Thursday, June 27, 2019

यह कहां.....आ गए हम/यूं ही वोट करते करते

मोदी-शाह के दूसरे कार्यकाल का एक माह होने को है। नाकारा और सभी तरह की असफलताओं के बावजूद जनता द्वारा केन्द्र की सत्ता पर मोदी-शाह को दूसरा कार्यकाल दिए जाने पर सोशल साइट्स पर मैंने लिखा था कि 'धर्म और राष्ट्रवाद से लेप दें तो काठ की हांडी दुबारा भी चढ़ सकती है।'
अपनी असल जरूरतों की उम्मीदों को दरकिनार कर झूठे राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व पर आभासी खतरे से भ्रमित हो जनता ने 2014 से भी अधिक बहुमत देकर मोदी और शाह को सत्ता पुन: सौंपी है। जिन्होंने इस उम्मीद में ऐसा किया कि मोदी-शाह इस बार हमारी जरूरतों पर खरा उतरेंगे, नहीं पता कि वे निराश होना शुरू हुए या नहीं। बीते पांच वर्षों में सभी तरह के राजस्व में बढ़ोतरी के बावजूद देश की अर्थव्यवस्था लगातार रसातल में जा रही है। बीते कार्यकाल में पहले नोटबंदी और बाद उसके अनाड़ीपने से लागू की गई जीएसटी कर प्रणाली ने देश के तलपट को गड़बड़ा कर रख दिया। रघुराम राजन को छोड़ दीजिए, खुद सरकार द्वारा नियुक्त रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल, आर्थिक सलाहकार, नीति आयोग के सदस्यों को लगा कि उनकी विशेषज्ञता की शाह-मोदी के आर्थिक-चेपों के सामने कोई कीमत नहीं तो एक-एक कर छोड़ चल दिए।
नई सरकार को सत्ता संभाले एक माह भी नहीं हुआ कि रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भी इस्तीफा दे दिया। यहां उल्लेखनीय यह भी कि आजादी बाद पहली बार गैर वित्तीय क्षेत्र के किसी व्यक्ति को रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया गया। देखना यह है कि वह बैंक के स्थाई खजाने को मोदी-शाह की नजरों से कब तक बचा कर रख पाते हैं।
किसी लोकतांत्रिक देश में शासन करने के लिए जरूरी नहीं कि समग्रता में उसकी जमीनी जरूरतों से वाकफियत हो, लेकिन मंशा हो तो ऐसी विशेषज्ञताओं को जुटाया जा सकता है। लेकिन मोदी-शाह के तौर-तरीकों से नहीं लगता कि ऐसी असल और आधारभूत जरूरतों में उनकी रुचि है। इनका सोच और मकसद तो बहुत सीमित लोगों को लाभान्वित करने भर का है, और उसको अंजाम तक पहुंचाने में संघ जैसे संगठन की लगभग एक शताब्दी से बिछाई जा रही घृणा की चादर उनके काम आ रही है।
जनता कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार, देश की सुरक्षा और यहां तक रोजगार जैसी आधारभूत जरूरतों पर मोदी-शाह द्वारा दी जा रही झूठी तसल्लियों पर भरोसा कर रही है। रोजगार के अभाव के चलते पनप रहे आक्रोश का लक्ष्य मोदी-शाह की अनुकूलता के लिए संघ मुस्लिम समुदाय की ओर करने में सफल होता जा रहा है। बीच में इसका शिकार दलित भी होने लगे थे, लेकिन जैसे ही लगा कि वोटों के गणित में दलितों को एकबार इससे मुक्त रखना जरूरी है, उसे नियंत्रित कर लिया गया। मुसलमानों को लेकर जो झूठ एक सदी से संघ घड़ता रहा, उसे सोशल साइट्स जैसे उस्तरे के हाथ में आने पर उससे प्रत्येक विवेकहीन को रंगने में लगभग सफल होता दिख रहा है। यही वजह है कि भीड़ कोई झूठा-सच्चा आरोप किसी मुस्लिम नामित पर जड़ती है और सजा पर उतारू होकर मौत या हॉस्पिटल तक पहुंचने की सजा भी दे देती है। ऐसी घटनाएं प्रतिमाह एकाधिक देखी जाने लगी हैं। इससे भी खतरनाक यह है कि ऐसी प्रत्येक हत्या के बाद घृणा से भर दिया गया हम हिन्दुओं का धर्मभीरु मन अन्दर ही अन्दर एक आशंकित खतरे के खत्म होने से सन्तुष्ट होने लगा है। सन् 1984 के सिखसंहार से उपजे भय से देश का सिख समुदाय चाहे उबर आया हो लेकिन 2002 के मुस्लिम संहार से गुजरात का मुसलमान आज तक नहीं उबर पाया है। संघ लगभग वैसा ही ट्रीटमेंट देश भर के मुसलमानों के साथ करने पर उतारू है और मॉबलिंचिंग से उसका मकसद पूरा भी होता लग रहा है।
