Wednesday, December 20, 2023

बीकानेर जिले की सात विधानसभा सीटों के चुनाव-2023 परिणामों की पड़ताल

 पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके हैं, परिणामों से जाहिर है कि हिन्दी पट्टी धर्म के धोखे में तरक्की के सभी आयामों को नजरअंदाज करने पर तुली है। आजादी से पूर्व देश की दुर्दशा के लिए आमजन जिम्मेदार नहीं था, क्योंकि शासन चुनने से लेकर प्रशासन तक में उसकी कैसी भी भूमिका नहीं थी, लेकिन आजादी बाद के लोकतन्त्रात्मक गणराज्य में उसका हस्तक्षेप शासन से लेकर प्रशासन की छोटी से छोटी ईकाई तक को नागरिक न केवल प्रभावित कर सकते हैं, बल्कि उसे बदल भी सकते हैं। आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम प्रजा हैं, नागरिक नहीं बन पाये, जिसका खमियाजा हमें ही भुगतना होगा।

यों तो सभी राज्यों के परिणामों की बात की जा सकती है। लेकिन राजस्थान के अपने जिले बीकानेर की सात विधानसभा सीटों में निकटतम प्रतिद्वन्द्वी की हार की पड़ताल कर लेते हैं। प्रत्याशियों के जीतने की वजह उसी से निकल आयेगी।

जिले की सात सीटों में क्रमश: बीकानेर पश्चिम, नोखा, श्रीडूॅँगरगढ़, लूनकरणसर, खाजूवाला, श्रीकोलायत और बीकानेर पूर्व के विधानसभा क्षेत्र परिणामों को संक्षिप्त में समझने की कोशिश करते हैं।

बीकानेर पश्चिम : यहां भाजपा के जेठानन्द व्यास विजयी हुए हैं। वे चुनावी मोर्चे पर पहली बार उतारे गये। सामने कांग्रेस से दसवीं बार के प्रत्याशी डॉ. बीडी कल्ला थे। तीन हार के अलावा कल्ला 1980 से छह बार न केवल अपने क्षेत्र की नुमाइंदगी कर चुके हैं बल्कि सत्ता में जब भी कांग्रेस रही, उसमें भागीदार रहे हैं। प्राध्यापक की नौकरी करते कल्ला के साहबी की मन में थी—ब्यूरोक्रेट्स बनने का साहस वे चाहे न कर पाये—लेकिन राजनीति में आकर पहले ही चुनाव में जीते, सत्ता में भागीदार होकर साहब बनने की सनक साध ली। अपने क्षेत्र की सुध इतनी रखी कि जिस महकमे के मंत्री रहे—उनसे संबंधित काम करवा दिये, क्षेत्र की बाकी सुध को अपने अग्रज को सौंप कर—जिन्होंने स्वहितों के अलावा कभी किसी से मतलब नहीं रखा। हां, वे अपने प्रबंधकीय कौशल से अपने भाई को चुनाव जितवा देते, यद्यपि उसमें भी कई बार असफल रहे।

स्वजाति और स्वहित के प्रति दोनों भाई इतने आग्रही रहे कि जनआधार लगातार सिमटता गया। यही वजह है कि 2008 के बाद से 2018 को छोड़कर वे लगातार हारे हैं। 2018 में भी ओबीसी के गोपाल गहलोत को बी टीम के तौर पर खड़ा नहीं करवाते तो वह चुनाव भी हार जाते। जिस स्वाजाति पर ये कूदते रहे, 2023 के इस चुनाव में उसका बड़ा हिस्सा धर्मभीरू होकर भाजपा के साथ चला गया।

नोखा : यह क्षेत्र 2008 के परिसीमन में अनारक्षित हुआ। नोखा मूल के कांग्रेसी रामेश्वर डूडी—जो एक बार सांसद रह चुके थे। बीकानेर लोकसभा सीट आरक्षित होने पर उन्होंने नोखा विधानसभा क्षेत्र से सूबे की राजनीति साधने का मन बना लिया। जाट प्रभावी इस क्षेत्र से उसी समुदाय से आने वाले रामेश्वर डूडी 2008 से कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ते रहे हैं। लेकिन जीतना वे एक बार 2013 में ही संभव कर पाये। 'नोखा विकास मंच' नाम के निजी बैनर से राजनीति करते आये कन्हैयालाल झंवर का नोखा विधानसभा क्षेत्र में अच्छा प्रभाव रहा है। 2008 में वे चुनाव जीते भी, सामने थे कांग्रेस के रामेश्वर डूडी और भाजपा से नये चेहरे बिहारीलाल बिश्नोई।

2013 के चुनाव में इन तीन के अलावा भाजपा ने चेहरा बदल सहीराम बिश्नोई को उतारा। लेकिन जनता ने भाजपा का चेहरा निर्दलीय होते हुए भी बिहारी बिश्नोई को ही माना। क्योंकि बिहारी बिश्नोई ने लगातार सक्रिय रहकर क्षेत्र में पैठ बना ली थी। जीते रामेश्वर डूडी, दूसरे नंबर पर कन्हैयालाल झंवर और तीसरे नंबर पर निर्दलीय के तौर पर भी बिहारी बिश्नोई। 2013 के इस चुनाव में भाजपा यहां जमानत तो दूर की बात, साख भी नहीं बचा पाई।

2018 के चुनाव में कन्हैयालाल झंवर कांग्रेस उम्मीदवार होकर बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र में आ लिए। नोखा में कांग्रेस के रामेश्वर डूडी और भाजपा से फिर उम्मीदवारी ले आए बिहारी बिश्नोई के बीच के सीधे मुकाबले में बिहारी बिश्नोई जीत गये। सरकार न होते हुए भी बिहारी बिश्नोई अपने क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहे और सीधे मुकाबले में इस बार भी जीत जाते, लेकिन रामेश्वर डूडी की अस्वस्थता के चलते कांग्रेस ने उनकी पत्नी को उम्मीदवार बनाया—वे जीतीं। इस सीट पर मुकाबले में तीसरे प्रत्याशी कन्हैयालाल झंवर न होते तो सहानुभूति के बावजूद सुशीला डूडी नहीं जीत पातीं। बिहारी बिश्नोई ने गत 15 वर्षों में अपने क्षेत्र को अच्छे से साध लिया था।

श्रीडूँगरगढ़ : यह विधानसभा क्षेत्र 2001 में चूरू से बीकानेर जिले में शामिल किया गया। जहां 1998 के चुनाव में कांग्रेस से मंगलाराम और भाजपा से किशनाराम नाई प्रतिद्वन्द्वी रहे हैं। 1998, 2003 और 2008 में किसनाराम के मुकाबले मंगलाराम गोदारा ही जीतते रहे। लेकिन 2013 में किसनाराम नाई ने बाजी मार ली। 

2018 के चुनाव से पहले से ही सीपीएम के गिरधारी महिया बिजली मुद्दे पर आन्दोलनों के माध्यम से क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहे। जिसके चलते 2018 के चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबले में वे जीते और क्षेत्र में सक्रिय भी रहे। 2023 के इस चुनाव में कांग्रेस यह सीट सीपीएम के लिए छोड़ देती या उन्हें पार्टी में लेकर उम्मीदवार बनाती तो महिया ही जीतते, क्योंकि 2008 में पहली बार चुनाव लड़ चुके महिया अपने क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहे हैं। लगातार दो बार हार चुके मंगलाराम गोदारा ने अपनी पुत्रवधू को पंचायत समिति प्रधान जितवा तो दिया लेकिन प्रधानपति पुत्र की वजह से क्षेत्र में उनकी साख कमजोर हो चुकी थी। बावजूद इसके इस बार भी कांग्रेस से उम्मीदवारी फिर ले आये। अन्तिम चुनाव का कार्ड खेल मुकाबले में आ भी लिए, लेकिन त्रिकोणीय मुकाबले में हार गये। भाजपा के ताराचन्द सारस्वत 2018 के बाद अपने इस दूसरे चुनाव में जीत गये और जनहित के काम आने वाले गिरधारी महिया तीसरे नम्बर पर रहे। 

