Friday, March 25, 2016

होली


प्राचीन संस्कृत साहित्य में होली का उल्लेखवसंत महोत्सवयाकाम महोत्सवके रूप में मिलता है यह प्राचीन काल से ही सब वर्णों की निकटता का भी त्योहार रहा है इस दिन सभी वर्णों के लोगों का परस्पर गले मिलने का विधान है इसे होलिका द्वारा प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठने की कथा से भी जोड़ा जाता है यह समझकर कि हरि भक्त प्रह्लाद जलकर मर जाएगा, राक्षस नाचने-गाने, कूदने, शोर मचाने और मद्यपान करके अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने लगे थे आज भी उसी घटना की स्मृति में होलिका दहन होता है| यह देश का सबसे लोकप्रिय और मस्ती का त्योहार है
भारतीय संस्कृति कोशका उक्त गद्यांशहोलीके बारे में है स्थानीय बोली और मानस के हिसाब से आज होली है और कल छालुड़ी (धुलण्डी)| मुहूर्त्त के अनुसार आज देर रात होली मंगलाई जायेगी मंगलाना यानी दहन करना यानी उच्च वर्गीय लोकचित्त होलिका के दहन को मांगलिक घटना मानता है क्योंकि होलिका केवल आततायी हिरनाकसप (हिरण्यकशिपु) की बहिन थी बल्कि उसके बुरे कामों में सहयोगी भी थी
जैसा कि उपरोक्त गद्यांश में बताया गया है, होलिका दहन के समय हिरनाकसप के सहयोगी यह मान कर चल रहे थे कि आग के हवाले होते ही प्रह्लाद तो जल कर राख हो जायेगा बिना परिणाम का इन्तजार किये वे मद्यपान सेवन और नाचने-कूदने, शोर मचाने में मशगूल हो गये तो क्या आजकल भी बहुत से लोग इसी मनःस्थिति में नहीं देखे जाते! जिस तरह से होली खेली जाने लगी है, उससे पता ही नहीं चलता कि इस उत्सव में मशगूल कौन तो हिरनाकसप के सहयोगियों की तरह मुगालते में खुशियां मना रहा है और कौन होलिका के दहन की खुशियां मना रहा है खेलने के ढंग में आई तबदीलियां कुछ इसी तरह का आभास जो देने लगी हैं
भारतीय उपमहाद्वीप में इस उत्सव का उल्लेख ईसा पूर्व से भी कई सौ साल पहले का मिलता है उसके नाम, खेलने के ढंग और कथाओं में समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है मनुष्य की यथास्थितियों और एकरसता से ऊब और कुछ समय के लिए ही सही तनावों से बाहर आने की उत्कंठा और कुण्ठाओं से छुटकारे की इच्छा के चलते ही इस तरह के त्योहारों को मनाया जाने लगा विभिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न समय पर वर्ष में एक से अधिक बार व्यापक पैमाने पर इन त्योहारों का आना मनुष्य की मानसिक जरूरत को अभिव्यक्त करता है यह त्योहार केवल हमारे यहां ही मनाया जाता हो, ऐसा नहीं है सदियों से दुनिया के सभी हिस्सों में समय और मनाने के तरीके में थोड़े परिवर्तनों के साथ ऐसे त्योहार भिन्न-भिन्न नामों से मनाये जाते हैं ये त्योहार इस बात के प्रमाण भी हैं कि मनुष्य का मन एकरसता में छटपटाता रहता है
हमारे क्षेत्र को ही लें, कभी यहां पानी को घी से ज्यादा कीमती माना जाता था तो होली सूखी खेली जाती थी नलों से पानी गवाड़-घरों में आने लगा तो गीली खेली जाने लगी अब जब से जल विशेषज्ञ यह बताने लगे हैं कि जमीन से पानी समाप्त हो रहा है तो लोक में इसे लेकर दिखावटी चिन्ताएं होने लगी हैं दिखावटी इसलिए चूंकि हमने जीवनशैली ही ऐसी बना ली जिसमें पानी की बरबादी कई गुणा बढ़ी है, 365 दिन जिस पानी को अंधाधुंध बरतने और बरबाद करने में लगे हैं उस ओर किसी की सावचेती नहीं देखी जाती होना तो यह चाहिए कि छालुड़ी के दिन ही क्यों बाकी के 364 दिन भी हम पानी के साथ अपने बरताव को ठीक क्यों कर लें? इस तरह की रस्म अदायगियों से अपनी करतूतों को कहीं आड़ तो नहीं दे रहे हैं हम?
26 मार्च, 2013

