Thursday, April 18, 2019

बीकानेर लोकसभा क्षेत्र : एक और पड़ताल

विधानसभा और लोकसभा चुनावों के माहौल में अन्तर होता है। विधानसभा के चुनावों में कार्यकर्ताओं की सक्रियता जहां शोर-शराबा लिए होती है, वहीं लोकसभा के चुनावों में पहले तो कार्यकर्ता सक्रिय होते ही नहीं, होते भी हैं तो कछुआ चाल में। चुनाव क्षेत्र यदि सुरक्षित हो तो सुस्ती का फिर कहना ही क्या! बीकानेर लोकसभा क्षेत्र पिछले दो चुनावों से अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के लिए सुरक्षित है। 2009 के परिसीमन के बाद हुए इस सुरक्षित क्षेत्र का पहला चुनाव भाजपाइ अर्जुनराम मेघवाल जैसे नये चेहरे और मुख्यमंत्री रहीं वसुंधरा राजे के खेमे से होने के चलते तब के चुनाव अभियान में रिमझिम रही।
2014 में मोदी मैजिक चल रहा था, भ्रमित करने और होने का माहौल जबरदस्त था, अर्जुनराम मेघवाल की नैया आसानी से पार लग गई। मोदी प्रधानमंत्री बने तो, जैसे-तैसे मंत्री भी हो लिए। लेकिन अर्जुनराम यह नहीं समझ पाए कि अपने क्षेत्र को लाभान्वित करना कैसे है। पहली बात तो यह कि उन्हें यह पता ही नहीं है कि क्षेत्र की आधारभूत जरूरतें क्या हैं, अपनी समझ से कहीं कुछ करना तय भी किया तो वह आंटा ही उनके पास नहीं था जो शीर्ष तक पहुंचे नेताओं और ब्यूरोक्रैट को दुह सके। समय कब किसका रहा, दूसरी बार मिले पांच वर्ष भी बीत गये! किया-धिया कुछ नहीं, ऊपर से खुद की ब्यूरोक्रैटिक सनक और क्षेत्र के अन्य नेताओं की जातिय हेकड़ी में टकराहट लगातार जारी रही। नतीजतन, क्षेत्र के आठ विधानसभा क्षेत्रों से कोई नेता हाल-फिलहाल उनके साथ नहीं दिख रहा। जबकि कांग्रेस ने सामने जो उम्मीदवार खड़ा किया, उनके चलते यह सीट निकालना अर्जुनराम के लिए बहुत मुश्किल नहीं था।
दूसरी ओर, क्षेत्रीय कांग्रेस के हालात भी ऐसे ही हैं। विधानसभा चुनावों में कांग्रेसी विधायक बने गोविन्दराम मेघवाल की पुत्री सरिता मेघवाल की उम्मीदवारी अधिकांश स्थानीय नेता चाहते थे, लेकिन पार्टी ने मदन गोपाल मेघवाल को थोप दिया। क्षेत्र के स्वयंभू कांग्रेसी क्षत्रप रामेश्वर डूडी की राजनीति हमेशा से नकारात्मक रही है जिसके परिणाम वे खुद और उनकी पार्टी भी भोगती रही है। संभावित मुख्यमंत्री की सूची में नाम दर्ज होने के बावजूद वे हार चुके हैं। लेकिन अभी भी चैन कहां हैकहा भी गया है कि 'ज्यां का पड़्यो सभाव जासी जीव सूं। दे-दिवा और अड़-अड़ाकर डूडी उन मदन गोपाल को टिकट दिलवा लाए जिन्हें क्षेत्र में कोई जानता तक नहीं। बीते नवम्बर में ही प्रमोटी आइपीएस की नौकरी से उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति इसलिए ली कि खाजूवाला से उम्मीदवारी मिल जाएगी। डूडी को जोम भी था कि टिकट दिलवा दूंगा लेकिन पार पड़ी नहीं--पड़ती भी कैसे? भाजपा में जो हाल अभी अर्जुनराम मेघवाल का हुआ, क्षेत्र की राजनीति में वैसा ही हाल शुरू ही से डूडी ने अपना बना रखा है। पार्टी में सूबे के सुप्रीमो की कौनसी नाड़ डूडी ने दबा रखी है, अभी पता नहीं लगा है, लेकिन इस दबी नाड़ के चलते ही इस चुनाव में गहलोत चौथी बार बीकानेर आ रहे हैं, वे शायद अभी तक आश्वस्त नहीं हुए हैं कि टिकट से नाराज विधानसभा वार क्षत्रप कांग्रेस को जिताने में लगेंगे कि नहीं।
बीकानेर का यह चुनाव मंद-हवाई आकाश में पतंग छोड़कर बिना पेच लड़ाए आनन्द लेने वाले जैसों का हो गया है। भाजपाइयों ने अर्जुनराम मेघवाल को चुनावी आकाश में अकेले छोड़ दिया तो अन्य कांग्रेसियों ने मदनगोपाल को। भाजपा की पतंग की डोर अभी तो अकेले शहर जिलाध्यक्ष सत्यप्रकाश आचार्य थामे हैं तो कांग्रेस में रामेश्वर डूडी, डॉ. बीडी कल्ला और भंवरसिंह भाटी तीनों ही इस फिराक में हैं कि उनके हाथ में सिर्फ लटाई रहे, डोर कोई दूसरा ही पकड़े।
