Wednesday, November 24, 2021

राजस्थान में बीते तीन दशकों की कांग्रेसी राजनीति और अशोक गहलोत

 राजस्थान कांग्रेस में पिछले डेढ़ वर्ष से उद्वेलन चल रहा था। वजह थीसचिन पायलट का मुख्यमंत्री बनने का दावा और दावे का आधार था विधानसभा चुनाव 2018 में 2013 के 21 के मुकाबले 99 विधायक जितवाना। इस भ्रम का कोई विश्लेषणात्मक आधार नहीं है। भ्रम यह भी कि अशोक गहलोत जब सरकार में होते हैं तो अपनी पार्टी को जितवा नहीं पाते। उदाहरण 2003 के चुनावों में कांग्रेस की हार से दिये जाते हैं।

इसे समझने के लिए हमें 1998 के चुनावों से भी पीछे जाना होगा। तब 1998 के चुनाव सामने थेसूबे में मुख्यमंत्री थे भाजपा के दिग्गज भैरोंसिंह शेखावत। भाजपा को लगातार दो चुनाव जितवाने के बाद सूबे के कांग्रेसी नेताओं ने शेखावत को अजेय मान लिया था। कांग्रेस हाइकमान भी लुंजपुंज। केन्द्र में सरकार नहीं। पी व्ही नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष थे। निष्ठावान कांग्रेसियों को लगने लगा था कि राव को पार्टी सौंपनापार्टी विचारधारा के उलट साबित हो रहा है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के चलते ही 1991 में कांग्रेस सरकार बना पायी थी, नरसिम्हाराव को प्रधानमंत्री बनाया गया। प्रधानमंत्री रहते राव ही पार्टी अध्यक्ष हो लिये। 

1996 के लोकसभा चुनाव में राव के नेतृत्व में पार्टी को बहुमत नहीं मिला। राव को पार्टी अध्यक्ष पद भी छोडऩा पड़ा। सीताराम केसरी पार्टी अध्यक्ष बने। शीर्ष के नेताओं में पार्टी नेतृत्व के प्रति भारी असंतोष था। अधिकतर नेताओं को लगा कि ऐसे में पार्टी को सोनिया गांधी का नेतृत्व ही उबार सकता है। काफी आनाकानी के बाद सोनिया ने हामी भरी और बहुत संजीदगी से पार्टी को ना केवल संभाला बल्कि सत्ता तक लेकर भी गयीं।

यह तो हुई पार्टी के केन्द्रीय परिप्रेक्ष्य की बात, अब राजस्थान में लौट आते हैंजैसा कि ऊपर कहा है कि सूबे में कांग्रेस के दिग्गज 1990 और 1993 में भाजपा को लगातार दो बार जितवाने के बाद भैरोंसिंह शेखावत अजेय मान चुके थे। यहां हमें 1993 की विधानसभा में कांग्रेसी दिग्गजों के नामों पर नजर डाल लेनी चाहिए। विधानसभा में कांग्रेसी विधायकों में हरिदेव जोशी, शीशराम ओला, चन्दनमल बैद, परसराम मदेरणा, नरेन्द्रसिंह भाटी, रामनारायण चौधरी, पूनमचन्द बिश्नोई और हरेन्द्र मिर्धा आदि के होते हुए भी पार्टी निस्तेज थी।

ऐसे में पार्टी ने सांसद अशोक गहलोत पर भरोसा जताया। 1994 में उन्हें प्रदेश की कमान सौंपी गयी। 1998 का चुनाव सामने था। सामने भाजपा से थे भैरोंसिंह शेखावत। गहलोत चार वर्ष सूबे के गांव-गांव, ढाणी-ढाणी घूमे, पार्टी में ना केवल नई ऊर्जा का संचार किया बल्कि 1998 के चुनाव में 200 में से 153 सीटें दिलावा पार्टी को ऐतिहासिक जीत दिलवाई और प्रदेश में मुख्यमंत्री बने। शेखावत इस हार को पचा नहीं पा रहे थे। 

ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि अपने व्यक्तित्व के उलट गहलोत के खिलाफ शेखावत व्यक्तिगत स्तर पर उतर आए। गहलोत के लिए पोपाबाई जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगे। खुद के लिए उपराष्ट्रपति का प्रस्ताव मिलने पर वसुंधरा राजे को राजस्थान भाजपा की कमान संभालने की ना केवल सिफारिश की बल्कि उपराष्ट्रपति होने के बावजूद गहलोत को हरवाने में सक्रिय रहे। 

वसुंधरा राजे ने 2003 के चुनावों से पूर्व अपने को सिलेब्रिटी नेता के तौर पर लांच किया। अपनी चुनावी यात्रा को इवेंट मैनेजमेंट कम्पनी को सौंपा-खुद की वेशभूषा आदि तक के विशेषज्ञ यात्रा में साथ थे। महिला मुख्यमंत्री देखने की लोगों में ललक जगी।

सादगीपूर्ण तरीके से राजनीति करने और सरकार चलाने वाले अशोक गहलोत अपने कामों को लेकर एक से अधिक सर्वे में देश में नंबर वन मुख्यमंत्री घोषित होने के बावजूद पार्टी को बहुमत नहीं दिला पाये।

अशोक गहलोत पर मुख्यमंत्री रहते 2003 और 2013 के चुनावों में पार्टी को ना जितवा पाने का जो आरोप लगाते हैं, उन्हें मालूम होना चाहिए कि इन चुनावों में पार्टी को वे जीता क्यों नहीं पाये? बिना परिप्रेक्ष्य को जाने हार का ठीकरा गहलोत पर फोडऩा उचित नहीं। 2003 और 2013 के राजस्थान विधानसभा चुनावों में कांग्रेस हार की वजह हमें समझनी चाहिए।

इसके बाद के 2008 का चुनाव गहलोत ने पार्टी को फिर जितवाया। 1998 और 2008 के चुनावों में पार्टी को जितवाने पर गहलोत को लेकर सकारात्मक बात कोई नहीं करता। लेकिन 2003 और 2013 में पार्टी को हराने का जिक्र किया जाता है। बिना यह जाने कि ऐसी परिस्थितियां कैसे बनीं। 2003 की हार के कारणों का ऊपर जिक्र किया गया है। अब बात 2013 के चुनावों की कर लेते हैं। 2013 के चुनावों से पूर्व हमें केन्द्र में कांग्रेसनीत यूपीए-2 की सरकार की स्थिति पर नजर डालनी जरूरी है।

2014 की शुरुआत में संघ-भाजपा ने एक योजना के तहत अन्ना हजारे को राष्ट्रीय सिनेरियो में प्लांट किया। उससे पूर्व नियंत्रक एवं महालेखपरीक्षक (CAG) विनोद राय के माध्यम से केन्द्र की मनमोहन सरकार को बाकायदा बदनाम करने का अभियान शुरू करवाया गया। बदनाम कहना इसलिए अनुचित नहीं है, क्योंकि कैग के लगाए कोई भी आरोप साबित नहीं हुए। बल्कि हाल ही में राय को एक मामले में माफी मांगनी पड़ी है। 

अन्ना हजारे के साथ साफ-सुथरी छवि के अनेक दिग्गज भी जुडऩे लगे। साथ में अरविन्द केजरीवाल और किरण बैदी जैसे लोग हो लिए। योग के माध्यम से जनता के जीते भरोसे को धर्मधंधी रामदेव कांग्रेस के विरोध में भुनाने लगे। यूपीए-2 की इस फजीती में कांग्रेस की साख लगातार गिरती चली गयी। इसी बीच निर्भया कांड हो गया, विरोधियों ने इसे भी भुनाया। इन सब के नेपथ्य में संघ-भाजपा पूरी तरह और व्यवस्थित रूप से सक्रिय रहे। कांग्रेस इनमें से किसी को भी ढंग से काउंटर नहीं कर पायी, बल्कि एक से अधिक ऐसे कदम उठाये जिससे कांग्रेस की साख गिरती चली गई।

