नरेन्द्र मोदी ने उस हुनर
को साध रखा है, जिसमें अपने कहे
को अवाम के अन्तरतम में पैठा सकें। ऐसे हुनर की विश्वसनीयता चाहे ना हो, वोट जरूर हासिल
हो जाते हैं। इसी 15 अगस्त को
नरेन्द्र मोदी ने लालकिले से चौथी बार संबोधित किया। जैसा प्रधानमंत्री ने बताया
कि 'मन की बात' के श्रोताओं के
आग्रह पर इस भाषण का समय कम रखा है, फिर भी लगभग 56 मिनट का हो ही गया वह। प्रधानमंत्री मोदी अपने कहे में जिस
तरह की चतुराइयां बरतते रहे हैं उसे वैसे तो शातिरपना कहने में कोई अतिशयोक्ति
नहीं माना जाना चाहिए, फिर भी चूंकि वे
प्रधानमंत्री जैसे गरिमामय पद को संभाले हैं तो इस तरह की शब्दावली से बचना जरूरी
है।
गोरखपुर शिशु संहार की
घटना अभी ताजा है। प्रधानमंत्री इसका उक्त भाषण में उल्लेख करेंगे इसकी उम्मीद
इसलिए नहीं की, क्योंकि जो
व्यक्ति इससे भी छोटी घटनाओं पर आए दिन ट्विट करे और गोरखपुर शिशु संहार पर
सार्वजनिक तौर पर संवेदना प्रकट करना भी जरूरी नहीं समझे। हुआ भी लगभग वैसा ही, उन्होंने अपने इस भाषण में
गोरखपुर की घटना को प्राकृतिक आपदाओं के जिक्र के साथ निबटा दिया। ऐसा इसलिए कि
यह घटना जिस शहर में हुई,
उस शहर के
नुमाइंदे उस प्रदेश की सरकार के मुखिया हैं, जिन्हें विधायक न होते हुए केवल इसलिए मुख्यमंत्री बना दिया
गया, क्योंकि वे
प्रधानमंत्री मोदी के असल ऐजेण्डे की पूर्णता में सहायक रहे, रहेंगे।
इसे जुमलों में बात कहने
का उतावलापन ही कहा जाएगा कि 21वीं सदी में जनमे किशोर-किशोरियों को अठारह वर्ष के हो
चुकने पर नौजवान बताते हुए इस वर्ष को उन सब के लिए निर्णायक वर्ष बता दिया। जबकि
जो 1 जनवरी, 2001 को भी जनमा वह
भी 31 दिसम्बर, 2018 को 18 वर्ष का होगा और
तभी वैधानिक तौर पर बालिग या नौजवान कहलाएगा। हां, यह जरूर है कि ऐसे किशोर-किशोरी लोकसभा चुनाव
में मतदान के हकदार तभी हो पाएंगे जब मोदी मध्यावधि चुनाव ना कराएं। इसी तरह का
उतावलापन उन्होंने मंगलयान का श्रेय लेते हुए दिखाया। मंगलयान का प्रक्षेपण 5 नवम्बर, 2013 को किया गया और
वह 24 सितम्बर, 2015 को पहुंचा। इस
तरह कुल समय लगा 10 माह 19 दिन जबकि
प्रधानमंत्री ने इसे 9 महीने में
पहुंचा देने की बात कही। उनके भाषण से यूं लगता है कि 26 मई 2014 को शपथ लेने के
तुरन्त बाद बीच रास्ते में मंगलयान को धकियाने पहुंच गये मोदीजी!
कश्मीर पर और जातिवाद-सम्प्रदायवाद
पर जो कुछ भी प्रधानमंत्री ने कहा उससे ठीक उलट आचरण, व्यवहार और
प्रतिक्रियाएं संघानुगामियों और मोदीनिष्ठों की रही है। इसमें सुधार की बात तो दूर
लगातार गिरावट ही दर्ज देखी जा रही है। प्रधानमंत्री के ऐसे उद्बोधन कहीं उस कंजूस
दुकानदार जैसा संकेत तो नहीं है जिसमें दुकान पर आए ग्राहकों-मित्रों के लिए दो
चाय का आदेश वे अपनी दो अंगुलियों को इनकार की मुद्रा में हिलाते हुए देता है, जिसका मतलब
चायवाले को यही समझाया गया होता है कि चाय नहीं भेजनी है।
प्रधानमंत्रीजी ने तीन
तलाक पीडि़ताओं की स्थिति पर चिंता जताई जो वाजिब ही है। अच्छा होता प्रधानमंत्री
उन स्त्रियों की भी चिंता करते जिन्हें बिना तलाक दिये ही छोड़ दिया जाता है। ऐसी
स्त्रियों की स्थिति उन तीन तलाक पीडि़ताओं से बदतर इसलिए होती है कि अपने
संस्कारों के चलते उनमें से अधिकांश दूसरी शादी भी नहीं कर पाती।
देशवासियों को गरीबी से
मुक्त कराने की बात पचास वर्ष पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शुरू
की, तब समाजवाद के
नारे के साथ सार्वजनिक क्षेत्र को विकसित करने जैसे कुछ सकारात्मक कदम भी उन्होंने
उठाए। लेकिन अच्छा-खासा बहुमत मिलने के बाद वे भी लोकतांत्रिक पटरी से उतर गई और
आपातकाल के बाद लगातार ऐसा कुछ होता रहा कि देश की आर्थिक दिशा ही बदल गई। आज पचास
