Thursday, November 2, 2017

पत्रकारीय पेशे पर संकट

पत्रकारिता के बेहतरीन दिनों का भी मैं साक्षी रहा हूं। अधिकतर लोग पत्रकारिता के पेशे में इसलिए आते थे कि वे अपनी कलम के माध्यम से एक बेहतर समाज की रचना में भागीदार बनना चाहते थे। सत्यनिष्ठा और संघर्षशीलता पत्रकारिता के अनिवार्य गुण होते थे। इस अंग में समय के साथ जो गिरावट आई उसे भी लगातार देख रहा हूं, लेकिन फिर यह भी कल्पना से परे था कि पत्रकारिता कहां से कहां पहुंच जाएगी।
उक्त कथन छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार ललित सुरजन के उस सम्पादकीय का हिस्सा है, जो उन्होंने 31 अक्टूबर, 2017 के अपने अखबार 'देशबन्धु' के लिए लिखा। सन्दर्भ छत्तीसगढ़ के ही पत्रकार विनोद वर्मा की गिरफ्तारी का है। छत्तीसगढ़ सरकार में मंत्री राजेश मूणत से संबंधित बताई जा रही सीडी के आधार पर वर्मा को भयादोहन का आरोपी बनाया गया है। किसी महिला के साथ अंतरंग क्षणों की इस वीडियो क्लीपिंग के सही-गलत की जांच अभी होनी है। ठीक इसी तरह सीडी के माध्यम से विनोद वर्मा पर भयादोहन का आरोप भी अभी साबित होना है। लेकिन पूरे घटनाक्रम को देखा-समझा जाए तो छत्तीसगढ़ शासन की मंशा और नीयत संदेह के घेरे में है। विनोद वर्मा को जिन धाराओं में हिरासत में लिया गया और फिर अस्वस्थता के बावजूद जिस तरह गाजियाबाद से उन्हें रायपुर ले जाया गया, उसका मकसद उन पत्रकारीय पेशेवरों को सबक देना भी है, जो हाल तक रीढ़ सीधी रखे हुए हैं, अन्यथा आज के अधिकांश मीडिया और पत्रकार अपने मालिकों के और अपने हितसाधक हो चुके हैं, ऐसों के लिए सूचना प्रसारण मंत्री की हैसियत से 1977 में दिया लालकृष्ण आडवाणी का वह कथन याद आता है जिसमें आपातकाल का जिक्र करते हुए उन्होंने पत्रकारों को उलाहना दिया कि 'आपको झुकने के लिए कहा गया, लेकिन आप तो रेंगने ही लग गये।'
छत्तीसगढ़ की उक्त घटना और हाल ही में राजस्थान विधानसभा में रखा गया दण्ड विधियां (राजस्थान संशोधन) विधेयक 2017, जिसमें मीडिया को भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों से संबंधित खबर प्रसारित करने पर सजा का प्रावधान किया गया है। राजस्थान के लुंज-पुंज विपक्ष, मानिकचंद सुराना और घनश्याम तिवाड़ी द्वारा विधानसभा में इस विधेयक के प्रति प्रभावी असहमति और कुछ मीडिया घरानों के भारी विरोध (जिसमें राजस्थान पत्रिका का विरोध विशेष उल्लेख्य है) के बाद सरकार सहम गई और विधेयक को प्रवर समिति को सौंप दिया, इसे दूसरे तरह से ठण्डे बस्ते में डाला जाना ही कहा जा सकता है। लेकिन आश्चर्य यह भी है कि इस विधेयक का मुखर विरोध तब क्यों नहीं हुआ जब कुछ माह पूर्व अध्यादेश के माध्यम से इसे सूबे पर थोप दिया गया था। खैर, देर आयद-दुरस्त आयद, कि गलत का विरोध जब भी हुआ तभी ठीक है। हो सकता है सरकार ने सबक लेकर इस अध्यादेश को उसके नियत समय पर अपनी मौत मरने को छोड़ दिया हो।
राजस्थान पत्रिका में गुलाब कोठारी के नाम से एक नवम्बर, 2017 को प्रकाशित अग्रलेख में यह घोषणा जिसमें कहा गया है कि जब तक सरकार उस काले कानून को वापस नहीं लेगी तब तक उनका अखबार मुख्यमंत्री वसुंधरा और उनसे संबंधित समाचारों को प्रकाशित नहीं करेगा, यह निर्णय भी एक दूसरी तरह की अति को ही जाहिर कर रहा है। पत्रिका का एक पाठक वर्ग है और जो अखबार वह खरीद रहा है उससे सूबे से संबंधित सभी तरह के समाचारों से रू-बरू होने का उसका हक भी है। दरअसल जो हमेशा तटस्थ नहीं रह पाते, वही इस तरह के अतिश्योक्तिपूर्ण निर्णय करते हैं। अशोक गहलोत के प्रथम मुख्यमंत्री काल में निहायत व्यक्तिगत कारणों से ऐसा ही अघोषित-सा निर्णय सूबे के दूसरे बड़े अखबार ने गहलोत के लिए किया था, जो थोड़े दिनों बाद स्वत: हांफने लगा था।
पूर्व में पत्रकारीय पेशे के जिस संकट से बात शुरू की वह इन तात्कालिक दोनों बड़े संकटों से बड़ा संकट है। अधिकांश मीडिया हाउसेज कोरे धंधेबाज हो गये हैं। उन्हें पत्रकार, सम्पादक के रूप में अपना हित साधक चाहिए, इसकी एवज में पत्रकार संपादक चाहें तो अपने सीमित हित भी साध सकते हैं। इस पेशे में यह जो गैर-पेशेवरा मूल्यहीनता का खेल शुरू हुआ, वह ज्यादा गंभीर बात है। पत्रकारों में आत्मसम्मान का बोध सिरे से गायब हो रहा है और हर जगह हेकड़ी अपना स्थान लगातार बनाती जा रही है। शासक, राजनेता और कॉरपोरेट घरानों को किसी पत्रकार का आत्मसम्मान जहां असहज कर देता है वहीं कोरे हेकड़ीबाज पत्रकार को सहलाना उनके लिए ज्यादा आसान होता है। आत्मसम्मान और हेकड़ी में अन्तर की समझ बिना विवेक के संभव नहीं, यह सब पेशेवर मूल्यों की गहरी समझ की मांग करता है जो पत्रकारों-सम्पादकों में लगभग नदारद होती जा रही है।
राजस्थान सरकार का मीडिया पर अंकुश लगाने के मकसद से लाया गया अध्यादेश हो या छत्तीसगढ़ सरकार की पत्रकार विनोद वर्मा पर कार्यवाही-दोनों ही प्रकरण इस पेशे में बढ़ती रेंगने की प्रवृत्ति से प्रेरित हैं। पत्रकार बजाय हेकड़ी के अपना आत्मसम्मान सहेजे रखें तो धनबल और सत्ताबल कभी ऐसा दुस्साहस नहीं कर सकेंगे।
दीपचन्द सांखला

2 नवम्बर, 2017

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