इसी दौरान 2013 में राजस्थान विधानसभा के चुनाव गये। चुनाव से पहले ही नरेन्द्र मोदी ने भाजपा के माध्यम से अपने को साफ सुथरी छवि के विकास-पुरुष के तौर पर लांच किया। 2003 में राजस्थान में जिस तरह वसुंधरा ने अपने को पेश किया उससे भी बड़े कैनवास पर मोदी ने अपने को लांच किया। केन्द्र की कांग्रेसनीत सरकार की बदनामी और मोदी लांचिंग का असर राजस्थान में जबरदस्त हुआ। असर इतना हुआ कि गहलोत का कैसा भी जादू काम करने में नाकामयाब रहा और पार्टी धड़ाम से 21 सीटों पर सिमटी।

अब 2018 में राजस्थान विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत की वजह भी जान लेनी चाहिए। यह उनके लिए ज्यादा जरूरी है जो इस जीत का सेहरा सचिन पायलट के सिर बांधते रहते हैं। 

इसके लिए हमें 2013 से 2018 के बीच लौटना होगा। 2013 की हार के बाद हाइकमान ने सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष बना कर भेजा और अशोक गहलोत को संगठन महासचिव बनाकर दिल्ली बुला लिया। पहले हमें पायलट की कार्यशैली पर नजर डाल लेनी चाहिए। कार्यालय से संगठन स्तर पर जितना काम वे कर सकते थे करते रहे। सचिन का घर दिल्ली में कार्यालय जयपुर में। तब प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में सचिन ने बहुत कम दौरे किये, उसके उलट पूर्व में गहलोत लगातार प्रदेश में दौरे करते, गांव-ढाणी तक लोगों के नाम और चेहरे तक पहचानते। सचिन अपने ऑफिस में अफसराना तरीके से बैठते और सीमित कार्यकर्ताओं से ही मिलते, भीड़ में अपने को असहज महसूस करते और चिड़चिड़े हो जाते; वहीं गहलोत को जहां जिम्मेदारी मिली वहीं जाकर जम जातेगुजरात इसका उदाहरण है। गैरभाषी होते हुए भी मृतप्राय गुजरात कांग्रेस संगठन को तहसीलस्तर तक पुनर्जीवित किया।

राजस्थान के चुनाव सामने आए तो सचिन पायलट की कार्यशैली के मद्देनजर उन्हें अपने गृह राज्य लौटना जरूरी लगा। सघन दौरे किए और प्रदेश में पार्टी को चुनाव के लिए तैयार किया। सभी तरह के संसाधन जुटाए लेकिन इतना नहीं कर पाए कि पार्टी बहुमत ले आये। इसी बीच भाजपा की अन्दरूनी खींचतान राजस्थान कांग्रेस के काम आयी। मुख्यमंत्री वसुंधरा से नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की नाराजगी रंग दिखाने लगी। याद हो तो चुनावों में नारा चला 'मोदी तुझसे वैर नहीं-वसुंधरा तेरी खैर नहीं' अन्दरखाने चला यह नारा मोदी लहर में कांग्रेस के बहुत काम आया। इसीलिए कहता हूं कि 2019 की राजस्थान में कांग्रेस की जीत का 40% श्रेय भाजपा की अन्दरूनी खींचतान को है। 40 प्रतिशत श्रेय अशोक गहलोत की जमीनी सक्रियता को और चाहें तो 20 प्रतिशत प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते सचिन पायलट को दे सकते हैं। नेता चुनने की बारी आयी तो स्वभााविक था कि तीन-चौथाई कांग्रेस के विधायकों ने गहलोत का पक्ष लिया और एक-चौथाई ने सचिन का। ऐसे में मुख्यमंत्री किसे बनाया जाता? सोनिया और राहुल अपने पूर्ववर्तियों से ज्यादा लोकतांत्रिक हैं इसलिए जिसके साथ ज्यादा विधायक वही मुख्यमंत्री।

इसके बाद सचिन ने अपने मित्र और पार्टी हाइकमान के एक हिस्से राहुल गांधी तक अपनी बात पहुंचानी शुरू की। राहुल भी दूसरे पक्ष को जाने बिना मानने लगे कि सचिन के साथ अन्याय हुआ है। सचिन भी ना केवल प्रदेश अध्यक्षी में बल्कि उपमुख्यमंत्री पद पर अनमने रहे। ऐसे में अमित शाह जैसों को सचिन को बरगलाने का मौका मिल गया। आश्चर्य यह कि सचिन उनके बहकावे में लिए और अपनी पार्टी की सरकार गिराने की उनकी साजिश में शामिल हो गये। सचिन की यही बड़ी चूक हो गयी जिससे उनके राजनीतिक कैरियर पर ना केवल हमेशा के लिए दाग लग गया बल्कि हाइकमान को जब सचिन के साजिश में शामिल होने के प्रमाणों से अवगत करवाया तो राहुल ने भी सचिन से किनारा कर लिया। इससे पूर्व एक अन्य मित्र ज्योतिरादित्य सिंधिया राहुल को धोखा दे ही चुके थे। जितिनप्रसाद उसी लाइन में थे ही।

लेकिन सोनिया का भरोसा उन अशोक गहलोत पर हमेशा बना रहा जिन्हें उन्होंने पिछले तीस-चालीस वर्षों से ना केवल पार्टी से पूरी निष्ठा के साथ जुड़ा-पाया बल्कि जब 1998 में सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान संभाली तब बुरे दौर से गुजर रही पार्टी को संभालने में गहलोत हर तरह से जुटे रहे थे। हाइकमान के ऐसे भरोसे के अलावा स्वयं गहलोत के उस आत्मविश्वास ने भी काम किया जिसके चलते वे मानते रहे हैं कि 'आप पार्टी के साथ पूरी निष्ठा से लगे रहें, पार्टी आपको आपका दाय देगी।'

गहलोत ऐसी पिछड़ी जाति से हैं जिसकी देश के किसी भी लोकसभा क्षेत्र में कोई खास उपस्थिति नहीं है। बावजूद उसके सामान्य परिवार से आने वाले गहलोत आप बूते राजनीति में ना केवल स्थापित हुए बल्कि अपने क्षेत्र जोधपुर से लोकसभा के लिए पांच बार चुने भी गये। ऐसे में सचिन को अपनी चूक समझ लेनी चाहिए कि उन्होंने पार्टी के एक निष्ठावान कार्यकर्ता से मोर्चा ले लिया था। इस अन्दरूनी खींचतान के चलते गहलोत खुलकर काम नहीं कर पा रहे है। जिसका खमियाजा प्रदेश की जनता पिछले तीन वर्षों से भुगत रही है।

दीपचन्द सांखला

25 नवम्बर, 2021

Thursday, October 21, 2021

हरिद्वार में बीकानेर

भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर में बसे आम हिन्दुओं का हरिद्वार मुख्य तीर्थ है। गंगा किनारे बसा यह तीर्थ अस्थि विसर्जन के माहात्म्य की वजह से लोकप्रिय भी है। हिन्दुओं के शीर्ष तीर्थ बद्रीनाथ, केदारनाथ का रास्ता सदियों से हरिद्वार या हरद्वार होकर है, इसलिए भी इसका महत्त्व कम नहीं है। उत्तर भारत के दो बड़े राज्य उत्तरप्रदेश और बिहार, गंगा और अन्य नदियों से समृद्ध हैं सो नदियों के किनारे बसे इन दोनों राज्यों में दाह संस्कार के बाद अस्थियों का विसर्जन वहीं किये जाने की परंपरा है। अलावा इसमें आवागमन के साधनों की सुलभता के बाद से तीर्थयात्रा एवं पर्यटन के उद्देश्य से भी बहुत से श्रद्धालु एवं पर्यटक यहां आने लगे हैं। संभवत: इसीलिए हरिद्वार में उत्तरप्रदेश और बिहार की उपस्थिति बहुत कम देखने को मिलती है। अलावा इसके आवागमन के साधनों की सुलभता के बाद तीर्थ यात्रा एवं पर्यटन के उद्देश्य से भी बहुत से श्रद्धालु यहां आने लगे हैं। अन्यथा अब के पाकिस्तान के सिंध, बहावलपुर और पंजाब के साथ राजस्थान, हरियाणा, भारत के पंजाब और छोटी-मोटी उपस्थिति हिमाचाल प्रदेश की भी इस तीर्थ में मिल जाती है। लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से गुजरात और बंगाल भी यहां अपनी पूरी धमक के साथ मिलते हैं बल्कि जिस तरह पूरी की पूरी गलियां गुजराती-बंगाली साइनबोर्डों से पटी मिलती हैं, इसकी एक वजह इन दोनों राज्यों के लोगों की घुमक्कड़ प्रवृत्ति भी है। दशहरे के बाद हरिद्वार की कुछ गलियां बंगाल-गुजरात का लघु रूप ले लेती हैं। जबकि इन दोनों राज्यों में नदियां कम नहीं हैं, बंगाल में तो खुद गंगा हुगली के रूप में मिलती ही है।

