Thursday, June 21, 2018

बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल की गति और दुर्गत


मनीषी डॉ. छगन मोहता महात्मा गांधी के हवाले से कहा करते थे कि स्वयंसेवी संस्थाओं और समूह संगठनों को उनकी स्थापना से दस वर्ष में या उद्देश्य पूर्ण होने पर उससे पहले ही समेट देना चाहिए। गांधी और मोहता की बात में अब और भी कुछ जोडऩे की जरूरत महसूस होने लगी है, वह यह कि 'ऐसी सभी संस्थाओं की खुद की ना कोई चल सम्पत्ति होनी चाहिए और ना ही अचल संपत्ति। संस्थाएं ऐसी सभी जरूरतें किराये पर या लीज पर लेकर या आपसी सहयोग से पूरी करे तो सदस्यों और पदाधिकारियों की आपसी टकराहटों से बचा जा सकता है।
बीकानेर शहर की प्रतिष्ठ संस्था बीकानेर व्यापार उद्योग मण्डल पिछले दस वर्षों में जिस तेजी से दुर्गत को हासिल हो रही है, वह खास चिन्ता का कारण इसलिए है कि आजादी बाद इसका गठन बीकानेर के 'चेम्बर ऑफ कॉमर्स' की तर्ज पर किया गया था, जिसमें विभिन्न व्यवसायों और क्षेत्रों के संगठन एक वृहत मण्डल के संरक्षण में विकसित हो सकें और अपने हितों की रक्षा कर सकें। शुरुआत को छोड़ दें तो इस बीकानेर व्यापार मण्डल का उत्तराद्र्ध हिचकोले खाता दिखने लगा है। पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से इसने अपनी बड़प्पन की कैसी भी जिम्मेदारी निभाई हो, कोई उदाहरण नहीं मिलता।
अपनी आलेख शृंखला में इस संस्था में पूर्व के विभिन्न उद्वेलनों के समय जो कुछ कहा, उसके हिस्से आप पढेंग़े तो तब की कही वह मंगलवार 19 जून, 2018 को गठित इस मण्डल की विवादास्पद कार्यकारिणी को उन पुराने सन्दर्भों में समझा जा सकता है।
शुरुआती कई दशकों तक इस संगठन के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे। औपचारिक सहयोग छोड़ दें तो कोई व्यापारी समय देने को ही उत्साहित नहीं था। इसीलिए बीच के लंबे समय तक सोमदत्त श्रीमाली ही अध्यक्ष बने रहे। जैसी कि लोक में कैबत है कि झगड़े की जड़ अधिकांशत: जर और जमीन ही होती है। इस संगठन में भी झोड़ के यही दो कारण हैं। यूआईटी ने जमीन दे दी तो जैसे-तैसे भवन बन गया। जमीन की लोकेशन आबाद हुई तो एक बैंक और अन्य किरायेदार के रूप में आ गये। मंडल के आर्थिक हालात ठीक हुए तो ऐसे लोग, जो संपन्न थे या जो बहुत संपन्न नहीं भी थे, उन्हें भी इसके माध्यम से अपनी छोटी-मोटी राजनीतिक-प्रशासनिक महत्वाकांक्षाएं पूरी होती दीखने लगी। अहम् और स्वार्थ टकराने लगे, मंडल के उद्देश्य गौण हो गये। बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल की वर्तमान अराजक स्थिति के कमोबेश यही कारण हैं।
('विनायक' 2 नवम्बर, 2011)