Tuesday, March 22, 2016

विधानसभा में घुसने की मासूमियत के बहाने लोकतंत्र की बात

सर्वहारा की तानाशाही की पैरवी करने वाले वामपंथियों का लोकतंत्र के लिए कहना-मानना यह है कि अपनी अनुकूलता के लिए बनाई यह पूंजीवादी व्यवस्था ही है। मान लेते हैं ऐसा है तो कौन-सी व्यवस्था निर्दोष है? एक आदर्श लोकतांत्रिक शासन प्रणाली ही ज्यादा मानवीय शासन व्यवस्था हो सकती है। व्यवहार में सर्वहारा की तानाशाही भी सोवियत संघ की अलग थी और चीन में अलग। भारत के संदर्भ ही से बात करें तो पश्चिम बंगाल पैकिंग का लोकतांत्रिक वामपंथ अलग तो केरल पैकिंग का लोकतांत्रिक वामपंथ अलग। खैर, आज का मुद्दा यह है भी नहीं लेकिन शुरुआत इस विचार से इसलिए की कि भारत में वर्तमान लोकतांत्रिक शासन प्रणालियां पूंजी द्वारा हड़काई जाकर पूंजीवाद को पोसने वाली होती जा रही हैं।
बीकानेर के संदर्भ से बात करें, नगर विकास न्यास के मनोनीत अध्यक्ष का जिले में सत्ता का मुख्य पद होता है। यहां के संदर्भ से बात करें तो सूबे की भाजपा सरकार ने पिछले लगभग ढाई वर्ष में इस पर किसी का मनोनयन नहीं किया है। मुख्यमंत्री ने अपने पिछले कार्यकाल में भी संघ और पार्टी कैडर को धता बता कर बीकानेर के इस पद पर धन्नासेठ को ही नियुक्ति दी। इस बार भी कहा जा रहा है कि इस मनोनयन की बोली पांच से शुरू होकर नौ करोड़ तक तो पहुंच गई और माना यह जा रहा है कि नौ करोड़ पर आंकड़ा इसलिए अटकाया है कि मौल-भाव के बाद बोली दस करोड़ पर छूट जाए। इस ही परिप्रेक्ष्य में बात करें तो जमीनों को इधर-उधर कर वैधानिक हैसियत देने वाले महकमें की मुखियाई अब जितनी देरी से मिलेगी, उगाही या कहें वसूली का समय मनोनीत को उतना ही कम मिलेगा। मनोनयन की यह पद प्रतिष्ठा लागत से दस-बीस गुणा फायदे की मानी जाती है और मनोनीत व्यक्ति अलग बिल्डर या जमीनों का कारोबार करता है तो फिर फायदे का अन्दाजा लगाना ही समझ से परे है।
बोली की इस बाणी को सुनकर इस मनोनयन के लिए न संघ कैडर के लोग मुंह धोने की सोचते हैं और न ही तथाकथित निष्ठावान भाजपाई पोंछने की। बोलीदाता वह ही बनता है जो अपने गोरखधंधों को आड़ और टग देने के लिए राजनीति में आया हो। यहां कुछ ऐसे भी बोलीदाता बन गए हैं जिन्होंने हाल-फिलहाल बोली देने को ही पार्टी सदस्यता हड़पी है।