अब हम अपनी पे आ लेते हैं। हरिद्वार में बीकानेर की उपस्थिति भी ठीक-ठाक है बल्कि सदियों पुरानी है। बीकानेर की आम बोलचाल में हरिद्वार नहीं हरद्वार बोला जाता है। 19वीं शताब्दी में बीकानेर रियासत के राजा डूंगरसिंह का बनाया गंगामाता का मन्दिर वहां आज भी सुरक्षित है। कुशाघाट मार्ग स्थित श्रवणनाथ घाट के सामने पशुपतिनाथ मन्दिर के एक कोने में बना यह मन्दिर वर्तमान में देवस्थान विभाग, राजस्थान की सपंत्ति है तथा वहां इस विभाग का दफ्तर भी लगता है जो मन्दिर तथा मन्दिर परिसर में बनी धर्मशाला का संचालन देखता है। यह मन्दिर अपने शिखर सहित पूर्ण सुरक्षित है, वहीं धर्मशाला के कमरे जर्जर होने लगे हैं। कोई यात्री वहां ठहरना भी चाहे तो राज्य कर्मचारी आगाह कर देते हैं कि पहले कमरे देख आएं और अपनी जोखिम पर ठहरना चाहें तो आवंटित कर देते हैं। इस धर्मशाला में शौचालय और स्नानघर कमरों से अलग बने हैं। खैर, यह सरकारी व्यवस्था है, जिसे बिगाड़ा हमने ही है। जब तक सरकारी सम्पत्ति को हम अपनी सम्पत्ति मानकर उसके लिए चौकस नहीं रहेंगे तब तक ऐसी सार्वजनिक सम्पत्तियां खुर्दबुर्द होती रहेंगी।

ऐसा सुना है कि उत्तरी भारत के अनेक तीर्थों में राजस्थान के रियासती समय के कई मन्दिर हैं। इन सभी मन्दिरों की व्यवस्था राजस्थान सरकार का देवस्थान विभाग देखता है। जयपुर रियासत द्वारा लम्बे-चौड़े परिसर में बनवाया ऐसा ही एक मन्दिर उत्तरकाशी में भी देखा, अब बेरौनक उस मन्दिर की देख-रेख के लिए राज्य कर्मचारी भी तैनात हैं। लेकिन जब हरिद्वार जाने वाले राजस्थान के तीर्थयात्रियों को हरिद्वार के गंगा माता मन्दिर की जानकारी नहीं है तो उत्तरकाशी जाने वालों को उस मन्दिर की जानकारी कैसे होगी। इसके लिए देवस्थान विभाग को राजस्थान के मुख्य अखबारों में प्रदेश से बाहर स्थित इन मन्दिरों तथा ऐसी सम्पत्तियों की जानकारी का विज्ञापन वर्ष में एकबार छपवाना चाहिए। ऐसा होगा तो लोग उन मन्दिरों में पहुंचेगे, पहुंचेगे तो वहां के कर्मचारी मुस्तैद भी रहेंगे और इन परिसरों की देखभाल भी ठीक ढंग से होगी।

18वीं शताब्दी की शुरुआत में बने नेपाल रियासत के जिस पशुपतिनाथ मन्दिर के एक कोने में गंगा माता का यह मन्दिर स्थित है, उससे लगता है कि जमीन का यह हिस्सा बीकानेर के राजा डूंगरसिंह के आग्रह पर नेपाल के राजा ने ही दिया होगा। शायद इसीलिए बीकानेर शिवबाड़ी मन्दिर का पंचमुखा शिवलिंग, हरिद्वार के इसी पशुपतिनाथ मन्दिर के शिवलिंग की प्रतिकृति है। ईस्वी सन् 1887 में मात्र 32 वर्ष की आयु में राजा डूंगरसिंह का निधन हो गया था। इसका मतलब उससे पहले, जब आवागमन के कोई खास साधन नहीं थे तब डूंगरसिंह एक से अधिक बार हरिद्वार गये होंगे और न केवल हरिद्वार में गंगा मन्दिर बनवाया बल्कि वहां के पशुपतिनाथ मन्दिर से प्रेरित होकर कसौटी पत्थर का वैसा पंचमुखी शिवलिंग की स्थापना के साथ बीकानेर में शिवबाड़ी मन्दिर का निर्माण भी करवाया।

हरिद्वार के इस गंगा माता मन्दिर के अलावा 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हरिद्वार की अपर रोड जब विकसित हो रही थी तभी वहां बीकानेर के माहेश्वरी समाज के तोषनीवाल कोठारी परिवार ने अपने पितृ पुरुष सदासुख कोठारी की याद में 'बीकानेर धर्मशाला' का निर्माण करवा दिया। बीकानेर के शासक महाराजा गंगासिंह जब लालगढ़ पैलेस का निर्माण करवा रहे थे, लगभग तभी ईस्वी सन् 1906 में कोठारी परिवार द्वारा बनवाई और दुलमेरा पत्थर से बीकानेरी स्थापत्य में सजी इस धर्मशाला को देखने से लगता है कि इसके निर्माण के लिए न केवल पत्थर बल्कि कारीगर भी बीकानेर से गये थे। दो भागों में बनी इस धर्मशाला के एक भाग में कमरे हंै तो दूसरे भाग में तीर्थयात्रियों के लिए स्नानघर, शौचालय और रसोवड़ा (खाना बनाने का स्थान) है।

इस धर्मशाला के साथ मेरी स्मृतियां 1968 से जुड़ी हैं जब अपने माता-पिता, अग्रज और भतीजी के साथ वहां ठहरा था, तब यह धर्मशाला सुव्यवस्थित थी। अब जब भी जाता हूं तो इस भव्य बनी धर्मशाला के लिए मन में एक आकर्षण महसूस करता हूं। लेकिन अब यह बहुत जर्जर अवस्था में है। व्यवस्था देखने वालों ने बताया कि देश के विभिन्न महानगरों और विदेश में बसे ट्रस्टी परिवार के वारिसों की अरुचि इतनी है कि यहां संभाल करने वालों से उनका संवाद तक नहीं है। एक ट्रस्टी कभी-कभार बात करते भी हैं तो कह देते हैं कि हमसे आप कोई उम्मीद न करें। आप चला सकते हैं तो चलाएं अन्यथा ताला लगा दें। धर्मशाला संभालने वाला स्थापना के समय से पीढिय़ां गुजार रहा परिवार बीकानेर के पुष्करणा समाज से है। प्रबंधकों का कहना है कि कमरों का कोई किराया तय नहीं, कोई देता है तो रसीद काट देते हैं। अन्यथा दुकानों से आने वाले किराये से जरूरी रख-रखाव कर लेते हैं।

कहने का आशय यह है कि तीसरी-चौथी पीढ़ी आते-आते इस तरह की ट्रस्ट-सम्पत्तियां ऐसी ही दुर्गति को हासिल हो जाती हैं। ऐसे कई उदाहरण बीकानेर में भी मिल जाएंगे, अन्यथा हरिद्वार जैसे स्थान में अपर रोड पर स्थित इस धर्मशाला को सुव्यवस्थित चलाने में कई परिवारों वाले भरे-पूरे व्यापारिक कुटुम्ब के लिए कोई बड़ा भार नहीं है। और तब और भी नहीं जब ऐसे तीर्थ स्थानों की धर्मशालाएं होटलों के लगभग बराबर किराया वसूलने लगी हैं।

