन इतना ही महत्त्वपूर्ण माने या इससे ज्यादा, यह तय आपको करना है। वह प्रयोजन है—कोलायत के कपिल सरोवर के पौराणिक वैभव को लौटाने का। इसके एक सोपान के तौर पर जलकुम्भी हटाने का काम आपने कुछ वर्ष पूर्व करवाया था। यह बात अलग है कि सरोवर में जलकुम्भी फिर लौट आयी, किन कारणों से लौटी, विशेषज्ञों की राय से उसे तो हमेशा के लिए हटाना ही है। अन्य जो काम हैं सरोवर की आगोर को बचाना और उसके 52 घाटों का जीर्णोद्धार करवाना। घाटों का जीर्णोद्धार तो आपके लिए बड़ा काम नहीं है लेकिन आगोर को सुरक्षित रखना और हमेशा के लिए सुरक्षित रखना-रखवाना बड़ा काम है।

इसके लिए आपको न केवल अपनी सामाजिक हैसियत का उपयोग करना होगा बल्कि अपनी राजनीतिक हैसियत का उपयोग भी करना होगा। इस आर्थिक युग में धन के भूखों का राम होठों तक ही है—हिये तक नहीं। अन्यथा धन के ये भूखे कम से कम कोलायत सरोवर के आगोर क्षेत्र को तो अवैध खनन से मुक्त रखते। सरकारी मुलाजिमों से आगोर क्षेत्र में खनन पट्टे जारी भी हो गये हैं तो उन्हें रद्द करवाना और यह जाप्ता करना भी जरूरी है कि भविष्य में यह भूल दोहराई न जाए। आप मुनादी करवा देंगे तो पूरा भरोसा है कि आगोर के उस क्षेत्र में अवैध-खनन का काम रुक जायेगा। एक और प्रयास क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य को लौटाने का है। खनन के ओवर बर्डन से निकली मिट्टी से बने डूंगर न केवल आगोर के बहाव क्षेत्र में बाधा हैं बल्कि क्षेत्र पर बदनुमा दाग भी हैं। यह काम होगा कैसे—मुझे अनुमान नहीं है, लेकिन होना जरूरी है। आगोर क्षेत्र में खनन से जो गहरे गड्ढे बन गये उन्हें इस ओवर बर्डन से बुरवाया जा सकता है। यह काम कम अर्थ-साध्य नहीं है, मोटे बजट की जरूरत होगी। आप मन बना लेंगे तो यह सब व्यवस्था भी आप संभव करवा लेंगे। ऐसा मानना मेरा ही नहीं है, उनका भी है जो आपको अच्छे से जानते-समझते हैं।

इस बड़े काम को करने का मन बनाना आसान नहीं। कितने संसाधन जुटाने होंगे मुझे पता है। लेकिन देवीसिंह भाटी के सामथ्र्य का भी पता है कि वे मन बना लेंगे तो इस वय में कर गुजरेंगे और सार्वजनिक इतिहास में उनको इन कार्यों के लिए भी याद किया जायेगा। उम्मीद करता हूं कि इस अनुष्ठान को पूर्ण करवाने के लिए व्यवस्थित कार्य योजना की घोषणा शीघ्र ही करेंगे। अग्रिम आभार।

