Wednesday, January 29, 2014

चालके का चौलका

शहर के अधिकांश पत्रकार बन्धु इन दिनों अजीब-सी मन:स्थिति का प्रदर्शन करते दिखे, पीड़ा, ग्लानि और रोष की उनकी मिश्रित मन:स्थिति में सबक देने की कोटिंग का आभास भी किया जा सकता है।
सूबे में नई सरकार बनते ही आइपीएस अधिकारियों की पहली बड़ी सूची में बीकानेर के पुलिस अधीक्षक को बदला गया और सन्तोष तुकाराम चालके ने यह जिम्मेदारी सम्हाली। प्रशासनिक हो या पुलिस का अधिकारी, नई जगह पहुंचते ही अपने दफ्तर के ऐसे किसी कारकून का पता लगाते हैं जो उन्हें शहर की तासीर और उसके मिजाज से वाकफियत करवा सके। साथ ही यह भी कि किन-किन लोगों से सावचेत रहना है और किन की तवज्जो करनी है, इस तरह ऐसी सभी जानकारियों से अपडेट हो लिया जाता है। यही कारण है कि ऐसी भूमिका निभाने वाले दफ्तरियों की ठुंगाई और धमक दोनों चलती है। शहर के ऐसे सभी लोग जो इन अफसरों के पट्टों में घुसने की अपनी आदत से मजबूर होते हैं वे ऐसे दफ्तरियों के जब तब घोटे भी पूजते हैं।
इस तरह की सामान्य अदायगियों के बावजूद वर्तमान जिला पुलिस अधीक्षक से ऐसा क्या हो गया जो शहर के अधिकांश पत्रकारों को कोपभवन की शरण लेनी पड़ी। इस रुचि क्षेत्र के सभी यह जानते हैं कि कुछ दिनों पहले लिखित में ऐसा आदेश जारी करने की भूल एसपी चालके से हो गई जिसमें निर्देश दिया गया कि मात्र चार मीडिया ग्रुप के नुमाइंदों के अलावा शेष पत्रकार उनसे नहीं उनके अधीनस्थों से ही मिल सकेंगे। बस फिर क्या था हर समय जुम्बिश में रहने वाले पत्रकारों की नाड़ खड़ी हो गई, कुछ तो शिव की ताण्डव मुद्रा में आकर तीसरा नेत्र खोल देने तक की उतावली में देखे गये। महकमे की और से तुरंत भूल सुधार कर ली गई और आदेश को वापस भी ले लिया गया। लेकिन चालके को लेकर पत्रकारों की मरोड़ अभी तक गई नहीं हैं। डेमेज कन्ट्रोल के तहत एसपी ने चाय पर भी उन्हें न्योता पर अन्यथा ऐसे अवसरों के लिए लालायित रहने वाले अधिकांश पत्रकार अपनी हेकड़ी पर कायम रहे और गये नहीं।
हो सकता है दिन में 10-20 पत्रकारों की पर्चियों से एसपी अपने काम में बाधा पाते हों, सो इसके उपाय में उन्होंने ऐसा अपरिपक्व आदेश निकाल दिया अन्यथा इस जमात के अधिकारी इतने घाघ होते हैं कि लाठी को सुरक्षित बचाकर सांप को मार लेते हैं। फिर भी यदि श्रेणीबद्धता की नौबत ही उन्होंने मान ली तो मामलों की क्षेत्रवार और धारावार श्रेणीबद्धता करते कि फलां क्षेत्र की फलां-फलां धारा से सम्बन्धित मामलों के सम्बन्ध में अमुक-अमुक अधिकारी से मिलें और कुछ भीषण-भयानक मामले तय किए जा सकते थे कि इनके लिए ही एसपी से मिला जाय। ऐसी व्यवस्था के लिए बड़ी चतुराई से सभी पत्रकारों को चाय पर बुलाकर हां भी भरवा सकते थे, गद्गद होकर पत्रकार हां भरने में भी देर नहीं लगाते। सभी अधिकारी जानते हैं कि पत्रकारों में से कितने खिसियाकर ही उनसे मिलते हैं बावजूद इसके ऊंच-नीच के खांचों में पत्रकारों को बांट कर एसपी चैन से बैठना चाहें तो यह कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है? चालके युवा हैं लगता है उनके ऐसा सब समझने की गति धीमी हो, हो सकता है अभी वे यह सब लोकव्यवहार समझने की प्रक्रिया में हों अन्यथा पत्रकारों की नब्ज चार संवादों में पहचानने वाले अधिकारी भी होते हैं जो बड़ी चतुराई से पत्रकारों का इलाज नब्ज भांप कर करते और अपनी पारी पूरी कर वाहवाही लेकर लौट जाते हैं। रही बात पत्रकारों की तो मित्रो! मुंह में अंगुलि डालने ही क्यों देते हो कि कोई आपके दांत गिन ले। छोटे-मोटे सुख हासिल करना ही इस व्यवसाय को अपनाने का मकसद है तो इस तरह का व्यवहार भुगतने को भी तैयार रहना होगा। गाय के जाये और सूरज का सांड जैसी दोनों भूमिकाओं के लिए प्रकृति ने केवल सांड को ही चुना है।

