Thursday, October 12, 2017

सूबे की सरकार और उपचुनावों के बहाने प्रदेश कांग्रेस की पड़ताल

देश की वर्तमान राजनीति को सरसरी तौर पर देखें तो राजस्थान उन प्रदेशों में से है, जहां आज भी कांग्रेस की ठीक-ठाक जड़ें कायम हैं। भले ही पिछले चुनाव में इस पार्टी की विधानसभा में सीटें लगभग अप्रभावी रह गईं थी। लहर और आंधी में आए चुनाव परिणाम स्थाई नहीं होते, इसकी पुष्टि पिछले लोकसभा चुनावों के तत्काल बाद के दिल्ली विधानसभा चुनावों के परिणामों में और फिर उसके बाद हुए वहां के स्थानीय निकायों के चुनाव परिणामों से भलीभांति हो जाती है।
राजस्थान के पिछले विधानसभा चुनावों में 'ना भूतो' बहुमत के साथ वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री का पद संभाला। जीत की उस खुमारी में राजे प्रदेश के लिए कुछ करने का मन बनाती, तब तक भाजपा के अच्छे-खासे बहुमत के साथ केन्द्र में नरेन्द्र मोदी काबिज हो लिए। बाद इसके, जैसी कि मोदी की अधिनायकवादी फितरत है, मोदी के 'सरकिट' माने जाने वाले अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष बनाकर, पार्टी पर भी वे पूरी तरह काबिज हो गए। यह बात अलग है कि यह सरकिट फिल्मी नहीं है, खुद मुन्नाभाई होने की हसरत इनकी कभी भी जाग सकती है। अमित शाह ने तौर-तरीके एकदम बदल दिए। जो भाजपा अब तक क्षत्रपों से पोषित-प्रभावित होती आई है, ये नयी स्थितियां कई दिग्गजों के साथ क्षत्रपों को भी असहज करने वाली थी। भैरोसिंह शेखावत के बाद से राजस्थान की भाजपाई क्षत्रप वसुंधरा राजे रही हैं। जिस मिजाज की वसुंधरा हैं, उनके लिए इन नये तौर-तरीकों में अपने को अनुकूलित कर पाना असंभव-सा था। इन्हीं स्थितियों का खमियाजा ये प्रदेश भुगत रहा है। अपने पिछले कार्यकाल में दीखती सक्रियताओं में रही वसुंधरा राजे इस बार अनमनी ही नजर आती हैं।
सूबे की ऐसी अकर्मण्य परिस्थितियों ने जहां विपक्ष को कई गुंजाइशें दीं तो हैं, लेकिन 2013-14 के चुनावों में घायल हुआ विपक्ष आज तक अपने को संभाल नहीं पाया। जिस तरह की लोकतांत्रिक प्रणाली को हमने स्वीकार किया है उसमें एक सशक्त विपक्ष का होना लाजमी है। प्रदेश में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ही है, इसलिए विपक्ष की भूमिका में प्रदेश में और देश में भी लोकतांत्रिक मूल्यों को सहेजे रखने की उम्मीदें फिलहाल कांग्रेस से ही की जा सकती हैं।
पिछले चुनावों में लुंज-पुंज हुई कांग्रेस में ऊर्जा के संचार के लिए कहने को कमान युवा सचिन पायलट को सौंपी गई। इस 'कहने को' कहने का वाजिब कारण भी है। जब से सचिन को कमान मिली, तब से ही प्रदेशव्यापी सक्रियता उनकी वैसी देखी नहीं गई, जैसी बदतर गति को प्राप्त पार्टी में जोश पैदा करने के लिए जरूरी थी। हो सकता है उन्हें जिम्मेदारी देते वक्त यह अहसास करा दिया गया हो या हो सकता है अपनी अक्षमताओं के चलते यह भान हो गया है कि उनकी यह नियुक्ति अस्थाई है। यदि ऐसा है भी तो एक पूर्णकालिक राजनेता से उम्मीद की जाती है कि वह दी गई किसी भी जिम्मेदारी को नैष्ठिक जोश-खरोश अंजाम तक पहुंचाए। अपनी नियुक्ति के बाद से सचिन पायलट ने ऐसी सक्रियता आज तक नहीं दिखाई। सचिन चाहते तो अब तक वे राजस्थान के सभी कस्बों और छोटे-बड़े शहरों की एकाधिक यात्राएं करके पार्टी में जान फूंकने का काम कर सकते थे। जिसका लाभ केवल पार्टी को ही नहीं, खुद उन्हें भी मिलता। वे एक सर्वमान्य नेता के तौर पर प्रदेश में स्थापित होते। युवा और सौम्य कदकाठी के साथ-साथ वैचारिक तौर पर भी तार्किक सचिन काफी सुलझे हुए हैं, ऐसी छाप उन्होंने टीवी-डिबेटों में कई बार छोड़ी है। प्रदेश के सभी हिस्सों में जनता और कार्यकर्ताओं तक पहुंच कर व्यक्तिगत वाकफियत बढ़ाने का अवसर सचिन पायलट ने लगभग हाथ से निकल जाने दिया है। इतना ही नहीं, भीड़ में वे अपने को असहज पाते हैं और दूर-दराज से आए पार्टी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों मिलने से बचते रहते हैं, कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की यह आम शिकायत है कि पीसीसी अध्यक्ष उसी दिन कम ही मिलते हैं जिस दिन कार्यकर्ता जयपुर पहुंचते हैं, उन्हें मिलने के लिए दूसरे-तीसरे दिन तक वहां रुकना पड़ता है। सचिन पायलट के ऐसे व्यवहार से लगता है कि उनकी राजनीतिक आकांक्षा सूबे में क्षत्रप होना ना हो।
यह भी सुनने में आता है कि राजस्थान की राजनीति बाहरी लोगों को स्थापित करने का जरीया है, इसके लिए वे भाजपा और कांग्रेस दोनों को भुंडाते हैं। उदाहरण के तौर पर वसुंधरा राजे और सचिन पायलट का नाम लिया जाता है, ये दोनों ही इस आरोप में सटीक इसलिए नहीं बैठते कि मराठी मूल की वसुंधरा चाहे मध्यप्रदेश की हों, वह शादी करके राजस्थान आयीं हैं। शादी के बाद स्त्री का घर ससुराल को मानने वाली संस्कृति में ऐसी बातें परम्परागत समाज व्यवस्था को चुनौती है। ऐसे ही यूपियन मूल के पिता राजेश पायलट का और अब खुद सचिन का घर बार चाहे दिल्ली में ही हो लेकिन पिता-फिर मां और अब खुद की राजनीतिक स्थली राजस्थान ही रही है। इस तरह सचिन को भी साफ-साफ बाहरी नहीं कह सकते। यह भी कि सचिन का मन यदि सूबे की राजनीति में रमता तो प्रदेश कांग्रेस की कमान मिलने के बाद वे अपने घर-परिवार को राजस्थान ले आते।
उक्त सब बातों को छोड़ भी दें तो अपने लिए तय जिम्मेदारी पर खरा जताने को सचिन के लिए लोकसभा और विधानसभा के उपचुनाव माकूल अवसर हैं। खुद उन्हें आगे आकर अपनी हारी अजमेर लोकसभा सीट पर उम्मीदवारी जतानी चाहिए।
नोटबंदी की मूर्खता व जीएसटी लागू करने में जो अनाड़ीपना मोदी सरकार ने दिखाया है, उसके चलते पिछले डेढ़-दो माह में उनकी लोकप्रियता का ग्राफ नीचे आया है वहीं सूबे में वसुंधरा के कामचलाऊ राज से जनता को जैसी निराशा मिली, उसमें सचिन का अजमेर सीट से जीतना मुश्किल नहीं है। होना तो यह चाहिए कि अजमेर के साथ ही अलवर लोकसभा और मांडलगढ़ विधानसभा के उपचुनावों में कांग्रेस को जिताने की चुनौती सचिन को पूरे आत्मविश्वास से लेनी चाहिए। अशोक गहलोत गुजरात चुनावों की जिम्मेदारी के चलते व्यस्त भले ही हों, इन उपचुनावों में उनकी काबिलियत और समझ का सहयोग ले कर तीनों 'उपचुनावों' में जीतने का संकल्प उन्हें बना लेना चाहिए। इससे जहां राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को बल मिलेगा वहीं इस हार से प्रदेश भाजपा भी वर्ष भर बाद प्रदेश विधानसभा के चुनावों के मद्देनजर दबाव महसूस करेगी। अलवर लोकसभा उपचुनाव को सीट को जहां राहुल-सखा जितेन्द्रसिंह की प्रतिष्ठा का हेतु बनाया जा सकता है तो फिर माण्डलगढ़ विधानसभा उपचुनाव सीपी जोशी की नाक का सवाल क्यों नहीं हो सकता। सचिन पायलट को केन्द्र की राजनीति में यदि लौटना ही है तो प्रदेश की ये तीनों जीतें उन्हें बढ़े कद के साथ वहां प्रतिष्ठ करेगी।
दीपचन्द सांखला

