Friday, February 13, 2015

बलात्कार : मर्दी ‘संस्कार’

सोलह दिसम्बर, 2012 के दिल्ली निर्भया कांड के गुनहगारों पर कोई अंतिम फैसला अभी नहीं आया है। उस जघन्य बलात्कार को अंजाम देने वालों में एक नाबालिग था, जिसके बहाने किशोर अपराधों पर लम्बी-चौड़ी विधिक बहसें हो लीं। अन्ना अलख से उर्जित और आन्दोलित किशोर युवाओं ने निर्भया को आवाज दी। चूंकि मामला देश की राजधानी दिल्ली का था सो एकबारगी देश की सरकार भी सकते में गई। देशभर के युवाओं की स्व:स्फूर्ति ने तब बहम करवा दिया कि कम-से-कम बलात्कार जैसा मर्दानगी का कुकर्म अब रुक ही जाएगा। लेकिन ऐसा मानना मात्र भुलावा साबित हुआ। बलात्कार और सामूहिक बलात्कार की घटनाएं केवल देश के विभिन्न हिस्सों में बल्कि दिल्ली में भी लगातार जारी हैं। आंकड़े तो यह बता रहे हैं कि निर्भया कांड के बाद ऐसी घटनाओं का औसत बढ़ा है।
इससे भी ज्यादा जघन्य कुकर्म देश की राजधानी दिल्ली से मात्र अस्सी किलोमीटर दूर रोहतक में हाल ही में हुआ। इसी 1 फरवरी, को _ाईस वर्षीया नेपाली युवती के साथ निर्भया जैसा या कहें उससे भी ज्यादा घिनौना कृत्य किया गया-उक्त युवती मानसिक तौर पर असामान्य थी और पीजीआई रोहतक में इलाज के लिए अपनी बहिन के यहां आई हुई थी। हमारा समाज स्त्री को नागरिक के रूप में दूसरे-तीसरे से लेकर चौथे-पांचवें तक के दर्जे की हैसियत में रखने के लिए सामान्यत: पुरुष को बचपन से जो मर्द होने के संस्कार देता है उसके चलते अनुकूलता मिलते ही पुरुषों में यह वहशीपन आता ही है। नौ दरिन्दे जो युवा ही हैं और पुरुष हैं-इसलिए मर्द तो हुए ही।
अपहरण कर युवती को सूने कमरे में ले जाने के बाद सभी नौ युवाओं ने पहले शराब पी और फिर उस युवती के साथ दुष्कर्म में लग गए। शहर से बाहर किए इस काम के बाद उन्होंने एकबारगी उस युवती को शहर की दिशा की ओर टोर दिया। बाद में खयाल उपजा कि इसने जाकर किसी को बता दिया तो मारे जाएंगे-उन्होंने जाकर उसे बीच रास्ते में केवल रोका बल्कि उसे मार भी दिया! उनकी दरिन्दगी की खुजली इतने में ही नहीं मिटी। फिर लौटे-उसके शव के गुप्तांग में कंकर-पत्थर घुसेड़े और चल दिए। फिर उनमें से किसी को ध्यान आया कि युवती ने नाक और कानों में सोने का कुछ पहने हुए है। वह फिर लौटे-और उन्हें तोड़ कर ले गये। इस घटना को हुए आज बारह दिन हो गये-देश में कहीं भी कोई मोमबत्ती जली और ही कोई आक्रोश उपजा!
