Thursday, April 5, 2018

दलितों के भारत बन्द के बहाने अपने शहरियों से कुछ


एससी/एसटी से संबंधित कानून पर आए उच्चतम न्यायालय के ताजे फैसले से नाराज दलित समुदाय के 2 अप्रेल 2018 के भारत बन्द पर बात करने से पूर्व यह बता देना जरूरी है कि यह आलेख किसी भी प्रकार की हिंसा की ना तो पैरवी है और ना ही तरफदारी।

आगे बात करने से पूर्व बीकानेर के संदर्भ में पिछली सदी के सातवें दशक के उत्तरार्द्ध से बन्द और हड़तालों की कुछ बानगियों से रू-बरू हो लेते हैं। समाजवादी नेता मुरलीधर व्यास व्यवस्था के खिलाफ बीकानेर में मुख्य स्वर रहे। उनके बुलाए बन्द पर शहर सहानुभूतिपूर्वक सहयोग करता रहा है। आठवें दशक की शुरुआत में उनके निधन के बाद 1972-73 में संभाग की उल्लेखनीय हड़ताल विश्वविद्यालय की मांग को लेकर हुई। इस हड़ताल के दौरान ना केवल एकाधिक बंद हुए बल्कि उग्र और हिंसक प्रदर्शन भी कई बार हुए। 1974 में रेलवे की देशव्यापी हड़ताल के दौरान हुए भारत बन्द के दिन जबरदस्त उग्रता के बीच सार्वजनिक संपत्ति का काफी नुकसान हुआ था।

1975 में लगे आपातकाल और 1977 में जनता पार्टी की सरकार के बाद 1980 तक उग्र हड़तालों का दौर लगभग थम गया। जो इनमें संलग्न थे वे राज में आ लिए और विपक्ष में आई कांग्रेस एक तो स्तब्ध थी, दूसरे हड़तालों के अनुकूल अपने को सहज पा ही नहीं रही थी। इन्दिरा गांधी की गिरफ्तारी हुई तो कांग्रेसी इतना ही चेतन हो पाए कि गिरफ्तारियां देकर कुछ दिनों के लिए जेलों के वासी हो लिए।

1980 में लौटे, कांग्रेस राज के बाद हड़तालों का दौर फिर से शुरू हुआ। इन अवसरों पर तब के कांग्रेस के दो व्यापारी नेताओं ने बन्द में शामिल ना होने का तय किया। पहले तब के पूर्व विधायक और कांग्रेस नेता गोपाल जोशी व दूसरे तत्कालीन शहर युवक कांग्रेस अध्यक्ष विजय कपूर, वे बाद में सभापति बने, जो अब रहे भी नहीं हैं। गोपाल जोशी की स्टेशन रोड पर छोटू-मोटू जोशी नाम से तो विजय कपूर की महात्मा गांधी रोड पर कपूर ब्रदर्श नाम से दुकानें हैं। पिछली सदी के नवें दशक के सभी बन्दों में इन दोनों नेताओं की अपनी जिदें चली भी, इसका बड़ा कारण तो यही था तब की कोई हड़ताल और बन्द उग्र-हिंसक नहीं थे।

उसी दौरान के एक भारत बन्द का, जिसमें बैंक कर्मचारी भी शामिल थे, किस्सा बयां कर देते हैं। स्टेशन से निकले विशाल जुलूस के मद्देनजर छोटू-मोटू जोशी की खुली दुकान के आगे पुलिस का पूरा जाब्ता था। हड़ताली दुकान के आगे कई देर तक रोष जाहिर कर आगे बढ़ लिए। जोशी के परिजन दुकान पर खड़े मुसकराते रहे। लेकिन कपूर ब्रदर्श के यहां उतना जाब्ता नहीं था। जुलूस महात्मा गांधी रोड पहुंचा तो लगा हड़ताली छोटू-मोटू जोशी दुकान की अपनी खीज क्रॉकरी और ग्लासवेयर से भरे कपूर ब्रदर्श पर निकालेंगे। विजय कपूर स्वयं काउण्टर पर शान्त बैठे रहे। पूरा जुलूस कपूर ब्रदर्श के आगे सिमटता जा रहा था। लगने लगा कि कुछ भी हो सकता है। इतने में बैंक कर्मचारी नेता 'कॉमरेड' योगी दुकान और हड़तालियों के बीच आ गये। 'चोर कपूरिया मुर्दाबाद-मुर्दाबाद, कपूरिया तेरी ऐसी-तैसी' जैसे जोरदार नारों के बीच योगी ने चतुराई से कब आन्दोलनकारियों को कचहरी की ओर प्रस्थान करवा दिया, हड़तालियों को पता ही नहीं लगने दिया। इसकी चर्चा शहर में कई दिनों तक रही, लोग यह कहने से भी नहीं चूकेदेखो, योगी ने कपूर के साथ शाम को बैठने का वास्ता किस चतुराई से निभाया। वैसे योगी को ये वामपंथी अपनी शब्दावली में 'कॉमरेड' क्यों संबोधित करते हैं, इसका जवाब वही देंगे।