मोदी-शाह की निष्ठुरता हम इसी से समझ सकते हैं कि बिहार के मुज्जफ्फरपुर में कुपोषण जनित बीमारी से शिशुओं की लगातार हो रही मौतों पर वे इसलिए संवेदनात्मक प्रतिक्रिया नहीं देते क्योंकि वहां की सरकार में वे शामिल हैं। वहीं भीड़ द्वारा मुसलमानी पहचान वालों का लगातार शिकार बनाए जाने के बावजूद ऐसी हत्याओं को बीते पांच वर्षों से अनदेखा किया जा रहा है। ऐसी घटनाएं उन राज्यों में ज्यादा हो रही है जहां भाजपा की या भाजपा समर्थित सरकारें हैं। ऐसा नहीं है कि संवेदनशीलता का ढोंग मोदी-शाह नहीं करते, क्रिकेट खिलाड़ी शिखर धवन की अंगुली में चोट लगने पर प्रधानमंत्री ट्वीट करने में कहां चूके।
किसी भी संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में विपक्ष का महत्त्व सत्तापक्ष से कम नहीं होता। लेकिन मोदी और शाह जब से सत्ता में आए हैं, विपक्ष को खत्म या दन्त-नख विहीन करने में लगे हैं। सीबीआई, इडी, इनकम टैक्स जैसे महकमों का उपयोग कांग्रेस भी करती आयी है। लेकिन इन सरकारी एजेंसियों का जैसा दुरुपयोग मोदी-शाह ने किया और कर रहे हैं, वह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। हाल ही के ताजे उदाहरण पर गौर करें तो संसद में राष्ट्रपति को धन्यवाद के अपने भाषण में मोदी जब यह कह रहे थे कि वे विपक्ष के एक-एक शब्द को मान देना चाहते हैं। उसी शाम को मालूम हुआ वित्तीय अनियमितता में फंसे तेलगुदेशम के राज्यसभा में तीन सांसद भाजपा में सम्मिलित हो गये। यह किसी से नहीं छिपा कि इडी, इनकम टैक्स और सीबीआई का दुरुपयोग कर मोदी और शाह विपक्ष को पूरी तरह खत्म करने में जुटे है। स्थितियां यह हो गई है कि राहुल और ममता बनर्जी के अलावा अन्य कोई विपक्षी नेता मोदी और शाह से मोर्चा नहीं लेना चाह रहा।
इस तरह मोदी और शाह संघ के उस ऐजेन्डे के लिए अनुकूलता बनाने में जुटे हैं जिसमें वर्तमान संविधान को बेअसर कर संघी-हिन्दुत्व का राज और समाज व्यवस्था लागू की जा सके। संघ ऐसी व्यवस्था चाहता है जिसमें द्विज प्रथम श्रेणी के, पिछड़े दूसरी और दलितों को तीसरी श्रेणी का नागरिक बना दिया जाए। मुसलमान रहें चाहें यहीं लेकिन उनकी हैसियत दास और सेवक से ज्यादा नहीं होगी। संघ और मोदी-शाह के सपने केवल और केवल यही है, पूरे होंगे या नहीं, अलग बात है, और जब लोकतंत्र ही नहीं रखना है तो वोट करवाने की जरूरत कैसी। जिन्हें इन आशंकाओं पर भरोसा नहीं है उन्हें यह उम्मीद भी कब थी कि 90 वर्षों की संघ की करतूतों के चलते मोदी-शाह जैसे लोग भी सत्ता में आ लेंगे।
हम विवेकशील होकर विचारना शुरू नहीं करेंगे तो कल्पनातीत समय में धकेल दिए जाएंगे, जिससे निकलने में पीढिय़ां लग सकती हैं।
इस पूरे आलेख में भाजपा का उल्लेख जान-बूझ कर नहीं किया है। एक लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में किसी दल का जिस तरह का अस्तित्व होना चाहिए वह भाजपा का अब रहा ही कहां है, वह पूरी तरह मोदी-शाह में घुल गई। यहां कांग्रेस की नजीर ना दे, वह अपने किए को भोग रही है।
—दीपचन्द सांखला
27 जून, 2019

No comments: