Thursday, August 25, 2016

छात्र संघ चुनावों पर कुछ नई, कुछ पुरानी

छात्रसंघ चुनाव मोटा-मोट कल नक्की हो गए। इस चुनावकाल की उल्लेखनीय घटनाओं में जहां एक युवक का भक (भक्षण) लिया जाना है वहीं वर्षों बाद कुछ नवाचार भी हुए। इन चुनावों के बहाने वैचारिक उद्वेलन की शुरुआत पुन: हुई जिसमें 13 अगस्त को छात्र राजनीति पर बहुआयामी-स्वाध्यायी और कर्मचारी नेता अविनाश व्यास के व्याख्यान का आयोजन हुआ। विनायक के पिछले अंक में छात्रसंघ चुनावों के बदलते स्वरूप की पड़ताल छात्रनेता रहे सुरेन्द्रसिंह शेखावत ने की छात्र राजनीति से भाजपा की व्यावहारिक राजनीति में आए अशोक भाटी का इन छात्रसंघ चुनावों के इतिहास से अवगत करवाता आलेख हालांकि पिछले अंक के समय 'विनायक' को प्राप्त हो चुका था लेकिन स्थानाभाव के चलते उस अंक में प्रकाशित नहीं हो पाया। पाठकों के साथ इसे इस अंक में साझा किया जा रहा है।
विनायक और उसके पाठकों के लिए यह सुखद है कि भाजपा की राजनीति से जुड़े सुरेन्द्रसिंह शेखावत और अशोक भाटी ने अपने आलेखों पर अपने राजनीतिक विचारों की छाया नहीं पडऩे दी। शेखावत के कई आलेख पूर्व में भी विनायक में प्रकाशित हो चुके हैं। लगभग सुलझे माक्र्सवादी अविनाश व्यास का व्याख्यान यद्यपि सुन नहीं पाया लेकिन सुना है उन्होंने अपने व्याख्यान में एक घण्टे से ज्यादा समय देकर छात्र राजनीति के सभी आयामों की पड़ताल सांगोपांग की। छात्रसंघ चुनावों के विभिन्न अवसरों पर विनायक पहले कई बार लिख चुका है। समाज में लगातार बढ़ती असहिष्णुता और अधैर्य के चलते तथा लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों को लागू करने में बढ़ती कॉलेज और जिला प्रशासन की शिथिलता का ही नतीजा था कि शहर के अन्दरूनी इलाके में बिना किसी बड़ी बात के एक युवक की हत्या हो गई। दो विरोधी उम्मीदवारों का समर्थन कर रहे दो मित्रों में किसी बात पर कहा-सुनी हुई। कहा-सुनी के कई घण्टे बाद तक एक उसे मन से लगाए रखता है और हत्या करने जैसे अंजाम तक पहुंच जाता। यानी हत्या करने वाले के मन में घंटों बाद भी कोई वैकल्पिक विचार नहीं आया। यह मन:स्थिति समृद्ध होते हमारे समाज को आईना दिखाती है।
इस घटना का सकारात्मक परिणाम यह निकला कि प्रशासन ने लिंगदोह कमेटी को फिर से संभाला और उसकी आड़ में कुछ सख्तियां बरती जिसके चलते चुनाव का शेष परिदृश्य कुछ साफ-सुथरा हो सका।
विनायक ने ऐसे ही एक मौके पर 11 अगस्त 2012 के संपादकीय में छात्रसंघ के इन चुनाव की बानगी और इसके बाद के इन चुनावों के उद्देश्यों के विपरीत हासिल परिणामों की बात की थी। उसके एक हिस्से को आज पाठकों से फिर साझा करना समुचित होगा।
'पिछली सदी के सातवें, आठवें दशक में और बीच में कुछ विराम के बाद नौवें दशक में जब छात्रसंघों के चुनाव होते थे तब के चुने हुए छात्रनेताओं के पास कॅरिअर के विकल्पों की सम्भावनाएं सीमित लेकिन पुख्ता थी-आज के अधिकांश छोटे-बड़े और बड़े नेता उन्हीं दिनों के छात्रनेता रहे हैं, उन कुछेक नेताओं को छोड़ कर जिन्हें राजनीति घुट्टी में ही मिल गई थी। तब के शेष छात्रनेता कोई पत्रकार हो गये तो कोई साहित्यकार तो कोई व्यापारी। लेकिन अभी कोर्ट के आदेश के बाद जो छात्रसंघीय चुनावों का दौर शुरू हुआ है तब से इन छात्रनेताओं के लिए राजनीति में विकल्प सीमित हो गये या कहें आजादी बाद के नेताओं की आयी अगली पीढ़ी ने गैर राजनैतिक परिवारों से आये युवाओं के विकल्प सीमित कर दिये हैं। साहित्यकार, पत्रकार होना आजकल के छात्रनेताओं को अपनी क्षमता के बाहर लगता होगा या यह भी हो कि इस तरह के कॅरिअर को वह हेय समझते हों! रही बात व्यापार की तो परम्परागत व्यापारी परिवारों से आये युवाओं को इस तरह की छात्र राजनीति करना अब रास नहीं आ रहा है या उन्हें यह काम अपने बूते के बाहर का लगता होगा। शायद इसीलिए ऐसे परम्परागत व्यवसायी परिवारों से आये युवा छात्र राजनीति में सक्रिय नहीं दीखते हैं।
इस तरह की बातें करने का मकसद यही है कि राजनीति में कॅरिअर के अवसर सीमित होने के बाद अधिकांश छात्रनेता उस तरह के कामों में लगे देखे गये हैं जो दबंगई से ही सम्भव होते हैं। जैसे-जमीनों के काम, रंगदारी के काम, अवैध शराब व अन्य अवैध नशीली चीजों के काम, अवैध खनन और सरकारी ठेकों के काम आदि-आदि।
'विनायक' के बस का तो नहीं है पर प्रदेश के बड़े अखबार चाहें तो ऐसी सूची बनवाना सम्भव कर सकते हैं जिससे पता चल सके कि पिछले कुछ वर्षों से शुरू छात्रसंघों के इस चुनावी दौर में जीते और हारे युवा इन दिनों किन-किन कामों में लगे हैं। ऐसा करना बड़े अखबारों के लिए मुश्किल नहीं है, लेकिन यह सूची होगी हैरत अंगेज ही।'
(विनायक-वर्ष 18 अंक 88)

29 अगस्त 2016

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