बीकानेर की पहचान के साथ इन दो स्थानों के अलावा बीकानेर के मठों के दो आश्रम भी वहां हैं। इन दो आश्रमों में से एक बीकानेर के धनीनाथ गिरि पंचमन्दिर मठ का सोमेश्वर धाम नाम से बहुमंजिला आश्रम गंगा किनारे कनखल में है, आने-जाने वाले तीर्थ यात्री वहां ठहरते भी हैं। (सोमेश्वर धाम हरिद्वार रेलवे स्टेशन से लगभग साढ़े चार किमी दूर है, यहां तक विक्रम ऑटो टैक्सियां चलती हैं) दूसरा शिवमठ शिवबाड़ी के ब्रह्मलीन महन्त स्वामी संवित् सोमगिरि द्वारा इन्हीं वर्षों में बनवाया गया संवित् गंगायन आश्रम है। सुव्यवस्थित बना यह आश्रम है तो गंगा किनारे लेकिन कनखल से काफी दूर अजीतपुर गांव के जंगल में है। सड़क से काफी दूर बने इस आश्रम तक पहुंचने के लिए खुद के वाहन की जरूरत होती है क्योंकि परिवहन की कोई सार्वजनिक व्यवस्था वहां तक के लिए उपलब्ध नहीं है। (संवित् गंगायन आश्रम हरिद्वार रेलवे स्टेशन लगभग 10 किमी दूर है) इसलिए यह आश्रम तीर्थयात्रियों के लिए अनुकूल नहीं है लेकिन कई दिनों की साधना के लिए कोई जाना चाहे तो यह अन्य आश्रमों से बेहतर है। इस आश्रम के इर्द-गिर्द का क्षेत्र आगामी 50 वर्षों तक विकसित चाहे हो, लेकिन फिलहाल यह एकान्त साधना का ही आश्रम है।  ऐसे दूरस्थ आश्रमों, मन्दिरों और उत्तराखंड के अन्य स्थानों तक जाने के लिए हरिद्वार में प्रतिदिन के किराये के हिसाब से अब स्कूटर और मोटरसाइकिलें भी मिलने लगी हैं। इसके लिए नाममात्र की सुरक्षा राशि के साथ यात्री के पास ड्राइविंग लाइसेंस और आधार कार्ड का होना जरूरी है। 

बीकानेर के नाम से होटल, मिठाई की दुकान और रेस्टोरेंट भी हैं, पूरे देश में मिठाई-नमकीन के लिए बीकानेर का नाम चाहे चलता हो लेकिन हरिद्वार में बड़ा बाजार स्थित बृजवासी और मोती बाजार स्थित मथुरा वालों की प्राचीन दुकान की परम्परागत मिठाइयों और नमकीन का कोई मुकाबला नहीं है। इसके अलावा कनखल चौक स्थित पहलवान की खस्ता कचौरी खाने का आनन्द भी अपना अलग है।

हरिद्वार में बीकानेर के सन्दर्भ से और भी कुछ स्थान होंगे, लेकिन जितने अब तक देख पाया, लगा उतनों की जानकारी तो साझा कर ही दूं।

—दीपचन्द सांखला

21 अक्टूबर, 2021

Wednesday, September 29, 2021

डॉ. श्रीलाल मोहता : मित्रों के सुख में सुखी

डॉ. श्रीलाल मोहता—हिन्दी जगत के लिए यह नाम कम परिचित हो सकता है, ऐसा उनकी खुद की वजह से है। अन्यथा आपसी बातचीत में, विमर्श में, या पूछने पर, जिस तरह वे बताते, उस सब को लिख दिया होता तो प्रकाशित हो जाता। लिखने में आलसी थे, जी चुराते थे—ऐसा कहना उचित नहीं होगा, असल बात यह कि लेखक होने की उनमें एषणा ही नहीं थी। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है—पीएच. डी. का उनका शोध नरेश मेहता पर है। 'नव-लेखन और नरेश मेहता : व्यक्तित्व और कृतित्व।' उनका यह शोध चलताऊ नहीं है। वह प्रकाशित हो जाए—अन्यथा यह कोशिश कवि-चिन्तक नन्दकिशोर आचार्य बार-बार नहीं करते। 40 से ज्यादा वर्ष पहले की बात है, तब प्रतिष्ठित सूर्य प्रकाशन मन्दिर उसे प्रकाशित करना चाहता था। इसके लिए डॉ. श्रीलाल मोहता को अपने शोध की प्रकाश्य पाण्डुलिपि के तौर पर सम्पादित भर करना था, प्रकाशक सूर्यप्रकाश बिस्सा के बार-बार आग्रह के बावजूद उन्होंने नहीं किया। कौन प्रकाशक शोध-को बिना कुछ लिए छापने को तत्पर होता है?

डॉ. मोहता का विरासती परिचय यह है कि वे मनीषी डॉ. छगन मोहता के पुत्र थे। डॉ. छगन मोहता लिखने के अभ्यासी सम्भवत: इसलिए नहीं थे कि उनकी औपचारिक शिक्षा लगभग न के बराबर थी। लेकिन स्वाध्यायी डॉ. छगन मोहता व्यसन की हद तक थे। यह भी कि वे श्रवण परम्परा के संवाहक भी अच्छे-खासे थे। गूढ़ से गूढ़ विधा को ऐसी सरल भाषा में कह देते कि सामान्यजन भी उसे सहजता से ग्रहण कर लेता। लिखने का अभ्यासी न होना, स्वाध्यायी होना और बात को सरल ढंग से संप्रेषित करना—ये तीनों गुण डॉ. श्रीलाल मोहता ने अपने पिता से ग्रहण किये—ऐसा मान सकते हैं।

बावजूद इस सबके डॉ. मोहता का एक उल्लेखनीय प्रकाशन है—मरु संस्कृति कोश—सन्दर्भ सूची सहित लगभग 525 पृष्ठों में पश्चिमी राजस्थान—जिसे मरु क्षेत्र भी कह सकते हैं—की समग्र संस्कृति का दस्तावेज है यह पुस्तक। मरु परम्परा बीकानेर, नन्दकिशोर आचार्य और कोमल कोठारी ने यह काम डॉ. मोहता से करवा लिया—ऐसा कहना ही उचित होगा। 2005 में प्रकाशित और अब अनुपलब्ध इस ग्रन्थ के पुन: प्रकाशन के बारे में डॉ. मोहता से जब भी बात होती तो कहते इसमें कुछ कमियां रही हुई हैं—कुछ प्रविष्टियां भी बाद में ध्यान आयीं, जिन्हें जुड़वाना है। वाग्देवी प्रकाशन द्वारा पुन: प्रकाशन के प्रस्ताव के बावजूद उन्होंने कोई उत्साह नहीं दिखाया। हां, वाग्देवी पॉकेट बुक्स के लिए तुलसीदास के प्रतिनिधि काव्य संकलन 'वदति तुलसीदास' की संपादित पाण्डुलिपि देकर प्रकाशक को संतुष्ट करने की कोशिश उन्होंने जरूर की।

इसी तरह स्वीडिश कवयित्री मारिया वीने की कुछ कविताओं के उनके द्वारा किये राजस्थानी अनुवाद वर्षों तक केवल इसलिए रखे रहे कि कुछ और कविताओं के अनुवाद कर दें तो 80 पृष्ठों का संग्रह हो जाये। कविताओं के और अनुवाद नहीं हो पाएंगे—ऐसा उन्होंने जब मान लिया तो जितनी भी कविताएं थीं, तरतीब बनाकर पाण्डुलिपि सर्जना, बीकानेर को प्रकाशनार्थ दे दी। प्रकाशक के बार-बार इस आग्रह पर कि संग्रह 80 पृष्ठों का नहीं होगा तो उस पर कहीं किसी तरह का विचार होने की गुंजाइश नहीं है, उन्होंने गौर नहीं किया। आखिर मात्र 56 पृष्ठों का वह संग्रह 'आरसी आगे हाथ पसार्या पुठरापौ' नाम से प्रकाशित हुआ। (सम्पादन के अन्य कई काम डॉ. श्रीलाल मोहता ने किये हैं, उम्मीद है उनका जिक्र अन्य आलेखों में होगा)

यह तो हुई डॉ. मोहता के कृतित्व की बात। उनका व्यक्तित्व भी कम उल्लेखनीय नहीं है। 1980 के दशक के उत्तराद्र्ध में डॉ. छगन मोहता के सान्निध्य लाभ के लिए मैं मोहता भवन प्रतिदिन शाम को जाने लगा, वहीं डॉ. श्रीलाल मोहता से मेरा पहला परिचय हुआ। तब का परिचय इतना ही था कि ये डॉक्टर साब के बेटे हैं और रामपुरिया कॉलेज में हिन्दी पढ़ाते हैं। डॉ. छगन मोहता के देहावसान के बाद डॉ. श्रीलाल मोहता जब गंगा निवास में रहने लगे तब उनकी संगत का भी लाभ लेने लगभग प्रतिदिन सुबह मेरा जाना होता था। पहले डॉ. छगन मोहता और फिर नन्दकिशोर आचार्य, श्रीलाल मोहता और शुभू पटवा के पास घण्टों बैठना और उन्हें सुनना पर्याप्त लगने लगा। शायद इसीलिए स्वाध्यायी के स्थान पर मैं श्रुति परम्परा का अभ्यासी हो गया।

डॉ. मोहता के बारे में यह कहना कि वे अपने मित्रों के निमित्त ही थे, अतिश्योक्ति में नहीं आयेगा। जिससे भी वे स्नेह करते, उनका इच्छित करने को तत्पर रहते। इसमें उनकी तरफ से छूट इतनी थी कि मुझ जैसा उनसे बहुत छोटा भी, उनका उपयोग करने की हद तक चले जाने से नहीं ठिठकता था। हमारी मित्र-मंडली के अन्य इसे स्नेह का आदान-प्रदान या किसी अन्य रिश्ते का नाम चाहे दें, लेकिन होता डॉ. मोहता का उपयोग ही था। उनका यह उपयोग हम बिना किसी झिझक के करने लगे थे। डॉ. मोहता ने अपने स्नेहीजनों के लिए कुछ करना अपने सुख का हेतु मान लिया था। अपनी मित्र-मंडली के 40 वर्षों का स्मरण करूं तो याद नहीं पड़ता कि उन्होंने मित्रों से कभी अपने लिए कुछ चाहा होगा। साहित्य का लोक हो या स्वैच्छिक संस्थाओं का—वे अपने किसी मित्र के लिए कुछ करने में कई बार इतने रम जाते कि उनके ऐसा करने से किसी अन्य मित्र का भरोसा तोड़ रहे हैं—इसका आभास तक उन्हें नहीं होता।

आखिर के 8-10 वर्षों में उन्हें अपने लिए कुछ न करने का मलाल होने लगा था। यद्यपि अपने इस मलाल को वे जाहिर भरसक नहीं होने देते, लेकिन जो मित्र उन्हें अच्छे से जानते-समझते थे—ऐसा महसूस न केवल करने लगे थे, बल्कि उनमें आया यह बदलाव उन्हें अचम्भित भी करता था।

अपनी हाजिर-जवाबी और परिहास से मित्र-मंडली को खुशगवार रखने वाले मोहता जब मंच पर होते तो नपी-तुली बात को गंभीरता से रखतेे। कवि-चिन्तक नन्दकिशोर आचार्य उम्र में उनसे दो वर्ष छोटे हैं लेकिन उनका सम्मान ऐसे करते, जैसे वे उनसे काफी बड़े हैं, वे ये भूल चुके थे कि नन्दजी कभी उनके मित्र भी रहे। यहां तक कि नन्दजी की उपस्थिति में मित्र-मंडली में परिहास भी वे दबी जबान से करने लगे। बार-बार रुपये, चीजें खोकर; दुपहिया से गिरकर चोटिल होने के बाद भी सहज रहना और हंसी-ठठों से माहौल को हल्का रखना डॉ. मोहता की फितरत थी।

डॉ. मोहता के मित्रों में केवल साहित्य-संस्कृति से जुड़े लोग ही नहीं थे— 'सफिया' नाम से बीकानेर में कुख्यात कैरम के अच्छे खेलाड़ थे—और डॉ. मोहता भी। कोटगेट क्षेत्र में सजने वाली देर रात की बाजियों में वे सफिये के साथ मगन हो जाते, वे भूल जाते कि 104 डिग्री ताप में तप रही उनकी बेटी के लिए वे दवा लेने कोटगेट आये हैं। कैरम की बाजी में डॉ. मोहता एक शॉट में तीन-चार गोटियां ले जाते, 'सफीया' उन्हें इसीलिए 'जग्गा डाकू' नाम से सम्बोधित करने लगा। वहीं शतरंज में बीकानेर का आज जो दबदबा राष्ट्रीय स्तर पर है, उसमें डॉ. मोहता का कम योगदान नहीं है। शतरंज के वे न केवल अच्छे खिलाड़ी थे बल्कि अच्छे प्रशिक्षक भी थे।

डॉ. मोहता की एक खासियत और थी कि वे जिन से जुड़कर काम करना तय करते-वैचारिक असहमतियों के बावजूद आपस में वैचारिक चर्चा होने पर असहमति दर्ज इसलिए नहीं करवाते कि जिस काम में लगे हैं उसमें बाधा आ जायेगी। इसके मानी ये नहीं कि डॉ. मोहता के विचार बदल गये हों। अपने विचार पर आग्रही ना रहने का हम जैसे उन्हें उलाहना देते तो यह कह कर टाल देते कि मुझे काम करना है, उलझना नहीं है।

डॉ. श्रीलाल मोहता मेरे लिए 'फोन ए फ्रेण्ड' भी थे। शब्द, भाषा, व्याकरण, साहित्य, कैरम, फुटबाल, क्रिकेट, शतरंज और न जाने कितनी विधाओं में वे 'रेडी रेकनर' थे। सिनेमा की बातें करने बैठते तो हिन्दी सिनेमा की शुरुआत से शुरू करते और उनके सन्दर्भ बीकानेर और बीकानेर के सिनेमागृहों तक ले आते। बीकानेर के सांध्य दैनिक 'विनायक' के आग्रह पर स्थानीय सन्दर्भों से सिनेमा पर साप्ताहिक लिखा तो ओम थानवी जब सम्पादक होकर बीकानेर आये तो 'राजस्थान पत्रिका' में यहां की लोक संस्कृति पर भी लम्बे समय तक कॉलम लिखा। बीकानेर की 'पाटा', 'खान-पान' और 'रम्मत' संस्कृति पर कहने को उनके पास बहुत कुछ था।

इसी तरह राजनीति में मक्खन जोशी और जनार्दन कल्ला उनके खास मित्रों में रहे हैं। बीते चार दशकों से बीकानेर की राजनीति के भोमिया जनार्दन कल्ला के साथ उनके ऐसी मित्रता थी कि मोहता उन्हें चुभती बात धीरे से कहने से नहीं चूकते और जनार्दन कल्ला 'लालिया तू रे'जा' कह कर चुप हो जाते। जनार्दन कल्ला के अनुज और राजस्थान की वर्तमान सरकार में केबिनेट मंत्री डॉ. बी डी कल्ला दो नातों से डॉ. मोहता का सम्मान करते हैं। अग्रज जनार्दनजी के मित्र होने के नाते तो कॉलेज प्रध्यापकी के दौरान डॉ. मोहता उनसे काफी वरिष्ठ रहे, इसलिए भी। विचारों से सुलझे और लगभग समाजवादी झुकाव के बावजूद मोहता व्यवहारिक राजनीति में बळ पड़ते झाली-झरोखे रखते थे।

डॉ. मोहता ने पत्रकारिता भी की। 1970 के दशक के उत्तराद्र्ध में नन्दकिशोर आचार्य ने मक्खन जोशी के 'मरुदीप' साप्ताहिक की सम्पादकी संभाली, उसमें डॉ. मोहता आचार्यजी के सहयोगी थे। मरुदीप में एक व्यंग्य कॉलम था 'लफंदर' नाम से। इस कॉलम को कभी डॉ. पी आर जोशी लिखते तो कभी डॉ. मोहता। डॉ. बीडी कल्ला तब रामपुरिया कॉलेज में प्राध्यापक थे और राजनीति में जाने के इच्छुक भी। डॉ. मोहता और डॉ. जोशी ने अपने इस कॉलम के माध्यम से कल्ला को चर्चा में तब से बनाये रखना शुरू कर दिया जब उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं की आमजन में बात तक नहीं होती थी।

डॉ. मोहता कभी-कभार अन्तर्मुखी भी हो लेते थे। किन्हीं कारणों से निराश या दुखी होते—रामचरित मानस, विनय पत्रिका, महाभारत आदि के पारायण में लग जाते तो कभी गीताप्रेस गोरखपुर की राम नामी की कॉपी में राम-राम लिखते मिलते। हम समझ जाते कि 'भाईजी' आज अनमने हैं—हल्की-फुल्की बातें-ठठेबाजी कर हम उन्हें सामान्य करने की असफल कोशिश करते। असफल इसलिए होते कि ऐसी मन:स्थितियों से वे अपनी युक्तियों से ही निकलते थे।

'भाईजी' के साथ के सुख, अनुभूतियां, शिकायतें और भी बहुत हैं, जिन्हें गूंगे के गुड़ की तरह सिर्फ अपने लिए ही सहज कर रखना है, सो इतना ही।

—दीपचन्द सांखला

30 सितम्बर, 2021

Thursday, August 26, 2021

देश की तासीर में जबरिया बदलाव

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपनी स्थापना के बाद के 95 वर्षों से अपने एजेंडे पर बड़ी चतुराई से जुटा है बल्कि यह कहना अतिशयोक्ति में नहीं आयेगा कि इसका अनुगमन करने वाले बड़ी धूर्तता से लगे हैं। यह सर्वविदित है कि संघानुगामियों का आजादी के आंदोलन में किसी तरह का योगदान तो दूर की बात, ये अंग्रेज शासकों और अलगाववादियों के लिए अनुकूलता बनाने में ही लगे रहे।

कहने को आरएसएस एक सामाजिक संगठन है, अपनी अपंजीकृत इकाइयों—शाखाओं—में यह दिखावे के तौर पर तयशुदा रूढ़ और विवादहीन गतिविधियां करते हैं, वहीं तय आयोजनों के अलावा अपने शाखा-साथियों की अनौपचारिक बैठकों-मुलाकातों में घृणा के बीज बोते नहीं थकते जाति और धर्म श्रेष्ठता की बातें कर चार वर्णों में बंटी जातियों में तथाकथित सवर्णों में भी एक विशेष ब्राह्मण-समूह को श्रेष्ठ और उन्हीं के कहे को अनुकरणीय स्थापित करने में अपरोक्ष तौर पर जुटे रहते हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती, इस पर कायम रहने की जरूरत वे इसलिए बताते हैं कि यदि सदियों पुरानी इस व्यवस्था को पुख्ता नहीं रखेंगे तो दूसरे धर्म के—खासकर इस्लाम और ईसाई हमारे धर्म को समाप्त कर देंगे। इसके लिए गढ़ी गई झूठी ऐतिहासिक घटनाओं को प्रचारित करते हैं या ऐतिहासिक घटनाओं की अपने ऐजेंडे के अनुकूल 'संघ-घडंत' व्याख्या बताते रहे हैं।

इस तरह की झूठी बातें भय पैदा करती हैं और भय कायरता। कायरता की पीठ पर हाथ लगते ही वह हिंसक होते देर नहीं लगाती। मोदी-शाह की शासनशैली ऐसे ही कायरों की पीठ पर हाथ रखने में कारगर साबित हो रही है। नतीजतन जिनके विरुद्ध फिलहाल सर्वाधिक विषवमन किया जा रहा है उस मुस्लिम समुदाय के कमजोर लोगों के साथ ये कायर हिंसक होकर घृणा का वमन करने लगे हैं। गो-पालन में लगे मुसलमानों को गो-वंश के परिवहन में बड़ी दिक्कत आने लगी है। पहले उनके साथ सीधे हिंसा होती थी लेकिन जब से रंगदारी तय हो गयी तब से ये तथाकथित गो-भक्त रंगदारी वसूलने और गो-वंश का निर्बाध परिवहन होने दे रहे हैं। इस तरह गो-भक्तों का तथाकथित शौर्य ठण्ड पी गया। 
जो रंगदारी वसूलने में लग गये, वे तो काम लग गये, लेकिन अन्य कायर दूसरे-दूसरे तरीकों से अपनी घृणा के वमन में लग गये हैं, रोटी-रोजी में लगे मुस्लिम समुदाय के लोगों पर जब-तब 'चढ़ी' करने लगे। इन्दौर में हाल ही की एक घटना में चूड़ी बेचने वाले मुस्लिम युवक का सामान बिखेरते हुए इन्हीं कायरों ने इस हीनता में पीट दिया कि वह चूड़ी पहनाने के बहाने हिन्दू स्त्रियों के हाथों को छूता है।

इन्दौर के चूड़ी विक्रेता पर जो एक आरोप चस्पा किया गया, वह यह कि हिन्दू नाम रखकर ऐसा कर रहा है। हिंसक कृत्र्य का ऐसा बचाव करने वाले ऐसा क्यों नहीं सोचते कि रोटी-रोजी के लिए उसे नाम बदलने की नौबत क्यों आयी। इन कायर-हिंसकों ने देश में ऐसा माहौल बना दिया है कि अल्पसंख्यक अपनी असल पहचान के साथ मजदूरी भी नहीं कर सकता। यहां वर्षों पहले का उदाहरण दोहराना चाहता हूं—मेरे एक पड़ौसी मुस्लिम युवक थे मुमताज, जो हनुमान भक्त थे। सादुलगंज स्थित ग्रेजुएट हनुमान मन्दिर के परम भक्त। एक दिन मन्दिर में मुझसे टकरा गये, देखकर सकपकाए—किनारे ले गये और बोले कि मेरी पहचान मत बताना, मेरी पहचान यहां मूलचन्द नाम से है। ऐसा उन्हें इसलिए करना पड़ा, क्योंकि उस मन्दिर के तब के पुजारी जनार्दन व्यास मन्दिर में श्रद्धालु का नाम और जाति पूछकर ही प्रवेश देते थे, पहचान इसलिए भी छुपानी पड़ती है। संघानुगामियों की बेशर्मी की हद तो तब देखने में आयी जब मध्यप्रदेश के गृहमंत्री उस चूड़ी विक्रेता युवक पर हमला करने वालों का ढिठाई से बचाव करने प्रेस से मुखातिब हुए। 

हमारे बीकानेर का ही उदाहरण लें, यहां चूड़ी व्यवसाय में सदियों से जो मुस्लिम समुदाय लगा है, उसे चूड़ीगर कहा जाता है, उनकी कभी कोई एळ-गेळ शिकायत सामने नहीं आयी।

इस देश की तासीर बदलने में वर्तमान शासक जो लगे हैं, उसकी कीमत हमें अपना सुख-चैन खोकर चुकानी होगी। अर्थव्यवस्था का भट्टा इन्होंने पूरी तरह बिठा ही दिया है, सामाजिक-समरसता से भी इनकी दुश्मनी कम नहीं है। हम अब भी नहीं जागे तो क्या कुछ खो देंगे, उसकी कल्पना मात्र से ही सिहर उठते हैं।
―दीपचन्द सांखला
24 अगस्त, 2021

Thursday, August 5, 2021

बीकानेर शहर की समस्याएं : हम कब तक अंगूठा चूसते रहेंगे

स्वायत्त शासन मंत्री शान्ति धारीवाल प्रशासन शहरों के संग कार्यशाला के बहाने बीते शनिवार को बीकानेर में थे। अकेले मंत्रीजी ही नहीं, उनका पूरा सचिवालय शुक्रवार शाम बीकानेर पहुंच गया था। मंत्रीजी होटल लक्ष्मी निवास पैलेस में ठहरे, जबकि उनके मुख्यमंत्री सर्किट हाउस में ही ठहरते हैं। लाखों रुपयों की इस खर्चीली यात्रा से शहर को क्या हासिल होगा, फिलहाल दावा छोड़ अनुमान भी नहीं लगा सकते। इस तरह के औपचारिक आयोजनों को मीडिया अच्छी-खासी सुर्खियां चाहे दे, इनके शून्य परिणामों का मीडिया कभी जिक्र नहीं करता।