लूनकरणसर : इस विधानसभा क्षेत्र की तासीर जिले के अन्य सभी क्षेत्रों से अलग रही है। क्योंकि जाट प्रभावी इस क्षेत्र में सबसे कम जाति समूह के मानिकचन्द सुराना न केवल नुमाईंदगी करते रहे हैं, बल्कि क्षेत्र में राजनीति करने के नये मानक भी बनाए हैं। हारे, चाहे जीते, सुराना अपने क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहते, लोगों के काम आते। समाजवादी पार्टी से जनता पार्टी, जनता दल और अपनी खुद की पार्टी से होते हुए कांग्रेस के अंध विरोध के चलते सुराना भाजपा में आ तो गये, लेकिन न कभी वे खुद भाजपा में रम पाये न पार्टी ने उन्हें रमाया। 2008 में भाजपा ने यह सीट समझौते में इनेलोद को दे दी और 2013 में भाजपा ने यहां से नये चेहरे सुमित गोदारा को उतार दिया। लेकिन 2013 में सुराना निर्दलीय खड़े हुए और जीत गए। भाजपा के सुमित गोदारा दूसरे और कांग्रेस के वीरेन्द्र बेनीवाल तीसरे नम्बर पर रहे। यद्यपि 2018 के चुनाव में सुराना नहीं उतर पाए, लेकिन उन्होंने अपने क्षेत्र से संपर्क बनाए रखा। 2018 का चुनाव कांग्रेस के वीरेन्द्र बेनीवाल के मुकाबले भाजपा के सुमित गोदारा ने जीता।

2023 के परिणाम देखें तो 2018 के चुनाव में इसकी स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी थी। सुरानाजी की तर्ज पर क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहने वाले कांग्रेस के डॉ. राजेन्द्र मूंड को 2018 में टिकट न मिलने पर उनकी टीम कांग्रेस के प्रत्याशी वीरेन्द्र बेनीवाल पर भीतरघात में लगे रहे, ऐसा कहा जाता है। इस बार जब दो बार के हारे वीरेन्द्र बेनीवाल की टिकट कटवा राजेन्द्र मूंड उम्मीदवारी लाने में सफल हुए तो बदले के लिए बजाय भीतरघात के, वीरेन्द्र बेनीवाल ने कांग्रेस से बगावत कर चुनाव में ताल ठोक दी। उधर भाजपा की टिकट न मिलने पर प्रभुदयाल सारस्वत लगातार दूसरी बार बगावत कर मैदान में उतर आये। इस तरह इस क्षेत्र का मुकाबला चतुष्कोणीय बन गया। लेकिन जैसे परिणाम आये हैं, उससे जाहिर है कि वीरेन्द्र बेनीवाल बगावत न करते तो डॉ. राजेन्द्र मूंड जीत सकते थे—क्योंकि मूंड नया चेहरा था और भाजपा से जीते सुमित गोदारा अपने अक्खड़ स्वभाव के चलते क्षेत्र में अलोकप्रिय हो गये थे। सुना यह भी जाता है कि जाट प्रभावी लूनकरणसर का इस बार का चुनाव जाति से गोत्र में उतर आया था, क्योंकि चतुष्कोण के तीन कोण जाट समुदाय से थे—गोदारा, मूंड, बेनीवाल। 

