Thursday, March 30, 2017

भाजपा के 'कांग्रेस मुक्त भारत' का बीकानेर चैप्टर क्या बीडी कल्ला लिखेंगे?

राज के ठाठ की मंशा से राजनीति में आने वालों में डॉ. बीडी कल्ला भी एक हैं। 1977 में केन्द्र में जनता पार्टी के प्रयोग की असफलता के बाद 1980 के विधानसभा चुनावों से कल्ला ने राजनीति में पदार्पण किया। 1977 के कांग्रेस-प्रतिकूल चुनावों में मोर्चे पर डटने से मुकरे गोपाल जोशी की साख 1980 तक नहीं लौटी थी। अत: कांग्रेस का टिकट हासिल करने में इस अनुकूलता के साथ ही डॉ. कल्ला की दूसरी बड़ी अनुकूलता यह कि वे जिस रामपुरिया कॉलेज में पढ़ाते थे, उसके प्राचार्य रवि तिक्कू का कश्मीरी होना और इस नाते इन्दिरा गांधी तक पहुंच होना भी रही। टिकट मिल गया और जीत भी गये। बिना प्रोफेसरी ग्रेड के तब अपने को प्रोफेसर लिखने से तीसरी अनुकूलता यह बनी कि सूबे की सत्ता में भागीदारी भी उन्हें जल्द ही मिल गई। ऐसी अनुकूलताओं के बाद जैसा सामान्यत: होता है वही डॉ. कल्ला के साथ भी हुआ, भौंहें हमेशा चढ़ी ही रहने लगी। 1980 की पहली जीत के साथ ही घर-बार जयपुर ले गये, ऐसी गलती अधिकांश नेता करते और फिर भुगतते भी हैं। आप जिन बाशिन्दों के प्रतिनिधि हैं, प्रवासी तौर पर वैसा जीवंत सम्पर्क उनसे नहीं रख पाते, जनप्रतिनिधि होने के नाते जैसे सम्पर्क की जरूरत होती है। डॉ. कल्ला तो शासन में आए ही इसलिए कि अपने अफसराना अन्दाज की तुष्टि पा सकें, जमकर उस अफसराना अन्दाज को तुष्ट किया भी। स्थानीय लोक में सर्वथा अगंभीर और बिना सीधे मतलब वाली एक टिप्पणी जब-तब सुनने को मिलती है—'उड़ती उड़ती देखी है, फंसती नहीं देखी।' 1980 के बाद के 1985 और 90 के विधानसभा चुनाव लगो-लग क्या जीते कि 'उड़ती-उड़ती देखने' की डॉ. कल्ला की अवस्था पुख्ता होती गई। इसी खुमारी में 1993 का चुनाव डॉ. कल्ला ने जैसे ही हारा, लोग कहने से नहीं चूके कि कल्ला ने फंसती अब के ही देखी है।
यद्यपि 1998 और 2003 के चुनाव वे फिर जीत गये लेकिन 1980 और 1985 वाला उनका इकबाल फिर नहीं लौटा। लेकिन उनका वह वहम जरूर लौट आया जो पिछली सदी के नौवें दशक में था।
इसके बाद डॉ. कल्ला के रिश्ते में बहनोई और राजनीति के पारिवारिक प्रेरक डॉ. गोपाल जोशी भाजपा में पहुंच गये और अपनी पचहत्तर पार की वय में भी 2008 और 2013, दोनों चुनावों में साले बीडी कल्ला को पटखनी दे डाली।
2013 के चुनावों से पूर्व पार्टियों में टिकटों के बंटवारे के समय भी यह बात उड़ती-उड़ती आयी जरूर थी कि डॉ. बीडी कल्ला ऐसी अनुकूलताओं को टटोल रहे हैं कि बीकानेर पश्चिम से उन्हें भाजपा का टिकट हासिल हो जाए। लेकिन फिर सुना यह गया कि कुछ तो तब कल्ला पूरे साहस के साथ मांग नहीं कर पाए क्योंकि कांग्रेस में जैसी-तैसी भी थी प्रदेश स्तरीय नेता की वे साख बना चुके थे। दूसरा, यहीं से विधायक और बहनोई गोपाल जोशी भी मोर्चे पर डटे रहे और सत्ता हासिल करने की फिराक में भाजपा भी कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती थी। ऐसे सब कारणों के चलते 2013 में डॉ. कल्ला का पलटी मारना संभव नहीं हो सका।
लगो-लग दो बार और कुल जमा हार के तीन झफीड़ खा चुके कल्ला का आत्मविश्वास सुनते हैं 2013 से डगमगाया हुआ है। इसलिए वे उन सभी प्रयासों और विकल्पों पर लगातार मंथन में लगे हैं कि 2018 का चुनाव उन्हें हर हालत में जीतना है, इस हेतु कोई कोर-कसर वे रखना नहीं चाहते। इसी कवायद में सुनते हैं कि 35 वर्ष बाद ही सही डॉ. कल्ला अपना घर-बार बीकानेर लौटा लाने की मंशा बना चुके हैं। उम्र के चलते बहनोई गोपाल जोशी को भाजपा से इस बार उम्मीदवारी ना मिलने के कयासों के बीच डॉ. कल्ला भाजपा में अपने प्रभावी संपर्क न केवल अभी भी सहेजे हुए हैं बल्कि कहा जा रहा है कि वे ऐसे नेता के संपर्क में हैं जिन्हें सूबे का संभावित मुख्यमंत्री भी कहा जाने लगा है। उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणामों के बाद अब 2018 का विधानसभा चुनावी परिदृश्य भी लगभग तय माना जाने लगा है, ऐसे में डॉ. कल्ला डगमगाने को पूरी तरह तैयार हैं। डॉ. कल्ला के अंतरंग ठठेबाजी (मजाक) में कहते ही रहे हैं कि कल्ला बायचांस ही कांग्रेस में हैं अन्यथा मानसिकता उनकी संघी की ही है। यह मजाक यदि सही है तो कल्ला के इस तरफ पलटने में किसी वैचारिक या कहें नैतिक संकट की ऊहापोह से भी उन्हें गुजरना नहीं होगा।