हमारे देश में प्रत्येक बाईस मिनट में कहीं--कहीं किसी बालिका या किशोरी या युवती यहां तक अधेड़ और वृद्धा तक के साथ ऐसा घटित होता है यानी प्रतिदिन औसतन पैंसठ स्त्रियां 'मर्दानी मानसिकताÓ की शिकार होती हैं। यह आंकड़ा तो वह है जो किसी--किसी रूप में दर्ज होता है। ऐसी बहुत सी पीडि़ताएं होंगी जो चुपचाप बर्दाश्त कर लेती हैं या उनके परिजन मन मसोस कर रह जाते हैं। ये सब गिनती में जायें तो भी ऐसे आंकड़े शायद ही ऐसा कुछ कर पाएं कि हम इस मर्दवादी मानसिकता से थोड़ा बाहर सकें।
भारत ही क्यों दुनिया के बड़े हिस्से में सदियों से पुरुषों ने मर्द वर्चस्ववादी सामाजिक संरचना का पोषण किया है जिसमें स्त्री को स्त्री के अलावा सब कुछ मानने के संस्कार दिए जाते हैं-स्त्री देवी है, स्त्री पूजनीय है। स्त्री कुलक्षणी है, स्त्री वेश्या है। स्त्री डायन है आदि-आदि। ये सब विशेषण उस मर्दानी की चतुर अभिव्यक्तियां हैं जिसमें कोशिश रहती है कि स्त्री को स्त्री माना जाए। स्त्री मानेंगे तो उसे बराबरी का दर्जा देना होगा, और बराबरी का दर्जा देते ही पुरुष की मर्द मानसिकता का पोषण रुक जायेगा बलात्कार की घटनाएं ऐसे ही संस्कारों की परिणति हैं।
पैंतीस वर्ष पुरानी बीकानेर की एक चश्मदीद घटना से 'मर्दानी प्रतिक्रिया' से अवगत करवाना जरूरी लगा। शहर में एक युवती मोटरसाइकिल चलाने लगी थी, तब राजदूत मोटरसाइकिल हुआ करती थी। जब वह गुजरती तो शहर के लोगों के लिए वह युवती कौतुकीय चुनौती से कम नहीं होती थी।
एक दिन देखा कि वह पब्लिक पार्क स्थित गंगासिंह प्रतिमा के पास से गुजर रही थी, वहीं किनारे फुटपाथ पर दो-तीन युवक बैठे बतिया रहे थे। उनकी मर्दानगी एक युवती को मोटरसाइकिल चलाते देखना बर्दाश्त नहीं कर पायी। उनमें से एक ने तत्क्षण पास पड़ा ईंट का लगभग एक-तिहाई खोरिया उठाया और घुमाकर उसकी ओर फेंक दिया। वह खोरिया उसकी मोटरसाइकिल के पिछले चक्के पर जा लगा। उस युवती ने मोटरसाइकिल को ठिठकाया भर था और उन्हें देखती हुई ऐसे निकल गई मानो उसे इस सब की आदत हो ली है।
इस तत्क्षण प्रतिक्रिया से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उन युवकों का मर्द संस्कार युवती को मोटरसाइकिल चलाते देख कितना आहत हुआ होगा-पाठक जानते ही हैं कि मोटरसाइकिल को मर्दों की सवारी मान लिया गया है। अधिकांश मर्दों के संस्कार ऐसे ही महसूस किए जा सकते हैं, अंतर इतना ही है कि कुछ बाहरी प्रतिक्रिया दे बैठते हैं। और शेष मर्द अधिकांश में से मानसिक प्रतिक्रिया देने से कम ही चूकते हैं।
स्त्री के साथ ऐसे व्यवहार तब तक नहीं रुकेंगे जब तक पुरुष उन्हें बराबर की हैसियत का मानने लगें। उम्मीद की जानी चाहिए कि चंद पीढिय़ों के बाद की स्त्रियां बराबरी का दर्जा हासिल कर लेंगी।

