Thursday, July 28, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-12

 गोईल अब पणिकर को चिट्ठियां लिख कर पूछते रहे कि महाराजा ने फरवरी, 1943 . में संवैधानिक सुधारों का जो आश्वासन दिया था उस पर क्या हो रहा है, बताएं। प्रधानमंत्री टरकाऊ जवाब देते। असमंजस के इसी माहौल में स्वतंत्रता सेनानी जनसेवा के गैर राजनीतिक कामों में सक्रिय रहे

इसी के चलते राजलदेसर के पूनमचन्द बैद, सरदारशहर के गौरीशंकर आचार्य, रतनगढ़ के खद्दरधारी मोहनलाल सारस्वत अर्जीनवीस, गंगानगर के रामरतन (म्यूनिसिपल कमिश्नर), नोहर के मालचन्द हिसारिया से सम्पर्क साधा। बीकानेर में रावतमल पारीक, दाऊदयाल आचार्य, मोहनलाल आचार्य सक्रिय हुए। 

इन गतिविधियों की खबरें दिल्ली के 'विश्वामित्र' 'वीर अर्जुन' में और जोधपुर के 'प्रजावाणी' में बराबर छपतीं। जिन्हें पढ़कर गृहमंत्री प्रतापसिंह बौखला जाते। प्रतापसिंह महाराजा को फीडबैक बढ़ा-चढ़ा कर देते और आजादी के इन सेनानियों के खिलाफ ज्यादा छूट ले लेते। इस तरह महाराजा का रुख लगातार नकारात्मक होता गया।

म्यूनिसिपेलिटी में पहले गैर सरकारी अध्यक्ष सेठ बद्रीदास डागा ने भी इस्तीफा दे दिया। बद्रीदास डागा ने 'बा-फंड' में बड़ी राशि दी थी। डागा द्वारा खेलकूद आदि के लिए संचालित 'डागा क्लब' के संचालकों को परेशान किया जाने लगा। इसी दौरान क्लब में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले 'जलसे' पर बंदिशें लगाई तो आयोजकों ने कार्यक्रम ही रद्द कर दिया। इतना ही नहीं, माहेश्वरी समाज द्वारा स्थापित 'विधवा विवाह सहायक सभा' और पुस्तकालय जैसे सामाजिक-रचनात्मक कामों में भी गृहमंत्री प्रतापसिंह परेशानियां पैदा करने लगे।

गोईल को जानकारी मिली कि गृहमंत्री इस फिराक में हैं कि किसी--किसी बहाने से प्रजा परिषद् के सदस्यों को पुन: अन्दर किया जा सके। इसलिए गोईल ने तय किया कि गृहमंत्री से मिलकर महाराजा द्वारा दी गई रचनात्मक कामों की छूट से अवगत करवा दें ताकि किसी गलतफहमी में गिरफ्तारी हो जाए। गृहमंत्री ने एक सप्ताह तक मुलाकात का समय नहीं दिया तो प्रधानमंत्री पणिकर से समय मांगा गया। पणिकर ने 10 अगस्त 1944 . का समय दिया। जानकारी मिलने पर गृहमंत्री ने बुरा माना। इस तरह इन सेनानियों के प्रति प्रतापसिंह में द्वेष लगातार बढ़ता गया। इसी बीच 9 अगस्त को डीआईजी ने ही झूठे आरोपों का नोटिस देकर गोईल की समस्त क्रियाओं पर एक सप्ताह की रोक लगा दी। बावजूद इसके गोईल प्रधानमंत्री के घर मिलने पहुंच गये। पाणिकर ने भी इस बार बदले रुख से बात की। इसके बाद गृहमंत्री ने 13 अगस्त को रात 10 बजे घर पर मिलने का समय दिया। तीन घंटे की इस मुलाकात के बाद शासन ने वह गोटियां बिछानी शुरू कर दी जिसके तहत रघुवर दयाल गोईल, गंगादास कौशिक और दाऊदयाल आचार्य को शहर से निष्कासन कर रियासत में ही कहीं नजरबन्द किया जा सके। ऐसी भनक लगने पर गोईल ने प्रधानमंत्री से मुलाकात का समय फिर मांगा। 19 अगस्त 1944 . का समय मिला। मुलाकात में शासन के बीच हुए पत्राचार पर बात हुई। गोईल ने कहा, हम तो वही कर रहे हैं जिसकी छूट खुद महाराजा ने हमें दी। प्रधानमंत्री ने कहा, ऐसा लिखित में है क्या। इस जवाब के बाद गोईल ने तय किया कि सीधे महाराजा से ही समय लेकर बात की जाए? गोईल ऐसा इसलिए भी चाहते थे कि आर-पार का निर्णय हो जाए, और यह भी धार लिया कि जैसी भी स्थिति हो हमें 2 अक्टूबर से पूरी तरह सक्रिय हो लेना चाहिए।

