Thursday, July 25, 2019

सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक परिदृश्य पर कुछ यूं भी विचारें

कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस की सरकार गिर गई, इसमें आश्चर्य कैसा? मई, 2019 में केन्द्र में जब शाह-मोदी की सरकार पुन: काबिज हुई तब ही मान लिया गया था कि कर्नाटक, मध्यप्रदेश और संभवत: राजस्थान की भी सरकारें गिर सकती हैं। लोकसभा चुनावों में उत्तर भारत के प्रति प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार 10 करोड़ के खर्च का जो अनुमान किया जाता है, सुनते हैं वहीं दक्षिण में विधायक बनने के लिए उम्मीदवार इतना ही खर्च कर देते हैं। सरकारों में रहते कांग्रेसियों ने धन बल पर जिस तरह चुनाव जीतने शुरू किए, सुविधा होने पर उसी तरीके को विपक्षी दलों ने भी अपनाना शुरू किया। 1980 के दशक के बाद विभिन्न प्रदेशों में विपक्षी और क्षेत्रीय दल सफल होते गये। पासा आज पलट चुका है। बाहुबलियों और धनबलियों का सपोर्ट पर्दे के पीछे से लेने वाली कांग्रेस ईमानदारी की बात अब तब करने लगी जब तब का मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने कॉरपोरेट की साझेदारी में बाहुबलियों और धनबलियों को ही मंच सौंप दिया।
कांग्रेस खुद फिर से खड़ी होगी या उसका कोई रक्तबीज, अभी कुछ कहना संभव नहीं। हो सकता है भारतीय लोकतंत्र अगले एक-दो चुनाव तक यूं ही हिचकोले खाता रहेगा, क्योंकि जनता ने जिस संघ स्कूल के मोदी-शाह को सत्ता सौंप दी है, लोकतांत्रिक संस्कारों से उनका लेना-देना दूर-दूर तक नहीं है। निरकुंश होने के लिए वे संवैधानिक और जवाबदेही बेरियरों को निष्प्रभावी कर रहे हैं। हाल ही में सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून की स्वायत्तता खत्म करने को मोदी-शाह की नीयत की बानगी कह सकते हैं। लगता है जब तक इनसे कोई बड़ी भूल नहीं होगी और ठोकर खाई जनता इन्हें अपदस्थ करने की नहीं ठान लेगी, तब तक ये जमे रहेंगे। इनका समय ज्यादा खिंचने की आशंका इसलिए भी है कि विपक्ष के अधिकांश नेता भ्रष्ट हैं और शाह-मोदी ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर विभाग और सीबीआई के माध्यम से इन सभी को डराकर घिग्घी टाइट रखने की ठान रखी है ऐसे नेता या तो मोदी-शाह के साथ आ जाएं अन्यथा चुप होकर बैठ जाए।
सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों के लिए शुद्ध आचरण का गांधी का आग्रह यूं ही नहीं था, इसीलिए गांधी शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधनों की बात करते थेमतलब अच्छे परिणाम हासिल करने हैं तो तौर-तरीके भी साफ-सुथरे रखने होंगे। कांग्रेस से गड़बडिय़ां नेहरू के समय ही शुरू हो गई थी लेकिन नेहरू के बाद तो केन्द्र ही क्यों, राज्यों में जहां-जहां कांग्रेसी की सरकारें रहीं, राज से जुड़े कांग्रेसी भ्रष्टाचार बेधड़की से करने लगे। राज में होने से अवैध धन आने लगा तो राज में बने रहने के लिए चुनाव जीतने भी जरूरी हो गये। फिर क्या, धन के होते चुनावों में साम-दाम दण्ड-भेद जैसे सभी तरीके आजमाए जाने लगे। इसीलिए राहुल गांधी और उनके कांग्रेसी कर्नाटक के घटनाक्रम में शुद्ध आचरण की बात करते अच्छे नहीं लगते।
कांग्रेस को यदि फिर से मुख्यधारा की राजनीति में जगह बनानी है तो ना केवल गांधी-नेहरू के राजनीतिक मूल्यों की ओर लौटना होगा बल्कि बीते पचास वर्षों में उनके नेताओं में आयी गिरावट को स्वीकार करते हुए पश्चात्ताप के साथ जनता के सामने जाना होगा। भ्रष्ट और अनैतिक तौर-तरीकों से शाह-मोदी और येदियुरप्पा जैसों से पार पा सकने वाला नेता कांग्रेस के पास एक भी नहीं है।
प्रादेशिक क्षत्रपों में बिहार के लालूप्रसाद की पारी खत्म हो चुकी है, उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती अपने और अपने पूर्ववर्तियों के किए कबाड़ों के बोझ तले दबे हैं। अन्य हिन्दी प्रदेशों के साथ कर्नाटक, ओडिशा और अब पश्चिम बंगाल में भी भाजपा की पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ना केवल जड़ें जमा ली हैं बल्कि बीते 90 वर्षों की इसकी कारस्तानियां के परिणाम भी उसको मिलने लगे हैं। संघ धर्मभीरू हिन्दुओं के मन में यह डर बिठाने में सफल हो गया कि मुसलमान उन पर हावी हो जाएंगे। इस सफेद झूठ का कोई आधार नहीं है, फिर भी संघानुगामी झूठे आंकड़ों को लगातार प्रसारित कर इस छद्म भय को और पुख्ता करने में जुटे हैं। 2011 के जनगणना आंकड़ों के अनुसार भारत में कुल 24 प्रतिशत अल्पसंख्यक हैं, जिनमें 14.25 प्रतिशत मुसलमानों के अलावा शेष में ईसाई, सिक्ख, जैन, बौद्ध, पारसी आदि शामिल हैं। 
भारत का सनातनी हिन्दू चित्त सामान्यतया उदार माना जाता रहा है। यही वजह है कि तुर्कों-मुगलों के लगभग छह सौ वर्षों के राज में भी उसका बहुसंख्यक अस्तित्व बना रहा। इसमें मुगल शासकों की उदारता और बाहर से आये मुसलमानों की यहां के बाशिन्दों के साथ घुल-मिल कर रहने की प्रवृत्ति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आज का संघ संक्रमित भयभीत हिन्दू मन यह तर्क करने में समर्थ क्यों नहीं है कि मुसलमानों और ईसाइयों के लगभग आठ सौ वर्षों के शासन में जो हिन्दू समाज बहुसंख्यक बना रहा उस पर इस संघ पोषित शाह-मोदी की सरकार में भला संकट कैसा।
कांग्रेस द्वारा मुसलमानों के तुष्टीकरण जैसे आरोपों की पुष्टि भी कोई आर्थिक-सामाजिक सर्वे नहीं करता है। अधिकांश भारतीय मुसलमान की आर्थिक सामाजिक-स्थितियां भारत के दलितों से बेहतर नहीं है। इसलिए जरूरत भारत के आम सनातनी मन वाले हिन्दू को भय के अपने भूत को निकाल फेंकने के साथ गांधी जिस उदार हिन्दू चित्त की बात करते रहेउस ओर लौटने की है।
—दीपचन्द सांखला
25 जुलाई, 2019

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