12 अक्टूबर, 2017

Thursday, October 5, 2017

पड़ताल मोदी-शाह की साझेदारी फर्म हो चुकी भाजपा की

पिछले डेढ़-दो माह से देश में राज के खिलाफ बेचैनी वैसी सी कसकने लगी जैसी 2011-12 में तत्कालीन कांग्रेस नीत संप्रग-दो के राज में दिखने लगी थी। वाजिब वजह भी है, राहत तो दूर सभी तरह की परिस्थितियां पिछले राज से भी लगातार बदतर होती जा रही हैं। ऊपर से सरकार के नोटबन्दी जैसे मूर्खतापूर्ण निर्णय और बाद फिर हाल में अनाड़ीपने से लागू की गई जीएसटी कर-प्रणाली ने अवाम का धैर्य चुका दिया है। संघनिष्ठ घुन्नों और उन मोदीनिष्ठों को छोड़ दें जो अब भी खुद के गलत साबित होने का हौसला नहीं जुटा पा रहे हैं, तो शेष मोदी समर्थक असफल-पुराण बंचने पर या तो चुप हो लेते हैं या इतना भर कह पाते है कि मोदी ने तो मरवा दिया। कुछेक पुराने मोदीनिष्ठ ऐसे भी हैं जो मोदीजी को मजा चखाने को अगले चुनाव का इन्तजार करने का भी खुलकर कहने लगे हैं।
मोदी को नसीबवाला तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना जरूर है कि 2011-12-13 में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के लिए अनुकूलताएं लगातार बनती गईअन्ना हजारे का सक्रिय होना, योगधंधी रामदेव की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का जागना और उस सब के बीच निर्भया काण्ड का घटित होना, ऐसी सभी घटनाएं और प्रतिक्रियाएं तत्कालीन शासन को उघाड़ कर रखने को पर्याप्त सिद्ध हुईं। लेकिन इस सब के बावजूद अवाम को हासिल क्या हुआ, इस बदले राज को भी साढ़े तीन वर्ष हो लिए, अन्ना द्वारा उठाये किसी भी मुद्दे पर अमल करना तो दूर, यह सरकार उन मुद्दों पर मसक ही नहीं रही। बावजूद इसके अन्ना का चुप्पी साधे रखना लोगों को अब सालने लगा है। सोशल साइट्स पर अन्ना से पूछा जाने लगा है कि पिछली सरकार को भुंडाने की कितनी सुपारी मिली थी। वहीं रामदेव इस राज में मिली पोल से अपने धंधे को अच्छे से चमकाने में लग गये हैं। खुद द्वारा उठाए गए मुद्दों को रामदेव अब याद भी नहीं करना चाहते।
लोकतांत्रित विडंबना यह है कि पूरे विपक्ष को सांप सूंघ गया है। वह शायद वैसी अनुकूलता के इंतजार में है, जैसी भाजपा और मोदी को 2012-13 में मिल गई थी। गुजरात में वैसी अनुकूलता कांग्रेस को मिलती दिखने भी लगी है।
भारतीय जनता पार्टी संगठन नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की साझेदारी फर्म में लगभग तबदील हो चुका है। कुछ वरिष्ठों को मार्गदर्शक बना कर थरप दिया है तो शेष वरिष्ठ सहम कर साझेदारी फर्म भाजपा के कारिंदें होने में ही अपनी भलाई मान जैसी-तैसी हैसियत में चुप हैं।
रही बात लोकतंत्र का चौथा पाया माने जाने वाले अखबारों की, टीवी आने के बाद ये पेशा थोड़ा व्यापक सम्बोधन के साथ मीडिया बनकर लगभग धर्मच्युत हो लिया है। पिछली सदी के आठवें दशक में इन्दिरा गांधी की बड़ी भूल आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी सरकार के सूचना प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल के दौरान धर्मच्युत हुए मीडिया को फटकारते हुए कहा था कि शासन ने आपातकाल में झुकने के लिए कहा और आप तो दंडवत हो लिए। वे ही आडवाणी आज अपने पार्टी संगठन के साझेदारी फर्म में तबदील होने और मीडिया के टुकड़ैल हो जाने पर मूर्तिवत हैं। परिस्थितियां आपातकाल में मीडिया के दंडवत हो जाने से बदतर हैं। नहीं कह सकते कि मीडिया की नियति क्या बनेगी लेकिन फिलहाल यही लग रहा है कि अधिकांश की नीयत ठीक नहीं है। अब तो किसी को पत्रकार कहते भी संकोच होने लगा है।
प्रधानमंत्री मोदी को अभी भी लग रहा है कि उनके असत्यमेध के रथ को कोई रोकने वाला नहीं है। हाल ही में उन्होंने अपने भाषणों से गुजरात-हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं का चुनाव अभियान शुरू किया है, वहां की जनसभाओं में वे भ्रमित करने वाले अपने उसी अंदाज में नजर आए। उन्हें लगता है कि देश की अधिकांश जनता भोली और मासूम है-जो है भीफिर उनके बहकावे में आ लेगी। उन्हें यह भी भरोसा है कि भाजपा कंपनी में उनके घाघ साझीदार अमित शाह कम्पनी के फायदे के लिए कुछ भी कर सकते हैं। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों से पूर्व ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद के साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का अप्रत्याशित लाभ उनकी कंपनी उठा चुकी है। हिमाचल प्रदेश में भले ही ऐसे दंगों की गुंजाइश कम हो लेकिन वहां शासन कर रही कांग्रेस की सरकार ने इस कम्पनी हेतु काफी अनुकूलताएं बना दी हैं। गुजरात में भाजपा कम्पनी का विपक्ष ना केवल चौकन्ना है बल्कि वहां के अल्पसंख्यक भी पूरे सावचेत हैं। साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की अनुकूलता मोदी एण्ड शाह एसोसिएट को वे इस बार शायद ही दें। रही सही कसर भाजपा के परम्परागत वोट रहे पटेलों की नाराजगी से पूरी हो सकती है तो गोरक्षा के नाम पर नरभक्षकों के शिकार हुए गुजरात के दलितों में भी चेतना का संचार हुआ है। लेकिन अमित शाह को हलके में लेना गुजरात में कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर सकता है वहीं राज के विरोधी हुए पटेलों और दलितों में फांट डालकर बदलाव के उनके सामूहिक मंसूबों पर भी पानी फेर सकता है।
दीपचन्द सांखला