26 अगस्त, 1944 . को प्रात: 10 बजे महाराजा ने मुलाकात का समय दिया। गोईल को लगा 23 फरवरी, 1943 . की मुलाकात की तरह ही यह भी अकेले में होगी। तय समय पर गोईल को लेने राज की गाड़ी गई, जिसमें सवार होकर वे लालगढ़ पहुंच गये, हालांकि गोईल ने जाने के लिए आचार्य से तांगा मंगवा रखा था।

लालगढ़ पहुंचे तो माहौल अलग थामुलाकात अकेले की बजाय दरबार लगा था। महाराजा ने पूछा, मुलाकातें क्यों चाहीगोईल अकेले में हुई पिछली मुलाकात की बातों को दोहराने लगे। महाराजा सादुलसिंह झूठ बोलते हुए अपनी बातों से सरासर मुकर गये। इतना होते ही गोईल को सब समझ में गया। गोईल ने चतुराई बरतते हुए कहा कि मैंने बिना लाग-लपेट के वही बातें बताईं जो अपने बीच हुई हैं। महाराजा ने कड़ककर पूछा कि—'क्या मैं झूठ बोल रहा हूं' गोईल 'हां' कहने का मतलब तब के कानूनों के अनुसार समझते थे। इसलिए राजा को सीधे झूठा बताकर विनम्रता से अपनी वही बात दोहराते रहे। ऐसा तीन बार हुआ। गोईल ने इतना ही कहा कि 'मैंने जो कुछ कहा है वह सच-सच कहा है।' गोईल को पता था राजा के यह कहने पर कि 'क्या मैं झूठ बोल रहा हूं' पर हां करना तत्कालीन धारा 121-डी में फंसना है। मनचाहा उत्तर पाकर महाराजा खीज गये और जाने का कह दिया।

गोईल लालगढ़ से पैदल ही रवाना हो लिए। थोड़ी दूर निकले ही थे कि डीएसपी ने पीछे से आवाज देकर रोका और गिरफ्तार कर लिया। तानाशाही के सामने वकालती चतुराई भी कहां काम आती है। यह गिरफ्तारी रियासती कानूनों के तहत नहीं 'भारत रक्षा नियम 26 (1) डी' के तहत की गयी। गोईल को लूनकरणसर कस्बे में ही रहने को पाबन्द किया गया। गोईल को अपनी गिरफ्तारी से ज्यादा राजा के झूठ की पीड़ा थी।    क्रमश: ...

दीपचंद सांखला

28 जुलाई, 2022

Thursday, July 21, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-11

 राजा के मुख से 'वेट एण्ड सी' का आश्वासन सुनकर तीनों सेनानी इंतजार तो करते रहे, लेकिन ऊहापोह और बेचैनी बराबर बनी रही। मन में जब-तब ग्लानिभाव भी आता कि जेलमंत्री जसवंतसिंह की बातों में आकर देश के साथ कुछ गलत तो नहीं कर दिया।

दूसरी तरफ महाराजा सादुलसिंह जबान, समझ और कानतीनों के कच्चे निकले। निजी डिस्पेच क्लर्क प्रतापसिंह स्वतंत्रता सेनानियों की सामान्य दिनचर्या को बढ़ा-चढ़ा कर पहुंचा अति वफादारी साबित करते-करते पहले महाराजा के निजी सचिव और फिर रियासत के गृहमंत्री बन गये। प्रजा परिषद् से जुड़े या उनके संपर्क के प्रत्येक की मिनट-मिनट की सूचना प्रतापसिंह तक जाती और वे उन्हें राजा के सामने इस तरह पेश करते ताकि इन सब को कुचल देने की छूट मिल जाए। प्रतापसिंह ने धीरे-धीरे स्थितियां ऐसी बना दी कि आजादी के सेनानियों के मामलों से रियासत के प्रधानमंत्री को अलग-थलग करवा दिया।

