Wednesday, October 19, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-24

 1946 आते-आते अंग्रेजों ने सत्ता भारतीयों को सौंपने का मन बना लिया। इस सत्ता हस्तांतरण का एजेन्डा क्या होगा, इस पर काम होने लगा। जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग जहां मुसलमानों के लिए अलग देश का राग अलाप रही थी, वहीं तब तक आजादी में रुचि नहीं लेने वाली हिन्दू महासभा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बंटवारे की चिंगारी को हवा हिन्दू राष्ट्र की उम्मीद में दे रहे थे। देशी रियासतों की सम्प्रभुता ब्रिटिश क्राउन में निहित थी, इनके बारे में अंग्रेज स्पष्ट कर चुके थे कि सत्ता का जैसे ही हस्तांतरण होगा, प्रभुसत्ता स्वत: ही समाप्त हो जायेगी। अंग्रेजी चाल खेल कर यह छूट दी कि मुस्लिम लीग और देशी रियासतों के शासकों के संगठन नरेन्द्र मण्डल चाहे तो संविधान निर्मात्री समिति में शामिल हो, चाहे तो हो।

कुछ रियासतें स्वतंत्र भारत संघ में विलय से सहमत थीं, तो कुछ नहीं। इस पर नेहरू को चेतावनी देनी पड़ी कि 'जो राजा-लोग विधान निर्मात्री समिति में शामिल होकर देश को विघटन की ओर धकेलने की नीयत रखते है, उसे देशद्रोहीता पूर्ण कार्य माना जायेगा।'

इसके बाद बने माहौल में जो राजा संविधान निर्मात्री परिषद् में शामिल नहीं होने की नरेन्द्र मण्डल की घोषणा से असहमति प्रकट कर चुके, उन शुरुआती राजाओं में बड़ौदा-कोचीन के राजाओं के साथ बीकानेर के सादुलसिंह भी थे। इस घोषणा से देश भर में सादुलसिंह की वाहवाही हुई। रियासतों के विलीनीकरण को लेकर यह धारणा बनी कि मुगलों और अंग्रेजों के समय की तरह विदेश, रक्षा और संचार को छोड़कर शेष सभी मामलों में रियासतें स्वतंत्र होंगी। इसी वहम में सादुलसिंह ने अपनी रियासत के उन लोगों को सबक सिखाने की ठान ली जो पूर्ण स्वतंत्रता के साथ भारतीय संघ में शामिल होने की बात करते थे। इसी वहम के चलते राजा के व्यवहार का दोगलापन सामने आने लगा। अपनी पैठ बनाये रखने के लिए साम्प्रदायिक दंगा करवाने में भी संकोच करने वाला शासन जातीय वैमनस्य पैदा करने से कब चूकने वाला था। जाति आधार पर प्रजा परिषद् में गुट बनवा दिये। सादुलसिंह की शह में जाटों के एक समूह ने अपना अलग गुट बना कर स्वामी कर्मानन्द को अध्यक्ष बना रघुवरदयाल गोईल को अलग-थलग कर दिया। इतना ही नहीं, कार्यालय मंत्री सत्यप्रकाश गुप्ता को पद से इसलिए हटा दिया ताकि उनकी कारस्तानियों की जानकारी लीक हो। 

नयी बनी कार्यकारिणी में रामचन्द्र जैन उपाध्यक्ष, प्रो. केदार महामंत्री बनाये गये और गौरीशंकर आचार्य कोषाध्यक्ष। इन सब का स्वामी कर्मानन्द और कुम्भाराम के गुट में शामिल होना आश्चर्यजनक था। 

गोईल को कार्यकारिणी में नहीं रखा। ऐसी सूचनाओं से प्रान्तीय नेताओं में खलबली मचना लाजमी था। प्रान्तीय नेता बीकानेर आये और नयी बनी कार्यकारिणी में गोईल को लेने के लिए तैयार करना चाहा। लेकिन गोईल ने यह कह कर कार्यकारिणी में आने से इनकार कर दिया कि सत्ता के इन भूखे-भेडिय़ों के साथ मुझे  काम नहीं करना।