―दीपचन्द सांखला

22 जुलाई, 2021

Thursday, July 15, 2021

मोदी-शाह के विकल्प की बात

भारतीय लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत है कि मोदी-शाह के विकल्प की चर्चा पिछले डेढ़-दो वर्षों से होने लगी है। यद्यपि ऐसी चर्चा फिलहाल राजनीतिक विश्लेषकों, पत्रकारों और जागरूक नागरिकों तक ही सीमित हैं। जबकि डेढ़-दो वर्ष पूर्व तक ये भी स्तब्ध थे। बेहतर होता विपक्षी दलों के बीच भी इस तरह की कवायद होती, राजनीतिक विश्लेषक प्रशान्त किशोर बीच में इस हेतु जरूर सक्रिय दिखे। इस पर उनकी फिलहाल की निष्क्रियता रणनीतिक है या निराशा-जनित, पता लगना है।
बेहतर और भी तब होता जब विकल्प की बात भारतीय जनता पार्टी के भीतर से भी उठती—इस उम्मीद की वजह इतनी ही है कि भाजपा संवैधानिक लोकतंत्र में पंजीकृत दल है। अन्यथा उसके पितृ संगठन और खुद उसकी अघोषित विचारधारा के मद्देनजर ऐसी उम्मीद पालना निराश होना है। क्योंकि संघ और उसके अनुगामी संगठनों का विश्वास जब लोकतंत्र में ही नहीं है तो इनसे संविधान में आस्था की उम्मीद कैसी? इसीलिए संघानुमार्गी जिसमें भी निष्ठा व्यक्त करते हैं, मान लें यह उनका उपयोग मात्र कर रहे होते हैं।
जागरूक नागरिकों में से अनेक विकल्प की उम्मीदों के साथ कांग्रेस को कोसने लगे हैं। कोस इसलिए रहे हैं कि उन्हें कांग्रेस के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर कोई विकल्प सूझ नहीं रहा, और इसलिए भी कि कांग्रेस उस तरह से विरोध पर उतारू नहीं दिख रही कि जनता उसे मोदी-शाह के विकल्प के तौर पर स्वीकार करने लगे। सरसरी तौर पर देखें तो माजरा यही है। लेकिन क्या सच में ऐसा है? नहीं। दरअसल आजादी के बाद पहली बार ऐसा है कि अंधभक्ति में ग्रस्त जनता के बड़े हिस्से के मन को (इसे हिप्नोसिस या सम्मोहन की अवस्था भी कह सकते हैं) झूठ, भ्रम और ढोंग से बांध दिया गया है, ये सम्मोहित समूह सच्चाई जानना ही नहीं चाहता बल्कि आगाह करने वाले पर उलट प्रतिक्रिया देने लगता है। ऐसी स्थितियों में कोई भी दल आगे कर दें या कैसा भी व्यक्तित्व खड़ा कर दें, उसे ये स्वीकारेंगे ही नहीं।
फिलहाल यह मानना कि कांग्रेस या उसके किसी नेता को विकल्प के तौर पर स्वीकारा जाएगा, जमता नहीं है।
ऐसे में हो क्या सकता है? या तो मोदी-शाह से ऊपर का कोई मजमेबाज और धूर्त आए, जो इनके सिर बांधने जैसा हो। विकल्प की ऐसी ही उम्मीद करनी है तो फिर इन्हीं को बरदाश्त क्यों नहीं करें, इनके विकल्प के तौर पर इनसे बदतर क्यों। और यदि विकल्प के तौर पर कोई भला या कम-से-कम इनसे तो भला हो—आये तो इसके लिए जनता को ही अपने विवेक को जगाकर मन बदलना होगा। बेहतर विकल्प की जरूरत महसूस करनी होगी। इसके लिए पहले तो बहुसंख्यकों को इस भ्रम से निकलना होगा कि उनके धर्म पर कोई खतरा है। और इससे भी कि धर्म को बचाने के लिए हम कुछ भी कुर्बान करने को तैयार हैं। ऐसा होगा तभी जब हम अपनी असली जरूरतों को समग्रता से समझेंगे। ऐसा होगा तभी सत्ता में वैकल्पिक दल की उम्मीदें पाल सकेंगे, जब तक ऐसा नहीं होगा—तब तक हमें यूं ही भुगतना होगा। एक भारतीय नागरिक के तौर पर कितना कुछ हमने खो दिया और क्या कुछ खो देंगे, इसकी कल्पना मात्र सिहराने लगती है, ऐसी अनुभूति के लिए हमें जागरूक नागरिक होना होगा। सभी इस तरह का मन बनाएं, जरूरी नहीं। कम-से-कम एक बड़े जनसमूह को हिप्नोसिस से-सम्मोहन से बाहर आने की जरूरत है।
(कुछ राज्यों में आ रहे बदलावों से उम्मीदें न पालें, उनके बदलावों की वजह स्थानीय हैं।)
—दीपचन्द सांखला
15 जुलाई, 2021

Thursday, July 1, 2021

नाथी का बाड़ा, घर जाने का निर्देश और कल्ला कांग्रेस बनाम शहर कांग्रेस

राजस्थान की राजनीति के दोनों मुख्य दलों में सब कुछ ठीक नहीं है। भाजपा में हाइकमान की हेकड़ी की वजह से तो कांग्रेस में हाइकमान के अनिर्णय की मानसिकता से। राजस्थान में तीसरे मोर्चे की चर्चा जरूर होती है, लेकिन उनके पास ऐसा कोई नेता नहीं है जिसकी स्वीकार्यता समग्र राजस्थान में हो। 

इस तरह राजस्थान की राजनीति फिलहाल मोटामोट दो ही दल हैं, कांग्रेस और भाजपा। वर्तमान सिनेरियो में भाजपा के पास वसुंधरा राजे का कोई विकल्प बनता दिख नहीं रहा है तो कांग्रेस में सचिन पायलट अपनी हड़बड़ी के चलते अशोक गहलोत का विकल्प बनते-बनते भटक गये। इस भटक से उनमें उपजी कुण्ठाओं ने जहां पार्टी में उनकी स्वीकार्यता को और भी कम कर दिया वहीं इस घटनाक्रम से पार्टी और सरकार का कामकाज भी प्रभावित हो रहा है। 