खाजूवाला : यह सीट ऐसी है जिसे कांग्रेस के उम्मीदवार ने इस चुनाव में खुद हारी है। सूबे की सरकार में केबिनेट मंत्री गोविन्द मेघवाल पर पार्टी और नेता ने इतना भरोसा जताया कि न केवल राजस्थान कांग्रेस की चुनाव कैम्पेन कमेटी का संयोजक बनाया बल्कि बीकानेर संभाग के उम्मीदवारों के चयन में उनकी राय को पूरी तवज्जो दी। इतना ही नहीं, खाजूवाला सीट की जिन दो तहसीलों को जिलों के पुनर्गठन में नवगठित अनूपगढ़ को दे दी—उन्हें वापस बीकानेर जिले में शामिल किया गया। जिला पुनर्गठन प्रक्रिया में यह अकेला उदाहरण है। शायद यह भी वजह रही हो कि ऐसी महत्ती तवज्जो और जिम्मेदारी दिये जाने से गोविन्द मेघवाल की हेकड़ी और बढ़ गई। खाजूवाला-छतरगढ़ को बीकानेर में पुन: शामिल करने के बाद यों लगने लगा था कि यह सीट कांग्रेस अब आसानी से जीत लेगी। लेकिन चुनाव अभियान ज्यों-ज्यों परवान चढ़ा, गोविन्द मेघवाल और उनके प्रधान पुत्र गौरव चौहान के दिये घाव उघड़ते गये। बात यहीं नहीं रुकी, गोविन्द मेघवाल तो इतने नशे में थे कि चुनाव की घोषणा के बाद भी वे अपनी मुंहफटी पर लगाम नहीं लगा पाये।

भाजपा से सामने आये दो बार के यहीं से विधायक रहे डॉ. विश्वनाथ। विश्वनाथ की विनम्र, मिलनसार और साफ-सुथरी छवि ने चुनाव अभियान का पासा पलट दिया। क्षेत्र की अल्पसंख्यक बहुलता जो गोविन्द मेघवाल की संजीवनी थी, उसका बड़ा हिस्सा गोविन्द-गौरव बाप-बेटों के दुव्र्यवहार की वजह से छिटक कर भाजपा की ओर चला गया। हुआ यह कि कैम्पेन कमेटी के संयोजक होकर भी गोविन्द अपने ही क्षेत्र में उलझ कर रह गये। यद्यपि गोविन्द मेघवाल की पुत्री और पूर्व प्रधान सरिता चौहान ने पिता-भाई के डेमेज कंट्रोल की रात-दिन कोशिशें खूब की। लेकिन खाई इतनी गहरी थी कि सरिता की विनम्र और मिलनसार छवि उन्हें नहीं भर पायी। गोविन्द मेघवाल यह चुनाव जीतते और जिले की तीन सीटें जितवाने में सफल हो जाते तो बीकानेर लोकसभा की आरक्षित सीट बेटी सरिता चौहान के लिए सुरक्षित कर लेते। खैर!

कोलायत : यहां के पूर्व विधायक देवीसिंह भाटी के तेवरों से दो वर्ष पूर्व से ही लगने लगा था कि वर्तमान के विधायक और सूबे की सरकार में मंत्री भंवरसिंह भाटी के लिए जीत की राह आसान नहीं होगी। पता नहीं क्यों भंवरसिंह को इसका भान नहीं हुआ और हुआ तो उसकी कारी में वे क्यों नहीं लगे। क्षेत्र में विकास के प्रतिमान बनाने वाले, धीमी आवाज और विनम्र स्वभाव वाले भंवरसिंह भाटी की साख लगातार गिरती गयी। समूह के समूह नाराज होते गये। चुनाव घोषणा के साथ नोखा के पूर्व विधायक और कांग्रेसी रेवंतराम पंवार आरएलपी की टिकट के साथ बागी होकर चुनाव में उतर गये। रेवंतराम पंवार उस मेघवाल समाज से आते हैं जिसके वोटर कोलायत में सर्वाधिक हैं। मेघवाल समाज कोलायत क्षेत्र में भंवरसिंह के पीढिय़ों के प्रतिद्वंद्वी देवीसिंह भाटी से नाराज रहा है। क्षेत्र की दूसरी बड़ी जाति राजपूत, जिससे स्वयं भंवरसिंह और देवीसिंह आते हैं, इसलिए उसमें फंटवाड़ा तय था। 