13 फरवरी, 2015

Thursday, February 12, 2015

कोटगेट और सांखला रेल फाटक : बीकानेरियो! अब तो चेतो

कोटगेट और सांखला रेल फाटकों को शहर की सबसे बड़ी समस्या मान लिया जाना चाहिएˆ इसके साथ यह भी कि हमारी सबसे बड़ी मांग भी यही है और असल जरूरत भी।
जिले के प्रभारी मंत्री राजकुमार रिणवा कल यहीं थे और दिन भर उन्होंने शहर और जिले के हितों पर चर्चा करने में अपने को व्यस्त रखा। सिरेमिक्स हब, केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय, रिंग रोड आदि मुद्दों पर चर्चा करने के अलावा उन्होंने विशेष रूप से मंडल रेल प्रबन्धक के साथ बैठक कर  कोटगेट और सांखला रेल फाटकों की समस्या के व्यावहारिक पक्षों को जाना-समझा। मोटा-मोट यही निकलकर आया कि रेल बाइपास का समाधान घोर अव्यावहारिक है, कोटगेट फाटक पर अण्डरपास मात्र चेपे का समाधान साबित होगा, ऊपरी रेल पुलिया संभव नहीं है। एकमात्र समाधान बचा तो एलिवेटेड रोड ही।
विनायकइस समस्या पर चर्चा पिछले साढ़े तीन साल में कम-से-कम चार-पांच बार इसी कालम में कर चुका है और आज फिर इसलिए कर रहा कि यह समस्या दिन-ब-दिन विकराल होती जा रही है। अपनी बात को विनायकफिर इसलिए दोहरा रहा है कि शहरवासियों को इस सबसे बड़ी समस्या का व्यावहारिक समाधन हासिल हो सके।
बाइपास की बात करें तो पहले तो यह कि इस देश में तो कम-से-कम कोई ऐसा उदाहरण नहीं कि यातायात समस्या के समाधान के लिए रेलवे लाइन को शहर से बाहर कहीं शिफ्ट किया गया हो! इसमें कई व्यावहारिक कठिनाइयां होती हैं। बाहर शिफ्ट करना न केवल बहुत महंगा समाधान है बल्कि रेलमार्ग के बढ़ने से रेलवे को उन लम्बी दूरी की सवारी गाड़ियों के बढ़े समय से जूझना पड़ेगा, जिनके समय को कम करने में वह बराबर सचेत है। बीकानेर के सन्दर्भ से बात करें तो नोखा, श्रीडूंगरगढ़ की ओर से बीकानेर स्टेशन आने वाली वह गाड़ियां जिन्हें सूरतगढ़, फलौदी की ओर जाना हो या आना हो, वे पहले बीकानेर स्टेशन आएंगी और लौटकर नये बाइपास स्टेशन से अपने गंतव्य की ओर जायेंगी। यह स्टेशन बीकानेर इस्ट और उदयरामसर के बीच कहीं बनाना होगा। यदि ऐसा करेंगे तो प्रत्येक गाड़ी का पहुंच समय न्यूनतम डेढ़ घंटा बढ़ जायेगा। और यदि ऐसा न करें यानी सभी गाड़ियों को बीकानेर स्टेशन न लाकर बीकानेर बाइपास स्टेशन से ही गुजारें तो भी प्रत्येक रेलगाड़ी के पहुंच समय में पैंतीस से पैंतालीस मिनट का इजाफा हो जायेगा। मान लेते हैं ऐसा कर भी लें तो क्या वह स्थाई समाधान है? शहर बढे़गा ही, ऐसे में पचास साल बाद बाइपास भी क्या पुन: शहर के बीच नहीं आ जायेगा। और केवल मालगाड़ियों के लिए ही बाइपास बनाएंगे और सवारी गाड़ियां ज्यों-की-त्यों शहर के बीच से निकलें तो समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। क्योंकि बीकानेर होकर गुजरने वाली सवारी गाड़ियों का संचालन प्रतिवर्ष बढ़ ही रहा है। अन्दाज लगाइये ऐसी नई दो सवारी गाड़ियां ही शहर को प्रतिवर्ष मिलती हैं तो आना-जाना शामिल कर सांखला और कोटगेट रेल फाटकों की बन्द होने की आवृत्ति प्रतिवर्ष प्रत्येक चौबीस घंटे में चार तक बढ़ जानी है।