खैर! ऐसी रातों के झांझरके ऐसे ही होते हैं। शहर की दो बड़ी समस्याएं—कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या और दूसरी सफेद हाथी सूरसागर की—दोनों का मौका मुआयना मंत्रीजी ने किया है। सूरसागर को सफेद हाथी इसलिए लिखा कि जबसे इसे साफ किया गया है, तब से इसे एक बार भी एक चौथाई नहीं भरा जा सका है। अनेक ट्यूबवेलों और नहरी पानी की आमद के बावजूद यही स्थिति है। सफाई के बाद बीते 13 वर्षों में इसकी मरम्मत और रखरखाव पर ही करोड़ों खर्च किये जा चुके हैं।

बरसाती और गन्दे पानी की आवक पर इसके लिए अलग से सीवरेज लाइन डालने और फिल्टर प्लांट लगाने का तख्मीना बनाने का आदेश तो धारीवालजी दे गये हैं, लेकिन इसे भरा कैसे रखा जायेगा, इस पर बात नहीं की गई। रियासत काल में सूरसागर जिस आगोर से भर जाता था, वह अब अधिकतर तो छावनी क्षेत्र में आ गई तो कुछ बसावट की भेंट चढ़ गई है। जब कृत्रिम साधनों के पानी से पार नहीं पडऩी तो इसे वर्तमान रूप में बनाये रखना सफेद हाथी पालने जैसा ही है।
यह बात पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के समझ आ गयी थी। जून, 2014 में 'सरकार आपके द्वार' के तहत वे जब बीकानेर आयीं तो उन्होंने कुछ पत्रकारों को गजनेर पैलेस में बातचीत के लिए बुलाया था। तब मैंने सूरसागर से संबंधित उपरोक्त बात की थी तो राजे ने पूछा विकल्प क्या हो सकता है? मैंने सुझाया इसे इसी गहराई में डेजर्ट पार्क के तौर पर विकसित किया जा सकता है। जिसमें थार मरुस्थल के पेड़-पौधे लगाये और ऐसे जीव-जन्तुओं को रखा जा सकता है जिन पर वन विभाग को एतराज न हो। सूरसागर के सामने जूनागढ़ किला है जहां रोजाना हजारों की संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक आते हैं। उनके लिए डेजर्ट पार्क के तौर पर आकर्षण का एक और केन्द्र हो जायेगा। राजे ने इस पर सहमति जतायी और जाते हुए इसकी घोषणा भी की—लेकिन जयपुर पहुंच कर इसका फोलोअप वे भूल गयीं।

उसी मुलाकात में राजे से जो अन्य बात हुई उसमें कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के एकमात्र व्यावहारिक समाधान एलिवेटेड रोड पर भी मेरी बात हुई थी, राजे यह घोषणा करके गयीं कि आरयूआईडीपी द्वारा बनाई गयी योजनानुसार मार्च, 2015 तक इसका शिलान्यास करने वे खुद आएंगी। लेकिन हुआ यह कि बीकानेर पश्चिम के विधायक और अब दिवंगत गोपाल जोशी को उस पर इसलिए एतराज था कि एलिवेटेड रोड उनके व्यावसायिक प्रतिष्ठान के ठीक सामने उतर रही थी। इस कारण यह योजना भी ठण्डे बस्ते में चली गयी।
सूरसागर का तो जो होगा वह होगा, उससे अब किसी को सीधे परेशानी नहीं है। लेकिन कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या से शहर के लाखों बाशिन्दे परेशान हैं और शहर नुमाइंदे इस पर गंभीर नहीं हैं। बीकानेर पूर्व की विधायक सिद्धिकुमारी को चुनाव जीतने के अलावा कोई लेना-देना शहर की समस्याओं का कभी रहा ही नहीं तो उनसे उम्मीद क्या करें। लेकिन बीकानेर पश्चिम विधायक डॉ. बी डी कल्ला जब-तब शहर हित के दावे करते रहते हैं तो उम्मीद उन्हीं से रख सकते हैं। कल्ला अब तक इस समस्या के समाधान के तौर पर बायपास की जिद्द पकड़े बैठे हैं, और शायद समझना चाहते भी नहीं हैं। एलिवेटेड रोड जैसे व्यावहारिक समाधान को नजरअंदाज कर दूसरे-दूसरे समाधानों पर समय जाया कर रहे हैं। बीते एक वर्ष से उन्होंने नगर विकास न्यास को आरयूबी (रेल अण्डरब्रिज) योजना पर लगा रखा है। योजना जैसी-तैसी बनी भी, लेकिन अपनी हाल ही की इस यात्रा में धारीवाल उसे अव्यावहारिक बता खारिज कर गये हैं। धारीवाल को इससे ज्यादा मतलब भी नहीं है। कल्ला के पास अब दो वर्ष भी नहीं बचे हैं। वे चाहें तो 6 फरवरी, 2020 को इस समस्या पर उन्हें लिखे मेरे उस पत्र को पढ़ सकते हैं जिसमें इसके समाधान से संबंधित सभी विकल्पों का विस्तार से उल्लेख है। वे चाहेंगे तो उस पत्र की प्रति मैं पुन: उपलब्ध करवा सकता हूं। शहर की जनता इस समस्या से बीते चार दशकों से भी ज्यादा समय से त्रस्त है।

यातायात संबंधी ऐसी ही समस्याओं के समाधान के लिए जोधपुर और अजमेर में एलिवेटेड रोड बीच बाजार में बन रहे हैं और हम हैं कि उस एक मात्र व्यावहारिक समाधान से बिदकते रहते हैं। हमारे नुमाइंदों की सकारात्मक सोच होती तो 2006-07 में जब यह योजना बनी तभी काम शुरू हो जाता तो 2009-10 तक शहरवासी सुकून से आवागमन करते। लगता तो नहीं है कल्ला इस पर तत्पर होंगे लेकिन मेरा धर्म अवगत करवाते रहना है, सो बार-बार करवाता रहा हूं ओर आगे भी करवाता रहूंगा।
―दीपचन्द सांखला
5 अगस्त, 2021

Wednesday, July 21, 2021

पाती देवीसिंह भाटी के नाम

मान्य देवीसिंहजी!

आपातकाल के दौरान 1977 के लोकसभा चुनावों में आपको जब पहले-पहल देखा, तब मैं 18 वर्ष का भी नहीं हुआ था। बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से हरिराम मक्कासर जनता पार्टी से उम्मीदवार थे। इन चुनावों में जनता में जैसा उत्साह था वैसा माहौल उससे पहले (1967 से चुनावी राजनीति में सक्रिय हूं) और आज तक किसी चुनाव में नहीं देखा। 

तब का वह दृश्य याद है जब दिनभर घूम-घुमाकर शाम को डागा बिल्डिंग पहुंचते और पांच नम्बर से लेकर नीचे सड़क तक खड़े समूहों से फीडबैक सुनते और खुश होते। उन्हीं चर्चाओं में सर्वाधिक जिस नाम की चर्चा होती वह देवीसिंह भाटी था। बिना हुड की जीप में शाम और देर शाम जब भी आप डागा बिल्डिंग पहुंचते-हमारे जैसे कई नवयुवा घेर लेते और पूछते—क्या रिपोर्ट है। आप इतना ही कहते...बढिय़ा और मुख्य चुनाव कार्यालय की ओर चल देते। नायक सी वह छवि स्मृतियों में आज भी कहीं अंकित है।

अभी पत्र लिखने का हेतु इसलिए बना कि इन दिनों आपने बीकानेर शहर से लगती ओरण (गोचर) को बचाने का बीड़ा उठाया है। इस लंबी-चौड़ी ओरण को बचाने के लिए बनवाई जा रही चारदीवारी इस काल में छोटे-मोटे भागीरथी प्रयास से कम नहीं है। इसे आप पूर्ण करवा देंगे तो महानगरीय शब्दावली में यह ग्रीन जोन कहलायेगा।

