Thursday, August 1, 2019

भारतीय स्त्री की नियति : दोयम हैसियत

मुसलमानों में तीन तलाक की प्रवृत्ति पर अंकुश के नाम पर 'मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक' संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया है। इस सरकार द्वारा पारित अन्य विधेयकों की तर्ज पर संसदीय समिति को विचारार्थ भेजे बिना इसे भी पारित करवा लिया गया। भारतीय संसदीय प्रणाली में संसदीय समिति की सुदृढ़ परम्परा रही है जिसके चलते विधेयकों की कपट-छाण होती रही है। इस विकेन्द्रीकृत लोकतांत्रिक प्रक्रिया को शाह-मोदी की सरकार अपनी मनमानी में बड़ी बाधा मानती है। यही वजह है कि अपनी दबंगई और व्हिप के बल पर ये अपनी हेकड़ी चलाते रहे हैं। इस विधेयक के कानून बनने के बाद मुसलमानों में भी विवाह विच्छेद अब न्यायिक प्रक्रिया के तहत ही हो सकेंगे। 'तलाक-तलाक-तलाक' ऐसा कह कर पत्नी को छोड़ा तो पति को तीन वर्ष की सजा तथा जुर्माने का प्रावधान इस नये कानून में किया गया है। चूंकि यह व्यवस्था मुस्लिम समाज में ही है इसलिए इससे प्रभावित भी वही होंगे। ऐसी स्थिति में तथाकथित मुख्यधारा के हिन्दू समाज में व्याप्त बिना तलाक के पत्नी को बेघर कर देने जैसी बुराई को मुस्लिम समाज भी अपनायेगा ही। इससे स्त्री की स्थिति और भी बुरी होनी है।
खैर, मुसलमानों में जिस तरह आवेशवश एक सांस में तीन बार तलाक बोल कर स्त्री को बेघर करने की प्रवृत्ति विकसित हुई उसे इस पितृसत्तात्मक समाज में शरीअत की भावना को नजरअंदाज कर जिस तरह स्वीकार किया, उसमें यह नौबत आनी ही थी। मुस्लिम सामाजिक संहिता शरीअत का ना केवल अपना महत्त्व है बल्कि इसे कानूनी मान्यता भी काफी कुछ हासिल है। शरीअत के अनुसार 'तलाक-तलाक-तलाक' एक साथ ना बोल कर तय अवधि में अलग-अलग समय बोल कर अलग होने की व्यवस्था है।
दरअसल यह समस्या धर्मविशेष से जुड़ी ना होकर पितृसत्तात्मक जातीय समाज व्यवस्था की बुराई है। इस समाज व्यवस्था में जहां लिंग के आधार पर स्त्री की दोयम हैसियत है, वहीं ऊंच-नीच की व्यवस्था में बंधी जातीयता भी एक कारण है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था जहां दुनिया के लगभग सभी देशों में मिलती है वही कोढ़ में खाज जैसी जाति व्यवस्था से ग्रसित हमारा भारतीय उपमहाद्वीप ही है। यहां जातियां पदानुक्रम में बंटी हुई हैं। पहली, दूसरी व तीसरी हैसियत और इस तरह दसियों बिसातों में बटी जातियों की स्त्रियों की हैसियत उसकी अपनी जातीय हैसियत से भी एक दर्जा नीचे की पायी जाती है। इस पितृसत्तात्मक जातीय व्यवस्था का पोषण आजादी बाद के वर्षों में भले ही ना किया गया हो लेकिन उसे राज्य की तरफ से मजबूती कभी नहीं दी गयी। जबकि हमारे संविधान के अनुसार पितृसत्तात्मक तथा जाति जैसी दोनों व्यवस्थाओं की जड़ता को खत्म किया जाना था।
वर्तमान की शाह-मोदी के नेतृत्व वाले संघ पोषित सरकार को अपने पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे के अनुसार चलना है। संघ का एजेन्डा संविधान की भावना के विपरीत जातीय बिसात और पितृसत्तात्मकता दोनों का पोषण चाहता है। ऐसे में वर्तमान सरकार से इससे विपरीत उम्मीदें बेमानी है। मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध आक्रामक रुख के चलते ही जिस संघ ने अपने को खड़ा किया, अब जब उसके पास सत्ता है तो उससे तीन तलाक जैसे सख्त विधेयक की ही उम्मीद थी। संघ यह अच्छे से जानता है कि मतदान वाली लोकतांत्रिक प्रणाली में बहुसंख्यकों के तुष्टीकरण से उसे राजनीतिक लाभ होगा। सरकार और संघ दोनों की मंशा स्त्री को मजबूती देना होता तो वे सबसे पहले विधायिका में स्त्रियों को कम से कम 33 प्रतिशत आरक्षण की बात करते, यह विधेयक वर्षों से संसद में अटका पड़ा है। अलावा इसके जिन क्षेत्रों में स्त्रियों के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव है, उसे समाप्त किया जाता। जब सब कुछ राजनीतिक नफे-नुकसान को देखकर तय किया जाना है तो उसमें क्यों तो स्त्री की और क्यों दबी-कुचली जातियों को उठाने की बात की जाय।
जिन आंकड़ों के आधार पर इस विधेयक को लाने का तर्क दिया गया उसमें मुख्य है हिन्दुओं में तलाक की दर जहां 2 प्रतिशत है वहीं आसान तीन तलाक के चलते मुसलमानों में यह दर 3.7 प्रतिशत है। ऐसे में हम यह भूल जाते हैं कि हिन्दू समाज का ही एक हिस्सा आदिवासी समाज में शादी व परिवार आदि की व्यवस्था वैसी ही नहीं है जैसी तथाकथित मुख्यधारा के हिन्दू समाज में है। इसी तरह मुख्यधारा से भिन्न पारिवारिक व्यवस्था दलित समुदाय की कुछ जातियों में भी है, जहां जोड़ा बनने और छूटने की व्यवस्था अपनी भिन्नता लिए है। इस तरह हिन्दू समाज का यह बड़ा तबका हिन्दुओं के तलाक के आंकड़ों में शामिल नहीं है जबकि मुसलमानों में पति-पत्नी के अलग होने की एकमात्र व्यवस्था एक तीन तलाक ही है, इसके चलते उनका हर विवाह-विच्छेद आंकड़ों में दर्ज होता है।
बिना औपचारिक प्रक्रिया का निर्वहन किये पत्नी को छोड़ देने का अवैधानिक चलन हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों में बदस्तूर जारी है। 2011 की जनगणना के अनुसार 19 लाख हिन्दू और 2 लाख 80 हजार मुस्लिम स्त्रियां ऐसी हैं जिन्हें उनके पतियों द्वारा बिना किसी कानूनी, सामाजिक-धार्मिक रीति के बेघर कर रखा है।
भारतीय समाज में स्त्री की दुर्गति के लिए कानून और व्यवस्था से ज्यादा समाज व्यवस्था जिम्मेदार है, जिसमें कारगार सुधारों की जरूरत है। लेकिन पिछली सरकारों ने भी इस ओर खास ध्यान नहीं दिया वहीं पितृसत्तात्मक और जाति व्यवस्था की पोषक संघपरस्त वर्तमान सरकार से ऐसी कोई उम्मीदें करना निराशा को न्योतना है।
—दीपचन्द सांखला
1 अगस्त, 2019

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