Wednesday, February 17, 2016

देश में बिगड़ते माहौल के लिए जिम्मेदार कौन

नई दिल्ली के जिस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रेडिटेशन कौंसिल (एनएएसी) की ओर से अब तक किसी विश्वविद्यालय को मिलने वाली सर्वाधिक चौथे स्केल पर 3-9 सीजीपीए की ग्रेडिंग दी गई वह विश्वविद्यालय इन दिनों देशद्रोह की गतिविधियों के आरोप को लेकर सुर्खियों में है।
देश के विभिन्न क्षेत्रों के अधिकांशत: कमजोर तबकों से आए तकरीबन आठ हजार विद्यार्थियों वाले इस विश्वविद्यालय में पढऩा कम गौरव की बात कभी नहीं रहा। वैचारिक खुलेपन के माहौल के चलते यहां से निकलने वाला लगभग प्रत्येक विद्यार्थी बौद्धिकों में शुमार हो लेता है।
ताजा विवाद इसी 9 फरवरी को तब शुरू हुआ जब परिसर में आयोजित एक गोष्ठी में पाकिस्तान जिन्दाबाद के साथ कश्मीरी अलगाववादियों के समर्थन में नारेबाजी हुई। ऐसा कभी-कभार पहले भी हुआ है लेकिन केवल इस बिना पर ऐसी हरकतों की छूट नहीं दी जा सकती। असल दोषियों को चिह्नित कर उन पर नियम और कानून-सम्मत कार्यवाही होनी चाहिए। ऐसी वारदातों से निबटने को जहां विश्वविद्यालय के अपने नियम-कायदे हैं वहीं इनके ओछे पडऩे पर पुलिस और प्रशासन के अपने कानून-कायदे हैं ही। विश्वविद्यालय प्रशासन का मानना है कि घटना की जानकारी के बाद जांच बैठा दी गई, जल्द ही रिपोर्ट आ जानी है।
घटना के तीन दिन बाद दिल्ली पुलिस विश्वविद्यालय प्रशासन के बिना बुलाए विश्वविद्यालय परिसर में घुसती है और उक्त घटना के आरोप में विश्वविद्यालय छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैयाकुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर ले जाती है। कन्हैया आज तक पुलिस रिमाण्ड पर है। जबकि उसे देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त नहीं पाया गया। इसके उलट कन्हैया का पक्ष यह है कि वह तो नारेबाजों को रोकने वालों में था। यह जरूर माना जा सकता है कि विश्वविद्यालय छात्रसंघ के चुनाव में बहुमत से जीत हासिल करने वाले कन्हैया का केन्द्र में बहुमत से सरकार में आए दल से वैचारिक विरोध है, जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संभव है।
दरअसल मामला दूसरा है, जब से केन्द्र में वर्तमान सरकार आयी है तब से देश के सभी बड़े शिक्षण संस्थानों में सत्तारूढ़ पार्टी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसे अपनी विचारधारा थोपने का अवसर मान लिया। इसके लिए उसने मोर्चा बजाय वैचारिक के, थोपने वाला खोला, जिसकी गुंजाइश विचारशील समाज में न्यूनतम होनी चाहिए। पूना फिल्म इंस्टिट्यूट में चेयरमैन के मनोनयन का विरोध, हैदराबाद के एक विश्वविद्यालय में विपरीत विचारधारा वाले विद्यार्थियों के खिलाफ ओछी कार्रवाई और परिणामस्वरूप रोहित की आत्महत्या जैसी घटनाएं उद्वेलनकारी सिद्ध हुई। इस आत्महत्या पर उपजा आक्रोश देश के कई शिक्षण संस्थानों तक फैल गया, ऐसे में जेएनयू कैसे अछूता रहता। इस घटना ने संभवत: सरकार को विचलित कर दिया और जेएनयू की इस अलगाववादी नारेबाजी की घटना को इनके दिवालिये बौद्धिकों के हुड़े में न केवल इतना प्रचारित करवाया बल्कि आनन-फानन में कन्हैया को राजद्रोह में गिरफ्तार कर माहौल को और भी खराब होने दिया। अब तो सुरक्षा एजेन्सियों ने भी गृहमंत्रालय को दी अपनी रिपोर्ट में बता दिया है कि कन्हैया उस देश विरोधी नारेबाजी में शामिल ही नहीं था। इस रिपोर्ट ने सार्वजनिक तौर पर, मीडिया और सोशल मीडिया पर उसके समर्थन में आए सभी को सही और सरकार को गलत साबित कर दिया है।
इस बीच 1617 फरवरी को लगतार दोनों दिन कन्हैया की पटियाला कोर्ट में पेशी पर वकीलों जैसे काले कोट पहने कई लोग परिसर में घुस गए और कन्हैया व उसके समर्थकों तथा पत्रकारों के साथ मारपीट व बदसलूकी की, जिसे उच्चतम न्यायालय ने तत्काल ही गंभीरता से लिया। इस कुकृत्य का नेतृत्व पहले दिन केन्द्र में सत्तासीन पार्टी के विधायक ही कर रहे थे। दिल्ली की स्थिति बड़ी विचित्र है, उपराज्यपाल और पुलिस आयुक्त दोनों की भूमिका भद्देपन की हद तक संक्रमित कर दी गई है। खैर, यह अलग मुद्दा है।
इस पूरे घटनाक्रम में मीडिया का एक हिस्सा जहां अपनी जिम्मेदारी निभाता नजर आया वहीं कोर्ट में हुई मारपीट की घटना के बावजूद मीडिया का दूसरा हिस्सा केन्द्र की सत्ता की गुलामी करता साफ दीखा। मीडिया का यह भदेसपन यदि इसी तरह बढ़ता है तो ज्यादा चिन्ताजनक है।
सोशल मीडिया की स्थिति और भी बुरी है। केन्द्र में जिस पार्टी का शासन है उसके समर्थक तो विवेक और लोकतांत्रिक मूल्यों की सारी सीमाएं लांघते हुए अशालीन नजर आने लगे हैं। ऐसा लगने लगा है कि उन्हें अपनी ही सरकार की कानून और व्यवस्था में कोई भरोसा नहीं। वे खुद ही जुर्म तय करेंगे और खुद ही सजा देंगे। ऐसी स्थितियों में बढ़ोतरी होती है तो देश को शासन-प्रेरित अराजकता की ओर बढऩे से रोका नहीं जा सकेगा। प्रधानमंत्री भी ऐसे सभी अवसरों पर चैन की बंसी बजाते ही नजर आते हैं मानों उन्होंने खुद अपने समर्थकों को रोम में आग लगाने की छूट दे दी है।
ऐसी पुनरावृति इस देश में 1975-76 (आपातकाल) के बाद पहली बार देखी गई लेकिन इस बार उग्रता ज्यादा महसूस की जा रही है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी से जो असहमति जताते हैं और सरकारी कामकाज से असंतुष्ट हैं उन्हें देश के खिलाफ माना जाने लगा है। इस तरह शासन और देश को एक मानना बेहद खतरनाक है। शासन के कामकाज और पार्टी विशेष की विचारधारा के विरोध को देश का विरोध कैसे माना जा सकता है। ऐसी परिस्थितियों के लिए न केवल राजनीतिक विचारों के प्रति अतार्किक और अलोकतांत्रिक आग्रहों को जिम्मेदार माना जा सकता हैं बल्कि धर्मच्युत मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है।