रही बात रेल अण्डरब्रिज की, यह सांखला फाटक पर तो बन ही नहीं सकता। कोटगेट फाटक पर भी धिंगाणिया ही बनाया जा सकता है, रेलवे भी हांअपनी डाई उतारने के लिए ही कह रही है। पहली समस्या तो इस अण्डरब्रिज की यह कि शहर के इस मुख्य बाजार का बड़ा हिस्सा खत्म हो जायेगा। दूसरी, यह कि इस कोटगेट फाटक के एक तरफ शहर का मुकुट कोटगेट है तो दूसरी तरफ फड़बाजार चौराहा। ऐसे में जैसे-तैसे इसे बना भी लिया तो तकनीकी तौर से न ढलान रखी जा सकेगी और ना ही बारिश के दिनों में आधे अन्दरूनी शहर से आने वाले पानी को संभाला जा सकेगा। कहने को तो कहा जा रहा है कि उस पानी को मोटी पाइप लाइन के जरिये शहर के बाहर छोड़ा जायेगा। क्या तीन-चार किलोमीटर लम्बी इस पाइप लाइन को सुचारु रखा जा सकेगा। उदाहरण सामने है सूरसागर काˆसूरसागर में बारिश का पानी न जाए इसके लिए उसके दो तरफ जालियों के चेम्बर लगाकर सिवर के पाइप डाले गये हैं जो हर बारिश में डट जाते हैं और गंदा और बरसाती पानी सूरसागर में जाये बिना नहीं रहता। इस तरह जब सामान्य सड़क के बरसाती पानी को सुचारु रूप से नहीं निकाल सकते तो सड़क से तेरह-चौदह फीट नीचे के अण्डरब्रिज के बरसाती पानी को भला कैसे निकालेंगे! दिल्ली देश की राजधानी है, वहां सारी रेल लाइनें शहर के बीच से गुजरती हैं। मुख्य स्टेशन भी चांदनी चौक के सामने है। वहां कनाट प्लेस के मुहाने पर अंग्रेजों के जमाने का रेल हाफ अंडरब्रिज बना हैˆमिण्टो ब्रिज नाम से। यह हाफ अण्डरब्रिज भी हर बारिश में लबालब हो जाता है, राजधानी होते हुए और कनाट प्लेस शहर की नाक जैसी जगह पर होने के बावजूद। उसके पानी की निकासी को वहां का प्रशासन सुचारु नहीं रख पाता है। ऐसे में अंदाजा लगाएं कि बारिश के मौसम में कोटगेट अण्डरब्रिज के क्या हाल होंगे!
व्यावहारिक समाधान मात्र एलिवेटेड रोड ही है। वह मॉडल जो आरयूआइडीपी द्वारा 2007 में प्रदर्शित किया गया वही आदर्शतम है। इसके बन जाने से न केवल इन फाटकों के बन्द होने पर यातायात समस्या का समाधान होगा बल्कि महात्मा गांधी रोड और स्टेशन रोड वही लोग आएंगे जिन्हें खरीदारी करनी होगी। शेष जिन्हें शहर के अन्दर या रेलवे स्टेशन, पब्लिक पार्क की ओर जाना व आना होगा वे एलिवेटेड रोड का इस्तेमाल करेंगे। यानी जिन्हें खरीदारी नहीं करनी है वे इन बाजारों में भीड़ नहीं करेंगे। ऐसे में इन बाजारों में एलिवेटेड रोड के खम्भों के बीच पार्किंग की सुविधा भी मिलेगी और हो सकता है एक तरफा यातायात व्यवस्था को भी मुल्तवी किया जा सके। एलिवेटेड रोड यदि बनती है तो कम-से-कम आगामी पचास सालों में यातायात का जो दबाव बढ़ेगा उसे भी वह झेल सकेगा।
आम-अवाम को भी प्रेरित कर साथ लेना होगा। इसलिए पिछले बीस साल से भी ज्यादा समय से इन दोनों फाटकों की समस्या के समाधान के लिए जूझ रहे जननेता रामकृष्णदास गुप्ता से भी गुजारिश है कि अपनी बाइपास की मांग पर पुनर्विचार करें और नेतृत्व देकर शहर में ऐसी फिजा बनायें कि आगामी वित्तीय वर्ष में ही एलिवेटेड रोड का निर्माण कार्य शुरू करने के लिए सरकार मजबूर हो जाए। इसे बनने में कम-से-कम तीन वर्ष का समय लगेगा यानी तब भी आगामी तीन-चार वर्षों तक तो कोटगेट और सांखला रेल फाटकों की समस्या को शहरवासियों को भुगतना होगा। उम्मीद करते हैं कि केईएम रोड व्यापार मण्डल और उसके माध्यम से बीकानेर व्यापार मण्डल सकारात्मक सोच के साथ जनप्रतिनिधियों को इस एलिवेटेड रोड के लिए सक्रिय करेंगे।
इसी कालम से बीकानेर के अखबारों और खबरिया चैनलों के पत्रकार मित्रों से भी अनुरोध है कि शहर की इस सबसे बड़ी समस्या के समाधान को अपना प्राथमिक दायित्व मानें और इसके लिए हर वह पत्रकारीय रणनीति अपनाएं जिससे इस समस्या का हल शहर को जल्द मिल सके। विनायकका मानना है कि जनप्रतिनिधि, मौजिज व्यापारी, जननेता और मीडिया मिलकर इस समस्या पर यदि एक सुर में बात करें तो हल पाने में देर नहीं लगेगी। देखना यही है कि ऐसी अनुकूलता बनने में कितने महीने लगते हैं। अच्छी तरह समझ लें कि ऐसी अनुकूलता बनने के बाद भी समाधान मिलने में कई वर्ष लगेंगे। जो गुजर गया उसे बिसार दें व जितना जल्द हो सके अब भी चेत जाएं और लग जायें।

