बीकानेर के केन्द्रीय कारागार में सेवारत प्रहरी निहालचन्द कल जब रिश्वत लेते धरे गये तो उन्होंने बताया कि इस जेल में पैसे देने पर सब कुछ हासिल हो सकता है। कुंठित स्वरों में निहालचन्द ने जो कुछ बताया उन सूचनाओं की वाकफियत शहर के कई लोगों को है। इन कई में वे भी शामिल हैं जिनकी जिम्मेदारी ही है कि जेल में कैदियों को सबकुछ हासिल ना होने दें। अपने सजग होने का दम भरने वाले अधिकतर पत्रकारों को, जिला प्रशासन को, पुलिस महकमे को, कोर्ट-कचहरी में होने वाली हथाइयों में शामिल होने वालों को भी यह जानकारियां रहती हैं। जिनके मित्र-परिजन जेल में कभी रहे हैं या इन दिनों हैं―उन्हें तो इन सबका ज्ञान सांगो-पांग हो जाता है। यह भी नहीं कि जेल-कर्मचारियों में निहालचन्द पहली बार धरे गये हैं, अपने राजस्थान में तो जेल अधीक्षक तक रिश्वत लेते धरे गये हैं। कल निहालचन्द धरे गये―क्या कोई भी यह गारंटी ले सकता है कि बीकानेर जेल में कोई अवैध लेन-देन कम से कम आज तो नहीं हुआ होगा? शायद नहीं। अन्य कोई सरकारी कार्यालय इससे अछूता नहीं है। सरकारी ही क्यों, बड़ी निजी कंपनियों के कार्यालयों में भी रिश्वत के लेन-देन के बारे में सुना जाने लगा है। जबकि ईमानदार कर्मचारियों से तो यह भी सुना गया है कि छठे वेतन के बाद तो सरकार इतना देने लगी है कि खाये-ओढ़े खूटता ही नहीं है।
इस विषय को उठाने का मतलब यह मान लेना कतई ना समझें कि सभी कर्मचारी रिश्वतखोर हैं। निष्पक्ष सर्वे करवाया जाय तो आधे से अधिक कर्मचारी ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और काम से मतलब रखने वाले मिल जायेंगे। हमारे टीवी, अखबार ऐसे लोगों को कभी सुर्खियां नहीं देते हैं। उनका तर्क होता है कि हम गारंटी कैसे दे सकते हैं। कम से कम सेवानिवृत्ति पर तो ईमानदार-कर्मठों को सुर्खियां मिलनी ही चाहिए। हां, इसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं कि कुछ कार्यालय ऐसे भी होंगे जहां नब्बे प्रतिशत रिश्वतखोर या हरामखोर होंगे तो कुछ दफ्तर ऐसे भी मिल जायेंगे जहां नब्बे प्रतिशत कर्मचारी भले होंगे, तर्क देने वाले कह सकते हैं कि ऐसे दफ्तरों में बेईमान होने की गुंजाइश ही नहीं होती―यह पूरा झूठ नहीं तो आधा सच तो हो ही सकता है―कोई बेईमान नहीं भी होना चाहे तो लोग करने को तत्पर रहते हैं। जनरल वी के सिंह कहते हैं कि उन्हें चौदह करोड़ की रिश्वत की जब पेशकश की गई तो इस कुतर्क से समझाने की कोशिश की गई कि ‘सभी लेते हैं, आप भी ले लो।’ यह कुतर्क चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर सत्ता के शिखर पर बैठे तक अकसर कारगर साबित होता देखा गया है। लेकिन कुछ लोग हैं जो पता नहीं किस मिट्टी के बने है। राजस्थान की जनता पार्टी सरकार की एक घटना है, महबूब अली जलदाय विभाग में मंत्री थे, एक अभियंता का ‘मलाईदार’ पद से ट्रांसफर हो गया―ब्रीफकेस लेकर वह अभियंता पहुंच गये मंत्रीजी के बंगले। मंत्रीजी ने लगभग झाड़ते हुए कह दिया कि ‘पानी के विभाग से हो–आपको यह पता नहीं कि मेरे शहर बीकानेर का पानी कितना गहरा है। जाओ, जहां के आर्डर हुए हैं, जाकर ज्वाइन कर लो।’ कहने वाले कह सकते हैं कि महबूब अली को उस अभियंता को गिरफ्तार करवाना चाहिए था, लेकिन अधिकांश ईमानदार ऐसे लफड़ों से बचते देखे गये हैं। एक घटना और बताते हैं―उसी जलदाय विभाग के एक सहायक अभियन्ता थे हमारे बीकानेर में, बेहद ईमानदार-निष्ठावान और कर्मठ अधिकारी की छवि भी थी उनकी। वे अपने घर के दरवाजे पर खड़े थे, तभी एक पत्रकार उनके पड़ौसी से मिलने आये। उन पत्रकार महोदय ने उन अभियन्ता के लिए पड़ोसी के सामने भद्दी और अपमानजनक टिप्पणी की, जिसे ज्यों का त्यों नहीं लिखा सकता, लेकिन उन पत्रकार का कहना यही था कि यह मूर्ख है।
जेल प्रहरी निहालचन्द शायद माहौल का मारा हो सकता है, कुंठित इसलिए हुआ हो कि जब सभी रिश्वत लेकर खोटे कर रहे हैं तो शिकार वो अकेला ही क्यों हो रहा है?
कुछ भ्रष्टों के हृदय परिवर्तन होते भी देखे गये हैं। सौ-सौ चूहे खाकर हज जाने की तर्ज पर―पिछले वर्ष आठ अप्रैल को भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के अनशन के समर्थन में बीकानेर के कुछ लोग एक दिन के सांकेतिक अनशन पर गांधी पार्क में बैठे थे, वहां बैठने वालों में दो-एक ऐसे भी थे जिन्होंने सेवानिवृत्ति के दिन तक रिश्वत दोनों हाथों बटोरी थी। हो सकता है सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें अपने किये पर ग्लानि होने लगी हो, तभी भ्रष्टाचार के खिलाफ वहां आकर बैठे होंगे।
―दीपचंद सांखला
2 अप्रेल, 2012
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