पिछले एक वर्ष से जिस वैश्य समुदाय से लोग इस पद की दौड़ में लगे थे उन्हें शायद समझ आ गई कि उन्हीं के समुदाय से जब शहर का महापौर है तो न्यास अध्यक्ष जैसा दूसरा महत्त्वपूर्ण पद आबादी के न्यूनतम हिस्से वाले इसी समुदायी को मिलना मुश्किल होगा। कहा जा रहा है कि उनकी इस ठिठक से एक अन्य छोटे समुदायी के जमीन-धंधी को गुंजाइश मिल गई और मुख्यमंत्री की पिछली बीकानेर यात्रा के दौरान वे स्थानीय राजनीति में ऐसे प्रकट हुए जैसे राजू श्रीवास्तव अपने लाफ्टर शो में नवजोत सिद्धू को अवतार के रूप में प्रकट करते थे। इन महाशय की समझ तब चौड़े आ गई जब अपनी जमात के प्रदेश अध्यक्ष को कामधेनु समझ पूंछ पकड़ी और विधानसभा के बजट सत्र में विधायक की सीट पर जा बैठे। महाशय की समझ के तो अपने स्वार्थ होंगे लेकिन वे सूबे की इस सबसे बड़ी पंचायत की सुरक्षा, चौकसी और तत्परता को धता बताकर आधे घंटे तक विधानसभा की कार्यवाही में बिना जीते शामिल रहे, ये कम चिंता की बात नहीं है। कहते हैं पार्टी अध्यक्ष के पट्टों में घुसने के प्रयासों का पूरा लाभ उन्हें मिला और बिना किसी कानूनी दर्जगी के उन्हें लौटा दिया गया।
नगर विकास न्यास हो या नगर निगम, इन्हें जिस तरह से चलना है उसी तरह चलने देने के लिए वहां के कारिंदे इन जीते हुओं के और राजनीतिक नियुक्ति के माध्यम से आए हुओं के मुंह में अंगुली फेर कर दांतों का मुआवना करने में माहिर हैं और उसी अनुरूप उनके निवाले का आकार-प्रकार तय कर देते हैं।
भाजपा में कई कार्यकर्ता चिल्लाते रहते हैं कि न्यास को भू-माफियाओं को ना सौंपें लेकिन राज चलाना, उसे बनाए रखना और फील्ड में चुनाव जीतना दो-दो अलग सिद्धियां हो चुकी हैं। इन्हें साधने में कांग्रेस और भाजपा दोनों के शीर्ष सिद्धहस्त हैं और ऐसों की रुदाली के बावजूद गंगाप्रसादी हो लेती है।
वामपंथियों की बात शुरू करने का राग इतना ही है कि इस सर्वाधिक मानवीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को बचाए रखने के लिए धन की प्रतिष्ठा को समाप्त करना होगा और उत्पादन और शासन की गांव आधारित ऐसी प्रणाली पर विचारना होगा जो समाज के अन्तिम व्यक्ति पर केंद्रित विकेन्द्रिकृत हो। नहीं तो लूट की इस प्रणाली में हासिल बलशाली को ही होता रहेगा फिर वह चाहे धनबली हो या कोई बाहुबली।