वहीं मेघवाल समाज के वोटों में फंटवारा रोकने के लिए भंवरसिंह ने रेवंतराम को मनाने की कारगर कोशिशें नहीं की। कोढ़ में खाज का काम किया भाजपा के देवीसिंह भाटी के पौत्र अंशुमानसिंह को मिली टिकट ने। अंशुमानसिंह पूर्व सांसद दिवंगत महेन्द्रसिंह के पुत्र हैं, जिनके प्रति जिले में अलग तरह का लगाव रहा। भाजपा देवीसिंह कुटुम्ब को टिकट नहीं भी देती और खुद देवीसिंह निर्दलीय भी उतरते तो भी इस बार वे भंवरसिंह पर भारी पड़ते। जाट, बिश्नोई और कुम्हार समाज के जो वोट भंवरसिंह पिछले चुनावों में लेते रहे—उनमें भी भंवरसिंह के प्रति नाराजगी और असंतोष था। भंवरसिंह के चुनाव अभियान की ढुलमुल शुरूआत से यहां तक लगने लगा था कि भंवरसिंह अपनी हार मान चुके हैं। आखिरी तीन-चार दिनों में वे जरूर जुझार हुए, लेकिन तब तक युवा अंशुमान ने अच्छी-खासी बढ़त बना ली थी। इस तरह कहें तो जिले के तीनों मंत्री अपनी जीत की बिसात बिछाने में असफल रहे और कांग्रेस ने 2018 में जीती इन तीनों सीटों को खो दिया।

बीकानेर पूर्व : 2008 के परिसीमन के बाद से इस सीट पर लगातार हार रही कांग्रेस इस बार गंभीर जरूर थी—लेकिन पार नहीं पड़ी। चौथी बार भी यशपाल गहलोत के तौर पर नया चेहरा चाहे उतारा, लेकिन बहुत देर से। लो-प्रोफाइल यशपाल चुनाव अभियान को खड़ा करने में अंत तक असफल रहे। जबकि 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने कन्हैयालाल झंवर को भी यहीं बहुत देर से उतारा था, लेकिन अनुभवी झंवर ने टिकट घोषणा के दूसरे दिन ही चुनाव अभियान को खड़ा कर दिया। जातीय आधार पर कुछ खास न होने के बावजूद झंवर परिणाम में हार-जीत का फासला बहुत कम ले आए। इसके उलट अच्छे-खासे जातीय आधार के बावजूद यशपाल हार-जीत के फासले को तीन गुणा होने से नहीं रोक पाये।

यशपाल गहलोत लम्बे समय से शहर कांग्रेस अध्यक्ष हैं। अलावा इसके 2018 के चुनाव में बीकानेर पूर्व और पश्चिम में कांग्रेस की टिकटों को लेकर जो गपड़चौथ हुई, जिसके चलते बीकानेर पूर्व से संभावित उम्मीदवारों में यशपाल गहलोत का दावा गंभीर था, ऐसा होते हुए भी यशपाल गहलोत ने गत पांच वर्षों में क्षेत्र के आमजन से जुड़ाव कायम करने का प्रयास नहीं किया। जबकि सर्वथा निष्क्रिय और नाकारा सिद्धिकुमारी अपने खिलाफ भारी एंटीइन्कम्बेंशी के बावजूद चौथी बार इसलिए जीत गयीं कि जनता को उनका प्रतिद्वंद्वी दमदार नहीं लगा।

नतीजतन जो 2018 में जिले की सात सीटों में 3 कांग्रेस 3 भाजपा और 1 सीपीएम के पास थी, इस बार भाजपा ने छह सीटें ले ली, वहीं कांग्रेस के पास मात्र एक सीट रह गयी।

—दीपचन्द सांखला

21 दिसम्बर, 2023

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