आज बात कांग्रेस की करेंगे। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष, शिक्षामंत्री और बीकानेर जिलाप्रभारी मंत्री गोविन्दसिंह डोटासरा पिछले दिनों बीकानेर में थे। डोटासरा उन कांग्रेसी नेताओं में से हैं, जो मीडिया के साथ सोशल मीडिया को सुर्खियां देते रहते हैं। कुछ माह पूर्व नाथी के बाड़े का उल्लेख कर चर्चा में आये डोटासरा ने मंत्रिमण्डलीय बैठक के बाद चर्चा तब भी बटोरी जब मुख्यमंत्री की उपस्थिति में मंत्रिमंडल में असल दो नम्बर शान्ति धारीवाल से जब उलझे तो धारीवाल ने झिड़क दिया। धारीवाल की हेकड़ी इसलिए भी चुलती है कि वे पार्टी के लिए दूझती गाय है। नम्बर दो में असल का उल्लेख इसलिए करना पड़ा क्योंकि हमारे इधर बीडी कल्ला को नम्बर दो कहा जाता है। 

डोटासरा अभी जब बीकानेर आये तो वे मोर-पांख का झाड़ू बीकानेर के सभी नामी नेताओं के सिर पर रखने में चूके नहीं। बीडी कल्ला, रामेश्वर डूडी, वीरेन्द्र बेनीवाल, मंगलाराम गोदारा आदि सभी की मिजाजपुर्सी की बल्कि भंवरसिंह भाटी को तो विनायकजी की तरह साथ ही रखा। अपनी इस बीकानेर यात्रा में भी सुर्खियां जाने-अनजाने वे दे ही गये। कल्ला-कांग्रेस की और से कल्ला परिवार के राजनीतिक वारिस होने का मन बनाये अनिल कल्ला के पक्ष में जब 100 से अधिक कल्ला-कांग्रेसियों ने अनिल कल्ला को शहर अध्यक्ष बनाए जाने की लिखित पैरवी की तो डोटासरा यह बोले बिना नहीं रह सके कि मैं इसके मानी अच्छे से समझता हूं।
लेकिन ज्यादा सुर्खियां बटोरी निगम पार्षद अंजना खत्री ने। अंजना खत्री कांग्रेस की ओर से महापौर की उम्मीदवार थीं और गोटियां सही बैठ गयी होतीं तो सुशीला कंवर की जगह महापौर वह ही होतीं। महापौर नहीं बनी तो नहीं बनी, नेता प्रतिपक्ष भी वह अभी तक नहीं बन पा रही हैं। क्योंकि सूबे की सरकार और संगठन बीते डेढ़ वर्ष से दो बड़े मोर्चे को संभालने में ही लगे हैं। पहला भाजपा की शह से मोर्चें पर डटे सचिन पायलट के विद्रोह के चलते तो दूसरा महामारी कोरोना से। डोटासरा बीकानेर आये तो अंजना ने मिलकर निगम में नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति की मांग रखी। खीज में या स्वभाव के चलते डोटासरा ने झिड़कते हुए अंजना को यह कह दिया तुम अपने घर जाओ। उम्रदराज अंजना को संभवत: दो वजह से बुरा लगा हो—एक तो वे उम्र में डोटासरा से काफी बड़ी हैं दूसरा वह सक्रिय महिला हैं। अंजना को यह भी लगा होगा कि वह स्त्री है इसलिए उसे घर में बैठने की हिदायत दी जा रही है। अंजना ने भी पलट कर तैश में आकर जवाब दे दिया—मैं तो अपने घर (बीकानेर) में ही हूं, घर जायें आप। सामान्यत: शीर्ष के नेता कार्यकर्ताओं की ओर से इस तरह के जवाब सुनने के आदि नहीं होते हैं। फिर सोचा होगा जैसा दिया वैसा कभी-कभी झेलना भी पड़ सकता है। हालांकि बाद में अंजना खत्री ने सफाई देकर 'डेमेज कंट्रोल' की कोशिश जरूर की।

बीकानेर शहर कांग्रेस की राजनीति में दूसरी उल्लेखनीय घटना यह हुई कि पुराने कांग्रेसी नेता गुलाम मुस्तफा बाबूभाई की अगुआई में कांग्रेसियों ने डोटासरा के सामने मांग रखी कि बीकानेर शहर कांग्रेस की विधानसभा क्षेत्रवार पूर्व और पश्चिम की दो अलग-अलग शहर ईकाइयां होनी चाहिए। होगी कि नहीं, बाद की बात है लेकिन इतना पक्का है कि शहर कांग्रेस को कल्ला-कांग्रेस से मुक्त करवाने की लड़ाई स्थानीय कांग्रेसी हार चुके हैं। दो ईकाइयां होती भी हैं तो इसके लिए कल्ला-कांग्रेसियों की मौन स्वीकृति इसलिए भी मिल सकती है कि यदि ऐसा होता है तो वे अपनी दुकान निर्बाध चला सकेंगे। अन्यथा स्थानीय कांग्रेसी कुचरणी ज्यादा चाहे न कर पाएं, सिचले तो नहीं बैठने वाले। खैर, आसान न बीकानेर शहर अध्यक्ष की नियुक्ति है और न दो अलग-अलग ईकाइयां बनना, देखते जाओ आगे-आगे होता है क्या।

