Thursday, February 22, 2018

आन्दोलन की गाय कामधेनु बन क्या चुनावी वैतरणी भी पार करवा सकेगी?

2013 के विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व केन्द्र की तत्कालीन सरकार के खिलाफ जो माहौल बना, वर्तमान भाजपा सरकारों के खिलाफ वैसा ही माहौल बनने की अनुकूलताएं दिखने लगी है, विपक्ष चाहे तो केन्द्र और सूबे की वर्तमान सरकारों के खिलाफ वैसा सा माहौल बना कर लाभ उठा सकता है। लेकिन विपक्षियों में ना वैसी इच्छाशक्ति और ना ही वैसी तैयारी देखी जा रही है। धाडफ़ाड़ और दंदफंद वाला मोदी जैसा नेता ना भी हो, लेकिन एकाधिक फुलटाइम नेताओं की विपक्ष को सख्त जरूरत है।
शीर्षक बीकानेर के संदर्भ से लगाया है तो बीकानेर की बात कर लेते हैं। पिछले एक माह से अधिक समय से कलक्ट्रेट पर कांग्रेस का जो धरना चला, उसका बैनर भले ही कांग्रेस का था, वह था गोपाल गहलोत का ही आन्दोलन। शेष जो नेता धरने पर सक्रिय, अति सक्रिय देखे गये, वे सभी लोकलाज की तर्ज पर पार्टीलाज के चलते ही सक्रिय थे। और जो नेता इस आन्दोलन की उपेक्षा करने पर पूरी तरह उतरे हुए थे, वे अपनी इस उपेक्षा के माध्यम से गोपाल गहलोत को कुछ आगाह करने की मंशा से ही ऐसा कर रहे थे। उपेक्षाकर्ताओं की हेकड़ी की ऐसी बानगियों के पहले भी कई उदाहरण रहे हैं। लेकिन लगता है गोपाल गहलोत बीकानेर पूर्व विधानसभा सीट की कांग्रेस से अपनी दावेदारी में ना तो कोई कसर रखना चाहते हैं और ना ही चुनाव जीतने में।
जहां तक पार्टी टिकट दावेदारी की बात है वह कई रणनीतियों पर निर्भर करती है। ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें लगातार प्रयासों और बन चुकी हैसियत के चलते अपने को टिकट के पुख्ता दावेदार मान चुके  भी खाली हाथ लौट आते हैं। टिकट वितरण के निर्णयों में फाउल या थर्ड एम्पायर के निर्णय भी कम असरकारी नहीं देखे गये हैं। इसलिए उम्मीदवार वही होता है जो नाम वापसी के समय बाद तक कायम रह पाता है।
रही बात चुनाव जीतने की, तो यह निर्णय करना भी कम विकट नहीं है कि टिकट लाना ज्यादा मुश्किल है या चुनाव जीतना। गोपाल गहलोत उस क्षेत्र से नुमाइंदगी की मंशा पाले हैं, जिस क्षेत्र के मतदाताओं का बड़ा हिस्सा संस्कारों के मामले में घराने-विशेष के प्रति कृतार्थ भाव से अपने को आजादी के 70 वर्षों बाद भी मुक्त नहीं कर पा रहा है।  ऐसा भाव बीकानेर पूर्व विधानसभा के पुराने बसावटी क्षेत्र की कमोबेश सभी जातियों में देखा जा सकता है। खासकर इसी बिना पर बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से घराने के डॉ. करणीसिंह लगातार पांच चुनाव बिना कुछ खास किए जीतते रहे। गोपाल गहलोत यदि कांग्रेस में उम्मीदवारी ले आते हैं तो उनकी लगभग तय प्रतिद्वन्द्वी सिद्धिकुमारी ही होंगी। अच्छे खासे वोटों के अंतर से दो बार चुनाव जीत चुकी सिद्धिकुमारी क्षेत्र और विधानसभा दोनों जगह हर तरह से लगभग निष्क्रिय होने के बावजूद जीत की पूरी संभावनाएं संजोए हैं।
