Thursday, October 8, 2020

कोरोना, बीकानेर और स्थानीय लोकोक्तियां "गया जकां रा कारज करो, है जकां रा जतन करो" "मरग्या जका लेखे लाग, जीवे जका खेले फाग"

 हम भारतीय विश्वगुरु तो कब बनेंगे, नहीं पता लेकिन कोरोना संक्रमितों की संख्या के मामले में हम शीघ्र सिरमौर होने वाले हैं। कोरोना संक्रमितों के आंकड़े मीडिया में आने शुरू हुए तब हम पहले पचास देशों से भी बाहर थे, पचासवें तक आने में हमें काफी समय लगा। इसे देखकर, हम इस वहम में रहे कि भारतीयों का कोरोना क्या बिगाड़ लेगा। जैसे ही पचास देशों की सूची में शुमार हुए, संक्रमितों की संख्या हमारे यहां इस तरह बढ़ी कि दुनियां में दूसरे नम्बर पर आने में देर ही नहीं लगी। वह तो अमेरिका आडे गया, अन्यथा कोई दूसरा देश होता तो कभी का पछाड़ देते। अब हम इस पर भी आश्वस्त हैं कि कम से कम इस गणना में तो अमेरिका को जल्द ही पछाड़ देंगे। बावजूद इन सरकारी आंकड़ों के, संजीदाओं का कहना है कि हमारे यहां जांचे सही ढंग से नहीं हो रही, अन्यथा आंकड़ों में भी सिरमौर हम कब के घोषित हो चुके होते।

फिलहाल हम अपने बीकानेर की बात कर लेते हैं। शुरुआत में बीकानेर में कोरोना को पहुंचने और पसरने में समय जरूर लगा, लेकिन घुसपैठ में जैसी पोल उसे यहां मिली, वैसी अन्य जगह शायद कम ही मिली हो। बाकी शहरों में उसे विशेष जतन करना पड़ा होगा लेकिन जिस तरह पता पूछने पर घर तक पहुंचा आने की लोकोक्ति हमारे लिए प्रचलित है, उसी तरह इस कोरोना को या तो लेने हम खुद चले जाते हैं, हमारे पास लिया तो उसे मित्र-परिचितों, नाते-रिश्तेदारों तक पहुंचाने में देर नहीं लगाते। इधर-उधर जाने में कोरोना को कोई दिक्कत ना हो इसलिए बार-बार हाथ नहीं धोते। हर कहीं हाथ लगाने में संकोच नहीं करते। रही मास्क की बात तो पहले तो लगाते ही नहीं हैं, जिन पर टोका-टोकी का असर होता है, वे गले में डाले वैसे ही घूमते हैं जैसे दुपहिया चलाते हुए हेलमेट को हेण्डिल में खसोले रखते हैं, और जो मुंह पर लगा लेते हैं, उनमें अधिकांश यह भ्रम पालकर नाक को खुली रखते हैं कि नाक ढकने से सांस में दिक्कत होगी। सांस लेने में दिक्कत हो या ना हो, कोरोना को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। आखिर दूर देश से आया मेहमान जो है।

इतने कोथिणे के बाद आप कहे बिना नहीं रहेंगे तो इस पूरी रामाण का शीर्षक में उल्लेखित लोकोक्तियों से आपकी बात का क्या संबंध है? तो सुन लें : किसी मृत्यु पर हमारे यहां क्रिया-क्रम आदि का बारह-तेरह दिन का प्रावधान है। तीसरे दिन शुरू होने वाली बैठक दसवें दिन उठा दी जाती है। उठवाने के लिए आये बड़े-बुजुर्गों को यह कहते सुनते आएं है कि 'उठो! गया जका रां कारज करो, है जिकां रा जतन करो' मतलब यही कि अब बैठक उठा दो और ग्यारवें की क्रिया करके गंगा प्रसादी कर काम-धंधे लगो और घर को पालो। तो इस कोरोना काल में बड़े-बुजुगों की विशेष हिदायत इस तरह मानें कि जतन भी तब कर पाएंगे जब हम स्वस्थ रहेंगे। क्योंकि कोरोना की जो कारस्तानी सामने आयी है कि जांच में कोरोना नेगेटिव आने के बाद भी वह असर ऐसा छोडऩे लगा है कि जो किसी अन्य व्याधि से लम्बे समय से ग्रसित है या कमजोर है, कोरोना उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता खत्म कर उस पुरानी कमजोरी या बीमारी को लाईलाज कर जाता है। इन दिनों मृतकों के ऐसे मामले भी सामने आये जो कोरोना पॉजिटिव से तो नेगेटिव लिये। पहले कहा जाता था कि कोरोना बुजुर्गों और बच्चों पर आसानी से हमला करता है लेकिन अब तो जवान मौतें भी होने लगी हैं। 