29 जनवरी, 2014

Tuesday, January 28, 2014

मीडिया, राहुल और मोदी

सोशल नेटवर्किंग साइट्स अखबारों के स्थानीय संस्करणों में टीवी चैनलटाइम्स नाउपर टेलिकास्ट हुए राहुल गांधी के इंटरव्यू की चर्चा है। राहुल को देखने-समझने के अपने पूर्वाग्रही चश्मे से जितना पढ़ा-देखा है, उसमें इस साक्षात्कार से एक समझ तो यह बरामद हुई कि अपरिपक्वता भी मन की निर्मलता और मलिनता के प्रदर्शन का एक जरीया बनती है। बालिग होने की जद्दोजेहद में लगे राहुल नरेन्द्र मोदी की तरह शातिर नहीं हैं वहीं मोदी के शातिराना तरीकों में चतुराई का अभाव सतत लक्षित होता देख-समझ सकते हैं। कहा जा सकता है कि बात राहुल गांधी के इंटरव्यू से शुरू हुई, इसमें मोदी कहां से गये। ऐसा ही कुछ नजारा सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी देखा जा रहा है, कई पोस्टों में राहुल और मोदी की तुलना की जा रही है।
राहुल से पूछे गये प्रश्नों में 1984 के सिख विरोधी बवाल पर प्रश् जरूरी था जो पूछा भी गया। राहुल के जवाब में सचाई थी पर परिपक्वता का अभाव था। राहुल ने यह तो स्वीकार किया कि उक्त फसाद में शामिल दंगाइयों में कुछ कांग्रेसी भी रहे लेकिन उन्होंने सिख संहार के लिए माफी मांगने से यह कह कर इनकार कर दिया कि उन दंगों में वह व्यक्तिगत तौर पर शामिल नहीं थे। राहुल के जवाब की मासूमियत वैसी ही थी जैसी दंगों के समय उनकी उम्र (14) अन्यथा उन्हें आत्म-विश्वास से यह स्वीकार करना था कि चूंकि उन दंगों में कुछ कांग्रेसी भी शामिल थे और फिलहाल उस पार्टी की बागडोर लगभग उनके पास है, सो, इसी नाते उस बलवे को लेकर वे शर्मिंदा हैं। ...लेकिन हो सकता है उन्हें तैयार करके भेजने वालों को यह उकता ही नहीं कि ऐसा प्रश् भी सकता है, भाड़े की परिपक्वता इतनी ही काम करती है। कांग्रेस और कांग्रेसियों ने अपनी समझ का समय रहते परिपक्व उपयोग नहीं किया तो फिर वोटर ही मालिक है। वो अपनी समझ, जरूरत और प्रलोभन से जिसे भी वोट कास्ट कर देगा उसे स्वीकारने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं होगा।
लगभग चौवालीस की इस उम्र में राहुल प्रश्नों से रू-बरू होने तो लगे हैं पर तेरह साल से मुख्यमंत्री पद कीजिम्मेदारीसम्हाल रहे और प्रधानमंत्री होने को मुंह धोए-तैयार नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय मीडिया में एक से अधिक बारएक्सपोजहोने के बाद कैमरे से केवल मुंह चुराने लगे बल्किपत्रकारजैसे जीव से कतराने भी लगे हैं। वह कई प्रश्नों पर प्रतिक्रिया असहज होकर देते यह भूल जाते हैं कि उनके इस तरह से खिसियाने और कैमरे से पलायन करते हुए को भी चैनल-विशेष के दर्शक देखेंगे ही।
राहुल के प्रोम्पटरों ने राहुल से 1984 और 2002 के दंगों पर जो उत्तर दिलवाया वह चतुराईपूर्ण और एक हद तक सटीक भी है। राहुल ने जवाब में कहा कि 2002 में गुजरात सरकार ने दंगे भड़काने का काम किया और 1984 में कांग्रेस ने दंगा रोकने का। 2002 के दंगों के सन्दर्भ पर मोदी का असहज होनाचोर के मन के चानणेजैसा ही है। अब जब मोदी देश के प्रधानमंत्री होेने की पूरी कवायद में लगे हैं और संप्रग सरकार से जनता की ऊब औरआम आदमी पार्टीके देशीय स्तर पर विकल्प हो सकने की अक्षमता के चलते फिलहाल खुद के लिए हरी दिखती उम्मीदों के बीच मोदी को यह पलटा खा लेना चाहिए! मोदी 2002 के गुजरात दंगों के लिए माफी मांग लेते हैं तो एक और जहां वे राष्ट्रधर्म निभाने की ग्लानि से मुक्त हो जाएंगे वरन् ऐसे आत्मविश्वास को भी हासिल कर लेंगे जिसकी जरूरत उन्हें अपनी उत्कट आकांक्षा (प्रधानमंत्री होने) पूर्ति करने में है।

28 जनवरी, 2014