Thursday, January 12, 2017

इस तरह की सुर्खियों से क्या हासिल करेंगे यशपाल गहलोत

विधानसभा चुनावों के सन्दर्भ से बात करें तो यह माना जाता है कि बीकानेर शहर की राजनीति को तीन वर्ग समूह प्रभावित कर सकते हैं, यदि वे व्यवस्थित रणनीति के तहत मतदान करें। ये तीन वर्ग समूह हैंपुष्करणा ब्राह्मण, माली और मुसलिम। शहर में मतदान की जो प्रवृत्ति रही है उसमें देखा यही गया है कि आजादी बाद पुष्करणा ब्राह्मणों में सामूहिक हित चेतना धीरे-धीरे विकसित होती गई। 1967 के चुनावों के बाद इसका प्रभाव भी लगातार देखने में आया बावजूद इसके तब भी जब विरोधी उम्मीदवार एक ही वर्ग से होते हैं।
2003 के विधानसभा चुनावों तक शहर की एक ही सीट थी, शेष शहरी हिस्सा जिसकी बसावट फसील के बाहर की थीकोलायत विधानसभा क्षेत्र के साथ नत्थी था। पुनर्सीमांकन के बाद बने बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र में भी प्रभावी तीन वर्ग ही माने जाते हैंअन्तर इतना ही आया कि मुस्लिम व माली तो प्रभावी इस क्षेत्र में भी हैं, तीसरा वर्ग पुष्करणा ब्राह्मणों के स्थान पर राजपूतों का इसलिए है कि यह वर्ग कम होते हुए भी इसके प्रति पीढिय़ों से समर्पित कई वर्ग समूह इसी क्षेत्र में रहते हैं।
1952 के चुनाव का जिक्र जरूरी नहीं लगता। रियासती विलय के तुरन्त बाद हुए ये चुनाव हाउ-झूझूई चुनाव थे। इसी तरह आपातकाल बाद के 1977 के चुनावों को भी छोड़ा जा सकता है। 1957 से 2003 तक के चुनावों पर नजर डालें तो पुष्करणा समाज की व्यवस्थित चुनावी चेतना को समझा जा सकता है। लेकिन मुस्लिम और माली जैसे अन्य दो वर्ग प्रभावी संख्याबल के बावजूद अपनी कोई स्थाई चेतना विकसित नहीं कर सके। मुसलमानों में चेतना का ऐसा अस्थाई हबीड़ा 1972 में जरूर देखने को मिला जब निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मोहम्मद हुसैन कोहरी घोड़ा चुनाव चिह्न के साथ चुनावी मैदान में उतरे। हुसैन का घोड़ा तब मुस्लिम समुदाय के ऐसा चित्त चढ़ा कि सोशलिस्ट और जनसंघी उम्मीदवार भी पीछे रह गए। कांग्रेस के गोपाल जोशी 18,005 वोट लेकर विजयी रहे और जबकि मुहम्मद हुसैन कोहरी 9,877 वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे। यूं 1977 के चुनावों में इसी शहरी सीट से जनता पार्टी उम्मीदवार के तौर पर महबूब अली विजयी भले ही रहे लेकिन इसे वर्गीय चेतना की मत-प्रवृत्ति से हुई जीत नहीं कहा जा सकता।
पिछले कुछ चुनावों से बढ़ते साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद किसी अल्पसंख्यक उम्मीदवार का जीतना लगभग असंभव होता जा रहा है। यही कारण है कि असल अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिनिधित्व लोकसभा और विधानसभाओं में लगातार घट रहा है। यह लोकतांत्रित मूल्यों के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है।
जातीय धु्रवीकरण के परिप्रेक्ष्य में बीकानेर शहर सीट का एक उदाहरण 1990 के चुनावों में भी देखा गया। जनता दल उम्मीदवार के तौर पर प्रदेश के असल राजनेता मानिकचन्द सुराना अपनी जन्मस्थली बीकानेर विधानसभा क्षेत्र से पहली बार उम्मीदवार बने। सामने कांग्रेस के डॉ. बुलाकीदास कल्ला थे। तब कल्ला की साख उतार पर थी, चुनाव अभियान के दौरान उनकी हार निश्चित-सी लग रही थी। इस चुनाव में सुराना के विपरीत जो बात गई वह थी ओसवाल समाज का चुनाव में हाव खोलना। बस फिर क्या! यही