Thursday, June 7, 2018

'गांव बंद' की पृष्ठभूमि और उसकी नौबत : सरकार-शहरियों की जिम्मेदारी


अपने हकों के लिए किसान-पशुपालक अब मुखर होने लगे हैं। सामान्यत: संतोषीयह समुदाय आजादी बाद के लम्बे समय तक अपने स्वभाव के चलते या इस उम्मीद में कि देश आजाद हुआ है, फिरते-फिरते दिन हमारे भी फिरेंगे, चुप्प रहा। कोशिशें भी हुईं, जो नेहरू के समय ही शुरू हो गईं थी। बड़े बांध और उनसे निकली नहरें सिंचित क्षेत्र के किसानों को सुखद और समृद्ध करती गईं। बीजों की गुणवत्ता से लेकर खेती के आधुनिक साधनों तक पर काम हुआ। इन सबके कुछ नकारात्मक परिणाम भी आए, सुविधा पाए किसान अपनी परम्परागत उपज और पशुपालन जैसे कामों को छोड़ अधिक लाभ के लालच में अधिक आय वाले किसानी कार्यों में लग गए, कम पानी की प्रकृति वाली जमीनें अधिक पानी मिलने से नाकारा होने लगी। वहीं दूसरी ओर किसानों का वह वर्ग जो सिंचाई के आधुनिक साधनों से महरूम था, उसकी पीड़ाएं-शोषण लगातार बढ़ते गये। जैसे तैसे कर्ज लेकर खेती करने वाले किसान को जब लगने लगता है कि वह कर्जा चुका ही नहीं पाएगा तो निराशा में मरने के अलावा उसे अन्य कोई उपाय सूझता नहीं।
बारानी इलाकों के जिन किसानों ने देखा-देखी में कैसे भी साधन जुटा नलकूप खुदवा खेती शुरू की, उन्होंने अपने क्षेत्र का पानी रसातल में पहुंचा दिया। नलों से घर-घर पानी पहुंचा तो तालाबों की कद्र खत्म हो ली। इस तरह अधिकांश इलाकों का आम ग्रामीण अब पीने के पानी का भी मुहताज हो लिया। मानवीय विवेक की कमी ने तकनीक के प्रयोग में आम गांववासी के लिए तकलीफें बढ़ा दीं, क्योंकि तकनीक अपने दुरुपयोग की आशंकाएं साथ ले कर आती है। अभावों में जीने वाला किसान तकनीक से लाभान्वित होने की बजाय संक्रमित होने लगा।
भारत देश का जैसा भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक ढांचा था, उसमें विकास का पश्चिमी मॉडल कारगर नहीं था, गांधी इसे अच्छी तरह समझे हुए थे। इसीलिए वे पारम्परिक साधनों-संसाधनों और तौर-तरीकों की पैरवी करते रहे, गांवों पर ध्यान देने की बात करते रहे। लेकिन यूरोप में पढ़े नेहरू पश्चिम से चुंधियाएं हुए थे, पढ़े तो गांधी भी यूरोप ही में लेकिन वे बौराए नहीं थे।
आजादी बाद नेहरू और अन्य कांग्रेसियों ने गांधी की कई बातों, धारणाओं-अवधारणाओं को नजरअंदाज किया, विकास का पश्चिमी तरीका अपनाया। कहा जाता है कि विकास का गलत मॉडल चुनने का एहसास नेहरू को होने लगा था, मृत्यु पूर्व सन्दर्भित विषय पर हुई बातचीत में नेहरू को यह कहते सुना गया कि 'लगता है गांधी की बात नहीं मान कर हमने बड़ी भूल कर दी।' अपने इस एहसास के बाद भूल सुधारने को नेहरू ज्यादा जीए नहीं। उनके सभी उत्तराधिकारीअन्य पार्टियों के भीउसी रास्ते चलते गये। उस भूल को बजाय सुधारने के उसी पर चलते रहने की मजबूरी ही थी कि देश को 1991 में वैश्विक अर्थव्यवस्था को अपनाना पड़ा। वैसे अपनी भूलों का एहसास भी संवेदनशील नेहरू जैसे को ही हो सकता है। बावजूद इन सबके नेहरू को खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि नेहरू ने अर्थ व्यवस्था के पश्चिमी  मॉडल के बावजूद जो दिया, वर्तमान देश की राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय सभी तरह की उपलब्धियां उसी की बदौलत खड़ी हैं।
इस नई अर्थव्यवस्था में किसानी में लगा कृषि-प्रधान देश का बड़ा वर्ग आज न केवल उद्वेलित है बल्कि आन्दोलनरत है। वह अप्रासंगिक होता जा रहा है, राजनैतिक दल और सरकारें किसान की कीमत वोट बटोरू 'ईवीएम' से ज्यादा नहीं आंकती।