12 फरवरी, 2015

Tuesday, February 10, 2015

‘अहंकार तो भैया दशानन का भी नहीं रहा’

सुबह 9.30 बजे फेसबुक पर उक्त पोस्ट जाने माने विचारक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने बुजुर्गों के हवाले से की। अग्रवाल की यह पोस्ट सम्भवत: नरेन्द्र मोदी के लिए है। कहा जाता रहा है कि अमित शाह वे चुनावी पारस हैं जिन्होंने अब तक तीस चुनावों की कमान सम्भाली और तीसों में ही उन्होंने सफलता अर्जित की। लेकिन, आज जब उनकी बेटी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथसिंह की मौजूदगी में गुजरात के गांधीनगर में ससुराल के लिए विदा हो रही होंगी। उसके साथ ही शाह का चुनावी पारस भी विदा हो लेगा।
दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों के जो रुझान आ रहे हैं उससे लग रहा है आम आदमी पार्टी तीन-चौथाई बहुमत की ओर बढ़ रही है, जिसे सही मायनों में सूपड़ा साफ होना कहते हैं वह कांग्रेस का हो रहा है और भाजपा अपूर्ण सफलता के मात्र नौ महीने बाद बहुत ही दयनीय हालात को हासिल हो रही है। मतदान बाद के सर्वे भी मई, 2013 के लोकसभा मतदान के बाद से ज्यादा अतिक्रमित हो रहे हैं। सात फरवरी को मतदान की सुबह दो-एक खबरिया चैनलों के अलावा अन्य सभी चैनल मतदाता का रुख बदलने के लिए चार-छह घंटे तक भाजपा की बढ़त बताने का जो धर्मच्युत काम कर रहे थे लगता है उस दौरान जनता ने अपने-अपने टीवियों को सचमुच बुद्धू बक्सा मान लिया था।
संभवत: भारतीय जनता पार्टी से बड़ी गलती हो गई। यह गलती उन्होंने अपने इक्के नरेन्द्र मोदी और चुनावी पारस अमित शाह को दावं पर लगाकर की। हालांकि उन्हें इसका अहसास जैसे ही हुआ, उन्होंने बलि का बकरा ढूंढ लिया और इसमें भी उनके लिए अनुकूलता यह बनी कि बकरा यानी किरण बेदी खुद ही बलि होने को सहर्ष तैयार हो गईं। ये पंक्तियां लिखे जाने तक खुद किरण बेदी अपनी कृष्णानगर सीट पर पीछे चल रही हैं उम्मीद करनी चाहिए कि दोपहर होते-होते वह इस हश्र को हासिल न हो।
यह नतीजे देश की जनता के लिए इसलिए भी अच्छे साबित हों कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कम-से-कम अपनी सफलताओं के मद से अब तो बाहर आएं और जो-जो उम्मीदें देकर वे अपने चरम आकांक्षी प्रधानमंत्री पद तक वे पहुंचे हैं, कम-से-कम उन्हें अब तो लगे कि अपनी स्वांगी मुद्राओं से बाहर आना चाहिए, अपनी इनायती नजरों में कनखियां लाएं और बजाय अंबानी-अडानियों के वे असल आम-अवाम की सुध लें। अन्यथा जनता भले ही अपने वोट का महत्त्व न समझने लगी हो, वोट की ताकत वह भलीभांति जान चुकी है। इस जनता ने लोकसभा में कांग्रेस को जिस बुरी स्थिति में पहुंचाया, दिल्ली विधानसभा में उससे भी बदतर मुकाम तक वह भारतीय जनता पार्टी को पहुंचाती लग रही है।
रही बात आम आदमी पार्टी के लिए तो इसके लिए विनायकके इसी चार फरवरी के सम्पादकीय का अंश पुन: पढ़ सकते हैं।
आम-अवाम न केवल कांग्रेस से बल्कि भारतीय जनता पार्टी से भी नाउम्मीद है, लेकिन कुएं और खाई के दो ही विकल्प हों तो बारी-बारी से एक को चुनना मजबूरी हो जाती है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी उम्मीदों को हरा करने में तो सफल होती दीखती है लेकिन उन पर खरी भी उतरेगी, लगता नहीं है। क्योंकि उसकी कार्ययोजना इसी भ्रष्ट व्यवस्था के अन्तर्गत ही बनी बनाई है। दूसरी बड़ी बाधा दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी होना है जिसके चलते इसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता। ऐसे में अपनी पिछली गलतियों से सबक और अधकचरी सोच में परिपक्वता लाकर केजरीवाल कुछ करना भी चाहेंगे तो मोदी जैसे मन के मैले शासक उनके लिए प्रतिकूलता पैदा कर सकते हैं। दिल्ली के शासन में केन्द्र का बड़ा हस्तक्षेप गृहमंत्रालय के माध्यम से हो सकता है जिसे मोदी से कुछ उदार राजनाथसिंह देख रहे हैं, ऐसे में हो सकता है वे मोदी के दिल्ली ऐजेन्डे को ज्यों का त्यों लागू नहीं होने दें।
केजरीवाल के लिए दूसरी बड़ी चुनौती दिल्ली की जनता ही हो सकती है जो केजरीवाल से उम्मीदें इतनी लगा बैठी हैं जिसे साधना उनके लिए लगभग नामुमकिन होगा। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि दुबारा मुख्यमंत्री बनने पर केजरीवाल जनता को इतना निराश नहीं होने देंगे कि देश का आम-अवाम कांग्रेस और भाजपा को ही अपनी नियति मानने लगे।