डोटासरा को लम्बी पारी खेलनी है तो बजाय मुखर होने के, घुन्ना होना और सावचेती से चलना बेहतर होगा अन्यथा नारायणसिंह, रामेश्वर डूडी, चन्द्रभान, बीडी कल्ला, जैसे पार्टी में लगभग शीर्ष हैसियत तक पहुंच कर फिसले हैं।
—दीपचन्द सांखला
30 जून, 2021

Saturday, June 12, 2021

रास्ता और रेल रोको आंदोलन

राजेन्द्र राठौड़ की गिरफ्तारी के बाद उनके हितचिन्तकों और जिनके हितसाधक राठौड़ रहे हैं, उन लोगों ने विरोध स्वरूप कल सड़कों पर आवागमन रोका और चूरू में रेलगाड़ी भी। राठौड़ चूरू जिले से नुमाइंदगी करते हैं, जाहिर है उनके हितचिन्तक और उनसे लाभान्वित वहीं ज्यादा होंगे। इसीलिए चूरू जिले में उद्वेलन कुछ ज्यादा रहा। प्रदेश में और भी कई जगह इस तरह के छुटपुट प्रदर्शन हुए हैं।

कल बीकानेर शहर में भी नयी गजनेर रोड पर कुछ देर तक रास्ता रोका गया–सूचना है कि उस समय तीन ऐंबुलेंस भी इस रास्ता रोको की शिकार हुईं―उन ऐंबुलेंस में ऐसे रोगी थे जिन्हें तत्काल विशेषज्ञ-डाक्टरों की सेवाओं की जरूरत थीं। आन्दोलनकर्ताओं को इसकी सूचना भी दी गई, लेकिन उन्होंने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। कल ही जब चूरू में यही सब हो रहा था तब विरोध पर उतरे लोगों ने सरायरोहिल्ला-बीकानेर रेलगाड़ी को रोकने की कोशिश की―नहीं रोक पाने पर उन्होंने रेलगाड़ी पर पत्थरबाजी की। यह सब विरोध के नाम पर अब आम होने लगा है। कुछ माह पहले भी जब महिपाल मदेरणा और मलखानसिंह की गिरफ्तारी हुई तो इसी तरह से विरोध प्रदर्शन हुए।

राजेन्द्र राठौड़ सचमुच आरोपी हैं तो थोड़े दिनों बाद उनके समर्थक शांत होने लगेंगे और नहीं हैं तो सीबीआई ज्यादा दिन उन्हें अन्दर नहीं रख पायेगी। हमारे कानून की चाल कछुवा जरूर है-अचल नहीं।

रेलगाडिय़ां और सड़कें रोकना अब विरोध की अभिव्यक्ति मान ली गई है―बिना यह जाने कि इस तरह से हम कितनों की जान से खेल रहे हैं और अगर कोई युवा अपने कॅरिअर बनाने के अवसर को हासिल करने निकला है तो उसके पेशेवर जीवन को ताक पर रखने की गलती भी कर रहे होते हैं, अब ऐसे अवसर वैसे ही बहुत सीमित हो गये हैं। कल के गजनेर रोड के रास्ता रोको में दो प्रसुताएं कराह रही थीं। उनके या उनके नवजात के साथ कुछ भी हो सकता था। इस तरह के विवेकहीन विरोधों में लगे सभी से निवेदन है कि वह इतना तो विचारें कि इन रेलों को और सड़कों को रोकने से आपका भी कोई प्रिय और परिजन किसी बड़ी तकलीफ में आ सकता है।

लोकतंत्र में प्रत्येक को अपनी बात कहने का हक हासिल है―किसी को यह लगता है कि उनके साथ या उनके किसी स्नेहीजन के साथ अन्याय हो रहा है तो उन्हें विरोध के और ध्यानाकर्षण के ऐसे उपाय काम लेने चाहिए जिससे किसी अन्य के हकों और महती जरूरतों में व्यवधान ना आये। किसी का हक मार कर, असुविधाओं में धकेल कर या किसी की जान जोखिम में डाल कर अपने हक हासिल करना चाहेंगे तो इस तरीके के शिकार कभी आप भी हो सकते हैं।

इस तरह की समझाइश पर यह जवाब आम होता है कि इसके बिना सुनवाई नहीं होती है। अगर ऐसा है, और देखा भी गया है कि है भी तो इसके लिए भी आप और हम ही दोषी हैं। इस व्यवस्था को हम पर किसी ने थोपा नहीं है, और प्रति पांच वर्ष बाद इस तरह की व्यवस्था को अगले और पांच और वर्ष के लिए हम ही स्वीकार करते हैं। राज किसी भी पार्टी का रहा हो, व्यवस्थाएं यूं ही चल रही है। यह न केवल बद से बदतर हो रही है बल्कि जिन्दगी की मुश्किलें भी लगातार बढ़ती जा रही हैं।