वर्ष बाद मोदीजी फिर गरीबी से मुक्ति की बात तो करते हैं, लेकिन ऐसी बातों
के सर्वथा विपरीत आर्थिक नीतियों में वे ऐसा कर कैसे पाएंगे, उन्होंने नहीं बताया।
असलियत तो यह है कि गरीब और अमीर के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है, गरीब ऐसी अवस्था
को हासिल हो रहा है जिसके लिए जबानी करुणा कोई काम नहीं आती।
आम लोगों की तरह
प्रधानमंत्री को भी लगता है कि केवल सैनिक ही देश के लिए अपना प्राण न्योछावर करते
हैं। जबकि देश में ऐसी बहुत सी सेवाएं हैं जिन्हें अंजाम देते हुए बहुत से कर्मी
आए दिन अपनी जान गवां बैठते हैं। अधिकांश तरह के कारखानों, रेलवे, रोड ट्रांसपोर्ट, पुलिस, अर्ध सैनिक बल और
सिवर सफाई जैसे कामों में लगे सैकड़ों लोग आए दिन अपने परिजनों को छोड़ हमेशा-हमेशा
के लिए विदा हो लेते हैं। ऐसे कर्मी भी देश सेवा ही कर रहे होते हैं, लेकिन यह समझ से
परे है कि ऐसी मौतों का उल्लेख देशसेवा के नाम से क्यों नहीं होता और ऐसी मौतों के
बाद उनके परिजनों की सुध वैसे क्यों नहीं ली जाती जैसी सैनिकों के परिजनों की ली
जाती है।
केवल सैनिकों की मौत को
ही विशेष महत्त्व देना शेष सभी कर्मियों की मौत को कम आंकना है। इसे अन्यथा ना
लें। सैनिक की मृत्यु के बाद पेंशन, परिजनों को आजीविका का साधन व आश्रितों को आजीवन विशेष
सुविधाएं भी मिलती हैं। इस बात का उल्लेख इसलिए नहीं किया जा रहा है कि ऐसा नहीं
होना चाहिए बल्कि इसलिए किया जा रहा है कि ऐसी सुविधाएं अन्य सेवाओं में लगे
कर्मियों की मौत के बाद उनके आश्रितों को भी मिलें। सबसे बुरा हाल असंगठित क्षेत्र
के सफाइकर्मियों के परिजनों का है। सामाजिक तौर पर सर्वाधिक शोषित समूह में आने
वाले ये लोग सिवर सफाई जैसी आधुनिक व्यवस्था में आए दिन शिकार होते हैं, बावजूद इसके ना
इन्हें जीते-जी कुछ विशेष हासिल होता है और मरने के बाद परिजनों को तो कुछ भी
हासिल नहीं होता। प्रधानमंत्रीजी! ऐसों के उल्लेख के बिना गरीब की चिन्ता केवल
ढोंग है और केवल सैनिकों का उल्लेख करना सूखा राष्ट्रवाद।
अवैध धन की मोदी बहुत
बातें करते हैं। चुनाव जीतने के पहले वादा किया था कि विदेशों में जमा काला धन
मात्र सौ दिन में ले आएंगे। उन्होंने ये भी कहा कि यह अवैध धन इतना होगा कि
प्रत्येक नागरिक के हिस्से 15-15 लाख रुपये आ जाएंगे। इस वादे को तो उनके जोड़ीदार अमित शाह
ने जुमला तक करार दे दिया है। वहीं अपने प्रधानमंत्री काल में नोटबन्दी जैसा
अनाड़ीपन उन्होंने किया, उसकी लीपापोती
करने से भी मोदीजी अपने उद्बोधन में नहीं चूके। चूंकि नोटबन्दी जैसे तुगलकी फरमान
पर रिजर्व बैंक ने अभी तक ऐसे कोई आंकड़े नहीं दिए जिनसे प्रधानमंत्री को अपने
उद्बोधन में नोटबन्दी पर खुश होने जैसी बात को पुष्ट करती हो और ना ही किसी
प्रामाणिक अर्थशास्त्री ने इसे सकारात्मक निर्णय बताया। शायद इसलिए प्रधानमंत्री
को बाहर के किसी एक्सपर्ट का नाम लिए बिना अपनी यह हवाई सफलता गिनवानी पड़ी।
अपने सभी कार्यक्रमों और
योजनाओं की सफलताओं का उल्लेख प्रधानमंत्री ने अपने इस भाषण में किया। अफसोस यही
है कि उनमें शायद ही कोई धरातल पर सफल होते दीख रही है। जैसा कि प्रधानमंत्री के
लिए यह कहा जाता है कि वे अपने कहने के तरीके से रात को भी दिन बतला दें तो लोगबाग
मान लेंगे कि दिन है, पर क्या इतने भर
से उजाला हो जाता है? प्रधानमंत्रीजी, बस जनता के विवेक
के जागने का इंतजार है। देखते हैं वह 2019 में जागता है या फिर 2024 में, या फिर जनता केवल रोटी पलटना ही जानती है। विवेक यदि नहीं
जागता है तो उसे ठगे जाने और शोषित होते रहने से कोई रोक नहीं सकेगा।
—दीपचन्द सांखला
17 अगस्त, 2017
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