5 अक्टूबर, 2017

Thursday, September 28, 2017

अर्जुनराम मेघवाल के लिए अगली राह आसान नहीं

आम शहरी की समस्याएं ज्यों-की-त्यों हैं, शहर की न्यूनतम जरूरतों पर ना जनप्रतिनिधि सचेत हैं, न ही प्रशासन तत्पर, ऐसे मेंं शासन से उम्मीदें कैसी? हां, समर्थ और समृद्धों की पावली पांचाने में चलने लगी है, क्योंकि नेताओं को धन और मान इन्हीं से जो मिलता है। इसी सब के चलते लम्बे समय से समर्थों की मीडियाई मांगहवाई सेवा जयपुर के बाद दिल्ली से भी शुरू हो गई है। स्थानीय सांसद और केन्द्र में राज्यमंत्री अर्जुनराम मेघवाल का यह कहना है कि वे सत्तर सीटर विमान के लिए अड़े रहे, तभी मिला है। हो सकता है यह अड़त ही इस सेवा के बन्द होने का कभी कारण भी बने। उद्घाटनी उड़ान को लगभग सवारियां भले ही मिल गई हो, बाद की उड़ानों के लिए पूरी सवारियों की उम्मीद मुश्किल लगती है। यदि इस उड़ान को जैसलमेर से कोलकाता वाया दिल्ली-बीकानेर चलाया जाए तो इसके सफल होने की पुरी गुंजाइश है। खैर, इन आशंकाओं और सुझाओं को 'कटकारा' ना मानें।
'कटकारे' से ध्यान आया कि इस सेवा में 'प्रथम ग्रासे मक्षिकापात' हो गया है। मात्र समृद्ध शहरियों के लिए इस उपलब्धि के श्रेय को लेकर घमासान जारी है। मुख्यमंत्री के समर्थकों को यह शिकायत है कि उपलब्धि का श्रेय अकेले अर्जुनराम मेघवाल कैसे ले रहे हैं, एतराज के उनके पास वाजिब कारण भी हैं। जब-जब वसुंधरा से सूबे की कमान लेने की बात चलती है तब-तब अर्जुनराम मेघवाल का नाम मुख्यमंत्री के लिए चलाया जाता है,  वसुंधरा राजे इसलिए भी टेढ़ी रहने लगी है। हालांकि टेढ़े होने की वजह केवल इतनी ही नहीं हो सकती।
जिस दिन दिल्ली से इस सेवा को हरी झंडी दिखाई गई, उस पूरे दिन राजे दिल्ली में ही थीं। उड्डयन मंत्रालय की सौजन्यता होती तो वे मुख्यमंत्री को झंडी समारोह में ससम्मान ले आते, ऐसा नहीं होने ने भी प्रतिकूलता बढ़ाई है।
जिस भारतीय प्रशासनिक सेवा को छोड़ मेघवाल राजनीति में आए हैं, उसकी ट्रेनिंग में पात्रता व क्षमता से अधिक हेकड़ी और रुतबा ओढ़े रखना सिखाया जाता है, सो जब-तब अर्जुनराम मेघवाल के अन्दर का अफसर-मन मुंह निकाल लेता है और समस्याएं इस कारण भी जगह बना बैठ जाती हैैं। शुरुआती दिनों में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ढेबरी टाइट रखने के बावजूद मेघवाल की अफसराई और अक्खड़पना गया नहीं। रही बात पात्रता और प्रतिभा की तो वह यदि होती तो मंत्रिमंडल के ताजे फेरबदल में उनकी पदावनति नहीं होती। बहुत बाद राजनीति में आए मेघवाल की स्थानीय राजनीति के भोमियों से भी पटरी संभवत: इसीलिए नहीं बैठती। अन्यथा कोई कारण नहीं जो देवीसिंह भाटी, गोपाल जोशी के साथ उनका आंकड़ा छत्तीस का लगातार बना रहे। वणिकों के बीच उठने-बैठने की बात करने वाले अर्जुनराम में वणिक चतुराई भी आ जाती तो शायद उन्हें ये दिन नहीं देखने पड़ते।
बीकानेर में बाद की लाइन के अधिकांश भाजपा नेता और कार्यकर्ता ऐसी सावचेती बरतते रहे हैं कि वसुंधरा या अर्जुनराम खेमे की छाप से बचें लेकिन हवाई सेवा के लिए अर्जुनराम की श्रेय लेने की चतुराई ने ऐसे सभी नेताओं-कार्यकर्ताओं को कसौटी पर लगा दिया। हुआ ये है कि इन नेताओं-कार्यकर्ताओं में से अधिकांश ने अखबारी विज्ञापनों और शहर में लगे होर्डिंग के माध्यम से वसुंधरा राजे में अपनी निष्ठा अर्जुनराम को पूरी तरह नदारद कर जाहिर कर दी है। यह भी उल्लेखनीय है कि हाल ही के इस घटनाक्रम को वसुंधरा की ओर से देवीसिंह भाटी ही अंजाम देते लगें।
लोकसभा का आगामी चुनाव मध्यावधि होकर 2018 में विधानसभा चुनावों के साथ हो या समय पर 2019 में, यह चुनाव मेघवाल के लिए 2014 तो क्या 2009 जितना भी आसान नहीं रहेगा। 2009 में पुराने चेहरों से ऊबी जनता ने अर्जुनराम को जिता दिया तो 2014 के चुनाव में मोदी का भरमाना मेघवाल का काम कर गया।
बोदे होते और कुछ ना करवा पाने के चलते अर्जुनराम 2009 तो नहीं दोहरा पाएंगे। उधर सभी वादों को पूरा करने में असफल मोदी की बची-खुची चमक नोटबंदी और हेकड़ी भरे अनाड़ीपने में लागू जीएसटी ने समाप्त कर दी। साम्प्रदायिक ध्रवीकरण जैसे धत्कर्म के अलावा फिलहाल भाजपा के पास चुनाव जीतने की कोई दूसरी तजवीज दीख नहीं रही है।
मोदी सरकार के पास एक सकारात्मक 'पासा' और भी है, यदि फेंके तो! संसद और विधानसभाओं में स्त्रियों को सवा तैतीस प्रतिशत आरक्षण देना भाजपा के ऐजेन्डे में शामिल रहा है और हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष और संप्रग की चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इस संबंध में लोकसभा में विधेयक पारित करवाने की मांग कर दी है। यदि यह विधेयक पारित होता है तो बीकानेर लोकसभा सीट पर भाजपा में अर्जुनराम के विरोधी विकल्प के तौर पर डॉ. विमला डुकवाल का नाम चला सकते हैं। पार्टी हाइकमान को यदि लगा कि अर्जुनराम इस दफे कमजोर उम्मीदवार हैं तो उम्मीदवार बदलने में देर नहीं लगेगी। स्त्रियों को सवा तैतीस प्रतिशत आरक्षण के बाद जिताऊ स्त्री उम्मीदवार की मारा-मारी के बीच डॉ. विमला डुकवाल का नाम मजबूती से उभर कर आ सकता है। ऐसी आशंका में ही अर्जुनराम के हित-साधक कुचरनी करने को ही सही, उनके बेटे रविशेखर का नाम खाजूवाला सीट से चलाने लगे हैं। खाजूवाला सीट से फिलहाल डॉ. विमला डुकवाल के पति डॉ. विश्वनाथ दूसरी बार विधायक होकर सूबे की सरकार में संसदीय सचिव हैं। इससे अपने को असुरक्षित मान डॉ. विश्वनाथ असहज भी होने लगे हैं।
यदि भाजपा में ऐसा कुछ नहीं भी होता है और कांग्रेस इस सीट को निकालने की धार-विचार ले तो डॉ. विमला डुकवाल कांग्रेस के लिए भी जिताऊ उम्मीदवार हो सकती हैं, बशर्तें कृषि विश्वविद्यालय में डीन डॉ. विमला डुकवाल यह जोखिम उठाने को तैयार हों।
दीपचन्द सांखला

28 सितम्बर, 2017

Thursday, September 21, 2017

बीकानेर शहर : चुनावी राजनीति की पड़ताल-तीन

...समाप्त। यूं तो इस शृंखला की पिछली किश्त को अंत मान समाप्त लिख दिया था, लेकिन पिछले पखवाड़े की कुछ सक्रियताओं ने पिटारे को फिर खोलने को प्रेरित कर दिया। प्रधानमंत्री मोदी का दो में से बाद वाला 'हेप्पी बर्थ डे' 17 सितम्बर को मनाया गया। अब कोई यह ना बताएं कि प्रधानमंत्री के जन्म की पहली तारीख 29 अगस्त  उनके उच्च शिक्षाई दस्तावेजों में दर्ज है। खैर, चूंकि भारतीय जनता पार्टी ने मोदी का जन्मदिन 17 सितम्बर को ही मनाने के निर्देश दिए थे, सो शासक को ईश्वर का प्रतिनिधि मान पार्टी और शासन के लाभाकांक्षियों ने देश भर में धूमधाम से जन्मदिन तभी मनाया।
बीकानेर शहर में भी कई आयोजन हुए। इस बार मोर्चा फतह करने का अवसर लपका बीकानेर पश्चिम विधायक गोपाल जोशी के पोते विजयमोहन जोशी ने। प्रधानमंत्री मोदी के जन्मदिन पर उन्होंने दो दिनों में छह आयोजन कर पश्चिम सीट से अन्य भाजपा टिकट-आशार्थी अविनाश जोशी से प्रतिस्पर्धा की खुली मुनादी कर दी। पिछली किश्तों में बीकानेर पश्चिम से टिकट के जिन भाजपाई दावेदारों का जिक्र हुआ इन दोनों नौजवानों का जिक्र है।
अब तक केवल जयपुर में पैठ बनाने और उसे पुख्ता रखने में लगे रहे अविनाश जोशी को शहर की सुध आई तो यहां की सबसे बड़ी कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के समाधान के लिए पिछले दिनों सक्रिय हुए और इस हेतु लम्बे समय से लम्बित सार्वजनिक निर्माण मंत्री यूनुस खान की बीकानेर यात्रा करवा दी। यूनुस खान ने भी अपनी नेताई-चतुराई पूरी बरती और सभी को 'बेटा देकर' लौट गये। एलिवेटेड रोड इस राज में बननी शुरू होगी, नहीं होगी यह बीकानेरियों की जागरूकता, प्रतिनिधियों की तत्परता और अविनाश जोशी और विजयमोहन जोशी जैसे नये टिकट-आशार्थियों की सक्रियता पर निर्भर है। लेकिन इतना जरूर है कि एलिवेटेड रोड के लिए यूनुस खान जब सादुलसिंह सर्किल से स्टेशन तक पदयात्रा कर रहे थे, तब ये दोनों जोशी बन्धु उनके ना केवल साथ थे बल्कि अपनी सक्रियता जताने को युनूस खान के दांयें-बाएं भी बने रहे। चश्मदीदों की मानें तो एक बार दोनों में छिटपुट तकरार भी हुई, 7-8 वर्ष बड़े अविनाश ने 'बड़प्पन' भी जताया लेकिन विजयमोहन नहीं दबे।
चूंकि एलिवेटेड के लिए युनूस खान के इस 'रोड-शो' का श्रेय अविनाश जोशी को मिला और विजयमोहन जोशी के मुकाबले शहरी सक्रियता की रही कमी को अविनाश जोशी ने कुछ-कुछ यूं पूरा कर लिया है। लगता है इसका अहसास भी विजयमोहन जोशी को हो गया है, इसीलिए शहरी लोक में अपनी बढ़त बनाए रखने के लिए ही विजयमोहन जोशी ने मोदी की बरसगांठ मनाई हो। यह सब बताने का मकसद इतना ही है कि अगले वर्ष भर अब दो पुराने मित्रों-गोपाल जोशी और मक्खन जोशी के इन दोनों पोतों की सार्वजनिक प्रतिस्पर्धा शहरियों के आनन्द का सबब बनेंगी, बशर्ते दोनों के बीच कोई बदमजगी ना हो। ये दोनों जितना दौड़ेंगे, इस पश्चिम सीट से भाजपाई टिकट के अन्य आकांक्षी उतने ही पिछड़ते जाएंगे। यहां पर खरगोश और कछुए वाली कहानी शायद इसलिए लागू नहीं होगी, क्योंकि विजयमोहन जोशी और अविनाश जोशी दोनों ही उस खरगोशी मुगालते में नहीं दिख रहे हैं।
लेकिन, केवल इस से बटेगा क्याï? बीकानेर शहर सीट से जनता पार्टी का टिकट 1977 में मक्खन जोशी का तय हो गया था, निश्ंिचत हो मक्खन जोशी ने शाम को पार्टी का राष्ट्रीय कार्यालय छोड़ दिया, उधर रात को ही महबूब अली ने पार्टी सिम्बल लिया और परचा दाखिल करने दूसरे दिन सुबह बीकानेर पहुंच गये। मक्खन जोशी को भनक लगी तब तक चिडिय़ा खेत चुग गई थी। 'साईं की सौ कुदरत' का जुमला शायद ऐसे ही अचम्भों के लिए कहा गया है।
टिकट के जिस-जिस दावेदार ने अपनी गोटियां अब तक जैसी भी फिट कीं, अमित शाह की पिछली जयपुर यात्रा के बाद वह सब 'लूज' होने लगी हैं। गोटी कब किसकी गिर पड़ेगी और किसकी फिट होगी अभी से अनुमान संभव नहीं है। प्रदेश भाजपा की 'सुप्रीमों' वसुंधरा राजे अब कितनी सुप्रीमों रह पायीं है, सभी जानते हैं और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी कांग्रेस राज में अपने समकक्षी रहे डॉ. चन्द्रभान जितनी हैसियत भी रख पाएंगे, कह नहीं सकते।
लेकिन इस बीच अविनाश और विजयमोहन जैसे उत्साही नौजवानों से उम्मीद है कि वे अपनी प्रतिस्पर्धा को जारी रखेंगे। और इसके लिए दोनों शहर की समस्याओं और जरूरतों की छोटी-मोटी फेहरिस्त बना उन पर सक्रिय हो शहरियों को यह महसूस करा पाएं कि कौन उनके हितों के लिए लडऩे में सक्षम है, दोनों को अपना कॅरिअर नई पीढ़ी के राजनेता का बनाना है तो ऐसा करना जरूरी भी है, जो जितना करवा पायेगा शासन में उसकी उतनी ही पहुंच साबित होनी हैं, पार्टी हाइकमान और संघ में पहुंच तो टिकट मिलने पर साबित होगी। बीकानेरियों के लिए भी यह अनुभव अनूठा तो होगा ही, शहर का कुछ सुधारा भी होगा।
दीपचन्द सांखला

21 सितम्बर, 2017

Saturday, September 16, 2017

अकबर को महान इसलिए भी कहा जाता है। (जगदीश्वर चतुर्वेदी की टिप्पणी)

सम्राट अकबर के मायने
अकबर के शासन में भारत की जो इमेज बनी वह हम सबके लिए गौरव की बात है। एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में भारत को निर्मित करने में अकबर का अतुलनीय योगदान था। भारत को शक्तिशाली राष्ट्र बनाकर अकबर ने भारतीय जनता की जो सेवा की है उसके सामने सभी मुस्लिमविरोधी आलोचनाएं धराशायी हैं। भारत के मुसलमान कैसे हैं और कैसे होंगे अथवा भारत के नागरिक कैसे होंगे, यह तय करने में अकबर की बड़ी भूमिका थी । राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है अकबर के जमाने में हिन्दू जितने रुढ़िवादी और कूपमंडूक थे, उसकी तुलना में मुसलमान उदार हुआ करते थे। मसलन्, हिन्दुओं में इक्का-दुक्का लोग ही विदेश जाते थे जबकि मुसलमानों का बड़ा हिस्सा हज करने के बहाने मक्का यानी विदेश जाता था। अकबर के जमाने में भारत में यूरोपीय लोग गुलाम की तरह बिकते थे, यह रिवाज अकबर को नापसंद था। उसने अनेक यूरोपीय गुलामों को मुक्ति दिलाई और उनको पोर्तुगीज पादरियों के हवाले कर दिया, इनमें अनेक रुसी थे। दुखद पहलू यह है अकबर के बाद जो शासक सत्ता में आए उनमें वैसी अक्ल और विवेक नहीं था, फलतः अकबर के जमाने में शुरू हुईं अनेक परंपराएं आगे विकसित नहीं हो पायीं।

अकबर को इस बात का श्रेय जाता है कि उसने पहलीबार जनाना बाजार की अवधारणा साकार की, मीना बाजार का निर्माण करवाया। अकबर यह भी चाहता था कि भारत में बहुपत्नी प्रथा बंद हो और एकपत्नी प्रथा आरंभ हो। लेकिन वह इस मुतल्लिक कानून बनाने में असफल रहा। अकबर की धारणा थी कि भारत की औरतें आजाद ख्याल हों और उन पर कोई बंधन न हो। मीना बाजार के बहाने अकबर ने पहलीबार औरतों को पर्दे, महलों और घरों की बंद चौहद्दी से बाहर निकाला। मीना बाजार में औरतें खूब आती थीं, एक-दूसरे से मिलती थी, औरतें ही दुकानें चलाती थीं। जिस दिन जनाना बाजार लगता था उसे “खुशरोज” (सुदिन) कहा जाता था। मीना बाजार में यदि कोई लड़की पसंद आ जाती थी तो लड़का-लड़की में प्रेम हो जाता था। जैन खाँ कूका की बेटी का सलीम यहीं आशिक हुआ था, तब तक लड़की की शादी नहीं हुई थी, मालूम होने पर अकबर ने खुद शादी कर दी। अकबर के जमाने में बाजार में प्रेम की परंपरा की नींव पड़ी, अकबर ने इसे संरक्षण दिया और आज यह परंपरा युवाओं में खूब फल-फूल रही है। पर्दा प्रथा की विदाई तभी से हुई।

अकबर की एक और विशेषता थी कि वह दासता का विरोधी था। उसने अपने दासों को मुक्त कर दिया था। अबुलफजल के अनुसार अकबर ने सन् 1583 में दासमुक्ति का आदेश दिया। लेकिन समाज में दासों की समस्या बनी रही। अकबर का एक आदर्श रूप उसका दाढ़ी विरोधी नजरिया भी था। अकबर और उसका बेटा दाढ़ी नहीं रखते थे। दाढ़ियों से अनेक रुढ़ियां चिपकी हुई थीं, इसलिए अकबर ने दाढ़ी को निशाना बनाया। अकबर और उसके शाहजादे ने दाढ़ी नहीं रखी। जहाँगीर ने सारी जिन्दगी दाढ़ी नहीं रखी। लेकिन शाहजहाँ और उसके बाद के जमाने में दाढ़ी लौट आयी। अकबर के दाढ़ी न रखने का आम जनता में व्यापक असर पड़ा और हजारों लोगो ने अपनी दाढ़ियां मुडवा दीं।

अकबर का दिमाग पूरी तरह आधुनिक था उसने भारत में व्यापक स्तर पर बारुद का इस्तेमाल किया। बारुदी हथियारों का प्रयोग किया। जबकि बाबर ने ईरान के शाह इस्माइल के सहयोग से बारुद और तोपों के इस्तेमाल की कला सीखी और तोपों का सबसे पहले प्रयोग किया। अकबर पहला ऐसा शासक था जिसको मशीनों से प्रेम था, मशीनों के जरिए आविष्कार करना उसे पसंद था। जेस्वित साधु पेरुश्ची के अनुसार “चाहे युद्ध सम्बन्धी बात हो या शासन सम्बन्धी बात हो या कोई यांत्रिक कला, कोई चीज ऐसी नहीं है, जिसे वह नहीं जानता या कर नहीं सकता था।” राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है “अकबर ने महल के अहाते के भीतर भी कई बड़े-बड़े मिस्त्री खाने कायम किये थे, जिनमें वह अक्सर स्वयं अपने हाथ से हथौड़ी-छिन्नी उठाने से परहेज नहीं करता था। उसने हथियारों और यन्त्रों में कई आविष्कार किये थे, जिनका उल्लेख ‘आईन अकबरी’ में अबुलफजल ने किया है। चित्तौड़ के आक्रमण के समय उसने अपनी देख-रेख में आध-आध मन के गोले ढलवाये। बन्दूक चलाने में वह बड़ा ही सिद्धहस्त था, उसका कोई निशाना शायद ही खाली जाता था।”
--जगदीश्वर चतुर्वेदी 

Thursday, September 14, 2017

बीकानेर शहर : चुनावी राजनीति की पड़ताल-दो

बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र के भाजपाई दावेदारों की फिलहाल की बात पिछली किश्त में पूरी हो ली। हां, कांग्रेसी उम्मीदवार की बात करें तो 1980 से इस सीट के लिए चुनौतीविहीन दावेदार डॉ. बीडी कल्ला आज भी उसी हैसियत में हैं। प्रदेश में शीर्ष पदों पर रहे और जयपुर प्रवासी हो चुके डॉ. कल्ला अब तक ऐसी हैसियत तो हासिल कर ही चुके हैं कि उनके टिकट मांगने पर हाइकमान भी किन्तु-परन्तु शायद ही करे। यह अलग बात है कि जयपुर प्रवासी हो जाने और ऊपरी पकड़ बनाये रखने की फिराक में जमीन से कटे कल्ला हार की तिकड़ी लगा चुके हैं। बावजूद इस सबके वे चाहेंगे तो बीकानेर पश्चिम से कांग्रेस की उम्मीदवारी ले पड़ेंगे। लेकिन शहर राजनीति की फिजा अभी आश्वस्त नहीं करती कि वे 2018 का विधानसभा चुनाव जीत जाएंगे। हो सकता है, अपनी से दूसरी-तीसरी पीढ़ी के किसी प्रौढ़ होते नौजवान से पटकनी खाकर वे चुनावी राजनीति से हमेशा-हमेशा के लिए बाहर हो लें।
कहने को इस सीट से मुसलिम या माली समुदाय से किसी नेता की दावेदारी का हक बनता है, लेकिन इन दोनों समुदायों से कोई नेता ऐसा साहस कर पाएगा, लगता नहीं। साम्प्रदायिक धु्रवीकरण के बढ़ते माहौल में मुसलिम समुदाय के किसी नेता के लिए दावेदारी के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं, गैर भाजपाई कोई भी दल यदि मुसलिम समुदाय से उम्मीदवार बनायेगा तो भाजपा के लिए जीत और आसान हो लेगी। इस तरह की चुनावी फिजाएं अन्तत: लोकतंत्र के लिए घातक ही सिद्ध होनी हैं, लेकिन चिन्ता से इंगित कराने के अलावा कुछ कर पाने का रास्ता फिलहाल नहीं दीखता। भाजपा पर सवर्णों की पार्टी की छाप पुख्ता होने के बाद ओसवाल समाज का कोई नेता अप्रभावी वोट बल के बावजूद दावेदारी भले ही जताए लेकिन सुराना के समय हुए जातीय धु्रवीकरण का सबक ध्यान में रखते हुए परिसीमन के बाद वोट बल के बदले हुए जातीय सन्तुलन के बाद भी कोई पार्टी जोखिम शायद ही ले।
बीकानेर पश्चिम से कांग्रेस से एक नाम और जो बार-बार लिया जाता है, वह राजकुमार किराड़ू का है। किराड़ू पार्टी संगठन में राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय हैं और इसी बहाने अपने चेहरे और नाम की पहुंच ऊपर तक बना चुके हैं। लेकिन अपने कमजोर व्यक्तित्व के चलते उन्होंने वैसा मुकाम हासिल नहीं किया कि डॉ. कल्ला की दावेदारी के सामने चुनौती बन सकें। बावजूद इसके वे उम्मीदवारी ले आते हैं तो इसे चमत्कार ही कहा जाएगा। हां, कल्ला हार के डर से भाजपा से उम्मीदवारी ले आएं तो कांग्रेस से किराड़ू की उम्मीदवारी इस बीकानेर पश्चिमी सीट से मान सकते हैं।
किसी अन्य पार्टी का या कोई निर्दलीय उम्मीदवार आकर स्थापित दलों के उम्मीदवारों के बराबरी का खम ठोंक दे, ऐसा कोई सक्रिय राजनीतिक व्यक्तित्व इस क्षेत्र में दीख नहीं रहा। स्थापित पार्टियों के उम्मीदवारों में भी कोई अन्य चुनौती लायक तभी बन सकता है जिसकी जनता में सुदीर्घ सक्रियता हो अन्यथा ऐसे उम्मीदवार अपनी कोई खास उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाते। निर्दलीय या ऐसे उम्मीदवारों का होना बहुदलीय लोकतंत्र की पहचान है, जिसकी खिल्ली उड़ाई नहीं जानी चाहिए। ऐसे विकल्प जैसे-कैसे भी बचें, लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनी-अपनी क्षमता और पात्रता के अनुसार मजबूती ही देते हैं।
अब बात कर लेते हैं बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र की, जहां बात की गुंजाइश हालांकि उतनी लगती नहीं जितनी बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र में भाजपा विधायक गोपाल जोशी की बढ़ती उम्र ने इस बार दी है। बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र की तरह ही आगामी चुनावों में यहां भी भाजपा उम्मीदवार के लिए दूसरी अनुकूलता प्रधानमंत्री मोदी के भ्रमित करने के अभियान की सफलता को मान सकते हैं, ऐसी स्थिति अभी तक कायम है। बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र से भाजपा से लगातार दूसरी बार जीत चुकीं सिद्धिकुमारी विधायक हैं। कहने को अगले चुनावों में भी उनकी भाजपा उम्मीदवारी चुनौतीविहीन है, बावजूद इसके कि वे अपनी इस नुमाइंदगी से जुड़ी लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों को या तो समझती नहीं या फिर उन्हें ताक पर धरे रखती हैं।
सिद्धिकुमारी जिस घराने से आती हैं उसके प्रति लोगों की मानसिकता में आज भी कोई खास बदलाव नहीं देखा जाता है। इस का दोषी लोकतंत्र में भरोसा रखने वालों की निष्क्रियता को मान सकते हैं। आजादी के 70 वर्षों बाद भी मतदाता को मन से लोकतांत्रिक बनाने में सफल नहीं हो पाएं हैं।
सिद्धिकुमारी चाहेंगी तो पार्टी उन्हें ही उम्मीदवार बनाएगी और फिलहाल परिस्थितियां उनकी जीत निश्चित दिखाती है बावजूद उनके नाकारापन के। कोई ऐसी परिस्थिति बने और सिद्धिकुमारी स्वयं ही उम्मीदवारी से इनकार कर दें तो फिर भाजपा के कुछ नेता अपनी इच्छा जगा सकते हैं जिनमें महावीर रांका भी एक हो सकते हंै। मगर सिद्धिकुमारी के प्रति इनकी निष्ठा इतनी है कि इन्हें जब पक्का भरोसा हो जायेगा कि सिद्धिकुमारी किसी भी कीमत पर उम्मीदवार नहीं होंगी, तभी रांका मुसकेंगे अन्यथा नहीं। ऐसी ही परिस्थितियों में इसी समाज के मोहन सुराणा का नाम भी लिया जा सकता है लेकिन इन दोनों की दौड़ में कई कारणों से महावीर रांका इक्कीस पड़ेंगे। लेकिन ऐसा होगा तभी जब सिद्धिकुमारी मैदान से पूरी तरह बाहर हो जाएं।
सिद्धिकुमारी के मैदान में रहते पार्टी के अन्तर्गत ही जो जमीनी राजपूत नेता चुनौती खड़ी करने का साहस कर सकते हैं तो वह सुरेन्द्रसिंह शेखावत हैं। पिछले एक अरसे से यहां की राजनीति में ना केवल सक्रिय हैं बल्कि देश, समाज और राजनीति की अच्छी खासी समझ भी रखते हैं। शेखावत के लिए यह कहा जाता है कि इस क्षेत्र में अपने हमउम्र नेताओं में वे अच्छी राजनीतिक समझ रखते हैं, लेकिन लोक में ऐसों के लिए यह भी कहा जाता है कि कोरी समझ से बटता क्या है? कहने को शेखावत ने अपनी पैठ प्रदेश से लेकर दिल्ली तक ठीक-ठाक बना ली है, बावजूद इसके पार्टी सिद्धिकुमारी से किनारा करने की जरूरत शायद ही समझे। हालांकि शेखावत के लिए दूसरा विकल्प लूनकरणसर विधानसभा क्षेत्र भी है लेकिन फिलहाल भाजपा और कांग्रेस दोनों स्थापित पार्टियों ने इस क्षेत्र को जाट खाते में डाल रखा है। सन्तुलन बैठाने के लिए भाजपा या कांग्रेस किसी ब्राह्मण या राजपूत नाम पर विचार करे तो महीपाल सारस्वत और सुरेन्द्रसिंह शेखावत की उम्मीदवारी पर वहां भी विचार हो सकता है।
बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस उम्मीदवार की बात करें तो फिलहाल उसने इस क्षेत्र को माली समुदाय के खाते में डाल रखा है। इनमें लगातार आत्मविश्वास खोते गोपाल गहलोत का नाम अव्वल इसलिए है कि उन्होंने पिछला चुनाव उस बुरी तरह नहीं हारा जिस तरह डॉ. तनवीर मालावत ने 2008 में हारा था। 2013 के चुनाव में गोपाल गहलोत के लिए एक प्रतिकूलता मोदी फैक्टर भी रही। लेकिन गोपाल गहलोत को 2018 का चुनाव बीकानेर पूर्व विधानसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर जीतना है, इस तरह की सक्रियता दिखाते अभी तक वे लग नहीं रहे हैं। यही वजह है कि सार्वजनिक आयोजनों और आन्दोलनों में वे अपनी आत्मविश्वास भरी भाव-भंगिमाओं को सहेज कर नहीं रख पाते हैं। माली जाति पर ही दावं कांग्रेस को लगाना है तो दूसरे दावेदार शहर कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल गहलोत भी हो सकते हैं। अप्रभावी ही सही, जैसी-तैसी कांग्रेस की जीवन्तता वे शहर में बनाए हुए हैं, केवल इस बिना पर पार्टी उम्मीदवारी तय करेगी तो यशपाल का नम्बर भी आ सकता है। यदि ऐसा होता है तो यशपाल गहलोत को पार्टी आयोजनों में बहुधा अपने साथ नजर आने वाले गोपाल गहलोत से ही मोर्चा लेना होगा।
अन्य समुदायों में पूर्व की इस सीट पर कांग्रेस से मुसलिम, ब्राह्मण या राजपूत समुदाय भी दावेदारी जता सकते हैं। लेकिन मुसलिम उम्मीदवार के रहते यह सीट एक बार हार चुकी कांग्रेस वर्तमान सांप्रदायिक रंगत में किसी मुसलिम नेता को टिकट देकर जोखिम शायद ही ले। यह बात अलग है कि कांग्रेस को लगे कि यह सीट जीत नहीं सकते तो क्यों न किसी मुसलिम को टिकट देकर इस कोटे को पूरा कर लिया जाए। राजपूतों में जीतू रायसर, ब्राह्मणों में बाबू जयशंकर जोशी जैसे दावेदार अपनी अनुकूलता में तब ही करेंगे जब उनके खैरख्वाह प्रदेश स्तर पर प्रभावी होंगे अन्यथा दीखती हार में कांग्रेस से वही माथा मांडेगा जो झुझार होगा।
हां, एक बात और, सिद्धिकुमारी के इनकार के बाद हो सकता है देवीसिंह भाटी अपनी पदर-पंचाई इस सीट पर भी करें लेकिन ऐसा होगा तभी जब वे अपनी बाटी सिकने की निश्चिंतता में होंगे अन्यथा 2018 के विधानसभा चुनावों में बीकानेर जिले में डॉ. कल्ला के बाद किसी स्थापित नेता की साख दावं पर होगी तो वह देवीसिंह भाटी ही हैं। भाटी को लगा कि खुद की कोलायत सीट खुद के लिए या किसी अपने के लिए ही निकालना मुश्किल है तो वे दूसरे किसी विधानसभा क्षेत्र की माथा-फोड़ी में नहीं पड़ेंगे। (समाप्त)
दीपचन्द सांखला

7 सितम्बर, 2017

Thursday, August 31, 2017

बीकानेर शहर : चुनावी राजनीति की पड़ताल--एक

पचास वर्ष तक राज करने की आकांक्षा लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह 2019 के लोकसभा चुनावों की तैयारी में अभी से लग गए हैं। ऐसे में बीकानेर पश्चिम से भाजपा उम्मीदवारी की प्रबल संभावनाएं संजोए अविनाश जोशी अपने जन्मदिन 18 अगस्त को अच्छी-खासी उपस्थिति के साथ रात्रिभोज का आयोजन करें तो इसे दावेदारी की मुनादी का उतावलापन कैसे कह सकते हैं।
इस पर आगे बात करें उससे पूर्व कुछ पुरानी पड़ताल भी कर लेते हैं। राज खो चुके सामन्तों के प्रति सहानुभूति और आजादी की खुमारी में हुए 1951-52 के पहले आम चुनावों को छोड़ दें तो 1957 के चुनावों के बाद से बीकानेर शहर सीट को पुष्करणा समुदाय अपनी बपौती मानता है। यही वजह है कि 2008 के परिसीमन से बीकानेर पश्चिम कहलाने लगी इस सीट पर वे समुदाय भी उम्मीदवारी की दावेदारी में संकोच करते हैं जिनके वोट पुष्करणा वोटों के लगभग बराबर हैं। इस तरह के संकोच, बिना साहस-दुस्साहस के नहीं टूटते। इसके लिए सुदीर्घ जनजुड़ाव, हिये की हेकड़ी और हाइकमान तक को भरोसा दिलाने की जरूरत होती है, ऐसी कूवत वाला कोई नवयुवक-प्रौढ़ पेशेवर राजनेता अन्य समुदायों में दीख भी नहीं रहा है।
ऐसे में जब बीकानेर पश्चिम के चुनावी परिदृश्य का कोलाज बिठाना हो तो उन्हीं चेहरों पर बात की जा सकेगी, जो दिखते दावेदार हैं। ऐसे में पुष्करणाओं बल्कि उनमें भी रिश्ते में काके-भतीजों, दादा-पोतों, साले-बहनोइयों और मामे-भांजों पर ही बात करना इस धुंधलाती लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूरी है।
इस सीट पर भाजपा के संभावित उम्मीदवार की पड़ताल करें तो यह बताना जरूरी है कि अमित शाह के हाल ही के तीन दिवसीय जयपुर पड़ाव के बाद लम्बे समय से चल रही आशंकाओं के अनुरूप राजस्थान भाजपा की डोर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से ले ली गई है। वजह भी थी, 2013 के राजस्थान विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली अपूर्व सफलता का श्रेय वसुंधरा को कम और नरेन्द्र मोदी को ज्यादा है। इसे खुद वसुंधरा राजे भी अच्छे से जानती हैं। इसलिए वसुंधरा अपना यह मुख्यमंत्रीकाल पिछले जैसे आत्मविश्वास से सराबोर होकर भोग नहीं पा रहीं। मोदी के प्रधानमंत्री बनने और फिर अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष बनने के डेढ़-दो वर्ष तक अपनी पेशवाई की छाप बनाए रखने की वसुंधरा ने पूरी कोशिश की। लेकिन मोदी और शाह उस मिट्टी के बने ही नहीं कि वे किसी की ऊंची तो क्या सीधी गरदन भी बर्दाशत करें, अन्तत: वसुंधरा को ही तेवर नरम करने पड़े हैं। इसी क्रम में खड़ाऊं प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी की हैसियत प्रदेश में नवनियुक्त संगठन महामंत्री चन्द्रशेखर मिश्रा में विलोपित होते देर नहीं लगेगी। इस पद के आठ वर्ष तक  खाली रहने के मानी वसुंधरा की सुदृढ़ पेशवाई ही रही है।
ये चन्द्रशेखर वही हैं जिनके जिम्मे विधानसभा चुनावों में पश्चिमी उत्तरप्रदेश की भाजपा के लिए मुश्किल वे नब्बे सीटें थीं जिनमें से अधिकांश पर अजीतसिंह का प्रभाव था। साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की रणनीति के चलते अजीतसिंह का राष्ट्रीय लोकदल शून्य पर सिमट गया! चन्द्रशेखर मिश्रा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के विशेष भरोसे के व्यक्ति हैं, जाहिर है 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे, अशोक परनामी और चन्द्रशेखर की भूमिकाओं का खाका लगभग खिंच गया है।
बीकानेर लौट आते हैं और फिलहाल पश्चिम विधानसभा क्षेत्र में बात वर्तमान विधायक गोपाल जोशी से शुरू करना मुनासिब होगा। 1962 से शहर में चुनावी राजनीति करने वाले गोपाल जोशी की राजनीति का मकसद व्यापारी के साथ अवामी हैसियत बनाना ही रहा है। अहम् और विशिष्ट तरह की हेकड़ी के साथ बिना जोखिम की राजनीति करने की मंशा से सार्वजनिक जीवन में आये गोपाल जोशी के मन में इस शहर या जिले के विकास का कोई खाका हो, लगा नहीं। 1977 में दीखती हार के जोखिम से ठिठके गोपाल जोशी की हार नियति बन चुकी थी। शहर सीट पर रिश्ते में साले डॉ. बीडी कल्ला के काबिज होने के बाद जिले की कोलायत, लूनकरणसर सीटों से भी जोशी तीन बार हार चुके हैं।
लम्बे समय बाद 2008 के चुनावों से पूर्व नियति बन चुकी हार से छुटकारे के लिए गोपाल जोशी को भाजपा में आना पड़ा, तभी वे बीकानेर पश्चिम की नई बनी सीट पर चुनाव जीत पाये। 2008 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन जाने से शहर के लिए कुछ ना कर पाने का बहाना जोशी ले सकते हैं। 2013 का चुनाव भी गोपाल जोशी जीत गये, सरकार भी भाजपा की बने साढ़े तीन वर्ष से ज्यादा हो गये। शहर के लिए कुछ खास वे अब भी करवा नहीं पाए हैं। बीकानेर पूर्व की नाकारा विधायक सिद्धिकुमारी से कोई उम्मीद बेकार है। वे केवल सामन्ती हैसियत बनाये रखने को चुनाव लड़ती हैं, जनता इसी बिना पर उन्हें चुनाव जितवा भी रही है। इसलिए शहर की जनता किसी से उम्मीद रखे तो गोपाल जोशी ही बचते हैं। वे भी कुछ नहीं करवा पाते हैं तो उनमें और सिद्धिकुमारी में फर्क इतना ही है कि वे जनता को दिखते रहते हैं, सिद्धिकुमारी तो दिखलाई भी नहीं देती।
बीकानेर शहर की सबसे बड़ी समस्या कोटगेट क्षेत्र की यातायात व्यवस्था है। मुख्यमंत्री इसके समाधान में रुचि रखती हैं ये अनुकूलता भी है। लेकिन इसके समाधान को लेकर गोपाल जोशी उस तरह सक्रिय नहीं दिखते, जिस तरह उन्हें होना चाहिए, जो योजना बन रही है उसमें वे चाहें तो शहर के अनुकूल कुछेक परिवर्तन करवा उसे जल्दी सिरे चढ़वा सकते हैं। इस योजना को सार्वजनिक निर्माण मंत्री यूनुस खान देख रहे हैं। केन्द्र से बजट मिलने के बावजूद इसका इस तरह लटके रहना यहां के नुमाइंदों की तत्परता पर सन्देह पैदा करता है।
इसी तरह चौखूंटी पुलिया बने तीन वर्ष हो रहे हैं। इसकी मूल योजना में सर्विस रोड का प्रावधान है। इसके बिना उस पुलिया के इर्द-गिर्द के बाशिन्दे कितना भुगत रहे हैं, लगता है इसका भान यहां के जनप्रतिनिधियों को नहीं! नाकारा सिद्धिकुमारी के चलते यह जिम्मेदारी भी गोपाल जोशी की इसलिए ज्यादा बनती है कि इस योजना का प्रभावित क्षेत्र बीकानेर पूर्व और बीकानेर पश्चिम के विधानसभा क्षेत्रों में बंटा हुआ है।
शहर की इन बड़ी समस्याओं को लेकर गोपाल जोशी की निष्क्रियता के मानी शहर के लोग ये भी लगा रहे हैं कि उन्हें अब चुनाव तो लडऩा नहीं सो जनता की तकलीफों की सुध वे क्यों लें। लेकिन पार्टी अध्यक्ष शाह का वह ताजा बयान जिसमें पचहत्तर पार को भी पार्टी उम्मीदवार बना सकती है, गोपाल जोशी के जोश को सराबोर फिर कर सकता है। तब वे जनता के बीच किन कामों के हवाले से जाएंगेïï?
मान लेते हैं गोपाल जोशी को शाह के उक्त बयान के बावजूद कोई उम्मीद नहीं है। तब भी अपने मझले पुत्र गोकुल जोशी और छोटे पुत्र के बेटे और पौत्र विजय मोहन की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं उनके कुछ किए के प्रकाश में ही रोशन होंगी। ताऊ गोकुल जोशी और अनुजसुत विजयमोहन के व्यक्तित्व में बड़ा अन्तर है। गोकुल अपने पिता की ही तरह कमरे की राजनीति करते रहे हैं। पिता के और आज के जमाने में भारी अन्तर है। विजयमोहन ने लोक की राजनीति से अपने राजनीतिक कॅरिअर को शुरू किया है, इसलिए लोक में स्वीकृति भी उनकी ज्यादा है। प्रदेश भाजपा की बदली स्थितियों में गोकुल और विजयमोहन की टिकट दावेदारी को मजबूती गोपाल जोशी के कुछ किए से मिलनी है, जो हाल तक शून्य है।
यूं भी जिस अहम् के साथ गोपाल जोशी व्यावहारिक राजनीति करते हैं, उसमें वे पार्टी में अपनी स्थिति वैसी नहीं बना पाए कि उनके किसी सुझाए को उम्मीदवार के तौर पर पार्टी बिना आगा-पीछा सोच लेने को तैयार हो जायेगी।
कोटगेट क्षेत्र की इस यातायात समस्या को लेकर शहर के दोनों विधायक गोपाल जोशी और सिद्धिकुमारी से तो लूनकरणसर विधायक मानिकचन्द सुराना ज्यादा सक्रिय हैं। वे लगातार इसके लिए ना केवल रुचि दिखा रहे हैं बल्कि वे गोपाल जोशी की दिक्कतों को समझ योजना में जरूरी बदलावों को लेकर भी युनूस खान के सम्पर्क में हैं। जबकि स्पष्ट है कि बीकानेर शहर की किसी सीट से उन्हें नहीं लडऩा है। निष्कर्ष निकालें तो बीकानेर पश्चिम सीट से गोपाल जोशी के किसी परिजन की दावेदारी में इसीलिए दम कुछ दिख नहीं रहा है।
प्रदेश भाजपा में बीकानेर पश्चिम से दावेदारी पक्की कर चुके अविनाश जोशी के भी डॉ. बी.डी. कल्ला और जेठानन्द व्यास पार्टी की बदली परिस्थितियों में आड़े आ सकते हैं। जेठानन्द पिछले कुछ वर्षों से रामनवमी के आयोजनों से संघ की नजरों में अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। भाजपा को लगे कि राजस्थान में चुनौती है, जो अशोक गहलोत को कांग्रेस की कमान मिलने से हो भी सकती है तो ऐसे में संगठन मंत्री चन्द्रशेखर मिश्रा साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का पश्चिमी उत्तरप्रदेश वाला फार्मूला यहां लागू कर सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो बीकानेर पश्चिम से जेठानन्द व्यास का नाम आश्चर्य के तौर पर सामने आ सकता है। मोदी एण्ड शाह का एक एजेण्डा कांग्रेस मुक्त भारत का भी है और इसकी क्रियान्विति वे प्रभावी कांग्रेसियों को भाजपा में लेकर भी करते हैं। ऐसे में कल्ला को यह भी लगा कि वे कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में नहीं जीत सकते तो हो सकता है अपनी इस चौथी हार से बचने के लिए अब तक भाजपाई नेताओं से बनाए संबंध काम में लें और बीकानेर पश्चिम से भाजपा उम्मीदवार के रूप में आ धमके। वहीं जेठानन्द व्यास की सक्रियताओं की जानकारी प्रदेश के नये पार्टी नियंताओं तक नहीं पहुंचती है और संघ के हिसाब से बीकानेर पश्चिम की सीट तय होना हो तो फिर विजय आचार्य के हक में भी फैसला हो सकता है। लेकिन इसके लिए उनके चाचा ओम आचार्य को अपनी सक्रियता दिखानी है। इन दिनों राजनीति से लगभग किनारा कर चुके ओम आचार्य के रिश्ते संघ के ऊपरी लोगों से कैसे हैं, इस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा।
अविनाश जोशी को अपनी दावेदारी की वर्तमान ताकत को बनाए रखना है तो उन्हें अपनी पहुंच ना केवल चन्द्रशेखर मिश्रा तक बनानी होगी बल्कि अपने काम की खुशबू अमित शाह तक भी पहुंचानी होगी। अविनाश जोशी की स्थानीय स्थिति कौटुम्बिक तौर पर सब दावेदारों से मजबूत कई कारणों से समझी जा सकती है। गोपाल जोशी की राजनीति के वारिसों में दो नाम चल रहे हैं। विजयमोहन के नाम की चर्चा पूर्व में 'विनायकÓ ने की और फिर जी-राजस्थान चैनल और राजस्थान पत्रिका ने भी की। देखा गया है कि विजयमोहन तभी से गोपाल जोशी के साथ यहां नहीं देखे जा रहे हैं। मीडिया में चर्चा के बाद से गोपाल जोशी के साथ गोकुल जोशी का होना मात्र संयोग या अन्य परिस्थितिवश हो सकता है। लेकिन सन्देश यही गया कि गोपाल जोशी की राजनीतिक विरासत पर हक को लेकर परिवार में मतैक्य नहीं है।
इस मामले में कल्ला परिवार ज्यादा चतुर है। बातें पारिवारिक खटपट की कितनी ही आयीं, लेकिन सार्वजनिक तौर पर वे पारिवारिक एका की छवि पर आंच नहीं आने देते हैं। वहीं शहर में लम्बे समय तक लोकप्रियता की राजनीति करने वाले मक्खन जोशी के पौत्र अविनाश जोशी के पीछे उनके परिवार की चार पीढिय़ा बिना किसी किन्तु परन्तु के खड़ी दिखाई देती हैं। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि अविनाश जोशी ने अपनी राजनैतिक हैसियत केवल अपने बूते पर बनाई है, क्योंकि मक्खन जोशी का देहान्त बहुत पहले हो चुका है।
इस सीट पर अविनाश जोशी, गोकुल जोशी और विजय मोहन जोशी के अलावा विजय आचार्य और जेठानन्द व्यास का नाम लिया जा सकता है। इन दोनों नामों की अहमीयत अमित शाह के जयपुर दौरे और जीत के यूपियन फार्मूले को राजस्थान में आजमाने की संभावना संगठन मंत्री के तौर पर चन्द्रशेखर मिश्रा की नियुक्ति के बाद ज्यादा हो गई है। क्योंकि पार्टी संघ के प्रस्तावित नामों की उपेक्षा अब उस तरह से नहीं कर पायेगी जिस तरह भैरोंसिंह शेखावत और वसुंधरा राजे की पेशवाई के चलते कर दी जाती थी।
प्रदेश भाजपा की बदली परिस्थितियों में बीकानेर पश्चिम के लिए चर्चा में आए सत्यप्रकाश आचार्य, महावीर रांका और डॉ. मीना आसोपा के नाम कहां जा टिकेंगे, कह नहीं सकते। 1998 के चुनाव में जमानत नहीं बचा पाने का धब्बा सत्यप्रकाश आचार्य के आड़े आ सकता है तो पुष्करणाओं की परम्परागत सीट की छाप महावीर रांका और डॉ. मीना आसोपा को किनारे कर सकती है।
अविनाश जोशी के पक्ष में जहां प्रदेश भाजपा में बनाई अपनी हैसियत है तो बीकानेर पश्चिम सीट के जातिगत दावेदार हो चुके पुष्करणा समाज में पारिवारिक पैठ भी है। लेकिन अविनाश जोशी प्रदेश भाजपा और मुख्यमंत्री तक अपनी पहुंच का लाभ बीकानेर शहर को दिलवाने में गंभीर नहीं दिखे। अविनाश की प्रदेश स्तर पर कुछ हैसियत है तो उसकी खनक भी इस शहर को सुनाई देनी चाहिए थी। वे चाहते तो मुख्यमंत्री और सार्वजनिक निर्माण मंत्री यूनुस खान तक लॉबिंग कर एलिवेटेड रोड और चौखूंटी पुलिया की सर्विस रोड के काम को अमलीजामा पहनाने में भूमिका निभा इस शहर से वोट की हकदारी आसानी से जता सकते थे। यह अब भी चूक नहीं है, वे चाहें और आत्मविश्वास जुटा लें तो इतना समय शेष है कि यह दोनों कार्य सिरे चढ़ सकते हैं। यदि ऐसा अविनाश संभव कर पाते हैं तो यह न केवल उनकी पार्टी टिकट की दावेदारी को मजबूत करेगा बल्कि उम्मीदवारी मिलने पर वे वोटरों के सामने वोट मांगने के हक से जा भी सकेंगे।
दीपचन्द सांखला

24 अगस्त, 2017