इसी बीच वह दिन—15 अगस्त, 1947 गया जिसका इन्तजार सभी को था। गोईल के साथियों ने ईदगाह बारी के बाहर स्थित खुले मैदान में झंडा फहराना तय किया। इसकी सूचना सादुलसिंह तक पहुंची जिसे वे पचा नहीं पाये। 14 की रात 11 बजे नाजिम ने नोटिस तामील करवा कर गोईल को पाबन्द किया कि तिरंगे के साथ रियासत का झंडा भी फहराना होगा। गोईल के घर नाजिम आए तब दाऊदयाल आचार्य वहीं थे। नाजिम के लिखित आदेश को नजरअंदाज कर सुबह बीकानेर के हजारों बाशिंदों के बीच केवल तिरंगा फहराया गया। यहां यह स्मरण करवाना उचित है कि नाजिम के उक्त आदेश पर डॉ. छगन मोहता ने तभी एक व्यंग्य लिखा जो जे. बगरहट्टा के सम्पादन में प्रकाशित होने वाले 'गणराज्य' में छपा। तेलीवाड़ा चौक में रहने वाले डॉ. छगन मोहता ने चुटकी लेते हुए लिखा कि तिरंगे के साथ तेलीवाड़े का झंडा फहराने का हक क्यों नहीं है।

तिरंगे के साथ रियासत का झंडा फहराने से चिढ़ कर रियासती शासन ने क्रूरता का नया दौर शुरू कर दिया। प्रजा परिषद् के दूसरे गुट के कार्यकर्ताओं को धमकाया और गिरफ्तार किया जाने लगा। वहीं प्रजा परिषद् के मुखिया बने स्वामी कर्मानन्द साम्प्रदायिकता को हवा देने लगे।

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि जेल में बंद प्रजा परिषद् के सभी नेताओं को 15 अगस्त 1947 से पूर्व छोड़ दिया गया, लेकिन हीरालाल शर्मा को नहीं छोड़ा गया, उन्हें यातनाएं देना जारी रखा।  इतना ही नहीं गंगादास उर्फ दासी महाराज और कथित पत्रकार तारानाथ रावल जैसों को झूठा गवाह बना कर हीरालाल शर्मा पर मुकदमा चलाया गया और तीन वर्ष की सख्त कैद की सजा भी सुना दी गयी। लेकिन बदली परिस्थितियों में अंतपंत जनवरी 1948 को हीरालाल शर्मा को भी रिहा ना कर पड़ा।

महाराजा सादुलसिंह ने 7 अगस्त 1947 को इन्स्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन यानी विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये, लेकिन खुदमुख्तारी के लालच से मुक्त नहीं हुए। विलय पत्र के अनुसार विदेश, रक्षा और संचार के मामले उनके अधीन नहीं थे, फिर भी पाकिस्तान की बहावलपुर रियासत के प्रधानमंत्री के साथ गुप्त तौर पर व्यापारिक समझौते कर लिये। इसकी जानकारी पत्रकारिता करने वाले सेनानी दाऊदयाल आचार्य को मिल गयी। कालापानी भोग चुके आचार्य ने कैसे भी अंजाम की परवाह करते हुए इसकी खबर बना कर आधी रात को तारघर पहुंचे और हिन्दुस्तान टाइम्स को तार द्वारा भेज दी, जिसे हिन्दुस्तान टाइम्स ने रिवर्स ब्लैक बॉक्स में हाथोंहाथ प्रकाशित कर दिया। विलय-पत्र हस्ताक्षर करने के बावजूद सादुलसिंह की ऐसी कारस्तानियों ने केन्द्रीय नेताओं को चौकन्ना कर दिया। विलय-पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले शुरुआती राजाओं में दर्ज होने से जो कीर्ति सादुलसिंह की फैली थी, वह इस प्रकरण से घुल  गयी। ऐसी घटनाओं के मद्देनजर सरदार पटेल को मजबूर होना पड़ा कि पूर्व विलय-पत्र को खारिज कर, रियासतों के पूर्ण विलय के पत्र पर हस्ताक्षर करवाया जाएं। क्रमशः

दीपचंद सांखला

20 अक्टूबर, 2022

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