Wednesday, November 15, 2023

1951-52 के पहले आम चुनाव के हवाले से बीकानेर जिले की शुरुआती राजनीति की बात

 भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ। डॉ. अम्बेडकर की अध्यक्षता में संविधान सभा की मसौदा कमेटी ने संविधान तैयार किया, जिसे 26 नवम्बर 1949 को देश ने अपनाया। मार्च 1950 में सुकुमार सेन पहले मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किये गये। अप्रेल 1950 में भारत की अंतरिम संसद ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम पारित किया जिसके द्वारा चुनाव आयोग को संसद और राज्यों के विधान मंडलों के चुनाव संचालित करने का अधिकार दिया गया।

26 जनवरी 1950 को भारत सरकार के अधिनियम 1935 के स्थान पर भारत के संविधान को लागू कर दिया गया। इस तरह भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक संघीय गणराज्य के तौर पर अस्तित्व में आया। जिसके तहत भारत के पहले आम चुनाव की प्रक्रिया शुरु की गयी जो 25 अक्टूबर 1951 को शुरू होकर 21 फरवरी 1952 को संपन्न हुई।

अंग्रेजों की लगभग 200 वर्षों की गुलामी में सब तरह से छिन्न-भिन्न हुए देश के आधारभूत विकास की प्रक्रिया के साथ-साथ लोकतांत्रिक विकास को अपनाना कम उल्लेखनीय नहीं है।

पहला चुनाव—इतना बड़ा देश। सीमित साधनों और व्यवस्थाओं में कुशलता से चुनाव संपन्न हुए। उम्मीदवारों को चुनाव चिह्न तो आवंटित हुए लेकिन वे बैलेट पर न होकर उम्मीदवार वार लगी पेटियों पर चस्पा किये गये। मतदाताओं को दी गई पर्ची अपनी पसंद के उम्मीदवार के चुनाव चिह्न लगी मतपेटी में डालना था। 1951-52 तथा 1957 के चुनाव में मतदाता की अंगुली पर आज की तरह काला निशान नहीं लगाया जाता था। जब ये सामने आया कि कुछ लोग दूसरे का वोट डालने फिर आ जाते हैं तो इसका तोड़ ढूंढा गया और 1962 के चुनाव से काला निशान लगाया जाने लगा। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ हुवे, लेकिन मतदान प्रत्येक क्षेत्र में एक ही तय दिन में होने थे सो लोकसभा और विधानसभा की मतदान की पेटियां प्रत्येक मतदान केन्द्र पर अलग-अलग कमरों में रखी गयी थीं।

अभी जो एक देश एक चुनाव का राग शुरू किया गया है, उसके प्रभाव में आने वालों की जानकारी के लिए बता दें कि 1951-52, 1957, 1962 और 1967 तक के लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ ही हुए थे। इस लोकतांत्रिक अनुष्ठान की संक्षिप्त जानकारी के बाद बात बीकानेर-चूरू लोकसभा क्षेत्र और बीकानेर के विधानसभा चुनावों की पड़ताल कर लेते हैं।

अनुसूचित जाति के लिए सीटें आज की तरह सुरक्षित नहीं थीं। अनुसूचित जाति के लिए तय क्षेत्रों में दो उम्मीदवार खड़े हुए। एक अनुसूचित जाति का उम्मीदवार और दूसरा शेष सभी जाति-धर्म वालों का उम्मीदवार। प्रत्येक मतदाता को दो वोट देने थे। एक वोट आरक्षित श्रेणी के अपने पसंद के उम्मीदवार को और दूसरा गैर आरक्षित के उम्मीदवार को। 1951-52 के चुनाव में अजमेर अलग राज्य था। राजस्थान की कुल 18+2 (सुरक्षित) कुल 20 लोकसभा सीटें थीं। गंगानगर-झुंझुनंू के अलावा भरतपुर-सवाईमाधोपुर से भी एक अनुसूचित जाति वर्ग से उम्मीदवार होता था और डूंगरपुर-बांसवाड़ा से अनुसूचित जनजाति का उम्मीदवार, डूंगरपुर-बांसवाड़ा की सीट पूर्णतया अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित थी। तब झुंझुनूं-गंगानगर की एक लोकसभा सीट (सुरक्षित) थी तो बीकानेर-चूरू को मिलाकर गैर सुरक्षित।