कल फिर शहर में बन्द का आह्वान है। आह्वानकर्ताओं से यह उम्मीद है कि अपने इस बन्द से आवश्यक सेवाओं को छूट दें,  सड़कें और रेलें आवश्यक सेवाओं में ही आती हैं।

इस तरह के आंदोलनों के पीड़ितों से भी उम्मीद की जाती है कि वह अपनी पीड़ा टीवी और अखबारों के माध्यम से जाहिर करें ताकि समाज में संवेदनशील समझ विकसित हो सके।

―दीपचंद सांखला
7 अप्रेल, 2012

Friday, June 11, 2021

प्रकोप में पुलिस

परसों बुधवार की घटना है, म्यूजियम तिराहे पर होमगार्ड का एक सिपाही ड्यूटी पर था। जीप चलाते हुए मोबाइल पर बात करते एक चालक को जब उसने टोका तो चालक को इतना नागवार लगा कि उसने होमगार्ड के जवान की न केवल पिटाई कर दी बल्कि उसका कान चबा कर लहूलुहान भी कर दिया। जीप चालक की हेकड़ी इतने भर से संतुष्ट नहीं हुई, वह सरिया लेकर और सबक सिखाने तक को आतुर हो गया, ताकि वह होमगार्ड का वह जवान भविष्य में किसी अन्य के साथ इस तरह ड्यूटी ना निभाए।

9 फरवरी को सादुलसिंह सर्किल का एक दृश्य। इसी दिन यातायात पुलिस ने महात्मा गांधी रोड पर सादुलसिंह सर्किल तक इकतरफे यातायात की नई व्यवस्था लागू की थी। यातायात निरीक्षक (टीआई) स्वयं सर्किल पर तैनात थे। बावजूद इसके एक ऑटोचालक ने व्यवस्था के उल्लंघन की जुर्रत की। जब टीआई ने उस पर कार्यवाही के आदेश दिये तो ऑटोचालक का दुस्साहस देखिए, उसने अपने किसी निर्भयकर्ता 'आका' को मोबाइल लगा टीआई से कहने लगा, 'लो, बात करो।'

एक और घटना का जिक्र करना जरूरी है। लगभग एक वर्ष पहले की बात है, तौलियासर भैरूं मन्दिर चौराहे पर तब ऑटोरिक्शा अनधिकृत और बेतरतीब खड़े रहा करते थे, किसी की भी नहीं सुनते। ट्रैफिक पुलिस ने एक महिला सिपाही की वहां ड्यूटी लगा दी, यह जानते हुए भी कि वहां के ये ऑटोरिक्शा वाले पुरुष कांस्टेबल के भी ताबे नहीं आते। वह महिला सिपाही दो-तीन दिन में ही इन ऑटोरिक्शा वालों से इतनी कुंठित हुई कि एक ऑटोरिक्शा के कांच (विंड स्क्रीन) पर डंडा दे मारा। कांच टूट गया। हालांकि महिला सिपाही की यह कार्यवाही गलत थी लेकिन ऑटोरिक्शा वाला भी क्या सही था? ऑटोरिक्शा वालों को यह कैसे बर्दाश्त होता, वे तो पुरुष सिपाहियों को भी दिन में कई-कई बार आईना दिखाते रहते हैं, एक महिला सिपाही को इस तरह कैसे बर्दाश्त करते—हड़ताल कर दी—तब के पुलिस अधीक्षक ने भी खुद को बिना रीढ़ के होने का प्रमाण दिया—उस महिला सिपाही से उस ऑटोरिक्शा वाले से रू-बरू माफी मंगवाई। पुलिस अधीक्षक ने वस्तुस्थिति जानते हुए भी ऐसा करवाया जो उस महिला सिपाही के लिए ही नहीं पूरे पुलिस महकमे के लिए हतोत्साही करने वाला था। ऐसी परिस्थितियों में इन पुलिस वालों से हम कैसी उम्मीद कर सकते हैं!

