Thursday, March 17, 2016

गोमाता, भारतमाता, स्त्रीदेवी/अतिभक्ति चोरा लक्षणे !!!!

महाराष्ट्र विधानसभा ने भारतमाता की जय नहीं बोलने पर एक विधायक को निलम्बित कर दिया गया। एमआइएम विधायक वारिस पठान का पक्ष था कि 'हमें भारतमाता की जय बोलने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, संविधान में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है, हम इसकी जगह जय हिंद बोलेंगे।' पठान के इस पक्ष में विवादित कुछ नहीं है और विवेकशील न्यायालय उनके निलम्बन को खारिज करते देर नहीं लगाएगा। बावजूद इसके पठान, उनकी पार्टी और पार्टी सुप्रीमों के राजनीतिक तौर-तरीकों से सामान्यत: असहमति है।
वहीं दूसरी ओर मोदीनिष्ठ अनुपम खेर ने प्रतिक्रिया जताते हुए ट्वीट किया—'भारत में रहने वालों के लिए भारतमाता की जय बोलना राष्ट्रवाद की एकमात्र परिभाषा होना चाहिए।' खैर, अनुपम खेर जिस विचारित मन की चापलूस अवस्था में हैं, कल को यह भी कहें कि भारतीय होने के लिए सिर मुंडवाए रखना जरूरी है तो अचम्भित ना हों।
इस मसले पर एक बहुत सुविचारित टिप्पणी जाने-माने पत्रकार और राज्यसभा टीवी से जुड़े उर्मिलेश उर्मिल ने फेसबुक पर 15 मार्च, 2016 को यानी दो दिन पूर्व ही साझा की जिसे यहां पढ़वाना पूर्ण प्रासंगिक है
'भारतमाता की जय' जैसे नारे की कोई संवैधानिकता नहीं है। किसी जुलूस या समारोह में देश की जयकार करनी हो तो आजादी की लड़ाई के दौरान लोकप्रिय हुआ नारा 'जय हिन्द' लगाना चाहिए। यही नारा आजादी की लड़ाई के ज्यादातर मौकों पर हमारे दीवानों ने लगाया थागांधी, नेहरू, सुभाष, भगतसिंह और अबुल कलाम आजाद सबने यह नारा लगाया था। अगर 'जय हिन्द' के अलावा भी कोई नारा लगाना हो तो 'जय भारत' का नारा लगाइये। 'भारतमाता की जय' का नारा औपनिवेशिक काल में कंजरवेटिव्स (रूढि़वादी-कूपमंडूक) के बीच ही ज्यादा लगता था। आज के दौर में यह नारा 'संघनिष्ठ' लगाते हैं।
यहां यह भी प्रश्न बनता है कि भारत को माता और उसकी जय बुलवाने के आग्रही समूह क्या यह बताएंगे कि आजादी के आंदोलन के समय इस मां को छोड़ वे किस माई-बाप के जयकारे में लगे थे। वस्तुत: इनकी इस मुखरता को आजादी के आन्दोलन में इनकी निष्क्रियता की ग्लानि की उपज कह सकते हैं। यही क्यों, गाय को माता और स्त्री को देवी और प्रकारान्तर से मातृरूपा मानने का ढिंढ़ोरा 'अतिभक्ति चोरा लक्षणेÓ नहीं तो क्या है?
भारत भूमि को मां मानने के अति आग्रही अधिकांश उसका दोहन किस तरह करते हैं, उसे एक वर्ष पूर्व की इस टिप्पणी से समझा जा सकता है
पिछले कुछ वर्षों में खनन घोटाला, अवैध खनन, भू-माफिया द्वारा अवैध निर्माण जैसे शब्द कुछ ज्यादा पढ़े-सुने तो अकस्मात ध्यान आया कि यह सब इसी धरती के साथ हो रहा है जिसे हम श्रद्धेय, पूजनीय या मां कहने का आग्रह रखते हैं। कोई भी सरकार हो, चाहे वह केन्द्र की हो या किसी प्रदेश-विशेष की और यह भी कि वह चाहे किसी भी दल की क्यों न हो, ये सभी अधिकृत-अनधिकृत तौर पर इस धरती को नोचने और नुचवाने में लगे हैं।
धरती के या कहें भारतमाता के भक्तों को गांधी का वह सूत्र वाक्य चेतन करता है कि नहीं जिसमें उन्होंने कहा है 'यह सबकी जरूरत पूरी कर सकती है, पर लालच किसी एक का भी नहीं।' हो इसके उलट रहा है। एक और भी उदाहरण आदिवासियों का दे सकते हैं कि वे अपनी जमीन के साथ जितना आत्मीय रिश्ता रखते हैं, उतना ही उन्हें उससे बेदखल करने की कोशिशें जारी हैं।
इसी तरह गाय को माता मानने वाले यह मुहिम चलाते नहीं देखे जाते कि गाय को आवारा न विचरने दिया जाय और बाखड़ी (दूध न देने की अवस्था को प्राप्त) गायों और टोगडिय़ों को गन्दगी और पॉलिथिन खाने से निजात मिले।
यही स्थिति स्त्रियों की है। समाज में दूसरी, तीसरी, पांचवीं, सातवीं हैसियत को मजबूर स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा तो दूर उनकी इच्छा के खिलाफ उनके साथ सामाजिक-पारिवारिक मर्यादाओं के नाम पर और लाज की आड़ में क्या-क्या नहीं होता है। इस तथाकथित जागरूक समाज में धरती, गाय और स्त्री को मातृरूपा मानने का ढोंग आत्मग्लानि की ही मुखरता है। इसी तरह की उग्रता और आग्रह है भारतमाता की जबरदस्ती जय बुलवाना, गोवंश मांसाहार के नाम पर हिंसा करना और स्त्री को देवी बताकर वर्जनाएं लादना।

17 मार्च, 2016

2 comments:

Unknown said...

धरती, स्त्री, गाय को लेकर जो पाखंड 'मानस' में है भले ही वह नेताओं के मानस में हो या अन्य नागरिकों के मानस में उसका अवलोकन होना चाहिए ऐसी भावना इस लेख को पढ कर जन्म लेती है। गाय की स्थिति हो,या महिलाओं की, या धरती की बात और उनसे जुडे उन आदिवासियों की बात, बात सोचने की यह भी है कि एक तरफ उदारीकरण, खुला बाजार, और उपभोक्तावादी विकास का बोलबाला है तो दूसरी तरफ सामंती सोच की जकडन।
जो भी हो कई सवाल उठाता यह लेख बहुत अच्छा है

Unknown said...
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