बीकानेर-चूरू लोकसभा क्षेत्र से चार उम्मीदवार मैदान में थे। बीकानेर राजघराने के मुखिया डॉ. करणीसिंह (निर्दलीय), कांग्रेस से खुशालचन्द डागा, सोशलिस्ट पार्टी से मुरलीधर व्यास और किसान जनता संयुक्त मोर्चे से रघुबरदयाल गोईल। रघुबरदयाल गोईल वही हैं जिन्होंने आजादी के आंदोलन में लम्बे समय तक रियासती यातनाएं झेलीं, देश निकाला झेला और जो राजस्थान की पहली अन्तरिम सरकार में मंत्री रहे, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया। उम्मीदवार बनाया स्थानीय सेठ खुशालचन्द डागा को—मतलब पैराशूट से उम्मीदवार उतारने का सिलसिला नया नहीं है।

चुनाव में 47.19त्न मतदान हुआ। यह आश्चर्यजनक है कि एक भी वोट खारिज नहीं बताया गया। मतदाताओं में गुलाम मानसिकता वाले प्रजा भाव और राजाओं के प्रति राज जाने की सहानुभूति के चलते डॉ. करणीसिंह ने यह पहला चुनाव भारी मतों से जीता, मतलब मतदाता संवैधानिक नागरिक होने के भान से तब पूरी तरह मुक्त थे—आज भी लगभग वैसा ही है।

जैसा कि बताया कि 1951-52 सहित प्रथम चार आम चुनाव लोकसभा-विधानसभाओं के साथ-साथ हुवे थे। तो बात अब बीकानेर के विधानसभा चुनावों की करते हैं। जिले की तीन विधानसभा सीटों पर बीकानेर शहर से कुल दस उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। जिनमें निर्दलीय होते हुए भी जीत कर महत्त्वपूर्ण हो गये मोतीचन्द खजांची, रामराज्य परिषद के पं. दीनानाथ भारद्वाज, कांग्रेस के अहमद बख्स सिंधी, सोशलिस्ट पार्टी से मुरलीधर व्यास, जनसंघ से ईश्वरदत्त भार्गव और शहर के नामी हेल्थ प्रेक्टीशनर और बीकानेर नगर परिषद के प्रथम निर्वाचित सभापति डॉ. धनपत राय। इनमें पं. दीनानाथ और डॉ. धनपतराय सगे भाई थे।

लोकसभा चुनाव के विजयी प्रत्याशी और रियासती उत्तराधिकारी करणीसिंह का चुनाव चिह्न तीर कमान था। बैलेट पर मुहर नहीं लगती थी। लोकसभा और विधानसभा की अलग-अलग कमरों में रखी चुनाव चिह्न लगी मतपेटियों में मतदाता को मतदान अधिकारी से मिली पर्ची को डालना था। संयोग कहें कि चुनाव चिह्न चयन की चतुराई, सेठ मोतीचन्द खजांची का चुनाव चिह्न भी तीर कमान था। हुआ यह कि राजा के प्रति भक्ति और सहानुभूति में अधिकतर मतदाताओं ने विधानसभा चुनाव की मतपर्चियां भी तीर कमान चुनाव चिह्न वाली मतपेटियों में डाली और बाहर आकर कहते सुने गये कि मैं राजाजी को दो वोट डाल के आया हूं, यह बात बुजुर्गों से लम्बे समय से सुनते आ रहे हैं। इस तरह पहले विधानसभा चुनाव में कुल पड़े 12708 वोटों में सर्वाधिक 5095 वोट लेकर खजांची चुनाव जीत गये।

