Wednesday, September 6, 2023

बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र : कांग्रेस की पड़ताल

 बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र का गठन 2008 के परिसीमन में हुआ। इससे पहले इसका अधिकांश हिस्सा बीकानेर और कोलायत विधानसभा क्षेत्र में बंटा हुआ था। 2008 में जब से यह अस्तित्व में आया तब से तीनों बार भाजपा की सिद्धिकुमारी जीतती रही हैं, उसी तरह जिस तरह क्षेत्र के लिए कुछ करते हुए भी इनके दादा डॉ. करणीसिंह जीतते रहे। डॉ. करणीसिंह जनता के बीच चाहे जाते हों, लोकसभा के सत्रों में जाते थे, सिद्धिकुमारी विधानसभा सत्रों में जाना भी जरूरी नहीं समझतीं।

सिद्धिकुमारी की तीन बार जीतने की वजह यह भी मानी जा सकती है कि कांग्रेस ने इस क्षेत्र को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। तीन चुनाव हुए, तीनों बार उसने उम्मीदवार बदले। कांग्रेस गंभीर हो और उम्मीदवार का चुनावी अभियान जीत का अहसास करा दे तो सिद्धिकुमारी उम्मीदवारी से इनकार कर दें। डॉ. करणीसिंह को जब लगा कि अब जीतना आसान नहीं है, मैदान छोड़ गये। बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र के 2018 के चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार कन्हैयालाल झंवर को 15 दिन और मिलते तो उनकी जीत पक्की थी। इस बार फिर उनकी तैयारी थी, लेकिन कोई ऐसी डील हुई कि वे अचानक नोखा लोट गये। रामेश्वर डूडी की अस्वस्थता के बाद संभव हैवे अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर रहे हों। यदि ऐसा है तो उन्हें बीकानेर पूर्व में लौट आना चाहिए। इस बार वे चुनाव जीत सकते हैं।

खैर! ऐसी बातें अभी गर्भ में है। बात दावेदारों की करते हैं, कहावत है पोल हो तो ढोल बजाने हर कोई जाता है। इस सीट से कांग्रेस के 38 लोगों ने दावेदारी की है। नामोल्लेख की जरूरत समझने की वजह बीकानेर पश्चिम के दावेदारों का जिक्र करते बता दी थी कि, जिसे हम सर्वथा अगंभीर मानें, वह उम्मीदवारी ले आये और जीत भी जाए तो क्या कहेंगे।

नये बने विपक्षी गठबंधन का विधानसभा चुनावों पर कोई असर होता नहीं दिखता। ऐसे में स्थानीय स्तर पर बात करना ठीक रहेगा। जातिय आधार पर विश्लेषण करें तो बीकानेर पूर्व और पश्चिम, दोनों क्षेत्र लगभग समान हैं। दोनों सीटों पर संख्या में कम होने के बावजूद सवर्ण जातियों के नेताओं का दबदबा रहा है। जबकि अल्पसंख्यक मुस्लिम और ओबीसी की माली जाति के वोटरों कि संख्या यहां इतनी है कि कोई भी गंभीर उम्मीदवार हो और सवर्ण उसका हिकारती विरोध करें तो इन दोनों वर्गों के उम्मीदवार बीकानेर की दोनों सीटों से जीत सकते हैं।

लेकिन देश की हिन्दी पट्टी में जैसा माहौल चल रहा है, उसमें किसी मुस्लिम का जीतना दोनों सीटों पर मुश्किल ही नहीं, असंभव है। रही बात माली जाति की तो ओबीसी में संख्या और मुखरता के हिसाब से प्रभावी जरूर है, लेकिन चतुर हरगिज नहीं है। यह जाति समूह और इसके नेता कुछ कुछ ऐसा करते रहे हैं, जिससे साख में बट्टा लगता रहता है। बची-खुची कसर कथित सवर्णों के प्रभावी समूह उसे हवा देकर पूरी कर देते हैं। ऐसे में नहीं लगता कि निकट भविष्य में मुस्लिम की तरह माली उम्मीदवार बीकानेर की दोनों सीटों से कांग्रेस के सिम्बल पर जीत पायेंगेे। हां, भाजपा किसी माली पर दावं लगाये तो दोनों में से किसी भी सीट पर जीतने की पूरी संभावना है। वैसे भी ओबीसी वर्ग फिलहाल लगभग भाजपा के साथ है।

कांग्रेस के सन्दर्भ से कुल जमा बात यही है कि उसे यदि बीकानेर पूर्व की सीट निकालनी है तो तुरन्त ही कन्हैयालाल झंवर को पुख्ता इशारा कर देना चाहिए, हालांकि उन्होंने औपचारिक दावेदारी नहीं जताई है। कांग्रेस के 38 दावेदारों में से कोई भी जीत सकता है, लेकिन जीत ही जायेगा, ऐसा कहना मुश्किल है। यहां मैं फिर कहना चाहूंगा कि किसी बाहरी उम्मीदवार को मौका देना स्थानीय दावेदारों के साथ अन्याय होगा।

सितम्बर माह राजनीतिक तौर पर उथल-पुथल वाला रहेगा। इसका आगाज मोदी सरकार ने लोकसभा का विशेष सत्र बुलाकर कर ही दिया है। मोदी-शाह क्या करने वाले हैंकई तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। लेकिन उनके कार्य करने के तौर-तरीकों से स्पष्ट है कि वे जो भी करेंगे देश के लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा, देश के संघीय ढांचे के लिए अच्छा नहीं होगा।

 आशंकाएं ऐसी भी हैं कि कांग्रेस से टिकट मांगने वाले भाजपा के उम्मीदवार होकर सकते हैं और भाजपा से टिकट मांगने वाले कांग्रेस के उम्मीदवार हो कर जाएं। समझ से परे यह है कि दो विपरीत विचारों और एजेंडे वाली पार्टियों के नेता और कार्यकर्ताआ ऐसा संभव करते कैसे हैं। ऐसा आयाराम-गयाराम तब तक चलता रहेगा, जब तक वोटर इसे समझने लगे। निकट भविष्य में ऐसी नागरिक समझ विकसित होने की गुंजाइश लग नहीं रही। लेकिन नागरिक समझ विकसित होने की उम्मीद बनाएं रखनी होगी।

दीपचन्द सांखला

07 सितम्बर, 2023

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