इन तीन घटनाओं का उल्लेख यहां यह बताने के लिए किया गया कि पूरे पुलिस महकमे को विभिन्न सत्तारूपों ने किस तरह से पंगु बना दिया है—यह सत्तारूप नेताओं के रूप में, यूनियन के रूप में और अब तो एक और सत्तारूप शालीनता से आवृत पत्रकारों की हमारी जमात का भी है। हमारे पत्रकार भी सिपाहियों से मोबाइल पर किसी को छोड़ने का आग्रह करते देखे जा सकते हैं—हालांकि पत्रकारों का स्वर शालीन होता है। नेताओं के स्वर में अकसर जो हेकड़ी देखी जाती है—वह पत्रकारों में अभी नहीं आई है। यानी जिस किसी के पास भी किसी पावर का दावं है, वह उसे लगाने से नहीं चूकता।

उस जीप चालक को किसी अपने 'आका' का जोम था, तभी उसने उस होमगार्ड को सबक सिखाने की ठानी। अब उस होमगार्ड के सिपाही को पुलिस से और अपने होमगार्ड के साथियों से यह नसीहत दी जा रही होगी कि ड्यूटी पर चुपचाप खड़े क्यों नहीं रहते—किसी से उलझना जरूरी है क्या?
9 फरवरी की घटना में भी जरूर उस ऑटोचालक को उसके आका ने नसीहत नहीं दे रखी होगी कि सिपाहियों को तो मेरे फोन का डर दिखा दिया कर—अफसरों को नहीं।

अपराधी या अनियमितता करने वालों में से जिस किसी के पास भी दावं बड़ा होता है, वह अपनी पावली चलाता ही है—लेकिन मदेरणा, मलखान, राठौड़, एडीजे एके जैन, आईजी पोन्नूचामी, एएसपी अरशद को सीखचों के पीछे देखकर इतना तो समझ लेना चाहिए कि न्याय के घर देर भले ही हो, अंधेर नहीं है। जरूरत दृढ़ इच्छा-शक्ति के साथ न्याय के घर का लगातार दरवाजा खटखटाते रहने की है।

—दीपचंद सांखला
6 अप्रेल, 2012

'खलनायक' अशोक गहलोत

भारतीय मन में रचे-बसे दो महाकाव्य रामायण और महाभारत, दोनों अतुलनीय। लोक में इन दोनों के ही सैकड़ों रूप मिलते हैं। जीवन के अनगिनत आयामों को बारीकी से समझाने में सक्षम इन दोनों ही महाकाव्यों के मुख्यपात्रों को आधुनिक सिनेमाई अन्दाज से देखें तो नायक की उपस्थिति इन दोनों में मिलती है। रामायण में नायक के रूप में राम और खलनायक के रूप में रावण हैं तो महाभारत में यह बड़ा गड्ड-मड्ड है―वहां नायक केवल कृष्ण हैं और सभी पात्रों को कहीं न कहीं खलनायकी के कठघरे में खड़ा पाते हैं, कहीं-कहीं कृष्ण को भी।

वर्तमान राजनीति को देखें तो महाभारत की तर्ज पर कोई भी पात्र यहां भी खलनायकी से अछूता नहीं है। चूंकि आज के इस ‘महाभारत’ को रचने वाले ॠषि वेदव्यास नहीं है तो कृष्ण के रूप में कोई नायक भी नहीं है। इसलिए कोई राजनेता अपने को नायक साबित करता तो नहीं दिखता पर अपने बरअक्स अन्य को खलनायक साबित करने की जुगत में जरूर लगा मिलेगा, गोया बरअक्स शख्सियत को खलनायक साबित करना ही अपने को नायक साबित करना है।

हमारे बीकानेर में भी यह प्रपंच बदस्तूर जारी है। यहां यह प्रयास लगातार जारी रहता है कि बीकानेर के विकास में सबसे बड़ी बाधा अशोक गहलोत हैं―इसमें विपक्षियों से ज्यादा कांग्रेसियों की सक्रियता अधिक दिखाई देती है। अशोक गहलोत को खलनायक के तौर पर स्थापित कर देने भर से यहां के राजनेताओं और जनप्रतिनिधियों की बहुत-सी मुश्किलें आसान हो जाती हैं और उनकी अक्षमताओं को आड़ भी मिल जाती है।

राज्य के इस वर्ष के बजट को ही लें, मुख्यमंत्री ने छः विश्‍वविद्यालयों की घोषणा की है, बीकानेर का नाम उनमें नहीं था। लेकिन जब बीकानेर के लिए वेटेनरी विश्‍वविद्यालय की घोषणा की गई तब किसी अन्य संभाग के लिए ऐसी कोई घोषणा नहीं थी, यह ना तो कांग्रेस के नेता बताते हैं और ना ही मीडिया इसका उल्लेख करता है। हां, मीडिया नागौर के लिए की गई घोषणाओं को जोधपुर के खाते में जरूर डाल देगा, यह बिना जाने कि नागौर, अजमेर संभाग में है। 

केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय का उलाहना मुख्यमंत्री को हमेशा रहेगा―विजयशंकर व्यास कमेटी की सिफारिश के बावजूद उसे अजमेर को दे दिया जाना बीकानेर के साथ अन्याय है। केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय की इस घोषणा में क्या दाबा―चींथी नहीं हुई–इसको इस तरह भी कह सकते हैं कि सचिन पायलट के सामने हमारे दिग्गज बालक हो लिए।

हमारे नेताओं ने कभी इस पर चिन्तन किया कि यहां के इंजीनियरिंग कॉलेज की जिस तरह की प्रतिष्ठा लगभग पांच वर्ष पहले थी, वैसी अब क्यों नहीं है? या यह कि उसका स्तर लगातार क्यों गिरता जा रहा है―इस तरह के कॉलेजों की प्रतिष्ठा प्लेसमेंट के लिए वहां पर आने वाली कम्पनियों और उनके द्वारा दिए जाने वाले मोटे पैकेज से तय होती है। बीकानेर का इंजीनियरिंग कॉलेज किस तरह की राजनीति का शिकार हो रहा है?