10 फरवरी, 2015

Monday, February 9, 2015

पुष्करणा सावा, पुष्करणा समाज और मीडिया

शहर के अखबारों में पिछले पखवाड़े पंचायत राज चुनाव और पुष्करणा समाज के सावे की सुर्खियां सर्वाधिक रही। पुष्करणा ब्राह्मण समाज नगर स्थापना से ही यहां अपनी महती उपस्थिति में है। तब भी जब इस समाज की आजीविका का मुख्य आधार यजमानी था और आजादी बाद अब जब नगर की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र की वह मुख्य धुरी बन चुका है। पुष्करणा समाज ही क्यों एक शताब्दी पहले तक समाज के अन्य सभी समूह यथा मर्यादाओं में न केवल जीवन-यापन करते थे बल्कि अवसरों और तय संस्कारों के लिए भी उन्होंने मर्यादाएं तय कर रखी थीं। यह चर्चा का अलग विषय हो सकता है कि निम्न, दलित और पिछड़े कहे जाने वालें वर्गों तक की मर्यादाएं तय करने का जिम्मा प्रभावी या कहें समाज के उच्च वर्गों ने ही हासिल कर रखा था।
बात आज पुष्करणा सावे के सम्बन्ध में कर रहे हैं सो वहीं लौट आते हैं। शहर के पुष्करणा समाज ने अपनी हैसियत अनुसार विवाह जैसे महती सामाजिक दायित्व के निर्वहन के लिए प्रति चार वर्ष से सावे की परम्परा सदियों से बना रखी थी। चूंकि विश्‍वस्तरीय ऑलम्पिक खेल भी चार वर्षों से होते हैं अत: प्रकारान्तर से इसे भी ऑलम्पिक सावा कहा जाने लगा। इस सावे की खासीयत यह थी कि इसमें न कोई दिखावे की गुंजाइश थी और न ही धन की। बरात में दुल्हे का तन मात्र एक पिताम्बर से ढंका होता था तो सिर ढकने को खिड़किया पाग होती थी, बराती ही कुछ गाकर आनन्द की मुनादी करते चलते थे। कम-से-कम विवाह वाले दिन कोई भोजन नहीं होता था। बिना घोड़ी-बाजे और बिना जीमण के होने वाले इन विवाहों की सादगी उल्लेखनीय थी। कन्या पक्ष वालों को अपनी बेटी के लिए जो देना होता था वह बन्द पेटी में बाद में कभी पहुंचा दिया जाता था। इन आदर्श रीति-रिवाजों का निर्वहन कई करते अब भी हैं, लेकिन रस्मी तौर पर ही। समाज में धन के साथ आई दिखावे की लालसा से पुष्करणा समाज भी कैसे अछूता रहता और तब तो हरगिज नहीं जब यह समाज शहर की पावर कास्ट की हैसियत पा चुका हो,  अच्छे व्यवसाय करने लगा हो और छठे आयोग के वेतन के साथ सरकारी नौकरियां करने लगा हो। इस सबके बावजूद इसी समाज के एक बड़े हिस्से को उक्त समृद्धियों में से आंशिक ही हासिल है, ऐसे लोगों के लिए सावे की यह परम्परा अनुकूलता जरूर देती होगी। अब प्रत्येक दो वर्ष बाद थरपे जाने वाले इस सावे का असल भाव सिरे से गायब है।
बावजूद सावे के न केवल दिखावे का बोल-बाला बढ़ा है बल्कि देखा-देखी में सावे वाले दिन बड़े भोज आयोजित होने लगे है, अन्य आम समाजों की तरह यहां भी जितना खाया नहीं जाता उतना फिकने लगा है। बरातियों की कण्ठ-लहरियों की जगह बेसुरे बैण्ड बाजों और दहाड़ते डीजे ने ले ली, जिनमें बजने वाले गीत थिरका तो सकते हैं पर स्थानीयता का आनन्द नहीं दे सकते।
पुष्करणा समाज की त्रिस्तरीयता की फांक आजादी बाद से जो महसूस की जाने लगी थी, इन सावों पर उसे अब साफ देखा जा सकता है। उच्च और मध्यम उपजातियों के अलावा निम्न उपजातियों को ओबीसीकहा जाने लगा। ओबीसीका यहां अभिधा और लक्षणा, दोनों अर्थ हैं यानी पुष्करणा समाज की पिछड़ी जातियां या सीधे कहें तो औझा, भादाणी, छंगाणी। सामान्यत: पुष्करणा समाज की उच्च और मध्यम उपजातियां मजबूरी में इन ओबीसीउपजातियों से बेटियां लाते तो रहे हैं पर देने का चलन कभी बना ही नहीं। प्रकारान्तर से यही ओबीसीउपजातियां समाज में कमजोर मानी जाती हैं। यह सावा भी मुख्यत: अब इन्हीं उपजातियों के लिए रह गया है। शेष उच्च और मध्यम उपजातियों ने एकल सावों की ओर रुख कर लिया। पहले ऐसा नहीं था, रिश्ते वे चाहे अपने हिसाब से करते रहे हों लेकिन चंवरी वे सावे में ही थरपते थे। मजे की बड़ी बात तो यह है कि इन सावों को थरपने की चौधर करने वाली उपजाति और सावे पर विवाह करने वालों को सम्मानित करने वाले पुष्करणा समाज के सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग और धनाढ्य अपनी सन्तानों का विवाह इस सावे में नहीं करते। इस तरह कहने को तो वे सावे को प्रतिष्ठा दिलवा रहे हैं लेकिन असल मकसद उनका खुद को प्रतिष्ठ करने का ही रह गया है। सचमुच समाज के लिए कुछ करना हो तो अन्य कई पिछड़े समाजों में आजकल जो सामूहिक विवाहों का आयोजन होने लगा है, पुष्करणा समाज को भी उस ओर विचारना चाहिए। अपने प्रभावों का उपयोग करके परकोटे को एक छत के रूप में मान्यता सरकारी लाभ के लिए तो ठीक पर वह तार्किक तौर पर सही नहीं है।
इस सावे की चर्चा में अखबारों में लगातार बताया जा रहा है कि इस बार डेढ़ सौ विवाह हो रहे हैं। क्या सचमुच डेढ़ सौ हो रहे हैं या किसी एक ने लिख दिया या कह दिया कि डेढ़ सौ हो रहे है और मीडिया वाले लगे टेर देने! पुष्करणा समाज के लोग ही दबी जबान कह रहे हैं कि पचास से सत्तर के बीच ही कल पुष्करणाओं के विवाह हुए हैं। ऐसे में मीडिया की जिम्मेदारी नहीं बनती है कि वह ठिठक कर असलियत को जानने की कोशिश करे? और यह भी कि इस सावे को मीडिया जितनी सुर्खियां दे रहा है या स्थान दे रहा है वह पक्षपात नहीं कहलाएगा। क्या मीडिया अन्य समुदायों द्वारा आयोजित सामूहिक विवाहों के सचमुच के आदर्श आयोजनों को इतनी ही सुर्खियां देता रहा है या भविष्य में देगा?

09 फरवरी, 2015

Friday, February 6, 2015

जरूरत वोट का महत्त्व समझने की है न कि उसकी ताकत

देश का आम-अवाम आजादी बाद के इन सड़सठ सालों में अपने वोट की ताकत को जान गया लेकिन इसका महत्त्व आज तक नहीं समझ पाया। वोट के महत्त्व को समझाने की कोई खास कोशिश देखी भी नहीं गई। गांधी रहे नहीं, विनोबा जमीनी कामों में लग गये और जयप्रकाश नारायण सम्भवत: नेहरू के संकोच में चुप कर गये। वैसे भी उन्होंने सक्रिय राजनीति से किनारा कर लिया था। जयप्रकाश सक्रिय भी तब हुए जब परिस्थितियां ऐसी बनी कि बजाय वोट का महत्त्व बताने के, उसकी ताकत का भान कराने की जरूरत थी।
मतदाता ताकत को तो भलीभांति समझा हुआ है। 1977 के बाद जब जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर उसने कांग्रेस और उसकी शक्तिशाली इन्दिरा गांधी को सत्ता बदर कर दिखाया। उसके बाद यह भ्रम टूट गया कि लोकतंत्र में शासन किसी की बपौती हो सकता है।
चुनावी मिजाज की बात आज इसलिए कर रहे हैं कि जहां राजस्थान में पंचायत राज चुनावों के जिला परिषदों और पंचायत समिति सदस्यों के लगभग परिणाम आ गये वहीं देश की राजधानी दिल्ली चुनावी ताप से तप रही है। कल 7 फरवरी को वहां मतदान होना है, चूंकि राजधानी है इसलिए न केवल खबरिया चैनल और अखबार बल्कि सोशल साइटें भी दिल्ली चुनावों से इस तरह रंगी हैं जैसे देश का यह कोई महत्त्वपूर्ण चुनाव हो। कुछ अरविन्द केजरीवाल ने तो कुछ दबाव में आयी भाजपा ने माहौल को चरम तक पहुंचा दिया। दिल्ली चुनावों की डिबेट से लेकर आम सभाओं तक में पार्टी प्रवक्ता यहां तक कि अब तो स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर असफल होने की आशंकाएं दीखने लगी हैं। हां, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को अपनी कार गुजारियों पर भरोसा है। न केवल कल की आम सभाओं बल्कि खबरिया चैनलों के साक्षात्कारों में शाह अपनी हाव-भाव को सहेजे रहे। लेकिन इस बार लगता है, दिल्ली का चुनाव जातीय आधार पर निर्णय नहीं देने वाला, वहां का मतदाता आर्थिक आधार पर वर्गों में बंट गया है। उच्च, उच्च मध्यम और मध्यम वर्ग का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ जाता दीख रहा है तो मध्यम वर्ग के एक हिस्से के साथ निम्न मध्यम और निम्न वर्ग आश्‍चर्यजनक ढंग से उच्च जातीय वर्ग के अरविन्द केजरीवाल से उम्मीदें पाल बैठा लग रहा है। मतदाताओं का इस तरह का फंटवाड़ा अब तक कम ही देखने में आया।
लेकिन जैसा कि शुरू में कहा, मतदाता ऐसा वोट के महत्त्व को समझ कर नहीं वोट की ताकत को समझकर कर रहा है अन्यथा वह किसी एक से ऊब कर विकल्प बनने भर से आश्‍वस्त कर देने वाले की ओर नहीं पलटता। भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों, शासन चलाने के दोनों के तौर-तरीकों में कोई बड़ा अन्तर नहीं है। इन दोनों ही बड़ी पार्टियों से देश की असल समस्याओं से निबटने की कोई उम्मीदें भी नहीं। बावजूद इसके पिछले चुनावों में मोदी के भ्रम में आने का बड़ा कारण कांग्रेस से ऊब ही था। पिछले सवा साल में राजस्थान के मतदाताओं के रुझानों को देखें तो यह स्पष्ट भी होता है। दिसम्बर, 2013 के विधानसभा चुनावों में दोनों पार्टियों के वोटों का जो अन्तर 12 प्रतिशत था वह 2014 के लोकसभा चुनावों में 25 प्रतिशत पहुँच गया। (यह स्पष्ट करता है कि मतदाता की ऊब केन्द्र की कांग्रेस सरकार से थी।) यह अन्तर उसके बाद से लगातार घट रहा है। लोकसभा के लिए मतदान के सात महीनों बाद ही यह घटकर 11 प्रतिशत रह गया। हाल ही में हुए पंचायतों के चुनावों में दोनों पार्टियों के लिए मतदान के परिणामों से अनुमान लगाया जा रहा है कि कांग्रेस और भाजपा के बीच यह अन्तर मात्र दो-ढाई प्रतिशत ही रह रहा है। इससे पता चलता है कि मतदाता विकल्प की तलाश में नहीं है, वह या तो ऊब कर पलटता है या भरोसे पर खरा न उतरने पर। अन्यथा मोदी विकल्प होते तो उन पर किया भरोसा इतनी जल्दी नहीं टूटता।
वोट का महत्त्व मतदाता समझता तो वह अपनी समस्याओं के समाधान देने वाले विकल्प का सृजन करता। उच्च और उच्च मध्यम वर्ग ऐसा करने में सक्षम है लेकिन उसे विकल्प की जरूरत नहीं, अरविन्द केजरीवाल जैसे विकल्प बनकर उभरे हैं वह इन्हीं वर्गों के लिए हैं। इसीलिए उनके ऐजेण्डे में असल समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं है। वैसे भी यह उच्च वर्ग मतदाता के रूप में इतना छोटा समूह है कि यदि वह अलग-थलग हो तो उपस्थिति उल्लेखनीय नहीं रह जाती।
आश्‍चर्य है कि जिस बड़े मतदाता समूह के पास वोट का संख्याबल है वह अपने व्यापक और स्थायी हकों के लिए सावचेत नहीं है और जिनके पास संख्याबल नहीं है वे बड़ी चतुराई से भ्रमित कर उस बल का इस्तेमाल अपने स्वार्थों के लिए कर रहे हैं। पिछले सड़सठ वर्षों से यही हो रहा। अन्यथा गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और जीवन-यापन की न्यूनतम जरूरतों की समस्या देश में आज नहीं होती। जरूरत वोट का महत्त्व समझने की है न कि उसकी ताकत।