4546 वोट लेकर दूसरे नम्बर पर रहे उगते सूरज चुनाव चिह्न के साथ राम राज्य परिषद के पं. दीनानाथ का किस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है। शहर में बेहद लोकप्रिय चिकित्सक और पं. दीनानाथ के बड़े भाई डॉ. धनपत राय नामांकन दाखिल कर चुनाव अभियान में लगे थे। तभी करपात्री महाराज बीकानेर आए और पं. दीनानाथ के रानी बाजार स्थित घर पहुंच कर आग्रह किया कि आपको रामराज्य परिषद के उम्मीदवार के तौर पर बीकानेर शहर से चुनाव में खड़े होना है। पं. दीनानाथ करपात्री महाराज का आग्रह टाल नहीं पाए। आखिरी दिन नामांकन भर मैदान में उतर गये। अग्रज डॉ. धनपत राय ने असमंजस से निकल नामांकन वापिस लेने का तय किया तब तक नाम वापसी का समय निकल चुका था। अत: उन्हें यह प्रचारित ही करना पड़ा कि मैं छोटे भाई पं. दीनानाथ के पक्ष में चुनाव मैदान से हट रहा हूं। बावजूद इसके डॉ. धनपत राय को 529 वोट मिले। हार-जीत का अंतर भी लगभग इतना ही था। डॉ. धनपत राय के पिता मूलत: पंडोरी पंजाब से थे, जिन्होंने सादुल स्कूल में ऊर्दू अध्यापक के तौर पर सेवाएं दी। डॉ. धनपरात राय व पं. दीनानाथ के संबंध में जानकारी उनके परिजनों हरिनाथ, लाजपतराय और भारद्वाज डेयरी वाले श्यामनाथ से मिली।

कांग्रेस ने लोकसभा के अपने उम्मीदवार की तरह विधानसभा के लिए बीकानेर शहर से उम्मीदवार पैराशूट से उतारा। उम्मीदवार थे बीकानेर मूल के अहमद बख्स सिन्धी—जोधपुर में वकालात कर रहे थे। सिन्धी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के गोल्ड मेडलिस्ट थे और रियासती असेम्बली के माध्यम से केबीनेट मिनिस्टर रह चुके थे। सिन्धी 4533 वोट लेकर तीसरे स्थान पर रहे। सिन्धी ने 1957 का चुनाव भी यहीं से लड़ा और दूसरे नंबर पर रहे। लेकिन 1980 के चुनाव में कांग्रेस ने इन्हें जोधपुर शहर से उम्मीदवार बनाया—जीते और पहले विधानसभा उपाध्यक्ष और बाद में राजस्थान के विधि मंत्री रहे।

आजादी बाद 1948 में नवगठित सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक तथा राजस्थान राज्य की पार्टी इकाई का पहला अधिवेशन बीकानेर में हुआ। इस तरह सोशलिस्टों ने शहर में आधार भूमि बनाई जिसके प्रभाव में जैसलमेर मूल के, वर्धा में पले-पढ़े और स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले चुके मुरलीधर व्यास ने अपना कार्यक्षेत्र अपने ससुराल बीकानेर में बनाया। 1951-52 के पहले चुनाव में व्यास सोशलिस्ट पार्टी से उम्मीदवार हुए और 2318 वोट लेकर चौथे नम्बर पर रहे। लेकिन अपनी कर्मभूमि बना चुके व्यास आमजन के मुद्दों पर जुझारू रहे, जिसकी वजह से 1957 और 1962 के चुनाव वे यहीं से जीते और विधानसभा में हमेशा मुखर रहे।