गंगासिंह विश्‍वविद्यालय आज भी किस हैसियत में है―यहां के नेताओं ने उसके लिए क्या प्रयास किये। अगर सचमुच किये हैं तो उनका रंग दिखाई क्यों नहीं दे रहा।

सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरों के कितने पद खाली हैं, तकनीकी स्टाफ के कितने और अन्य कर्मचारियों के कितने पद भरे नहीं जा रहे हैं। इसकी जवाबदेही अशोक गहलोत से ज्यादा यहां के नेताओं की बनती है, उन्होंने इसके लिए अब तक क्या प्रयास किये हैं।

यहां के सरकारी स्कूलों और सरकारी कॉलेजों में कक्षाएं नियमित नहीं लगती हैं। आज से नहीं पिछले बीसेक वर्षों से स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं। क्या यह स्थानीय नेताओं की जिम्मेदारी में नहीं आता है कि इन स्थितियों को दुरस्त करवाएं। ना पुलिस महकमे में सिपाही पूरे हैं और ना ही ट्रैफिक पुलिस के पास। इन पदों को भरवाना तो दूर, उलटे पुलिस वालों का मनोबल गिराने को ये नेता नाजायज कामों के लिए दिन में कितने फोन करते हैं―इसकी सूचना तो किसी भी अधिकार के तहत हासिल नहीं की जा सकती।

रेल बायपास एक ऐसा मुद्दा है जिससे इस बीकानेर शहर का कोई भला नहीं होने वाला―इसके बावजूद यहां के नेता इस लॉलीपॉप को न छोड़ने की जिद पर अड़े हैं। 
यह भी कि देश में कहीं रेल बायपास इस बिना पर बनने का कोई उदाहरण है कि रेल लाइन शहर के बीच आ गयी है। रेल फाटकों की समस्या का समाधान रेल ओवरब्रिज-रेल अन्डरब्रिज और एलिवेटेड रोड ही हैं–यहां कि नुमाइंदगी करने वालों से विनम्र अनुरोध है कि अपने तुच्छ स्वार्थों को साधने के वास्ते जनता को गुमराह ना करें।

अशोकजी! बीकानेर में लम्बे समय से पुलिस अधीक्षक नहीं है, माध्यमिक शिक्षा आयुक्त नहीं है, पीबीएम अस्पताल में अधीक्षक नहीं है। मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज और डूंगर कॉलेज में प्रिंसिपल नहीं है। यह जानते हुए भी कि आपको सात संभागों के तैंतीस जिलों को देखना होता है―लेकिन फिर भी किसी संभाग या जिले पर ध्यान देने का नम्बर कभी तो आना चाहिए! कहा भी गया है कि शासक न्यायप्रिय हो इतना ही काफी नहीं है, न्याय होता दिखना भी चाहिए।
―दीपचंद सांखला
3 अप्रेल, 2012

कर्मचारी ईमानदार भी और रिश्वतखोर भी

बीकानेर के केन्द्रीय कारागार में सेवारत प्रहरी निहालचन्द कल जब रिश्‍वत लेते धरे गये तो उन्होंने बताया कि इस जेल में पैसे देने पर सब कुछ हासिल हो सकता है। कुंठित स्वरों में निहालचन्द ने जो कुछ बताया उन सूचनाओं की वाकफियत शहर के कई लोगों को है। इन कई में वे भी शामिल हैं जिनकी जिम्मेदारी ही है कि जेल में कैदियों को सबकुछ हासिल ना होने दें। अपने सजग होने का दम भरने वाले अधिकतर पत्रकारों को, जिला प्रशासन को, पुलिस महकमे को, कोर्ट-कचहरी में होने वाली हथाइयों में शामिल होने वालों को भी यह जानकारियां रहती हैं। जिनके मित्र-परिजन जेल में कभी रहे हैं या इन दिनों हैं―उन्हें तो इन सबका ज्ञान सांगो-पांग हो जाता है। यह भी नहीं कि जेल-कर्मचारियों में निहालचन्द पहली बार धरे गये हैं, अपने राजस्थान में तो जेल अधीक्षक तक रिश्‍वत लेते धरे गये हैं। कल निहालचन्द धरे गये―क्या कोई भी यह गारंटी ले सकता है कि बीकानेर जेल में कोई अवैध लेन-देन कम से कम आज तो नहीं हुआ होगा? शायद नहीं। अन्य कोई सरकारी कार्यालय इससे अछूता नहीं है। सरकारी ही क्यों, बड़ी निजी कंपनियों के कार्यालयों में भी रिश्‍वत के लेन-देन के बारे में सुना जाने लगा है। जबकि ईमानदार कर्मचारियों से तो यह भी सुना गया है कि छठे वेतन के बाद तो सरकार इतना देने लगी है कि खाये-ओढ़े खूटता ही नहीं है।