व्यापार उद्योग मंडल की करोड़ों की सम्पत्ति और लाखों की मासिक आय है। कइयों की गिद्धदृष्टि इस पर होगी ही। व्यापार मंडल और संरक्षक परिषद के सदस्य खुद जिम्मेदारी नहीं दिखाते हैं तो सरकार को चाहिए कि इस मंडल पर कोई रिसिवर बिठा दे या लम्बे समय तक निर्वाचित पदाधिकारी नहीं हैं तो मंडल का पंजीकरण रद्द करके सम्पत्ति अपने कब्जे में ले ले। अन्यथा हो सकता है कि कुछ स्वार्थी लोग ऐसी गोटी बिठाएं कि वे इस सम्पत्ति पर हमेशा के लिए कुंडली मार कर बैठे जायेंगे, क्योंकि व्यापारियों में से अधिकांश ऐसे ही हैं कि उन्हें अपने व्यापार से फुरसत नहीं है। इसकी बानगी में व्यापार मंडल के चुनाव लम्बे समय से न होना तो है ही, उससे संबद्ध लगभग सभी छोटे व्यापार संघों के चुनाव भी लम्बे समय से नहीं हुए हैं। संविधान पालना के अभाव में अधिकांश व्यापार संघ अधिकृत नहीं रहे हैं, ऐसे में केवल संरक्षक परिषद ही है, जो इस मंडल पर अधिकृत हक रखने की स्थिति में है!
('विनायक' 7 दिसम्बर, 2012)
जिन प्रतिष्ठ शिवरतन अग्रवाल पर भरोसा और उम्मीदें कर अध्यक्ष बनाया, नहीं पता किन दबावों में या कौनसी नाड़ दबने के चलते वह लगभग कब्जाधारी होकर अपने मान को धूल-धूसरित होने दे रहे हैं। 'विनायक' में इस संस्था की कार्यप्रणाली को लेकर पहले भी कई बार लिखा जा चुका है। 2011 में जब अग्रवाल ने पहले तो अपने द्वारा मनोनीत कार्यकारिणी को ही इस्तीफा सौंपा और बाद इसके कार्यकारिणी द्वारा मंजूर न करने की बिना पर आज भी अध्यक्ष पद पर काबिज हैं। जबकि विधान के अनुसार अध्यक्ष का कार्यकाल दो वर्ष का ही होता है।
लगभग देश की आजादी के साथ ही स्थापित बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल के विधान में अपर हाउस की तर्ज पर संरक्षक परिषद का प्रावधान है। शिवरतन अग्रवाल का संस्थान के विधान में अगर विश्वास होता तो वे इस संरक्षक परिषद के मुखातिब होते न कि स्वयं द्वारा ही घोषित कार्यकारिणी के। अग्रवाल 27 जनवरी, 2009 को अध्यक्ष निर्वाचित हुए, उस हिसाब से 26 जनवरी, 2011 से पहले मण्डल अध्यक्ष का चुनाव हो जाना चाहिए था, जो आज तक लंबित है।
('विनायक' 19 नवम्बर, 2015)
इन पुराने सन्दर्भों के आलोक में 19 जून, 2018 मंगलवार को बनी कार्यकारिणी की गठन प्रक्रिया को समझा जाना चाहिए। कार्यकारिणी में कौन है, उनकी मंशा क्या है, इस पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन जिस दबंगई और पुलिस संरक्षण में उन्होंने गपड़चौथ की, उससे सन्देह तो पैदा होता ही है। संस्था के सविधान के चुनावी प्रावधानों की अनदेखी और अवमानना से चुनकर आए ये पदाधिकारी इस संस्था का कितना मान रख पाएंगे, समय ही बताएगा। वैसे संस्था का पिछले दो-तीन दशकों का जो नाकारापन रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि इसे भंग ही कर देना चाहिए, ताकि पहले से अनेक बदमजगियां भुगत रहा यह समाज आए दिन की एक बदमजगी से तो कम-से-कम बच ही जाएगा।
आजादी बाद की ऐसी समाजसेवी संस्थाओं और उनके नियन्ताओं पर नजर डालें तो उन महानुभावों का स्मरण हो आता है जो खुद संस्थाजीवी ना होकर संस्था और उसके उद्देश्यों को आत्मसात् कर अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय रहे, इनमें सोहनलाल मोदी, हिम्मतभाई परीख और डॉ. छगन मोहता विशेष स्मरणीय हैं। इन्होंने क्रमश: सर्वोदय-खादी, व्यापार-उद्योग और प्रौढ़-अनौपचारिक शिक्षा के क्षेत्र की संस्थाओं को जीवन्तता से जीया था।
दीपचन्द सांखला
21 मई, 2018

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