23 मार्च, 2016

Thursday, March 17, 2016

गोमाता, भारतमाता, स्त्रीदेवी/अतिभक्ति चोरा लक्षणे !!!!

महाराष्ट्र विधानसभा ने भारतमाता की जय नहीं बोलने पर एक विधायक को निलम्बित कर दिया गया। एमआइएम विधायक वारिस पठान का पक्ष था कि 'हमें भारतमाता की जय बोलने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, संविधान में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है, हम इसकी जगह जय हिंद बोलेंगे।' पठान के इस पक्ष में विवादित कुछ नहीं है और विवेकशील न्यायालय उनके निलम्बन को खारिज करते देर नहीं लगाएगा। बावजूद इसके पठान, उनकी पार्टी और पार्टी सुप्रीमों के राजनीतिक तौर-तरीकों से सामान्यत: असहमति है।
वहीं दूसरी ओर मोदीनिष्ठ अनुपम खेर ने प्रतिक्रिया जताते हुए ट्वीट किया—'भारत में रहने वालों के लिए भारतमाता की जय बोलना राष्ट्रवाद की एकमात्र परिभाषा होना चाहिए।' खैर, अनुपम खेर जिस विचारित मन की चापलूस अवस्था में हैं, कल को यह भी कहें कि भारतीय होने के लिए सिर मुंडवाए रखना जरूरी है तो अचम्भित ना हों।
इस मसले पर एक बहुत सुविचारित टिप्पणी जाने-माने पत्रकार और राज्यसभा टीवी से जुड़े उर्मिलेश उर्मिल ने फेसबुक पर 15 मार्च, 2016 को यानी दो दिन पूर्व ही साझा की जिसे यहां पढ़वाना पूर्ण प्रासंगिक है
'भारतमाता की जय' जैसे नारे की कोई संवैधानिकता नहीं है। किसी जुलूस या समारोह में देश की जयकार करनी हो तो आजादी की लड़ाई के दौरान लोकप्रिय हुआ नारा 'जय हिन्द' लगाना चाहिए। यही नारा आजादी की लड़ाई के ज्यादातर मौकों पर हमारे दीवानों ने लगाया थागांधी, नेहरू, सुभाष, भगतसिंह और अबुल कलाम आजाद सबने यह नारा लगाया था। अगर 'जय हिन्द' के अलावा भी कोई नारा लगाना हो तो 'जय भारत' का नारा लगाइये। 'भारतमाता की जय' का नारा औपनिवेशिक काल में कंजरवेटिव्स (रूढि़वादी-कूपमंडूक) के बीच ही ज्यादा लगता था। आज के दौर में यह नारा 'संघनिष्ठ' लगाते हैं।
यहां यह भी प्रश्न बनता है कि भारत को माता और उसकी जय बुलवाने के आग्रही समूह क्या यह बताएंगे कि आजादी के आंदोलन के समय इस मां को छोड़ वे किस माई-बाप के जयकारे में लगे थे। वस्तुत: इनकी इस मुखरता को आजादी के आन्दोलन में इनकी निष्क्रियता की ग्लानि की उपज कह सकते हैं। यही क्यों, गाय को माता और स्त्री को देवी और प्रकारान्तर से मातृरूपा मानने का ढिंढ़ोरा 'अतिभक्ति चोरा लक्षणेÓ नहीं तो क्या है?
भारत भूमि को मां मानने के अति आग्रही अधिकांश उसका दोहन किस तरह करते हैं, उसे एक वर्ष पूर्व की इस टिप्पणी से समझा जा सकता है
पिछले कुछ वर्षों में खनन घोटाला, अवैध खनन, भू-माफिया द्वारा अवैध निर्माण जैसे शब्द कुछ ज्यादा पढ़े-सुने तो अकस्मात ध्यान आया कि यह सब इसी धरती के साथ हो रहा है जिसे हम श्रद्धेय, पूजनीय या मां कहने का आग्रह रखते हैं। कोई भी सरकार हो, चाहे वह केन्द्र की हो या किसी प्रदेश-विशेष की और यह भी कि वह चाहे किसी भी दल की क्यों न हो, ये सभी अधिकृत-अनधिकृत तौर पर इस धरती को नोचने और नुचवाने में लगे हैं।
धरती के या कहें भारतमाता के भक्तों को गांधी का वह सूत्र वाक्य चेतन करता है कि नहीं जिसमें उन्होंने कहा है 'यह सबकी जरूरत पूरी कर सकती है, पर लालच किसी एक का भी नहीं।' हो इसके उलट रहा है। एक और भी उदाहरण आदिवासियों का दे सकते हैं कि वे अपनी जमीन के साथ जितना आत्मीय रिश्ता रखते हैं, उतना ही उन्हें उससे बेदखल करने की कोशिशें जारी हैं।
इसी तरह गाय को माता मानने वाले यह मुहिम चलाते नहीं देखे जाते कि गाय को आवारा न विचरने दिया जाय और बाखड़ी (दूध न देने की अवस्था को प्राप्त) गायों और टोगडिय़ों को गन्दगी और पॉलिथिन खाने से निजात मिले।
यही स्थिति स्त्रियों की है। समाज में दूसरी, तीसरी, पांचवीं, सातवीं हैसियत को मजबूर स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा तो दूर उनकी इच्छा के खिलाफ उनके साथ सामाजिक-पारिवारिक मर्यादाओं के नाम पर और लाज की आड़ में क्या-क्या नहीं होता है। इस तथाकथित जागरूक समाज में धरती, गाय और स्त्री को मातृरूपा मानने का ढोंग आत्मग्लानि की ही मुखरता है। इसी तरह की उग्रता और आग्रह है भारतमाता की जबरदस्ती जय बुलवाना, गोवंश मांसाहार के नाम पर हिंसा करना और स्त्री को देवी बताकर वर्जनाएं लादना।