इस विषय को उठाने का मतलब यह मान लेना कतई ना समझें कि सभी कर्मचारी रिश्‍वतखोर हैं। निष्पक्ष सर्वे करवाया जाय तो आधे से अधिक कर्मचारी ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और काम से मतलब रखने वाले मिल जायेंगे। हमारे टीवी, अखबार ऐसे लोगों को कभी सुर्खियां नहीं देते हैं। उनका तर्क होता है कि हम गारंटी कैसे दे सकते हैं। कम से कम सेवानिवृत्ति पर तो ईमानदार-कर्मठों को सुर्खियां मिलनी ही चाहिए। हां, इसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं कि कुछ कार्यालय ऐसे भी होंगे जहां नब्बे प्रतिशत रिश्‍वतखोर या हरामखोर होंगे तो कुछ दफ्तर ऐसे भी मिल जायेंगे जहां नब्बे प्रतिशत कर्मचारी भले होंगे, तर्क देने वाले कह सकते हैं कि ऐसे दफ्तरों में बेईमान होने की गुंजाइश ही नहीं होती―यह पूरा झूठ नहीं तो आधा सच तो हो ही सकता है―कोई बेईमान नहीं भी होना चाहे तो लोग करने को तत्पर रहते हैं। जनरल वी के सिंह कहते हैं कि उन्हें चौदह करोड़ की रिश्‍वत की जब पेशकश की गई तो इस कुतर्क से समझाने की कोशिश की गई कि ‘सभी लेते हैं, आप भी ले लो।’ यह कुतर्क चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर सत्ता के शिखर पर बैठे तक अकसर कारगर साबित होता देखा गया है। लेकिन कुछ लोग हैं जो पता नहीं किस मिट्टी के बने है। राजस्थान की जनता पार्टी सरकार की एक घटना है, महबूब अली जलदाय विभाग में मंत्री थे, एक अभियंता का ‘मलाईदार’ पद से ट्रांसफर हो गया―ब्रीफकेस लेकर वह अभियंता पहुंच गये मंत्रीजी के बंगले। मंत्रीजी ने लगभग झाड़ते हुए कह दिया कि ‘पानी के विभाग से हो–आपको यह पता नहीं कि मेरे शहर बीकानेर का पानी कितना गहरा है। जाओ, जहां के आर्डर हुए हैं, जाकर ज्वाइन कर लो।’ कहने वाले कह सकते हैं कि महबूब अली को उस अभियंता को गिरफ्तार करवाना चाहिए था, लेकिन अधिकांश ईमानदार ऐसे लफड़ों से बचते देखे गये हैं। एक घटना और बताते हैं―उसी जलदाय विभाग के एक सहायक अभियन्ता थे हमारे बीकानेर में, बेहद ईमानदार-निष्ठावान और कर्मठ अधिकारी की छवि भी थी उनकी। वे अपने घर के दरवाजे पर खड़े थे, तभी एक पत्रकार उनके पड़ौसी से मिलने आये। उन पत्रकार महोदय ने उन अभियन्ता के लिए पड़ोसी के सामने भद्दी और अपमानजनक टिप्पणी की, जिसे ज्यों का त्यों नहीं लिखा सकता, लेकिन उन पत्रकार का कहना यही था कि यह मूर्ख है।

जेल प्रहरी निहालचन्द शायद माहौल का मारा हो सकता है, कुंठित इसलिए हुआ हो कि जब सभी रिश्‍वत लेकर खोटे कर रहे हैं तो शिकार वो अकेला ही क्यों हो रहा है?
कुछ भ्रष्टों के हृदय परिवर्तन होते भी देखे गये हैं। सौ-सौ चूहे खाकर हज जाने की तर्ज पर―पिछले वर्ष आठ अप्रैल को भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के अनशन के समर्थन में बीकानेर के कुछ लोग एक दिन के सांकेतिक अनशन पर गांधी पार्क में बैठे थे, वहां बैठने वालों में दो-एक ऐसे भी थे जिन्होंने सेवानिवृत्ति के दिन तक रिश्‍वत दोनों हाथों बटोरी थी। हो सकता है सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें अपने किये पर ग्लानि होने लगी हो, तभी भ्रष्टाचार के खिलाफ वहां आकर बैठे होंगे।
―दीपचंद सांखला
2 अप्रेल, 2012