कस्तूरबा के निधन के बाद कांग्रेस ने 75 लाख का 'बा-फंड' बनाने की घोषणा की। गोईल के घर पर आयोजित शोकसभा में 'बा-फंड' में बीकानेर के योगदान का संकल्प लिया गया। गोईल-कौशिक-आचार्य के छूटने के बाद 'वेट एण्ड सी' के चलते यह पहला एकट्ठ था। तय हुआ कि 'बा-फंड' की घोषणा सार्वजनिक करने के लिए रतनबिहारी पार्क में सार्वजनिक सभा रखी जाए। बीकानेर रियासत के इतिहास में होने वाली इस पहली सार्वजनिक सभा की रूपरेखा बनी। चूंकि हर तरह के सार्वजनिक कार्यक्रमों की इजाजत पूर्व में लेनी होती थी, लेकिन गृहमंत्री ठाकुर प्रतापसिंह का जैसा रवैया था उसमें इजाजत तो दूर की बात, अन्य परेशानियां भी खड़ी हो जानी थी। रियासत के प्रधानमंत्री एच के कृपलानी उदार और प्रगतिशील थे, ऐसे में तीनों द्वारा तय कार्यक्रम अनुसार लिखित आवेदन के साथ गोईल सीधे लालगढ़ स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय पहुंच गये। उन्हें कार्यक्रम संबंधी मंशा विस्तार से बताई तो प्रधानमंत्री इतने प्रसन्न हुए कि फंड के लिए खुद ने 501 रुपये दिये ही, लाउडस्पीकर का खर्च अपनी ओर से देने का आश्वासन भी दिया।

आवेदन पर इजाजत लिखने के बाद कह दिया कि इसे लेकर गृहमंत्री के पास चले जाएं ताकि वे जाब्ते की व्यवस्था कर दें। गृहमंत्री प्रतापसिंह के रवैये से गोईल वाकिफ थे, फिर भी जाना तो था ही। प्रतापसिंह खादी के कपड़ों से ऐसे चिढ़ते थे, जैसे लाल कपड़े से सांड। 'क्या है? क्यों आए हो? ' सुनकर प्रधानमंत्री की 'यस' दरख्वास्त पेश करते हुए सारी बात बता दी। दरख्वास्त देख कर गृहमंत्री तमतमा गये। लेकिन प्रधानमंत्री के 'यस' के बाद करते क्या। दरख्वास्त रखकर दो-तीन दिन बाद मिलने का कह दिया। 

बात महाराजा तक पहुंचाई गई। लेकिन इजाजत तो दी जा चुकी थी। राजनीति, झंडे, गीत, गायन जैसी पाबंदियों के साथ गृहमंत्री द्वारा यह भी शर्त रखी गई कि ब्रिटिश और रियासती सरकार के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला जायेगा।

इस तरह 25 मई 1944 . को होने वाली सभा की इजाजत 23 मई को एक और हिदायत के साथ मिली कि पेम्फलेट छपवाना है तो पहले उसके मजमून की डीआईजी से मंजूरी लेनी होगी। बार-बार के चक्कर के बाद पेम्फलेट अंग्रेजी में छपवाने की मंजूरी दी, फिर भी आयोजकों ने छपवाए और बांटे भी। प्रतापसिंह ने सभा में आने वालों में भय पैदा करने के लिए भारी पुलिस जाब्ता तो लगाया ही, दहशत पैदा करने के लिए एक बड़ी टेबल पर हथकडिय़ों का ढेर भी लगा दिया, फिर भी सभा सफल रही। 

जैसा कि पहले लिखा जा चुका हैरियासत के इतिहास की यह पहली सार्वजनिक सभा थी। भारी जाब्ते और हथकड़ियों की नुमाइश के बावजूद लोग बेधड़क उमड़े। वकील ईश्वरदयाल के सभापतित्व में हुई सभा के मुख्यवक्ता बाबू रघुवरदयाल थे।

'बा-फंड' के लिए इसी तरह की मीटिंग नोहर में करने के लिए प्रजा परिषद के नेता मालचन्द हिसारिया ने भी बैठक बुलाई तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

नोहर-भादरा से हासिल राशि सहित 'बा-फंड' के लिए लगभग ग्यारह हजार रुपये इकट्ठे हुए जिसमें प्रधानमंत्री के 501 के अलावा सेठ बद्रीप्रसाद डागा की भी बड़ी राशि थी। केवल सभा में आने वाले बल्कि फंड में राशि देने वालों की सूचना गुप्तचरों द्वारा गृहमंत्री तक लगातार पहुंचाई जा रही थी। सेठ बद्रीप्रसाद डागा चपेट में गये और उनकी बहियों को जप्त कर कई दिनों बाद लौटाया गया।