इसीलिए गोपाल गहलोत ही नहीं, सिद्धिकुमारी के सामने किसी भी उम्मीदवार के लिए ये स्थितियां चुनौतीपूर्ण हैं। चुनाव लडऩे की सभी क्षमताएं रखने वाले गोपाल गहलोत भी उक्त परिस्थितियों के सामने असर खो सकते हैं तो अन्य किसी उम्मीदवार के सामने उक्त प्रतिकूलताएं और भी ज्यादा भारी हो सकती हैं। गोपाल गहलोत का मुख्य नकारात्मक बिन्दु उनकी छवि भी है, जिसे प्रचारित करकेउनके विरोधी बड़ी बारीकी से लाभ उठाते रहे हैं। इसे गोपाल गहलोत की लापरवाही कहें या उनकी असफलता कि वह अपनी नकारात्मक छवि को बदल नहीं पाए हैं। इसके ठीक उलट नन्दलाल व्यास उर्फ नन्दू महाराज की बात करें तो राजनीति में जब वे आए थे, तब उनकी छवि भी नकारात्मक थी। लेकिन जनता में उन्होंने इसे स्वीकार्य बना लिया। इस स्वीकार्यता में उनके विरोधी रहे डॉ. बीडी कल्ला की अन्य आयामों में बनी नकारात्मक छवि भी बड़ा कारण रही। नंदू महाराज को कल्ला से जिस तरह की अनुकूलता मिली वैसी गोपाल गहलोत को सिद्धिकुमारी से नहीं मिलने वाली। नाकारा और जनता को सुलभ ना होने जैसी नकारात्मकता छोड़ दें तो सिद्धिकुमारी की छवि शालीन महिला की तो है ही।
खैर, जिस मुद्दे पर बात शुरू की वहीं लौट आते हैं। गाय को कामधेनु मान जिस चुनावी वैतरणी को पार करने की आकांक्षा में गोपाल गहलोत ने जो लम्बा धरना दिया वह किन्हीं कारणों से ही सही, सम्मानजनक स्थितियों में उठ गया। और यह भी कि दिहाडिय़ों को छोड़ दें तो जो राजनीतिक कार्यकर्ता कांग्रेस के नाम पर इस आन्दोलन से जुड़े वे ऊबने लगे थे। वह तो गो-शाला के लिए भूमि आवंटन का सरकारी आदेश यदि नहीं आता तो गोपाल गहलोत को धरना उठाने के लिए कोई अन्य तजवीज बिठानी पड़ती। अन्त में प्रश्न तो यही है कि क्या इस आन्दोलन का लाभ आगामी चुनावों में गोपाल गहलोत को मिलेगा। जनता जिन तरीकों से अपना मन बनाती या बदलती है, उससे तो ऐसा नहीं लगता।

जनता में पैठ बनाने के लिए गोपाल गहलोत को कोई अन्य आयोजन करना होगा जिसके चलते वे अपने क्षेत्र के मतदाता का मन बदल सकें। यदि ऐसा कुछ वे कर पाते हैं और उसका अहसास सिद्धिकुमारी को करवाने में सफल हो जाते हैं तो फिर हो सकता है वह आशंकित हार के लगते मैदान छोड़ देंगी, वे डॉ. करणीसिंह की पोती हैं, 1971 के लोकसभा का एक ही चुनाव जीतने में उन्हें जोर आया और लगा कि हार गये तो 'आब' उतर जायेगी। डॉ. करणीसिंह ने तभी तय कर लिया था कि अब कोई चुनाव नहीं लडऩा। फिर तो जीतने में सर्वाधिक अनुकूल 1977 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने जनता पार्टी से भी उम्मीदवार होने से इनकार कर दिया था।
दीपचन्द सांखला

22 फरवरी, 2018

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