दूसरी लोकोक्ति 'मरग्या जका लेखे लाग-जीवे जका खेले फाग' का सन्दर्भ सुनेंगे तो संवेदनहीन लगेगा, लेकिन ऐसा बीकानेर में हुआ है। एक खेड़ा काका हुआ करते थे, सामान्यत: घुन्ने और कम बोलने वाले। लेकिन ज्यों ही होळका लगती, वे बीकानेर के उन शहरियों से ज्यादा वाचाल हो जाते जो वर्ष भर की अपनी यौन-कुण्ठाएं होली के दिनों में अश्लील संवादों-गीतों से निकालते रहे हैं। खेड़ा काका वृद्धावस्था तक लाउडस्पीकर लगे रेहड़ी के साथ निकलते थे और झूम-झूम कर ना केवल खुद गाते-बल्कि अपने पोतों की उम्र तक के बच्चों से डांट-डपट का टेर दिलवाते।

एक होली से कुछेक दिन पूर्व उनके एक अभिभावक की मृत्यु हो गयी। शोक ना केवल उनके परिवार में बल्कि उनका इंतजार करने वालों तक में पसर गया। खेड़ा काका ने होली के दिन तक तो अपने को जैसे-तैसे जब्त किये रखा लेकिन धुलण्डी (हमारे यहां छालोड़ी कहते हैं) के दिन शोक की बैठक से अचानक यह कहते हुए उठ गये कि 'गया जका लेखे लाग-जीवे जका खेले फाग' मतलब जो चले गये वे चले गये, उनके साथ मरा नहीं जाता। जो जिन्दा है उन्हें कोई लुत्फ नहीं छोडऩा चाहिए। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस वाकिये के समय कोरोना जैसी महामारी नहीं थी। होती तो खेड़ा काका भी उस तरह उठकर होली (गेर) खेलने नहीं निकलते। 

पहली लोकोक्ति गंभीर और दूसरी उच्छृंखलितउद्धृत करने का मकसद यही है कि दोनों तरह के शहरियों से उम्मीद यही की जाती है कि हमें फिलहाल दोनों की बातों को मानने से इनकार करना है और शोक और खुशी या कैसा भी मौका हो हम इकट्ठे होने से केवल बचना है बल्कि स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी सावधानियों का अक्षरश: पालन करना है। कोरोना काल के इन छह महीनों में कई बातें आई-गई हुईं लेकिन इससे बचने और दूसरों को बचाने के कारगर उपायों में बार-बार हाथ धोना, हर कहीं हाथ लगाने से बचना, वापरने वाली वस्तुओं को सेनेटाइज करना और अपने मुंह और नाक को मास्क से ढके रखना जैसी हिदायतों में कोई परिवर्तन या छूट कैसे भी दिशा-निर्देशों में नहीं आया है। जो लोग कोरोना को हल्के में लेने की सलाह देते हैं, लगे कि उन्हें टोका जा सकते है तो टोकें, अन्यथा उन्हें कोरोना के भरोसे छोड़ दें। उन्हें शायद नहीं पता कि वे कैसी लापरवाही कर रहे हैं।

कोरोना काल के शुरुआत में होली-धुलण्डी हमने जैसी-जितनी भी सावधानी बरत के मनाई हो, उसके बाद के तीज-त्योहार और ईद आदि में जिस तरह की सावधानियां बरतीं, अब उससे ज्यादा सावधानी बरतने का समय है। उत्तर भारत के हिन्दुओं का सबसे बड़ा त्यौहार दिवाली और उससे पहले नवरात्रा-दशहरा सामने है। इन त्योहारों को सादगी से मनाएं, खरीदारी जरूरत भर की करें, बाजार में भीड़-भड़ाका करें और भीड़ हो तो खरीदारी तो क्या कैसा भी जरूरी काम टाल दें। जीवित और स्वस्थ रहेंगे तो ये त्योहार प्रतिवर्ष आते हैं, पहले से ज्यादा धूमधाम से मनायेंगे। शादी-विवाह भी हमें रस्म अदायगी भर करनी है तो गंगाप्रसादी आदि उसी तरह अच्छे दिनों तक के लिए स्थगित रखनी है, जिस तरह बारह दिनों में अनुकूलता ना होने पर हरिद्वार जाने का कार्यक्रम बाद का तय कर लेते हैं।

यह सब लिखने का मकसद भयभीत करना नहीं-सावचेत करना है। सावचेत रहेंगे तो भय की नौबत आयेगी ना किसी को खोने की। बाकी तो जो है सो है ही।

दीपचन्द सांखला

08अक्टूबर, 2020

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