18 फरवरी, 2016

3 comments:

Vaicharik Kalamkaar said...

बिल्कुल सही लिखा है आपने। मोदी जी के सत्ता में आते ही ऐसा माहौल बनाया गया है। शोध संस्थानों में संघ की विचारधारा के लोगों को बैठाया जा रहा है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् से लेकर नेशनल बुक ट्रस्ट तक संघी यानी हिन्दुत्व विचारधारा के असहनशील लोगों को बैठाया गया। सबसे दुखद है शिक्षा मंत्री एक अपढ़ और अनुभवहीन महिला को बनाना, जिसका क्षेत्र एंटरटेनमेंट रहा है। वह कितना पतनशील है, कौन नहीं जानता। यह जो माहौल बना है, वह इमरजेंसी वाले माहौल से भी बुरा है। मोदी सरकार हर क्षेत्र में अराजकता फैलाने पर तुली हुई है। देखना है, आगे विरोध क्या रूप लेता है। सच तो यह है कि जनविकल्प का अभाव है। लेफ्ट पार्टियाँ संघ की चुनौती का सामना कर पाने में असमर्थ दिखती हैं।

Unknown said...

लेख इशारा कर रहा है आपातकाल की ओर
यह इस लेख की punchline है
गंभीर समय है।।।
हर पल अशान्त मन जनमानस का
गीता एक संबल ।

Unknown said...

लेख इशारा कर रहा है आपातकाल की ओर
यह इस लेख की punchline है
गंभीर समय है।।।
हर पल अशान्त मन जनमानस का
गीता एक संबल ।