संजीवनी कल्ला के काम आयी, आखिरी दो दिनों में हुए जातीय धु्रवीकरण ने बाजी हार चुके कल्ला को जितवा दिया। जबकि ओसवाल समाज की इस विधानसभा क्षेत्र में वोटों की हिस्सेदारी भले थोड़ी सी हो, इससे पूर्व के सभी चुनावों में इस समाज का बड़ा हिस्सा अपने हित कल्ला के साथ देखता रहा था। तब कल्ला के बारे में कहा जाने लगा था कि चुनाव जीतने की अटकल कल्ला ने हासिल कर ली है। बस जीत का अंतर ही कम-ज्यादा हो सकता है। इस जीत के बावजूद कल्ला की साख का गिरना बराबर जारी रहा। नतीजतन, 1993 में हुए मध्यावधि चुनाव में वे जमीन से जुड़े अपने ही समुदाय के नन्दलाल व्यास से पहली बार हारे।
वर्गीय धु्रवीकरण का सन्दर्भ आज इसलिए ध्यान आया कि अपनी छवि को जुझारू तौर पर स्थापित करने में लगे शहर कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल गहलोत से संबंधित वह खबर पढऩे को मिली जिसमें उनके पुलिस निरीक्षक से उलझने की बात है। इससे पहले भी हाल ही की मुख्यमंत्री की बीकानेर यात्रा के दौरान वे तब ऐसे ही सनसनीखेज रूप में नजर आए जब वे काले झण्डे दिखाने को मुख्यमंत्री के काफिले के सामने अचानक प्रकट हो लिए। ये दोनों ही घटनाएं यूं लगती है जैसे यशपाल अपने ही समुदाय और अपनी पार्टी के गोपाल गहलोत की कॉपी कर रहे हैं। गोपाल गहलोत भी शहर भाजपा अध्यक्ष रह चुके हैं और सुर्खियां पाने के लिए तब वे ऐसे ही हथकण्डे अपनाते थे।
शहर राजनीति में यशपाल गहलोत कल्ला खेमे से माने जाते हैं। और ऐसा माना जाता है कि वे बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र में चुनावी राजनीति करने की सोच ही नहीं सकेंगे। राजनीति में जब यशपाल आ ही लिए हैं, तब शहर अध्यक्षी चुनावी राजनीति की महत्वाकांक्षा जगाए बिना क्या मानेंगी? ऐसे में उनके लिए बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र ही चुनाव लडऩे को बच रहता है। 2013 के चुनावों से कुछ पहले ही कांग्रेस में आए गोपाल गहलोत इस क्षेत्र से चुनाव हार चुके हैं, सुन रहे हैं वे इसी क्षेत्र से 2018 का चुनाव लडऩे की तैयारी में अभी से जुट गये हैं। उनका यह जुटना किस प्रकार का है, नहीं पता लेकिन यशपाल गहलोत के लिए भी दावेदारी जताने का यही क्षेत्र है। ऐसे में कांग्रेस उम्मीदवारी हासिल करने में उनकी भिड़ंत गोपाल गहलोत से होनी है। प्रदेश शीर्ष पर चुनावी कमान किनके पास होगी, बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करेगा। हो सकता है कांग्रेस से राजपूत समुदाय का भी कोई अपनी दावेदारी करे।
गोपाल गहलोत और यशपाल गहलोत दोनों भिन्न साख और छवियों के राजनेता हैं। ऐसे में यशपाल के सुर्खियां पाने के तौर तरीकों की तुलना गोपाल गहलोत से की जाने लगे तो इसे कॉपी करना ही कहा जायेगा। बेहतर यही है कि यशपाल गहलोत को एक ठोस व तार्किक विपक्षी प्रवक्ता की भूमिका निभानी चाहिए। और यह भी कि वे आमजन में अपनी पैठ बढ़ाएं और जमीन से जुड़ें। केन्द्र और प्रदेश दोनों की भाजपा सरकारें अपने आधे कार्यकाल के बावजूद किसी भी वादे पर खरा उतरना तो दूर सचेष्ट भी नहीं दिख रही हैं। ऐसे में ज्यादा जरूरी है आमजन तक इस अकर्मण्यता को पहुंचाया जाए। केवल काले झण्डे दिखाना और सरकारी कारकुनों से उलझना जैसे सांकेतिक प्रदर्शन सुर्खियां तो भले ही दे, अवाम में पैठ नहीं बनाते।

12 जनवरी, 2017

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