17 मार्च, 2016

Wednesday, March 2, 2016

एलिवेटेड रोड समाधान पर जनप्रतिनिधि हो सावचेत और आमजन न हों भ्रमित

बीकानेर शहर के बाशिन्दों की बेपरवाही और यहां के जनप्रतिनिधियों के सावचेत न होने के चलते कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के समाधान का बेहद जरूरी मुद्दा उच्च न्यायालय में जाकर अटक गया। जोधपुर उच्च न्यायालय में इससे संबंधित एक जनहित याचिका की सुनवाई चल रही है। 26 फरवरी, 2016 की तारीख पर रेलवे, राज्य सरकार और इस समस्या के बाइपासी समाधान के पक्षधरों की सुनवाई से संबंधित खबर स्थानीय अखबारों में लगी जिसके कुछ बिन्दुओं को स्पष्ट करना जरूरी है।
रेलवे ने एलिवेटेड रोड बनाने का पक्ष लेते हुए कहा कि इसके बनने पर कोटगेट फाटक तो खुलता-बन्द होता रहेगा लेकिन सांखला फाटक को दीवार खींचकर हमेशा के लिए बन्द कर दिया जायेगा जैसा चौखूंटी और लालगढ़ फाटक पर किया भी गया है। ऐसा इसलिए होता है कि ओवरब्रिज या एलिवेटेड रोड जब बनते हैं तो सुरक्षा कारणों से रेलवे लाइन के ऊपर उसका निर्माण खुद रेलवे अपने खर्च पर करवाता है। इसके बाद उन फाटकों को इसलिए बन्द कर देता है ताकि रेलवे फाटकों के द्वारपालों का खर्चा बचे। राज्य सरकारों से ऐसे अनुबन्ध के समय रेलवे यह शर्त शामिल भी करता है। क्षेत्र के जनप्रतिनिधि यदि सचेत हों  और जरूरत समझें तो राज्य सरकार पर दबाव बनाकर अनुबंध में ये शामिल कर लेते हैं कि रेलवे लाइनों के ऊपर का निर्माण रेलवे चाहे खुद करवाए लेकिन उसका खर्चा राज्य सरकार से ले लेवे। बीकानेर की एलिवेटेड रोड के मामले में राज्य सरकार जब तीन हजार फीट से ज्यादा का निर्माण खर्च उठाएगी तो सांखला फाटक के ऊपर का तीस फीट मात्र निर्माण का खर्चा न उठाकर रेलवे को उसे हमेशा के लिए बन्द करने की छूट क्यों देगी। रानी बाजार रेलवे ओवरब्रिज के निर्माण के समय इसका श्रेय लेने वाले जनप्रतिनिधि यदि यह सावचेती रखते तो आज रानी बाजार रेलवे फाटक क्षेत्र के लोग जो भुगत रहे हैं, नहीं भुगतते। इस संबंध में रेलवे का यह कहना वाजिब है कि रानी बाजार क्रॉसिंग फाटक को बन्द करने का अनुबंध राज्य सरकार से पूर्व में हो चुका था।
इसी तरह बाइपास के समर्थन में तर्क देने वालों का कहना है कि जो यातायात अभी पचास फीट चौड़ी सड़क में नहीं समाता वह चौबीस फीट की एलिवेटेड रोड पर कैसे समाएगा। ऐसा कहने वाले चतुराई ही कर रहे हैं। क्या उन्हें मालूम नहीं है कि वर्तमान में महात्मा गांधी रोड पर जो जाम लगता है, उसका बड़ा कारण है रेलवे फाटकों के खुलते ही आमने-सामने के यातायात का एक-दूसरे में उलझना और वह यदि निकलना भी चाहें तो सड़क के दोनों ओर की पार्किंग उन्हें