इसके बाद भी कई हड़तालें हुईंं और डंडे के जोर पर बन्द भी सफल होते रहे हैं। लेकिन वे सभी उच्च या पिछड़ी जातिवर्गीय दबंगों के नेतृत्व में हुएहिंसा हुई और तोड़-फोड़ भी। 2003 में ऐसे ही राजस्थान बन्द का खमियाजा बीकानेर के कई दुकानदारों ने भुगता है। पद्मावत को लेकर भी हाल का मुकम्मल बन्द एक उदाहरण है। 2 अप्रेल की हड़ताल पर शहर को नजर लगने का स्यापा जो कर रहे हैं, पिछली हड़तालों उक्त जानकारियां उन्हीं के लिए हैं। हो सकता है ऐसों के उस उच्चकुलीय दम्भ को धक्का इसलिए लगा हो कि ये 'नीच' भी डांग दिखाने लगे हैं।

अपने दो ट्वीट को यहां दोहरा कर कुछ और बातें भी लगे हाथ कर लेता हूंं 2 अप्रेल का ही ट्वीट है कि 'यह हिंसा की तरफदारी नहीं है लेकिन मन मार कर ही सहीदबंग समूहों द्वारा बुलाए बन्द के आह्वान को जब-तब सहते ही रहे हो, इसे भी सह लेते। खिलाफत नहीं करते तो हो सकता है यह बंद भी शान्तिपूर्वक निपट जाता। कमजोर के पास खोने को कुछ खास नहीं होता, वह अपनी जान की कीमत भी बहुत कम आंकता है।'

बन्द से एक दिन पूर्व 1 अप्रेल की शाम का मेरा ट्वीट भी आप पढ़ लें। 'बीते 70 वर्षों में दलितों ने पहली बार भारत बंद का आह्वान किया है। प्रतिक्रिया में बीकानेर के जिन 16-17 संगठनों ने बंद को असफल बनाने का आह्वान किया उनमें पिछड़े वर्ग के एक को छोड़ सभी या तो उच्च जातिवर्गीय संगठन हैं या उच्च जातिवर्गीय प्रभावी। 

अब कुछ प्रश्न : अब तक हुए ऐसे सभी बंदों से क्या सभी सहमत थे या अन्य कारणों से उनमें शामिल होते रहे हैं। उच्चतम न्यायालय के सम्मान के नाम पर पहले भी ऐसी प्रतिक्रिया हुई है, पद्मावत फिल्म का ताजा उदाहरण याद कर लें। बंद यदि असफल होता है तो न्यायालय के ताजा फैसले पर दलितों की सभी तरह की आशंकाएं सही साबित होंगी।'

लेकिन लगता है दलित इस बार अपने होने को साबित करना तय कर चुके थे। इसका ही नतीजा था कि अपने बन्द को सफल करवाने के लिए वे हिंसक हुए। हम यह संतोष करें कि शहर में हुए पिछले बन्द सफल जिस तरह होते रहे हैं, दलित उनसे अनभिज्ञ थे, तो यह हमारी मासूमियत है। दलितों ने वही तरीका अपनाया जो उनसे पहले के बन्द के आयोजक समूह अपनाते आए हैं।

इस बंद का विरोध करने वालों ने इसे आरक्षण व्यवस्था के विरोध का अवसर समझा, वहीं कहा यह भी गया कि न्यायालय ने यही तो कहा कि एससी/एसटी कानून के तहत बिना जांच गिरफ्तारी ना हो और आरोपी को अग्रिम जमानत की व्यवस्था दी। लेकिन जो सबसे गंभीर चोट इस फैसले से एसटी/एससी कानून को लगी है उस का जिक्र उच्चवर्गीय प्रभावी मीडिया भी नहीं कर रहा, जिसे 2 अप्रेल के रवीशकुमार के प्राइम टाइम में विधिवेत्ता फैजान मुस्तफा ने कुछ यूं बताया : स्त्री प्रताड़ना जांच एफआइआर दर्ज ना करने की व्यवस्था उच्चतम न्यायालय की जिस पीठ ने कुछ माह पहले दी, उसी पीठ ने एससी/एसटी प्रताड़ना पर बिना जांच के एफआइआर दर्ज ना करने की व्यवस्था दी है। जबकि अन्य सभी प्रताड़नाओं पर सीधे एफआइआर करवाई जा सकती है।
उच्चतम न्यायालय की नई व्यवस्था के सीधे-सीधे मानी यही हैं कि प्रताड़ना के मामले में स्त्रियों से एफआइआर का वह सामान्य हक भी छीन लिया है जो सभी को हासिल है। दलितों का नेतृत्व चूंकि पुरुषों के हाथ में है। अत: स्त्रियों की तरह वे चुप नहीं रहे। अब स्त्रियों को प्रेरित कौन करे कि प्रताड़ना पर उच्चतम न्यायालय ने सीधे एफआइआर तक का हक आपसे भी छीन लिया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि समाज में चौथी-पांचवीं हैसियत वाले दलित भी अपनी स्त्री को पुरुष से एक दर्जा नीचे ही मानते हैं।