एक और उम्मीदवार-जनसंघ के प्रत्याशी रिवाड़ी मूल के ईश्वरदत्त भार्गव का उल्लेख जरूरी है। 1951 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा के लोगों द्वारा स्थापित इस पार्टी की राजस्थान इकाई का गठन भी थोड़े दिनों बाद हो गया, जिसकी स्थापना बैठक में बीकानेर का प्रतिनिधित्व चांदरतन आचार्य उर्फ शेरे चांद ने किया था। 1951-52 के चुनाव में ईश्वरदत्त उम्मीदवार थे, चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उनका उल्लेख इतना ही है। बीकानेर के 75 पार के किसी भी आरएसएस पदाधिकारी से ईश्वरदत्त के  बारे में जानकारी नहीं मिली। सबसे बुजुर्ग स्वयंसेवक 96 वर्षीय गेवरचन्द जोशी का पता चला। अशक्त और अव्यवस्थित स्मृति के चलते उनसे दो बार में कुछ हासिल नहीं हुआ। तीसरी बार गौरीशंकर आचार्य के माध्यम से सम्पर्क हुआ तो उन्होंने ही बताया कि ईश्वरदत्त भार्गव थे जिनका के.ई.एम. रोड पर फलैक्स शूज का शो-रूम था एवं रोशनी घर के पास रहते थे। भार्गव समाज के अविनाश भार्गव से जानकारी कर ईश्वरदत्तजी की पौत्री रुचिरा भार्गव के माध्यम से पूरी जानकारी मिली।

बीकानेर शहर के अलावा जिले की तब दो विधानसभा सीटें और थीं। लूनकरणसर इलाके की 'बीकानेर तहसीलÓ नाम से तथा कोलायत सहित 'नोखा-मगरा' नाम से। नोखा-मगरा से इस चुनाव में निर्दलीय कानसिंह 7138 वोट लेकर जीते—कानसिंह के पुत्र रामसिंह रोडा बाद में बीकानेर देहात भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे। दूसरे नम्बर पर रहे कांग्रेस के रामरतन कोचर जिन्हें 5752 मत मिले। रामरतन कोचर ही थे जिन्होंने बीकानेर के सोशलिस्ट प्रभावी काल में कांग्रेस को बनाए रखा। कांग्रेस नेता वल्लभ कोचर उन्हीं के पुत्र हैं और सुमित कोचर पौत्र। इनके अलावा मनीराम ने 4271 वोट और भैरूंदास ने 4089 वोटों के साथ प्रभावी उपस्थिति दर्ज की, जिनके बारे में जानकारी नहीं मिल सकी। जैसाकि बताया कि बीकानेर जिले की तीसरी विधानसभा सीट बीकानेर तहसील नाम से थी। जो बाद में मोटामोट लूनकरणसर से पहचानी जाती है। 1951-52 में यहां से पांच उम्मीदवार थे। जीते जसवंतसिंह दाउदसर जो राज्यसभा के गठन के साथ ही राजस्थान विधानसभा से राज्यसभा सदस्य के तौर पर चुन कर चले गये। जिसकी वजह से जिले में 1956 में पहला उप चुनाव हुआ। रियासत में प्रभावशाली ठाकर जसवंतसिंह 10512 जैसे अच्छे-खासे वोट लेकर जीते, दूसरे नम्बर रहे कांग्रेस के कुंभाराम आर्य जिन्होंने 5996 वोट लिए। कुंभाराम आर्य बाद में राजस्थान के प्रभावी जाट नेताओं में शुमार हुए। इन दोनों के अलावा गोपाल चन्द (2327 वोट), गोपाल लाल (1610 वोट) और फारवर्ड ब्लाक माक्र्सिस्ट गु्रप के मेघाराम (1331 वोट)। इससे जाहिर है कि वापमंथी भी इस इलाके में पहले चुनाव से सक्रिय हैं।

इस प्रथम चुनाव में लोकसभा और जिले की तीनों सीटों पर कांग्रेसी उम्मीदवारों का न जीतना यह बताता है कि राष्ट्रीय आन्दोलन में जिले की महती भूमिका के बावजूद आजादी बाद कांग्रेस प्रभावी नहीं थी। दूसरी बात यह भी थी कि आज जिन नोखा और लूनकरणसर को जाट प्रभावी माना जाता है, तब दोनों क्षेत्रों से ठाकर जागीरदार जीते। मतलब देश आजाद होने के बावजूद तब तक जागीरदारों के प्रति सहानुभूति कायम थी, जो आज भी कमोबेश है।

—दीपचन्द सांखला

16 नवम्बर, 2023

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