यह काम शुरू हो गया और आपकी देख-रेख में हो रहा है तो पूरा होगा ही। मेरे इस पत्र के प्रयोजन इतना ही महत्त्वपूर्ण माने या इससे ज्यादा, यह तय आपको करना है। वह प्रयोजन है—कोलायत के कपिल सरोवर के पौराणिक वैभव को लौटाने का। इसके एक सोपान के तौर पर जलकुम्भी हटाने का काम आपने कुछ वर्ष पूर्व करवाया था। यह बात अलग है कि सरोवर में जलकुम्भी फिर लौट आयी, किन कारणों से लौटी, विशेषज्ञों की राय से उसे तो हमेशा के लिए हटाना ही है। अन्य जो काम हैं सरोवर की आगोर को बचाना और उसके 52 घाटों का जीर्णोद्धार करवाना। घाटों का जीर्णोद्धार तो आपके लिए बड़ा काम नहीं है लेकिन आगोर को सुरक्षित रखना और हमेशा के लिए सुरक्षित रखना-रखवाना बड़ा काम है।

इसके लिए आपको न केवल अपनी सामाजिक हैसियत का उपयोग करना होगा बल्कि अपनी राजनीतिक हैसियत का उपयोग भी करना होगा। इस आर्थिक युग में धन के भूखों का राम होठों तक ही है—हिये तक नहीं। अन्यथा धन के ये भूखे कम से कम कोलायत सरोवर के आगोर क्षेत्र को तो अवैध खनन से मुक्त रखते। सरकारी मुलाजिमों से आगोर क्षेत्र में खनन पट्टे जारी भी हो गये हैं तो उन्हें रद्द करवाना और यह जाप्ता करना भी जरूरी है कि भविष्य में यह भूल दोहराई न जाए। आप मुनादी करवा देंगे तो पूरा भरोसा है कि आगोर के उस क्षेत्र में अवैध-खनन का काम रुक जायेगा। एक और प्रयास क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य को लौटाने का है। खनन के ओवर बर्डन से निकली मिट्टी से बने डूंगर न केवल आगोर के बहाव क्षेत्र में बाधा हैं बल्कि क्षेत्र पर बदनुमा दाग भी हैं। यह काम होगा कैसे—मुझे अनुमान नहीं है, लेकिन होना जरूरी है। आगोर क्षेत्र में खनन से जो गहरे गड्ढे बन गये उन्हें इस ओवर बर्डन से बुरवाया जा सकता है। यह काम कम अर्थ-साध्य नहीं है, मोटे बजट की जरूरत होगी। आप मन बना लेंगे तो यह सब व्यवस्था भी आप संभव करवा लेंगे। ऐसा मानना मेरा ही नहीं है, उनका भी है जो आपको अच्छे से जानते-समझते हैं।

इस बड़े काम को करने का मन बनाना आसान नहीं। कितने संसाधन जुटाने होंगे मुझे पता है। लेकिन देवीसिंह भाटी के सामथ्र्य का भी पता है कि वे मन बना लेंगे तो इस वय में कर गुजरेंगे और सार्वजनिक इतिहास में उनको इन कार्यों के लिए भी याद किया जायेगा। उम्मीद करता हूं कि इस अनुष्ठान को पूर्ण करवाने के लिए व्यवस्थित कार्य योजना की घोषणा शीघ्र ही करेंगे। अग्रिम आभार।

―दीपचन्द सांखला

22 जुलाई, 2021

Thursday, July 15, 2021

मोदी-शाह के विकल्प की बात

भारतीय लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत है कि मोदी-शाह के विकल्प की चर्चा पिछले डेढ़-दो वर्षों से होने लगी है। यद्यपि ऐसी चर्चा फिलहाल राजनीतिक विश्लेषकों, पत्रकारों और जागरूक नागरिकों तक ही सीमित हैं। जबकि डेढ़-दो वर्ष पूर्व तक ये भी स्तब्ध थे। बेहतर होता विपक्षी दलों के बीच भी इस तरह की कवायद होती, राजनीतिक विश्लेषक प्रशान्त किशोर बीच में इस हेतु जरूर सक्रिय दिखे। इस पर उनकी फिलहाल की निष्क्रियता रणनीतिक है या निराशा-जनित, पता लगना है।
बेहतर और भी तब होता जब विकल्प की बात भारतीय जनता पार्टी के भीतर से भी उठती—इस उम्मीद की वजह इतनी ही है कि भाजपा संवैधानिक लोकतंत्र में पंजीकृत दल है। अन्यथा उसके पितृ संगठन और खुद उसकी अघोषित विचारधारा के मद्देनजर ऐसी उम्मीद पालना निराश होना है। क्योंकि संघ और उसके अनुगामी संगठनों का विश्वास जब लोकतंत्र में ही नहीं है तो इनसे संविधान में आस्था की उम्मीद कैसी? इसीलिए संघानुमार्गी जिसमें भी निष्ठा व्यक्त करते हैं, मान लें यह उनका उपयोग मात्र कर रहे होते हैं।
जागरूक नागरिकों में से अनेक विकल्प की उम्मीदों के साथ कांग्रेस को कोसने लगे हैं। कोस इसलिए रहे हैं कि उन्हें कांग्रेस के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर कोई विकल्प सूझ नहीं रहा, और इसलिए भी कि कांग्रेस उस तरह से विरोध पर उतारू नहीं दिख रही कि जनता उसे मोदी-शाह के विकल्प के तौर पर स्वीकार करने लगे। सरसरी तौर पर देखें तो माजरा यही है। लेकिन क्या सच में ऐसा है? नहीं। दरअसल आजादी के बाद पहली बार ऐसा है कि अंधभक्ति में ग्रस्त जनता के बड़े हिस्से के मन को (इसे हिप्नोसिस या सम्मोहन की अवस्था भी कह सकते हैं) झूठ, भ्रम और ढोंग से बांध दिया गया है, ये सम्मोहित समूह सच्चाई जानना ही नहीं चाहता बल्कि आगाह करने वाले पर उलट प्रतिक्रिया देने लगता है। ऐसी स्थितियों में कोई भी दल आगे कर दें या कैसा भी व्यक्तित्व खड़ा कर दें, उसे ये स्वीकारेंगे ही नहीं।
फिलहाल यह मानना कि कांग्रेस या उसके किसी नेता को विकल्प के तौर पर स्वीकारा जाएगा, जमता नहीं है।
ऐसे में हो क्या सकता है? या तो मोदी-शाह से ऊपर का कोई मजमेबाज और धूर्त आए, जो इनके सिर बांधने जैसा हो। विकल्प की ऐसी ही उम्मीद करनी है तो फिर इन्हीं को बरदाश्त क्यों नहीं करें, इनके विकल्प के तौर पर इनसे बदतर क्यों। और यदि विकल्प के तौर पर कोई भला या कम-से-कम इनसे तो भला हो—आये तो इसके लिए जनता को ही अपने विवेक को जगाकर मन बदलना होगा। बेहतर विकल्प की जरूरत महसूस करनी होगी। इसके लिए पहले तो बहुसंख्यकों को इस भ्रम से निकलना होगा कि उनके धर्म पर कोई खतरा है। और इससे भी कि धर्म को बचाने के लिए हम कुछ भी कुर्बान करने को तैयार हैं। ऐसा होगा तभी जब हम अपनी असली जरूरतों को समग्रता से समझेंगे। ऐसा होगा तभी सत्ता में वैकल्पिक दल की उम्मीदें पाल सकेंगे, जब तक ऐसा नहीं होगा—तब तक हमें यूं ही भुगतना होगा। एक भारतीय नागरिक के तौर पर कितना कुछ हमने खो दिया और क्या कुछ खो देंगे, इसकी कल्पना मात्र सिहराने लगती है, ऐसी अनुभूति के लिए हमें जागरूक नागरिक होना होगा। सभी इस तरह का मन बनाएं, जरूरी नहीं। कम-से-कम एक बड़े जनसमूह को हिप्नोसिस से-सम्मोहन से बाहर आने की जरूरत है।
(कुछ राज्यों में आ रहे बदलावों से उम्मीदें न पालें, उनके बदलावों की वजह स्थानीय हैं।)
—दीपचन्द सांखला
15 जुलाई, 2021