बात दो सहधर्मियों से ही शुरू करते हैं। राजस्थान में सर्वाधिक पाठकों वाले दो
अखबार राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर
को तटस्थता से लगातार देखने वाले समझते होंगे कि जहां पत्रिका लगातार इस ओर
प्रयत्नरत है कि लोकतांत्रिक मूल्य और धर्म निरपेक्षता जैसे संवैधानिक प्रावधानों
को प्रतिष्ठ किया जाए- पीछे का मकसद कुछ भी हो, पत्रिका के तेवर आभास यही दे रहे हैं। वहीं दैनिक भास्कर
विभिन्न अन्तर्वस्तुओं में पत्रिका से पिछड़ता लग रहा है।
विषयान्तर के साथ एक ताजे उदाहरण में हिन्दी साहित्य की लेखिका कृष्णा सोबती
को ज्ञानपीठ सम्मान देने की घोषणा की खबर से दोनों अखबारों के अन्तर को समझ सकते
हैं। क्योंकि साहित्य और संस्कृति को प्रतिष्ठा देने-दिलाने का काम मीडिया का भी
है, दैनिक भास्कर ने साहित्य
की इस खबर को ठोक-पीट छोटी कर हाशिये पर लगा दिया। पत्रिका ने ना केवल खबर को ढंग
से लगाया बल्कि भीतरी पृष्ठों पर कृष्णा सोबती पर एक फीचर भी लगाया।
लौट आते हैं मुद्दे पर, आज इस पर चर्चा
करने की जरूरत इसलिए समझी गई कि राजस्थान पत्रिका के 6 नवम्बर 2017 अंक के दखल कॉलम
में गोविन्द चतुर्वेदी का एक अग्रलेख 'विधायक कोष : धर्म नहीं विकास पर खर्च हो' प्रकाशित हुआ है। देश में धर्म निरपेक्ष मूल्यों के
प्रतिकूल साबित होते इस मामले में राजस्थान के सर्वाधिक पाठकों वाले इस अखबार ने
सरकार की संविधान के प्रतिकूल उन नीतियों पर अंगुली उठाने का साहस दिखाया जिससे
बहुसंख्यक वर्ग का उग्र पाठक असहज हो सकता है। चतुर्वेदी ने राजस्थान सरकार की उस
छूट को गलत बताया जिसमें विधायक कोटे से धार्मिक स्थलों पर खर्च करने की छूट दी गई
है। जब से सांसद व विधायक विवेक-कोष का प्रावधान किया गया, तब से धार्मिक और निजी काम इस कोष से करवाने की छूट नहीं थी,
केवल विकास के काम ही करवाए जा सकते थे।
इस तरह के तुष्टीकरण पर आजादी बाद से ही मीडिया प्रभावी तौर पर आवाज उठाता तो
आज बहुसंख्यकों के इस तरह तुष्टीकरण का शासन साहस नहीं कर पाता। यहां एक अन्तर
समझना जरूरी है: दलितों और पिछड़ों को आरक्षण देने और अल्पसंख्यकों के
सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए चलाई जा रही योजनाओं को तुष्टीकरण नहीं कहा जा सकता,
इसे सामाजिक समरसता और आर्थिक समानता लाने के
उद्देश्य से धर्म निरपेक्ष लोककल्याणकारी शासन के कर्तव्यों में माना जायेगा।
धार्मिक यात्राओं यथा हज यात्रा-तीर्थयात्रा के लिए आर्थिक सहयोग तुष्टीकरण
श्रेणी में आयेगा। इसी तरह सरकारी और सार्वजनिक आयोजनों में धार्मिक प्रतीकों की
पूजा-प्रतिष्ठा धर्म निरपेक्ष राज्य की अवधारणा के खिलाफ है। आजादी बाद से ना शासन
ने और ना ही मीडिया ने कभी इस पर अंगुली उठाई। इस तरह के क्रियाकलापों को
नजरअन्दाज करना भी बढ़ावा देने में ही गिना जाएगा। बहुसंख्यकों को दी जाने वाली इस
तरह की छूटें प्रकारान्तर से अल्पसंख्यकों और दलितों के मन पर बहुत सूक्ष्म तौर पर
असुरक्षा और भय पैदा करती हैं। आजादी बाद देश में और प्रदेशों में अधिकांशत:
कांग्रेस का शासन रहा है, इसलिए इस तरह के
क्रिया-कलापों के लिए उसे ही ज्यादा जिम्मेदार मानना चाहिए। चूंकि इस पर मीडिया ने
कभी प्रभावी हस्तक्षेप नहीं किया अत: मीडिया को भी बरती इस गैर जिम्मेदाराना
उपेक्षा से मुक्त नहीं किया जा सकता।
सांसदों और विधायकों के विवेकाधीन कोष को खर्च ना करने पर यदा-कदा खबर छपती
रही हैं। लेकिन वे उसे खर्च कहां और किस मकसद से कर रहे हैं इस पर नैतिक-वैधानिक
आकलन मीडिया में बहुत कम आता है। देखा गया है कि रस्ते-गलियां निकालकर
जाति-समुदायविशेष के श्मशानों-कब्रिस्तानों और भवनों के निर्माण में विधायक-सांसद
कोटे का दुरुपयोग होता रहा है। यह शोध का विषय हो सकता है कि समाज या समुदायविशेष
के लिए इस तरह लगाए जाने वाले धन का लाभ क्या चुनावों में संबंधित सांसद-विधायक को
होता है? क्योंकि इस तरह के कार्य
इसी मकसद से करवाए जाते हैं। पड़ताल की जाए तो इस तरह के प्रलोभनों से वोटों पर
कोई खास असर नहीं होता पाया जायेगा।
असल में विधायक और सांसद कोटे का उपयोग वहां होना चाहिए जहां आमजन को विशेष
जरूरत हो और जो जरूरतें सरकारी-योजनाओं और बजट के अभाव में कई बार पूरी नहीं हो
पाती या उनके पूरा होने में देर लगने की आशंका हो। होना यह चाहिए कि सार्वजनिक
सुविधाओं यथा शौचालय, मूत्रालय,
कई हिस्सों में जरूरी नालियां, डिस्पेंसरी-स्कूलों की छोटी-मोटी जरूरतें,
कमजोर वर्ग के अविकसित मोहल्लों में न्यूनतम
सुविधाएं विकसित करने, गांव है तो गांव
के दूर से निकलने वाली सड़कों के किनारे विश्रामालय आदि-आदि की सुविधाओं को विकसित
करने में इस धन का सदुपयोग हो।
नये प्रावधानों में सरकार ने उन धार्मिक स्थलों को विकसित करने की छूट दे दी
जिनके पास वैसे ही वैध-अवैध धन प्रचुर मात्रा में आता है। अनुमान है कि देश के
धार्मिक स्थलों में पहले से इतनी धन-सपत्ति निष्क्रिय तौर पर संचित है जिससे देश
की अर्थव्यवस्था में भारी सुधार हो सकता है। इन्हीं सब के मद्देनजर गोविन्द
चतुर्वेदी का उक्त उल्लेखित अग्रलेख विशेष है।
—दीपचन्द सांखला
8 नवम्बर, 2017
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