‘अंधेरे के कई रूप होते हैं, उजाले का रूप एक ही होता है-परार्थ।’ फेसबुक के एक स्टेटस पर दी गई एक प्रतिक्रिया को इस रूप में पढ़ा, जबकि लिखने वाले ने परार्थ की जगह ‘परमार्थ’ लिखा है। परमार्थ शब्द ने लोक से परार्थ को लगभग बाहर कर दिया है ठीक उसी तरह जिस तरह खोटा सिक्का खरे सिक्के को चलन से बाहर कर देता है। हो सकता है परमार्थ की तुलना खोटे सिक्के से करने को बेतुका बता दिया जाय। मीडिया इन दिनों यही करने में लगा है, किसी भी बयान को बेतुका या विवादास्पद बताने की होड़ में है। लेकिन सच यही है कि परार्थ बातों और व्यवहार दोनों से गायब है। परार्थ के नाम पर नाममात्र का होने वाला केवल नाम के लिए हो रहा है, यह तो स्वार्थ ही हुआ न!
परमार्थ के अर्थ जो शब्दकोशों में दिये गये हैं, वे हैं-सत्य, मोक्ष, ब्रह्म। सत्य तो कुछ समझ में आता है, पर मोक्ष और ब्रह्म जैसे शब्दों का अस्तित्व भरोसे पर ही टिका है। शास्त्रों में उल्लेख है, और शास्त्र ही इन शब्दों के प्रति आकांक्षा भाव जगाते हैं। इन शब्दों में आस्था रखने वाले केवल श्रद्धाभाव से आभासी अस्तित्व ही स्वीकार सकते हैं। मोक्ष और ब्रह्म को न विज्ञान प्रमाणित करता है और न इतिहास की कसौटी पर ये चढ़ते हैं।
दिवाली के मौके पर बात अंधेरे और उजाले से शुरू की तो वहीं लौटना होगा। दिवाली उत्तर भारत का त्योहार है, प्राचीनकाल में इसका सम्बन्ध फसल की कटाई के बाद धान के घर आने के दिन से था, तब घर में पूरे साल की रोटी की व्यवस्था होने का दिन सबसे खुश दिन होता था। बाद में जब रामकथा का सृजन हुआ तो राम के चौदह वर्ष वनवास और लंका विजय के बाद घर लौटने के दिन को इसी से जोड़ दिया गया। भारत में दिवाली न तो दक्षिण का बड़ा त्योहार है, न ही पूर्व और पश्चिम का। वहां के अपने-अपने सिरमौर त्योहार अलग हैं।
अब तो सभी त्योहार बाजार के निमित्त हो गये हैं। विज्ञापनों में और खबरों में भी, बाजार को ही रोशन दिखाया जाता है। और इस बाजार का सम्बन्ध न परार्थ से है और न ही परमार्थ से। बाजार का आधार केवल और केवल स्वार्थ हो गया है। स्वार्थ का सीधा सम्बन्ध सामर्थ्य से है। जिसका जितना सामर्थ्य उसका उतना बड़ा स्वार्थ। परार्थ का सम्बन्ध शास्त्र तो परमार्थ से जुड़ा बताते हैं। लेकिन जहां स्वार्थ होता है वहां अस्तित्व में न परार्थ हो सकता है न परमार्थ।
देश की कुल आबादी का एक-चौथाई भी समर्थ नहीं हैं तो दिवाली सबसे बड़ा त्योहार कैसे हो गई। ठिठक कर इस पर भी विचार करें कि हमारे सामर्थ्य से चौथाई न सही दसवें हिस्से जितना सामर्थ्य सबको कैसे हासिल हो सकता है। अगर इतना भर भी ठिठकते हैं तो समझ लो परार्थ की दहलीज पर पांव धर दिया। परमार्थ में भरोसा रखने वालों को जान लेना चाहिए कि वहां का रास्ता परार्थ से होकर ही जाता है। परार्थ का शब्दकोशीय अर्थ है-‘जो दूसरे के निमित्त हो’ और परार्थ भाव के मानी है ‘दूसरों की सेवा या भलाई के लिए ही जीवित रहने या कार्य करने का भाव।’
12 नवम्बर, 2012
2 comments:
वाह भई दीप जी अच्छा लिखा है
धन्यवाद
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