साहित्यकार मालचंद तिवाड़ी एक किस्सा सुनाया करते हैं : रतनगढ़ रेलवे स्टेशन
के बाहर दो-तीन बासे (भोजनालय) हैं जहां पूर्ण खुराक की दर पर स्वादिष्ट देसी खाना
अच्छी-खासी मनुहार के साथ खिलाया जाता है। पहनावे से ठीक-ठाक व्यापारी दिखने वाले
एक सज्जन वहां सुबह खाने को पहुंचे। परोसने वाले ने थाली लगाई और चामक से भिन्न
तरह की साक-दाल परसने लगा, उन सज्जन की नजर
चामक पर थी—परोसगार जैसे ही छोंकी
हरी मिर्च परसने को हुआ, सज्जन ने हाथ के
इशारे से बरज दिया। फिर फुलके-भात परसने के बाद घूम फिर कर चामक के साथ वह फिर
लौटा और मनुहार की 'सेठां मिर्च
लेल्यो।' सज्जन ने इस बार फिर मना
किया तो मिर्ची ना लेना परोसगार को अखर गया, क्योंकि उनसे पूर्व आज जिसने भी खाना खाया, उसने मिर्च की विशेष तारीफ की थी। उसने जैसे ही
तीसरी-चौथी बार मिर्च की वैसे ही मनुहार की तो सज्जन तमातमाए और थाली छोड़ खड़े हो
गये, परोसगार पर चढ़ाई करते
बोल पड़े 'पैलां किसी मिच्र्यां ली
कोनीं और फेर किसी लेस्यां कोनी—कणा स्यूं लगा
राख्यो है'क सेठां मिच्र्यां
लेल्यो-सेठा मिच्र्यां लेल्यो, से खाणे रौ नास
कर दियो।'
अब बेचारे परोसगार को क्या पता कि उन सज्जन के लाल मिर्चों का व्यापार है और
हाल ही में उन्हें इसमें भारी नुकसान हुआ है।
यह किस्सा इसी 1 फरवरी की शाम तब
याद आ गया जब एक खबरिया चैनल पर केन्द्र सरकार के वर्ष 2017-18 के आम बजट पर चर्चा हो रही थी। एंकरिंग कर रही
दो महिलाओं में से एक ने चर्चा में शामिल केन्द्रीय वित्त राज्यमंत्री, बीकानेर सांसद अर्जुनराम से पूछ लिया कि
नोटबंदी से परेशान उस निम्न आम वर्ग की राहत के लिए बजट में क्या है। फिर क्या था?
मेघवाल ठीक वैसे ही तमतमा कर भड़क गये जैसे
खाना खाने को बासे गये उक्त सज्जन मिर्च की मनुहार पर उस बेचारे परोसगार पर भड़क
गए थे। मेघवाल का बड़ा अजीब कुतर्क था कि बजट की ही बात करें-इसका नोटबंदी से क्या
संबंध। अर्जुनराम मेघवाल उस चैनल पर कोई दस-बारह मिनट के लिए आए होंगे और वे अंत
तक सहज नहीं हो पाए। जब उनके सामने से कैमरा हटा तब तक बड़बड़ाते रहे।
परेशान सामान्य आमजन में से कई भिन्न कारणों से भले ही नोटबंदी की परेशानी
जाहिर न कर रहे हों, इसके मानी ये
नहीं कि नोटबंदी से उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। दोनों ही महिला एंकर बहुत विनम्र
रहीं, मेघवाल के शुरुआती तेवरों
से शायद दबाव में आ गई अन्यथा वे पूछ सकती थीं कि आपने नोटबंदी के तुरंत बाद इसी
चैनल पर दावा किया था नोटबंदी के सकारात्मक परिणाम के तौर पर देश के सकल घेरलू
उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर दस प्रतिशत पहुंच जायेगी जबकि पेश बजट में जीडीपी की
यह दर गिरावट के साथ 6.75 प्रतिशत बताई गई
है। खैर, मेघवाल जिस गरिमामय पद पर
हैं उन्हें इस तरह आपा नहीं देना चाहिए था।
इस सबके बावजूद मेघवाल के लिए बधाई यह बनती है कि उन्होंने अपने क्षेत्र
बीकानेर में देश के अब तक के सबसे बड़े ऑयल रिजर्व सेंटर निर्माण के लिए इस बजट
में रुपये 4200 करोड़ का
प्रावधान करवा दिया है। देखना यही है कि यह योजना जमीन पर कब आती है अन्यथा तो
बीकानेर के अनुभव अच्छे नहीं हैं, यहां के लिए बनी
योजनाएं फूटने से पहले ही झर जाती हैं। इसी तरह इस बजट से यह उम्मीद भी करते हैं
कि 3500 किमी घोषित नई रेललाइनों
में मेड़तासिटी-पुष्कर का मात्र 59 किमी. का वह
टुकड़ा भी शामिल होगा।
वहीं दूसरी ओर अपने बीकानेर के बड़े नेता और विधानसभा में भी कई बार शहर की
नुमाइंदगी कर चुके डॉ. बीडी कल्ला अब भी रेल बाइपास पर अटके हुए हैं। पेश बजट पर
प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने कहा कि बजट में बीकानेर रेल बाइपास का कोई जिक्र
नहीं है। अब डॉ. कल्ला से कोई पूछे कि देश में कोई अन्य ऐसा उदाहरण है जहां शहरी
यातायात समस्या के समाधान हेतु रेल बाइपास बना हो। चलो मान लेते है कि यह नवाचार
बीकानेर में क्यों नहीं हो सकता। बीकानेर में रेल फाटकों की यह समस्या पिछली सदी
के नवें-दसवें दशक से चर्चा में है और तब से ही इसके समाधान की मांग चल रही है।
समाधान के तौर पर रेल बाइपास भी उपाय माना जाता रहा है, कल्ला ना केवल तभी से प्रदेश सत्ता के शीर्षस्थों में रहे
बल्कि कई अवसर ऐसे भी आए जब केन्द्र में भी उन्हीं की पार्टी की सरकार रही। ऐसे
में कल्ला यह बताएं कि उन्होंने तब रेल बाइपास को अमलीजामा क्यों नहीं पहनवाया।
जनता डॉ. कल्ला को तीन बार शायद इसीलिए नकार चुकी है कि इन्हें ना तो बीकानेर की
असल जरूरतों का भान है और ना ही यहां की समस्याओं के व्यावहारिक समाधानों की सूझ।
आगामी चुनाव में कल्ला को अपनी जीत को पुख्ता करना है तो अपनी व्यावहारिक राजनीति
के छत्तीस वर्ष बाद ही सही उन्हें अब तो यहां की जमीन से जुडऩे की जरूरत समझनी
चाहिए अन्यथा आगामी चुनाव में पार्टी ने प्रत्याश्ी बना भी दिया, बावजूद इसमें वे फिर हार गये तो लौटना मुश्किल
होगा।
2 फरवरी, 2017
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