निकलने नहीं देती। इस यातायात में अधिकांश हिस्सा वह होता है जो केवल इस मार्ग से गुजरता भर है। मात्र गुजरने वाला यातायात जब बिना फाटकों की बाधा के गतिमान रहकर एलिवेटेड रोड से गुजरेगा तो उसके ऊपर जाम कैसे लगेगा, चौबीस फीट चौड़ी सड़क पर तीन गाडिय़ां बराबर आराम से निकल सकती हैं। नीचे जाम इसलिए नहीं लगेगा कि एलिवेटेड रोड बनने के बाद वहां अधिकांश उन्हीं लोगों का आवागमन होगा जिन्हें महात्मा गांधी रोड और स्टेशन रोड पर खरीदारी करनी होगी। यह भी कि पार्किंग के लिए सड़क के बीच अतिरिक्त सुविधा मिलेगी, वह अलग।
एक बात और भी कहनी है कि जहां-जहां यह एलिवेटेड रोड उतरेगी-चढ़ेगी वहां-वहां जाम की स्थिति नहीं रहेगी। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि चौतीना कुआं के पास से जहां यह रोड शुरू होगी वहां सड़क डेढ़ सौ फीट के लगभग चौड़ी है और जहां स्टेशन रोड व राजीव मार्ग पर दो भागों में उतरेगी वहां सड़क लगभग सौ-सौ फीट चौड़ी है। ऐसे में एलिवेटेड रोड का विरोध करने वाले इस शहर के साथ क्या कर रहे हैं, समझ से परे है। 1992 से बाइपास के लिए आन्दोलन चल रहा है जिसे चौबीस वर्ष हो गए। इसी चक्कर में 2006-07 में बनने वाली एलिवेटेड रोड को बजट आने के बावजूद रोक दिया गया अन्यथा शहर के इस क्षेत्र में अभी सुकून के साथ आवागमन होता।
रही रेलवे लाइन के दोहरीकरण की बात तो इसके विकल्प के रूप में यह क्यों नहीं कहा जा सकता कि भविष्य में दूसरी लाइन शहर से बाहर होकर निकाली जाए। वैसे भी बीकानेर-लालगढ़ स्टेशनों के बीच केवल सवारी गाडिय़ों को गुजारने में सिंगल लाइन पर्याप्त रहेगी और इस रेल मार्ग पर विद्युतीकरण की स्थिति में भी कोई तकनीकी बाधा नहीं है।
स्टेशन वर्तमान स्थान पर ही रखते हैं तो कोटगेट और सांखला फाटक पूर्ववत् इसलिए रहेंगे कि तकनीकी कारणों से रेलवे स्टेशन से रेलपटरी के आखिरी क्रॉसिंग से 120 मीटर तक रेल लाइन शंटिंग के लिए जरूरी होती है। इससे ये तर्क खारिज होता है कि बाइपास बनने पर कोटगेट और सांखला रेल फाटक हट जाएगें क्योंकि ये 120 मीटर कोटगेट फाटक के बाद पूरा होता है।
आज इस पर चर्चा फिर इसलिए जरूरी लगी कि जो जनप्रतिनिधि और राजनेता कोटगेट यातायात की समस्या के समाधान के लिए एलिवेटेड रोड को व्यावहारिक समाधान मानकर इसके लिए प्रयासरत हैं, उन्हें इन भ्रमों को दूर करने के लिए सक्रिय होना चाहिए। सावचेती इसलिए भी जरूरी है कि रेलवे से तत्संबंधी एमओयू हो तो यह प्रस्ताव रखा जाए कि सांखला फाटक के ऊपर की एलिवेटेड रोड के हिस्से का निर्माण का खर्च राज्य सरकार ही वहन करे ताकि रेलवे फिर सांखला फाटक को वर्तमान की तरह ही सुचारु रख सके।

3 मार्च, 2016