06 फरवरी, 2015

Thursday, February 5, 2015

‘सरकार आपके द्वार’ हिट होगा या फ्लॉप

राज्य का शासन दुबारा संभालने के बाद मुख्यमन्त्री वसुन्धरा राजे ने आम अवाम से रू-बरू होने के लिए सरकार आपके द्वारकार्यक्रम की शुरुआत की। संभागवार आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में बीकानेर का नम्बर जून 19 से 30 तक लगा। 19 को राजे शासन-प्रशासन के अपने पूरे लवाजमे के साथ संभाग में आ गई थी। इस दौरान उन्हें मिली हजारों व्यक्तिगत परिवेदनाओं के अलावा संभाग, जिला व शहर की सैकड़ों आकांक्षाओं में से अधिकांश आज भी बाट जोह रही हैं।
जो परिवेदनाएं लिखित में मुख्यमंत्री को मिली वह तो लेटलतीफी के साथ ही सही निस्तारे को हासिल हो रही हैं। इसके लिए न केवल मुख्यमंत्री कार्यालय का जन अभाव अभियोग निवारण प्रकोष्ठ सक्रिय है बल्कि जिला कलक्टर की लगातार मॉनीटरिंग के चलते बहुतों को राहत मिल रही है। लेकिन इन सड़सठ वर्षों में जो सुस्ती और ढिलाई प्रशासनिक ढांचे में आ गई है वह चुस्त-दुरुस्त तभी होगी जब कोई इसके लिए भगीरथ प्रयास करे! प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जरूर इस वादे से केन्द्र में काबिज हुए हैं लेकिन उनकी मंशा वादों को पूरा करने की नहीं लगती। उन्हें लगता है केवल प्रशासन को हड़काते रहने से चुस्ती आ जायेगी। हड़काने से प्रशासन सचेत तो रहता है लेकिन मात्र सचेतन चुस्ती का कारक नहीं है। सुस्ती का बड़ा कारण है भ्रष्टाचार जो प्रशासन के प्रत्येक विभाग और इकाई में व्याप्त हो लिया है। प्रधानमंत्री खुद ईमानदार होकर कुछ करते तो संभव था अन्यथा खुद उनकी ही लालसाएं इतनी हैं कि उन्हें वे अपने एक-दो कार्यकाल में तो नहीं भोग सकते।
खैर बात वसुन्धरा राजे के सरकार आपके द्वारके हवाले से शुरू की और वहीं लौट आते हैं। पांच में से पूरा एक साल निकाल चुकी मुख्यमंत्री के बारे अब अधिकांश मानने लगे हैं कि इनमें उस करंट की अनुभूति नहीं हो रही जो पिछले कार्यकाल में देखी गयी। वह न केवल प्रशासन को बल्कि अपने शासन को भी सलीके से नहीं हांक पार रही या यूं कहें कि मोदी एण्ड शाह एसोसिएट से ट्यूनिंग न बनने के चलते कुछ करने की इनकी मंशा ही नहीं रही। सरकार आपके द्वारके लिए भरतपुर, बीकानेर और उदयपुर के बाद कोटा के लिए घोषित कार्यक्रम को किसी बहाने स्थगित कर दिया। अब तो कोई आसार नहीं लग रहे हैं कि इसे पुन: शुरू किया जायेगा। राजनीतिक नियुक्तियां ज्यों-की-त्यों धरी हैं। यहां तक, कुछ जरूरी संवैधानिक पदों पर तो गहलोत सरकार द्वारा नियुक्त ही कार्यभार संभाले हुए हैं। मुख्यमंत्री की सक्रियता अभी उतनी ही है जितनी बने रहने के लिए उन्हें जरूरी लगती है। ऐसे में प्रदेश का कितना नुकसान हो रहा है वह कूंत से परे है।
बीकानेर संभाग को लेकर अपने प्रवास के दौरान राजे ने जो वादे किए और आश्‍वासन दिये वह धरे के धरे पडे़ हैं। सांखला और कोटगेट फाटक की समस्या, सूरसागर का मरुउद्यान के रूप में विकास करने की योजना, शहर के अन्दरूनी हिस्से में सीवरेज की नई योजना, रवीन्द्र रंगमंच को पूर्ण करवाना, लालगढ़ रेलवे स्टेशन को भुट्टों के चौराहे से तथा गंगाशहर रोड को मोहता सराय से जोड़ने वाली सड़कों जैसी योजनाएं मुख्यमंत्री के आश्‍वासनों के बाद भी जस की तस हैं। लगता है मुख्यमंत्री जाते-जाते इन आश्‍वासनों को यहीं कहीं झड़का कर चली गईं है।
जैसा कि शुरू में कहा कि लिखित परिवेदनाओं पर कार्रवाई जरूर हो रही है चाहे गति धीमी हो, फिर वे चाहे खुद मुख्यमंत्री के कार्यालयी प्रकोष्ठ के जिम्मे हो या स्थानीय प्रशासन के। जिला कलक्टर आरती डोगरा ऐसे प्रकरणों का निबटारा करने के लिए लगातार फीडबैक लेती हैं और गैर जिम्मेदार अधिकारियों-कर्मचारियों को न केवल हड़का भी रही हैं बल्कि जरूरी लगने पर सख्त भी होती हैं। कल ही उन्होंने नोटिस, चार्जशीट जैसी कार्रवाइयों के साथ श्रीडूंगरगढ़ नगरपालिका के अधिशाषी अधिकारी को निलम्बित किया है। देखना है इस तरह की सख्ती पर शेष अधिकारी, कर्मचारी कितना मुस्तैद हो पाते हैं। यदि नहीं होते हैं तो मुख्यमंत्री का सरकार आपके द्वारकार्यक्रम फ्लॉप ही साबित होगा।

05 फरवरी, 2015