एक तो विधानसभा चुनावों के मुकाबले लोकसभा चुनावों में वोटिंग वैसे भी कम होती है ऊपर से विधानसभावार क्षत्रपों की नाराजगी दोनों ही पार्टियों के उम्मीदवारों की धुकधुकी को बढ़ा रही है। क्षेत्र की आठ सीटों में से केवल एक कोलायत में कांग्रेसी उम्मीदवार को वोट विधानसभा चुनावों में भंवरसिंह भाटी को मिलें वोटों से ज्यादा मिल सकते हैं, वह भी देवीसिंह भाटी की भाजपा से बगावत के चलते, अन्यथा शेष सभी क्षेत्रों में विधानसभा चुनाव में जीते हुए अपने प्रत्याशियों से ज्यादा तो दूर की बात, 20 से 30 प्रतिशत तक वोट कम ही मिलने की संभावना है।
बीकानेर में हार-जीत का अंतर इस बार 50 से 60 हजार के बीच रहता लगता है। ऐसे में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार श्योपत राम मेघवाल का प्रदर्शन बहुत कुछ तय करेगा। सीपीएम के यह प्रत्याशी 50 हजार वोट ले जाए तो हार-जीत इससे कम की ही रहती लगती है। हार-जीत यदि इतनी ही रहेगी तो ताकड़ी की काण श्योपतराम ही तय करने वाले होंगे। श्योपतराम को कमजोर इसलिए भी नहीं मानना चाहिए कि आठ विधानसभा क्षेत्रों में से एक अनूपगढ़ श्रीगंगानगर जिले में है। श्रीगंगानगर के इस क्षेत्र में ना केवल सीपीएम की अपनी पैठ है बल्कि श्योपतराम की अपनी पकड़ भी है। रायसिंहनगर से गत विधानसभा चुनाव लड़कर श्योपतराम ने 34 हजार वोट लिए और कांग्रेस को तीसरे नम्बर पर ढकेल दिया। श्रीगंगानगर जिले से लगते बीकानेर जिले के पानी वाले क्षेत्र के किसानों में भी सीपीएम की अपनी पकड़ है, वहीं श्रीडूंगरगढ़ से सीपीएम के गिरधारी महिया पहली बार विधायक चुने गये हैं। सीपीएम जीते चाहे नहीं कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में भाजपा का खेल बिगाड़नेमें लगे देवीसिंह भाटी से ज्यादा मजबूत रहेगी। कांग्रेस की स्थिति वीरेन्द्र बेनीवाल, मंगलाराम गोदारा और गोविन्द मेघवाल के मन और मंशा पर निर्भर रहेगी है। कांग्रेस में दावं पर डूडी और कल्ला दोनों की साख है। ये दोनों हर चुनाव में गोटियां पार्टी के हिसाब से नहीं, अपने हिसाब से चलते रहे हैं। अस्सी के बाद के सभी लोकसभा चुनावों पर नजर डाल लें, एक बलराम जाखड़ की उम्मीदवारी वाले चुनाव को छोड़ दें तो खुद अपने ही क्षेत्र में चुनाव की डोर कल्ला बन्धु हमेशा बेमन से पकड़े देखे गये हैं।
अर्जुनराम के लिए फिलहाल आसरा केवल मोदी नाम का है। हालांकि देवीसिंह भाटी के तोड़ के लिए संघ के स्थानीय पार्टी संगठन का काम देख चुके दशरथसिंह को लगाया गया है। वे भी बिना गोपाल गहलोत के और लम्बे समय के बाद बदली परिस्थितियों में कुछ असर दिखा पाएंगे, लगता नहीं है।
सिद्धिकुमारी को इस चुनाव से मतलब गोपाल जोशी से थोड़ा कुछ ज्यादा या कहें दिखावे भर का ही हो सकता है। वहीं अनूपगढ़ से भाजपा की संतोष बावरी को लगेगा कि क्षेत्र के वोटरों का मन इस चुनाव में माकपा के श्योपत के साथ है तो वे उलझाड़ में शायद ही पड़े। खाजूवाला, लूनकरणसर से डॉ. विश्वनाथ और सुमित गोदारा के अर्जुनराम को लेकर अपने-अपने आयठाण हैं तो श्रीडूंगरगढ़ में बिखरी पड़ी भाजपा को अभी तो खुद संभलना है। हो सकता है चुनाव तक शायद नहीं संभल पाए। बचे नोखा के विधायक बिहारी बिश्नोई, चूंकि देहात भाजपा की कमान उन्हीं के पास है तो उनकी स्थिति 'मरता क्या नहीं करता’ वाली है। कांग्रेस में दावं पर डूडी और कल्ला दो हैं तो भाजपा में अकेले बिहारी बिश्नोई है।
इस तरह बीकानेर की इस सीट के लिए कोई दावा करना परिणाम आने तक संभव कम ही लगता है।
—दीपचन्द सांखला
18 अप्रेल, 2019

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