2018 के राज्य विधानसभा चुनावों की बिसात जिस तरह बिछती नजर आने लगी है, उसमें कल्ला को भाजपा उम्मीदवार के रूप में स्वीकार कर लेने में चुनाव जीतने के मोदी-शाह के तौर-तरीकों को देखते हुए, इंकार की गुंजाइश कम ही दीखती है। अर्थात् इसे यूं कह सकते हैं कि कल्ला की कुर्सी की कुलबुलाहट खत्म होने के आसार दिखने लगे हैं, जबकि कांग्रेस के सिम्बल पर फिर हारने का संशय लगातार बढ़ ही रहा है। कल्ला यदि भाजपा टिकट से चुनाव जीतते हैं और सूबे में सरकार भी भाजपा की बनती है, ऐसा फिलहाल लग भी रहा है, यदि ऐसा होता है तो कल्ला को नजदीकी तौर पर जानने वालों के हिसाब से कल्ला अपने आजमाए तरीकों से कैबिनेटी भी ले पड़ेंगे। ऐसे में बीकानेर का भला कुछ हो या ना होजो बीकानेरियों की नियति भी लगती है। इतना जरूर है कि भाजपा के युवा नेताओं यथा अविनाश जोशी, विजयमोहन जोशी, विजय आचार्य और कर्मचारी नेता भंवर पुरोहित जैसों की उम्मीदों पर तो पानी फिर ही जाना है। क्योंकि मोदी-शाह की प्राथमिकता बजाय वैचारिक निष्ठा केसत्ता हासिल करना ही है। मोदी और शाह दोनों ही यह अच्छी तरह जानते हैं कि सत्ता है तो सब कुछ हासिल किया जा सकता है। ऐसा वे पहले गुजरात में और फिर केन्द्र में करके दिखा चुके हैं।
रही बात कांग्रेस मुक्त बीकानेर की तो कांग्रेस की बीकानेर शहर इकाई पर जिस तरह 'कल्ला कांग्रेसÓ और 'डागा चौक कांग्रेसÓ की छाप कल्ला-बंधु पुख्ता करवा चुके हैं, ऐसे में शहर कांग्रेस के दफ्तर का बोर्ड ही पलटना है। हाशिए पर लुढका दिए गए अन्य शहर कांग्रेसियों में ऐसी कूवत दिख नहीं रही कि वे शहर कांग्रेस का साइनबोर्ड और झंडा पकड़े खड़े भी रहे सकें। ऐसे में इस आलेख के शीर्षक की सार्थकता पुख्ता ही लग रही है कि भाजपा के 'कांग्रेस मुक्त भारत' का बीकानेर चैप्टर क्या कल्ला बंधु लिखेंगे?
रही बात भाईजी जनार्दन कल्ला कि तो वे इस घोर राजनीतिक कलियुग में भी एक आदर्श बड़े भाई की भूमिका में जिस तरह लगे हैं उसमें रावण-कुंभकरण का रामलीलाई संवाद सहज ही स्मरण हो आता है। इसमें राम के लंका पर आक्रमण की सूचना जब रावण कुंभकरण को जगाकर देते हैं तब कुंभकरण ने आक्रमण का कारण जानना चाहा तो रावण ने सीता अपहरण की बात बता दी। कुंभकरण रावण से कहते हैं कि भाई! आपने यह गलत किया है। रावण पलटकर प्रतिप्रश्न करते हुए बताते हैं कि मैं तुमसे ज्ञान लेने नहीं, यह पूछने आया हूं कि तुम युद्ध करने जाओगे कि नहीं। बेबस कुंभकरण का जवाब होता हैइसमें पूछना क्या हैमुझे तो मरना है।
अन्तर्निहित एक संभावना यह भी : पाठक इस आख्यान के मानी समझ ही गये होंगे कि जनार्दन कल्ला भले ही बीडी कल्ला से बड़े हों, रहेंगे वे बीडी कल्ला के साथ ही। इसमें संशय की गुंजाइश कम ही है। हां यह बात अलग है कि कांग्रेस जनार्दन के किसी बेटे पर दावं लगाने को तैयार हो जाती है तो दीखती हार के बावजूद जनार्दन कल्ला डिग सकते हैं, यदि ऐसा होता है तो भले पाठक इसे कलियुग की पुष्टि मानें और भले ही शहर में कांग्रेस के अस्तित्व को बचाने की जनार्दन की कवायद ना मानें। जनार्दन कल्ला राजनीति में अपने किसी पुत्र को लांच करने के ऐसे अवसर का लोभ शायद ही छोड़ पाएं। रही बात राजनीतिक पार्टियों के अस्तित्व की तो जनार्दन कल्ला इसे भलीभांति जानते हैं कि राजनीति में अवसर तो 'उतर भीखा म्हारी बारी' की मानिंद ही है। आज भाजपा तो कल कांग्रेस या कोई अन्य विकल्प, और ऐसे में फिर भले ही बुला काका चुनाव जीत जाएं और भतीजा चाहे हार जाए, डॉ. कल्ला तब 'कांग्रेस मुक्त भारत' का बीकानेर चैप्टर नहीं लिख पाएंगे।
30 मार्च, 2017

दीपचन्द सांखला

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