एससी/एसटी से संबंधित झूठे मुकदमे दर्ज होने की बात भी की जाती रही है। इस तरह की बातों के मानी इसलिए नहीं है कि दहेज सहित अनेक धाराओं के लिए भी यही कहा जाता है। ऐसी प्रवृतियों में सुधार कानून बदलने से नहीं होगा बल्कि जरूरत है जांच के तौर-तरीकों को निष्पक्ष और दुरुस्त करने की।

लगे हाथ कुछ यह भी...
यह तो हो ली बन्द के संबंध से बात। अब बीकानेर के वकीलों के संदर्भ से भी एक बात कर लेते हैं। बीकानेर का यह वही बार है जो बहुसंख्यकीय उच्चकुलीन मंशाओं का वाहक है। पिछले वर्ष जून में भारत-पाकिस्तान का मैच था, पाकिस्तान जीत गया। मूर्खता कहें या नादानी, भुट्टा बास के एक नाबालिग सहित छह मुसलिम युवाओं ने पास के सुभाषपुरा मुहल्ले में पहुंचकर पटाखों के साथ खुशी का इजहार कर दिया, शहर भर में हंगामा हो गया। एफआइआर दर्ज हुई और राजद्रोह में उन्हें अन्दर कर दिया गया। पाकिस्तान जिन्दाबाद के उन्होंने नारे लगाए इस पर भी दो मत हैं। कहा यही जाता है कि यह नारा लगा ही नहीं, एफआइआर को मजबूत बनाने के लिए जोड़ा गया। खैर, समाज में व्याप्त अनेक तरह की असमानताओं से उपजी कुण्ठाओं में कुछ युवकों ने गलती कर भी दी तो इतना बड़ा अपराध उन्होंने क्या कर दिया कि शहर के वकीलों ने न केवल उनकी पैरवी नहीं करने का निर्णय कर लिया बल्कि कोई तैयार भी हुआ तो वकीलों ने कोर्ट के गेट पर खड़े होकर उन्हें न्यायालय में घुसने तक नहीं दिया। 

इतना ही नहीं, घटना के आठ दिन बाद ही ईदुलफितर था, मुसलमानों का सबसे बड़ा त्योहार। युवक जेल में और उनके परिजनों का त्योहार हराम। एक महीने से ज्यादा समय बाद तक उन युवकों की जमानत नहीं हो पायी। अब तक सुनते तो यही रहे हैं कि बीकानेर के वकीलों में कई बुजुर्ग संजीदा और समझदार हैं लेकिन ऐसे समय में ये मौन हो लिए। भारत की न्याय व्यवस्था ने विदेशी आतंकवादियों को भी कानूनी सहायता का अधिकार दे रखा है। वे युवक तो अपने देश की ही थे, जो उस मुकदमे में आज भी आरोपी है। इस तरह का व्यवहार उन्हें स्थायी अपराधी नहीं बनाएगा, इस बात की क्या गारन्टी है?

वहीं, इसके बरअक्स पिछले तीन-चार वर्षों से रामनवमी के उत्सव पर जो-जो नारे लगते हैं वह क्या राजद्रोह नहीं है? संविधान की सीधी अवमानना नहीं है? इस पर कभी यहां के किसी वकील का संविधान प्रेम या राष्ट्रभक्ति जागती नहीं देखी गयी।

बन्द के ऐसे आह्वानों पर वकील अक्सर अदालती कामकाज स्थगित रखते हैं। 2 अप्रेल को उन्होंने ऐसा नहीं किया तो उन्हें बदमजगी का सामना करना पड़ा। यह लोकतंत्र है, या तो इसे समाप्त कर लें, नहीं तो हर क्षेत्र में असमानता से उपजी कुण्ठाओं का इजहार यूं ही होता रहेगा और अराजकता को बढ़ने से राज भी नहीं रोक पाएगा।
दीपचन्द सांखला
5 अप्रेल, 2018

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