इस तरह की खबरें बराबर बाहर के अखबारों में जातीं और छपतींछपने पर गृहमंत्री को पेश होती। गृहमंत्री का गुस्सा लगातार बढ़ता गया। दूसरी ओर अंग्रेजों द्वारा शासित राज्यों में नागरिक अधिकारों की जैसी छूट दी गई वैसी ही छूट देने के निर्णय रियासतों को भी करने थेगोईल, कौशिक, आचार्य की महाराजा से मांग भी यही थी। इस पर उन्हें आश्वासन यह दिया गया कि संविधान के जानकार एच के कृपलानी को प्रधानमंत्री के तौर पर इसीलिए लाए हैं, क्योंकि वे उत्तरदायी सरकार और संवैधानिक सरकार के विशेषज्ञ हैं। वे नया संविधान भी बनाएंगे और नागरिकों के लिए अनुकूलता भी। लेकिन गृहमंत्री प्रतापसिंह की मैली कारगुजारियों के चलते प्रधानमंत्री के लिए भी यह सब करने की अनुकूलता नहीं बन पायी। हुआ यह कि मात्र छह महीने में ही कृपलानी प्रधानमंत्री पद छोड़कर चले गये। के एम पणिकर को प्रधानमंत्री बनाया गया और उनके सहयोग के लिए मैसूर के सिविल सर्विसेज के उद्योग और विकास विशेषज्ञ टीजी रामा अरूया को डवलपमेंट कमिश्नर लगाया गया, अनुकूलता पाकर टीजी भी चले गये।       क्रमश:

दीपचंद सांखला

21 जुलाई, 2022

Thursday, July 14, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-10

 इस बीच 2 फरवरी 1943 . को महाराजा गंगासिंह का देहान्त मुम्बई में हो गया। जेल में इसकी सूचना उसी दिन कैदियों को मिल गयी। काल कोठरी में बन्द दाऊदयाल आचार्य ने लिखा कि 'इतने नामी नरेश के स्वर्गवास की खबर से जेल के बाहर मातम छाया होगा, पर सच्चाई यह है कि मैंने इसको खुशखबरी माना और शान्त होकर अपनी सीट पर लेट गया।'

बारह दिन के क्रियाकर्म सम्पन्न कर पुत्र सादुलसिंह ने 13 फरवरी, 1943 . को राजकाज संभाला। महाराजा सादुलसिंह इससे पूर्व राजकाज के अनुभव और पिता से असहमतियों के दौर– दोनों से गुजर चुके थे। 1902 . में जन्में सादुलसिंह जब वयस्क हुए तो 8 सितम्बर, 1920 . में गंगासिंह ने बड़ी उम्मीदों से रियासत के प्रधानमंत्री जैसी महती जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी थी। राजकाज के अपने तौर-तरीकों और पिता को नाराज करने वाले फैसले देकर सादुलसिंह अपने पिता से लगातार दूर होते गये। नौबत यह आयी कि पांच वर्ष में ही 'शासन की ट्रेनिंग पर्याप्त रूप से सम्पन्न हो चुकी है', आदेश में लिख कर उन्होंने सादुलसिंह को प्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया।

प्रधानमंत्री पद छीने जाने से लेकर पिता की मृत्यु के बाद 13 फरवरी, 1943 . को पूर्णतया शासन संभालने तक के 17-18 वर्ष में पिता-पुत्र में संवाद तो दूर की बात, एक शहर में कभी साथ रहे तक नहीं। कभी पहला बम्बई तो दूसरा बीकानेर, पहला बीकानेर तो दूसरा दिल्ली।

ऐसी स्थितियों के बावजूद उत्तराधिकारी अकेले सादुलसिंह ही थे। शासन संभालते ही सादुलसिंह की प्राथमिकता में जेल में बंद प्रजा परिषद् के नेताओं और सदस्यों का मसला था, इससे जाहिर होता है कि वे गत 15 वर्षों में राज की और राजकाज की जानकारी रखते रहे थे।

13 फरवरी, 1943 . को शासन संभाला। 14 को छुट्टी थी। 15 को मन्दिर-देवरे धोकने में लगे रहे। 16 फरवरी को सुबह ही जेल मिनिस्टर जसवंतसिंह को आजादी के दीवानों से बात करने जेल भेज दिया। सुपरिंटेन्डेंट कार्यालय में रघुवरदयाल गोईल, गंगादास कौशिक और दाऊदयाल आचार्य को काल-कोठरियों से बुलवा लिया। लम्बी वार्ता चली। नये महाराजा की उदारता की मिसालें देकर माफीनामे लिखवाने की भरसक कोशिशें हुईं। वार्ता टूटने को होती तो जसवंतसिंह किसी तरह से फिर जोड़ते– जैसे वे यह तय करके आए थे कि सकारात्मक परिणाम लेकर ही जाऊंगा। अंत में दबाव काम कर गया। 'मानव भूलों से भरा हुआ है। विपक्ष की तरह हम से भी भूलें हुई होंगी, अगर हमसे कोई भूल हुई हो तो उसके लिए हम बेझिझक खेद प्रकट करते हैं। भविष्य में जिस मार्ग को अन्नदाताजी अनुचित समझेंगे, हमारे लिए वह मार्ग अनुकरणीय नहीं होगा।' इस लिखे पर तीनोंगोईल, कौशिक और आचार्य ने हस्ताक्षर कर दिये।

