Thursday, July 2, 2020

बीकानेर : 22 मार्च को एक दिन की घरबन्दी से अब तक

कोरोना रा फूस काडद्या
बात बीकानेर के हवाले से कर रहे हैं, लेकिन कमोबेश और प्रकारान्तर से देश की हिन्दी पट्टी का हाल लगभग यही है। कानून और व्यवस्था तो क्या प्राकृतिक प्रकोप और हारी-बीमारी तक को हम गंभीरता से नहीं लेते। तुर्रा यह कि अपनी तमाम लापरवाहियों को आत्ममुग्धता में अलमस्ती का जामा पहना देते हैं।
हेलमेट को ही लें, सड़क दुर्घटनाओं पर दुनियां भर के शोध यह कहते हैं कि दुर्घटना के दौरान दुपहिया चालक ने यदि मानक स्तर का हेलमेट पहना हो तो जान का जोखिम आधे से भी कम हो जाता है, हेलमेट पहनना कानूनी-कायदे में शामिल होने के बावजूद अधिकांश को यह झंझट लगता है। इसके लिए पत्रकारों, पुलिसवालों यहां तक कि छुटभैये से लेकर बड़भैये नेता तक की हाजरी इसलिए बजाते हैं कि बिना हेलमेट पकड़े जानें पर उनसे फोन करवाया जा सके ताकि ना नीचा देखना पड़े और ना ही हरजाना भरना पड़े।
कोरोना काल में सार्वजनिक क्षेत्र में मुंह-नाक को मास्क से ढके रखना और कहीं भी ना थूकना कानूनन जरूरी है। लेकिन थूकने पर कार्रवाई पुलिस ने भी शायद ही कहीं की हो, क्योंकि गुटखा खाने वालों में कई वे सिपाही भी होते हैं, कानून की पालना करवाना जिनकी जिम्मेदारी है। पुलिस वाले कार्रवाई तो मास्क ना लगाने वालों या लगा रखा है तो सलीके से ना लगाने वालों पर भी नहीं करते। दो जनों के बीच कम से कम 2 मीटर की दूरी रखने के कायदे की ही तरह मास्क और रस्ते चलते कहीं भी ना थूकने का भी कायदा है, फिलहाल तो इसका पता ही नहीं चल रहा। कुछेक संजीदा जरूर इन सब का ध्यान रखते हैंदो-एक दिनों से देख रहे हैं कि मास्क को ठुड्डी पर लटकाये रखने की औपचारिकता भी अब खत्म होती जा रही है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सुझाई इन सावचेतियों की जनता और पुलिस चाहे परवाह ना करे लेकिन बाल की नोक के लगभग दो हजारवें हिस्से जितना छोटा कोरोना वायरस अपनी प्रकृति को अंजाम देने से राई-रत्ती भी नहीं चूक रहा। हमारी चूक से जैसे ही उसे अनुकूलता मिलती है, वह धर दबोचता है। देश में गुणात्मक बढ़ रहे कोरानो संक्रमण के मामले इसका प्रमाण है।
यहां तक कि कोरोना की आड़ लेकर 30 जून को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संदेश के माध्यम से बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर जो सम्बोधन दिया उसमें हमारी उक्त लापरवाहियों को भी इंगित किया। लेकिन मोदीजी की कही में सुविधा यह है कि उनकी किसी बात और दी गई किसी हिदायत को माने चाहे ना माने, बस वोट उनकी पार्टी को देते रहें। वोट के एवज में जहां हमें कुछ भी मानने की छूट मिल जाती है। और ये भी उनके द्वारा किये गये किसी एक भी वादे को पूरा ना करने पर भी जहां सवाल नहीं करते वहीं उनके ऊल-जलूल निर्णयों से लगातार गर्त में जा रहे देश की चिन्ता भी हम नहीं करते हैं। अपने मन की उक्त बात में उल्लेखनीय यह है कि मोदीजी ने बिहारी हिन्दुओं को यह सन्देश देने की भी चतुराई की कि त्योहारों के उल्लेख में ईदुलजुहा का जिक्र ना करके मुसलमानों को उनकी औकात मैंने दिखा दी है, अब आपकी जिम्मेदारी है कि मेरी सभी अकर्मण्यताओं को नजरअंदाज कर हिन्दू होने के नाते वोट मेरे कहे अनुसार ही दें।
बात बीकानेर के हवाले से शुरू की-वहीं लौटना होगा, हालांकि ऊपर जो कुछ कहा है, उससे अछूते हम बीकानेरी भी बिलकुल नहीं हैं। 25 मार्च से लागू देशव्यापी लॉकडाउन को हमने कुछ दिन जरूर कुछ गंभीरता से लिया लेकिन जल्द ही बट-बटी की हद तक अमूजने लगे। पहली बार अहसास हुआ कि गुटखे के नशे की तरह ही कचौरी-पकोड़ी भी एक नशा है, कचौरी-पकोडिय़ां आदि घर में बनाकर सप्लाई होने लगे। शाम को चौक और पाटे की तलब जोर मारने लगी। पहले-दूसरे, तीसरे चरण के सख्त लॉकडाउन के बाद जो ढिलाइयां शुरू हुईं उसका असर ये हुआ कि अनलॉक होते ही हम हबीड़े के साथ कोरोना काल से पूर्व के सामान्य समय में लिये।
आपको याद है तो अहमदाबाद में नमस्ते ट्रम्प के आयोजन और मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बनने से आश्वस्त होते ही मोदीजी ने 22 मार्च को सोशल डिस्टेसिंग की हिदायत के साथ एक दिन की घरबंदी करवाई थी। जिसमें शाम को घर की छत और बालकॉनी से ताली-थाली बजाने का आह्वान किया गया था। आपने देखा होगा कि पूरे दिन में हम इतने परेशान हो गये कि शाम को 7 बजते ना बजते झुंड के झुंड गलियों में निकल पड़े और थाली-टंकारे बजा-बजा कर, आतिशबाजी कर-कर के  कोरोना के तिनके बिखेर देने की मुनादी करने लगे थे। तब एकबारगी यूं लगा कि कोरोना सहम कर भाग छूटा होगा।
इन सब बातों में तीन माह गुजर गये, हम अपनी लापरवाहियों से लगातार संक्रमण बढऩे दे रहे हैं। राजनीतिक एक_ से लेकर वार-त्योहार, शादी-विवाह, तीया-बैठकों और यहां तक कि गोठ-जीमणों के सीमित आयोजन बिना कोरोना की विशेष परवाह किये कर ही रहे हैं। सावधानियां नहीं बरतेंगे तो भुगतेंगे। ऐसा तब और भी जरूरी है जब भ्रष्टाचार जनित लापरवाहियों के चलते सरकारी संसाधन सीमित साबित हो रहे हैं। इस संक्रमण काल में हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता जरूर संजीवनी साबित हुई है। लेकिन संक्रमण खत्म होने तक जो शारीरिक-मानसिक यंत्रणा खुद रोगी भोगेगा और जो परिजन-प्रियजनों पर गुजरेगी, वह हमारे भीतर बहुत कुछ तोड़ देगी। वहीं उस दौर की कल्पना सिहरा देती है जब सामुदायिक संक्रमण विकराल होकर हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को ही चुनौती देने लगेगा।

  • अन्त में रेलवे के इस शाश्वत नारे का उल्लेख जरूरी लग रहा है—'सावधानी हटी-दुर्घटना घटी'
दीपचन्द सांखला
02 जुलाई, 2020

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