Thursday, July 27, 2017

अमित शाह का तीन दिन का जयपुर प्रवास बहुत कुछ तय कर गया

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तीन दिन के प्रवास पर जयपुर हो कर गये हैं। इसे सामान्य या औपचारिक यात्रा नहीं कहा जा सकता। इस यात्रा का पार्टी और सरकार पर गहरा असर और दूरगामी परिणाम होंगे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि निचले स्तर के पार्टी संगठनों तक पहुंचने के लिए अमित शाह की यह यात्रा बायपासीय पड़ाव है जिसमें राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और उनके मोहरे प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी को बायपास कर दिया जाना है। असर तो यात्रा की घोषणा के साथ ही दिखाई देने लगे थे। प्रदेश भाजपा में लगभग सुप्रीमो की हैसियत बना चुकी वसुंधरा राजे पर इस तरह का दबाव तब से ही शुरू हो गया जब से मोदीजी प्रधानमंत्री बने और बाद इसके पार्टी की कमान शाह को मिली। लेकिन लम्बे अरसे तक राजे ने जोर आजमाइश जारी रखी, वहीं चतुर और शातिर मोदी एण्ड शाह एसोसिएट कम्पनी ने आत्मविश्वास के साथ धैर्य रखा और उलझने का अवसर नहीं आने दिया। उनकी इसी रणनीति का परिणाम था कि वसुंधरा राजे का विश्वास धीरे-धीरे डिगने लगा। राजे के टूटते आत्मबल ने जैसे ही गुंजाइश दी अमित शाह तीन दिनों के लिए बैठकों के विस्तृत कार्यक्रम के साथ आ धमके। जैसा कि ऊपर कहा कि शाह का यह आना कोरा यूं ही आकर चले जाना भर नहीं था। प्रदेश भाजपा की प्रत्येक इकाई के माध्यम से कार्यकर्ताओं तक शाह ने यह सन्देश पहुंचा दिया कि बजाय सरकार को मजबूत बनाने के पार्टी को मजबूत बनाने में लगें और प्रयास इस तरह के करें कि अगले पचीस वर्षों तक सभी तरह की सत्ताएं पार्टी के पास रहें।
शाह की इस पूरी कवायद के मानी यही निकल रहे हैं कि प्रदेश भाजपा की कमान कहने भर को परनामी के हाथों रहेगी, लेकिन अब चलेंगे शाह के ही तौर-तरीके। जिसके मानी यह भी हैं कि वसुंधरा को भी अब ठिठके रहना होगा, मुंह निकालने की कोशिश की तो निस्तेज करते देर नहीं लगेगी।
2013 के बाद से पार्टी पर लगातार पकड़ बढ़ाते मोदी एण्ड शाह की स्थितियां अब लगभग अजेय हो चुकी हैं। अनुकूल शासकीय माहौल के चलते और परोक्ष-अपरोक्ष तौर पर अपने ऐजेन्डे में लगातार सफलता मिलते रहने से पार्टी की पितृ संस्था आरएसएस भी इन दोनों पर लगभग मोहित है। वैसे भी वसुंधरा राजे भाजपा की गैर-संघी मुख्यमंत्री हैं। इसलिए संघ की सहानुभूति कभी राजे के साथ नहीं रही। ऐसे में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों को पार्टी कहने भर को वसुंधरा के नेतृत्व में भले ही लड़े लेकिन पिछले तीन विधानसभा चुनावों से आधी भी पकड़ वसुंधरा की रहेगी, नहीं लगता। पार्टी उम्मीदवारों के चयन तक में सब शाह की ही चलनी है। अभी से भारी दबाव में आ चुकी वसुंधरा समय की नजाकत देख हो सकता है सबकुछ बर्दाश्त कर लेंगी। इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है। पार्टी का लगभग अपहरण कर चुके मोदी और शाह अब तो अधिनायकों जैसी हैसियत भी पा चुके हैं। ऐसे में वसुंधरा वैसी अनुकूल परिस्थितियों में भी अपने को नहीं पाएंगी कि वह अपनी पसन्द सख्ती से रख भी सकें।
भाजपा प्रदेश में अगला चुनाव फिर जीतती हैजो फिलहाल दीख रहा हैतो वसुंधरा को उसके पिछले या बचे-खुचे तेवरों के साथ शासन दुबारा पार्टी नहीं सौंपेगीराजे को वर्तमान शासकीय हैसियत पुन: हासिल करने के लिए मोदी-शाह कम्पनी के आगे शत-प्रतिशत समर्पण दिखाना होगा। जैसा वसुंधरा का मिजाज रहा है, उसमें ऐसी गुंजाइश लगती कम है।
कुल तीन दिन के प्रवास में सन्देश यही देने की शाह की पूरी कोशिश रही कि पार्टी का मुख्य ऐजेन्डा पितृ संस्था आरएसएस और संघ के वर्तमान और पूर्व पितृ-पुरुषों की घोषित-अघोषित मंशाओं के अनुरूप देश को बनाना और चलाना है। यह इस बात से पुख्ता समझा जा सकता है कि शाह की इस यात्रा से कुछ दिन पूर्व प्रधानमंत्री मोदी ने वैश्विक दिखावे के लिए ही सही गो-रक्षकों के भेष में सक्रिय नरभक्षियों को भले ही चेतावनी दी हो मगर तत्संबंधी कोई सन्देश दबे स्वरों में भी शाह ने राज्य के भाजपाई कार्यकर्ताओं को दिया हो, जानकारी में नहीं। इसका सीधा सा मतलब यही है कि संघ और उसके अनुषंगी संगठनों की जैसी मंशा पिछले नब्बे वर्षों में रही है, उसे निर्बाध चलने दिया जाए। वोटों के धर्माधारित धु्रवीकरण के लिए वही सही है और पार्टी को सत्ता पर काबिज रखने के लिए अनुकूलतम भी।
वसुंधरा राजे जो अटलबिहारी वाजपेयी और भैरोंसिंह शेखावत की विरासत की राजनीति करती रही हैं, प्रकारांतर से वह कांग्रेस-संस्कृति की ही राजनीति मानी जाती है। इसीलिए संघ बहुत खुश कभी ना अटलबिहारी के शासन से रहा और ना भैरोसिंह शेखावत के और ना ही वसुंधरा राजे के शासन से। यही बड़ी प्रतिकूलता वसुंधरा राजे के लिए बनने जा रही है। इसी सब के चलते आगामी चुनाव की बिसात घोषित करना लगभग असंभव है। शाह राजस्थान में भी सभी तरह के मानवीय मूल्यों को ताक पर रखकर अधिनायकीय तरीके से वही सब करने वाले हैं जिससे सत्ता पुन: भाजपा को हासिल हो सके। अंत में पुन: यह लिखने में कोई संकोच नहीं है कि आगामी चुनाव में वसुंधरा की भूमिका कोई होगी भी तो जरूरत जितनी और कठपुतली जैसी। वसुंधरा यदि इसके लिए तैयार नहीं होंगी, तो छिटका दी जायेंगी।
दीपचन्द सांखला

27 जुलाई, 2017