Thursday, March 22, 2018

कन्हैयाकुमार के जयपुर आयोजन के बहाने अभिव्यक्ति-स्वतंत्रता की बात


सत्ता की खुमारी और दम्भ तो वैसे गांधीवादियों में भी देखा गया है लेकिन राजस्थान भाजपा के संदर्भ से बात करें तो अलोकतांत्रिक संस्कारों से पोषित दक्षिणपंथी पार्टी होते हुए भी यहां भैरोसिंह शेखावत के होते लोकतांत्रिक मूल्यों में कुछ भरोसा रखने वालों का पार्टी में बोलबाला रहा है। केन्द्रीय स्तर पर बात करें तो ऐसे ही अटलबिहारी वाजपेयी रहे, जिनके मुखौटे के चलते ही सही, पार्टी का चेहरा कुछ हद तक लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष बना रहा।
भाजपा नेताओं में भैरोसिंह शेखावत की छवि ना केवल धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक की रही बल्कि उच्च जाति वर्ग से होते हुए भी जातीय दंभ से लगभग मुक्त व्यवहार करते हुए भी उन्हें देखा गया। हाल ही के पद्मावती विवाद के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो शेखावत के राज में रूपकंवर के सती होने का मामला उल्लेखनीय उदाहरण है, उन्होंने तब स्वजातीय दबंगों की बिल्कुल परवाह नहीं की। वहीं वर्तमान मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का मिजाज सामन्ती होते हुए भी साम्प्रदायिक ना होने की अपनी साख उन्होंने हाल तक बचाए रखी है। वसुंधरा के राज में लोकतांत्रिक मूल्यों का मान भी कुछ तो रखा ही जाता है, इसे गुजरात के मोदी राज से तुलना कर बेहतर समझ सकते हैं। लेकिन शाह-मोदी जैसे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों में भरोसा बिल्कुल ना रखने वालों के पार्टी पर हावी होने के बाद की छाया राजस्थान में देखी जाने लगी है। इसे हाल ही की एक घटना से बयां कर सकते हैं।
देश में चर्चित छात्र नेता कन्हैयाकुमार का एक व्याख्यान 11 मार्च 2018 रविवार को जयपुर में आयोजित होना था। राजस्थान जनलोक मोर्चा के बैनर तले 'जन-मंथन' नाम से आयोज्य इस कार्यक्रम की स्वीकृति पुलिस-प्रशासन से पूर्व में ले ली गई थी। लेकिन आयोजन के दिन स्थानीय प्रशासन ने उसे उसी रूप में नहीं होने दिया।
यहां यह बताना जरूरी है कि जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैयाकुमार को इसलिए आरोपित और बदनाम किया गया कि जेएनयू के एक कार्यक्रम में उन्होंने भारत के टुकड़े होने जैसे नारे लगाए थे। लेकिन दिल्ली पुलिस ने जिस आरोप में कन्हैयाकुमार को जेल भिजवाया था, उसे वह न्यायालय में सिद्ध करना तो दूर, बल्कि जांच के बाद उसी पुलिस को न्यायालय में कहना पड़ा कि आरोपित अपराध में कन्हैयाकुमार की कैसी भी लिप्तता नहीं थी। जिन पांच नकाबपोशों ने बाहर से आकर जेएनयू के उस कार्यक्रम में राष्ट्रद्रोह के नारे लगाये थे, उनकी पहचान दिल्ली पुलिस अभी तक नहीं कर पायी है। इससे उस शक की पुष्टि होती है कि कन्हैयाकुमार और उस कार्यक्रम के आयोजकों को बदनाम करने के लिए विरोधी विचारधारा वालों की वह करतूत स्क्रिप्टेड थी। इस तरह की 'इल पॉलिटिकल प्रैक्टिसÓ के शिकार बहुधा भले लोग ही होते हैं।
यह सब बताना इसलिए जरूरी है कि जैसे ही राजस्थान के शासन पर प्रभावी भाजपाइयों के उन अलोकतांत्रिक नेताओं को यह जानकारी हुई कि 11 मार्च के इस आयोजन में कन्हैयाकुमार का भाषण होना है, वे सक्रिय हो लिए। ना केवल कार्यक्रम की स्वीकृति रद्द करवा दी गई बल्कि कार्यक्रम होने से एक दिन पूर्व पुलिस ने आयोजक युवा एक्टिविस्ट हरिदान चारण को बुलाकर हवालात में भी बन्द कर दिया। ऐसे हालात आपातकाल के अलावा तो उन इन्दिरा गांधी के शासन में भी कभी देखे नहीं गये जिन्हें यही भाजपाई अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के नाम पर सर्वाधिक भुंडाते हैं। इस घटना की जानकारी जैसे-तैसे हरिदान के शुभचिन्तकों को हो गई और वे भी सक्रिय  हो लिए। यहां यह बताना भी जरूरी है कि भाजपा में अब भी कुछ युवा नेता ऐसे हैं जिनका ना केवल सोच और व्यवहार धर्मनिरपेक्ष है बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों में भी उनकी निष्ठा है। ऐसे भाजपाइयों को ना केवल पुलिस-प्रशासन से भिडऩा पड़ा बल्कि अपने नेताओं से भी संवाद करना पड़ा। इस कवायद के बाद हरिदान को तो छोड़ दिया लेकिन कार्यक्रम रद्द करने के आदेश को वापस फिर भी नहीं लिया। स्वीकृति को बहाल फिर भी नहीं किया गया। प्रशासन से बड़ी जद्दोजेहद के बाद तय समय पर जयपुर के ही कुमारानन्द भवन में सीमित कार्यक्रम कर आयोजकों को सन्तोष करना पड़ा।
कन्हैयाकुमार पर लगाए आरोपों को जब दिल्ली पुलिस खुद वापस ले चुकी है, जयपुर में उनके आयोजन से सत्ता का भयभीत होना वर्तमान सरकार के चरित्र को संदिग्ध बनाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे अधिकार की यह अवहेलना संवैधानिक भावना के खिलाफ है। इस तरह की कार्यवाहियों से लगता है कि शासन में उन लोगों का दबदबा बढ़ रहा है जिनका विश्वास ना लोकतांत्रिक मूल्यों में है और ना ही धर्मनिरपेक्षता में। ऐसे में, यह जरूरी हो जाता है कि ना केवल हरिदान जैसे एक्टिविस्टों की हौसला अफजाई हो बल्कि भाजपा में ऐसे नेताओं की ताकत भी बढ़े जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मूल्यों और वैचारिक-धार्मिक सहिष्णुता में भरोसा रखते हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की श्वसन क्रिया और वैचारिक-धार्मिक सहिष्णुता उसकी प्राणवायु है।
दीपचन्द सांखला
22 मार्च, 2018

1 comment:

l k chhajer said...

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भाजपा राज में खतरा बढ़ता ही जा रहा है। अघोषित आपातकाल।