हस्ताक्षर करने के बाद की उनकी ऊहापोह से लगा कि उक्त मजमून पर हस्ताक्षर करने से पूर्व 24 घंटे का समय मांगते और जेलमंत्री को दूसरे दिन आने का कहते तो ये तीनों हस्ताक्षर करने को तैयार नहीं होते। यह पूरा प्रकरण जेलमंत्री जसवंतसिंह की सफलता थी।

जेल से जाते हुए जसवंतसिंह यह भी कह गये कि शाम को आपकी मुलाकात महाराजा से तय है। जेल सुपरिंटेन्डेंट ने भी तीनों को एक कालकोठरी में रहने की इजाजत दे दी। शाम को जेल तक गाड़ी आयी, जिससे तीनों को लालगढ़ पैलेस ले जाया गया। तीनों को अनुमान था कि उनकी महाराजा से निजी बातचीत होगी, जिसमें वे अपनी बात खुलकर रख सकेंगे। लेकिन वहां तो पूरा दरबार सजा हुआ था, जिसमें उन्हें एक तरफ खड़ा कर दिया गया। दृश्य ऐसा बना कि तीनों सेनानियों द्वारा दरबार के प्रोटोकॉल फोलो ना करने पर महाराजा असहज हुए, वहीं दरबार में मनोनुकूल माहौल मिलने पर तीनों सेनानी, सबसे आगे गोईल फिर कौशिक और अंत में आचार्य खड़े थे। वहां से तीनों के विदा होने पर महाराजा ने इतना ही कहा, 'वेट एण्ड सी' इसके बाद वे तीनों उसी गाड़ी से रवाना हो गए जिससे आए थे। गाड़ी जेल की तरफ जाकर एक-एक को घर छोड़ने लगी। तीनों का इस तरह अचानक घर पर जाना घर वालों के लिए भी अप्रत्याशित था।

महाराजा का 'वेट एण्ड सी' तीनों के लिए असमंजस था। तीनों आपस में और अन्य साथियों से मिलते तो 'वेट एण्ड सी' में खो जाते। सप्ताहभर बाद 23 फरवरी, 1943 . को गोईल ने समय लिया और महाराजा के पास पहुंच गये। लम्बी बातचीत में महाराजा ने कुछ भी निकाल कर नहीं दिया। यही सुनने को मिला कि मैंने शासन अभी संभाला है, देखूंगा, विधान में भी परिवर्तन करवाने होंगे, ऊपर से अंग्रेज शासन की मंशा जाननी होगी।

यही सब सुन गोईल लौट आये। लम्बे समय तक निष्क्रियता में इंतजार करते रहे। शासन 'वेट एण्ड सी' मोड से बाहर नहीं आया। प्रजा परिषद् रचनात्मक कामों यथा खादी, अछूतोद्धार और शिक्षा प्रसार आदि के माध्यम से धीरे-धीरे सक्रिय होने लगी।

इसी बीच 8 मार्च, 1943 . को खरीता समारोह भी हो लिया। मतलब राजा को ब्रिटिश क्राउन की मान्यता का फरमान रेजिडेंट द्वारा दरबार में पढ़ा जाना। 24 फरवरी, 1943 . के देश के नामी अखबार 'दैनिक विश्वामित्र' में गंगादास कौशिक का सादुलसिंह के शासन संभालने के बाद की घटनाओं के उल्लेख के साथ लेख भी छप गया, जिसमें बताया गया कि तीनोंगोईल, कौशिक और आचार्य ने क्षमा नहीं मांगी। यह जरूरी इसलिए हो गया क्योंकि राज की तरफ से यह चलाया गया कि तीनों माफी मांगकर छूटे हैं। उक्त लेख को शासन ने आपत्तिजनक माना। बावजूद इन सबके गोईल की ख्याति चौफेर हो गयी। बाहर से न्योते आने लगे। शेखावाटी के लक्ष्मणगढ़ में आयोजित दो दिवसीय राजनीतिक सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए गोईल को बुलाया गया। क्रमश:

दीपचंद सांखला

14 जुलाई, 2022