आजादी बाद से हमारे इस इलाके के पशुपालक वर्ग के बड़े हिस्से को अपनी आजीविका छोडऩे को मजबूर होना पड़ा, वहीं खेतिहर किसान भी लाचार होता गया।
देश की रीढ़ माने जाने वाले किसानी में लगे इस बड़े समुदाय की दशा सुधारने की मंशा सरकारें जाहिर तो करती रही हैं लेकिन उसे क्रियान्वित करने से बचती भी रही। मनमोहनसिंह के नेतृत्व में संप्रग-एक की सरकार ने बड़ी उम्मीदें जताते हुए कृषि विशेषज्ञ एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया। उस आयोग ने लगभग दो वर्ष लगकर 2006 में खेती-किसानी के धंधे की दशा सुधारने के लिए अपनी रिपोर्ट में कई सुझाव दिये, जिसमें किसानों को उनकी उपज की लागत से दुगुना भुगतान दिलाने, कर्जे में राहत, फसलों का बीमा, अच्छे बीज और अन्य जरूरतें पूरी करने की बात कही, लेकिन मनमोहनसिंह सरकार इस पर विचार ही करती रही, इसी बीच 2014 में लोकसभा के चुनाव आ लिए, और सरकार चली गई।
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने चुनावी वादों की झड़ी लगाई, उन्होंने ना केवल आमसभाओं में वादे किये बल्कि अपने चुनावी घोषणा-पत्र में भी उपज की लागत पर 50 प्रतिशत जोड़कर भुगतान करवाने की बात कही। जिस किसान को लागत का आधा भी हासिल नहीं होता, उससे जब लागत का ड्योढ़ा देने का वादा किया गया तो उसकी उम्मीदें हरी होना वाजिब है।
मोदी सरकार को शासन में आए चार वर्ष हो गये, इनके द्वारा किए अन्य सभी वादों की जो गत है उससे कुछ ज्यादा बुरी गत किसानों से किए वादों की है। इस राज में हताश किसानों की आत्महत्याएं बढ़ी हैं। यहां तक कि इस नाउम्मीदी ने राजस्थान में भी दस्तक दे दी है। लगता है राजस्थान में वह सामाजिक सौजन्यता खूटने लगी है, जिस पर हम अक्सर आत्ममुग्ध हुए बिना नहीं रहते आए हैं। अब तो जब-तब हमारे प्रदेश से भी किसानों की आत्महत्या के समाचार मिलने लगे हैं।
ऐसे में अब सरकार को किसानों की इन वाजिब मांगों को स्वीकारने की कार्ययोजना बना लेनी चाहिए। कर्जा माफी जैसे वोट बटोरू उपायों के बजाय उपज की लागत का डेढ़ा-दुगुना दाम दिलाने की पुख्ता व्यवस्था करना और किस क्षेत्र के किन किसानों को कौन सी फसलें लेनी है, उसकी कार्ययोजना भी इस हिसाब से बनवाना कि उपज आने पर ऐसा ना हो कि कोई फसल दोगुनी-चौगुनी आ जाए और कोई आए ही नहीं? उपज में संतुलन के मद्देनजर बुआई से पूर्व अलग-अलग फसलों की क्षेत्रवार खरीद की दरें घोषित हों ताकि क्षेत्र-विशेष के किसान उसी फसल की बुआई करें। फसल बीमा और बुआई से संबंधित सभी जरूरतों की पूर्ति गुणवत्तापूर्वक करना भी सरकार जरूरी समझे।
मोदीजी की सरकार नाइजीरिया के किसानों से तय भाव की शर्त पर दालें खरीदने का समझौता कर सकती है तो भारतीय किसानों को डेढ़े भाव देने का कोरा वादा ही क्यों?
रही बात 'गांव बंद' की तो हम शहरियों को खुद को समझदार और ग्रामीणों को गंवार समझना अब छोड़ देना चाहिए। हमें इस आन्दोलन के साथ ना केवल सद्भावना जतानी चाहिए बल्कि किसानों और पशुपालकों की उपज और उत्पादों से जुड़े शहरी उद्योगों और दुकानदारों को आन्दोलन के सहयोग में अपने धंधों को बन्द रखना चाहिए। यही असली राष्ट्र भावना है और जिस राष्ट्र भावना का हम दम भरते नहीं थकते, उसकी मैली मंशा तो केवल वोट बटोरने की है।
दीपचन्द सांखला
07 जून, 2018

No comments: