Tuesday, December 25, 2012

फांसी की तरफदारी कितनी जायज


मीडिया के हमारे कुछ साथी बलात्कार के आरोपियों के लिए फांसी की सजा की मुहिम चलाए हुए हैं। वह यह भूल रहे हैं कि पूरी दुनिया में फांसी या मौत की सजा के खिलाफ मुहिम लगातार चल रही है। दुनिया के आधे से अधिक देशों में मौत की सजा के प्रावधान खत्म कर दिये गये हैं। इस बीच ऐसी मुहिम चलाने को कितना सभ्य या मानवीय कहा जायेगा। वैसे भी गुस्से का तात्कालिक दोहन मिशनरी हो सकता है और ही अच्छे व्यापार का द्योतक।
मृत्यु तक कैद की सजा सजायाफ्ता के निकट के परिजन यथा मां-बाप, भाई-बहिन, पत्नी, बेटा-बेटी आदि की देखने भर की उम्मीदों को हरा रखती है। मौत की सजा तो ऐसे सभी निकटस्थों को भी आजीवन सजायाफ्ता बना देती हैं। दुनिया में मौत की सजा के खिलाफ मुहिम चलाने वालों के इस तर्क में भी दम है कि यदि हम मृतक को जिन्दा नहीं कर सकते हैं तो किसी की जान लेने का हक भी हमें नहीं बनता है। मौत के बदले मौत तो असभ्यों का ()न्याय है। और यह भी कि ऐसे भी उदाहरण हैं कि किसी अपराधी को गलत साक्ष्यों और तथ्यों के आधार पर मौत की सजा दे गई और बाद में जब ऐसा प्रमाणित हुआ तो न्याय ने खुद को कठघरे में खड़ा पाया!
मौत की सजा की तरफदारी करने वालों को आभासी ही सही किसी प्रियजन को चाहे वह कितना ही बुरा हो, उसे ऐसी सजा की कल्पना करके भी देख लेना चाहिए। मीडिया का बड़ा माध्यम आपके पास होने का मतलब यह नहीं होता कि आप बन्दर के स्वांग में जाएं, ऐसी स्थिति में यह आशंका पूरी तरह रहती है कि उस्तरे से कभी खुद को ही घायल कर लिया जाता है?
जरूरत व्यक्ति को और व्यक्ति से समाज को बदलने की है। जो बदल सकते हैं उन्हें इस पर विचारने की भी फुरसत नहीं। किसी दूसरे का हक या किसी दूसरे के सुख की कीमत पर अपना सुख हासिल करना लालच में आता है और लालच की लालसा हमेशा तीव्र से तीव्रतर होते ही देखी गई है।
25 दिसम्बर, 2012

हिंसा देती कुछ नहीं, छीन बहुत कुछ लेती है


कल के सम्पादकीय मेंगांधीफिल्म के जिस दृश्य का जिक्र किया था उसमें एक बात बताने से रह गयी। उस दृश्य में प्रदर्शनकारी केवल पूरी तरह अहिंसक थे, बल्कि पुलिस के लाठीवार से बचने को भी वे हाथ नहीं उठाते हैं। गांधी के सत्याग्रहों की यह हकीकत और ताकत दोनों थी, इसी सत्याग्रह से उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले वंचितों को उनके हक भी दिलवाए और भारत की आजादी भी हासिल की। लेकिन बाद इसके स्वतंत्र होने के बावजूद हमारा भरोसा अहिंसा से पता नहीं क्यों उठ गया!
आज सुबह-सुबह जब यह समाचार मिला कि हाल ही के दिल्ली के प्रदर्शनों में घायल सिपाही सुभाषचन्द तोमर की मृत्यु हो गई है तो गांधी फिल्म का वही दृश्य फिर याद गया।
अपनों को अपने आस-पड़ोस को देखते हैं कि कोई अपनी पूरी उम्र लेकर मृत्यु को प्राप्त होता है तो भी उसके निकटस्थ उस विछोह को सहन नहीं कर पाते हैं। सुभाषचन्द तो पत्नी और तीन बच्चों का परिवार पाल रहा था और इण्डिया गेट पर अपनी ड्यूटी कर रहा था। उसने लाठीचार्ज भी किया तो यह निर्णय भी उसका नहीं था। ऊपर से आदेश मिला तो मानना उसकी आजीविका का हिस्सा था, हिंसक प्रदर्शनकारियों का वह शिकार हो गया!
हिंसक हुए प्रदर्शनकारियों को सुभाष के परिजनों की व्यथा से दो-चार होने और यह समझने की जरूरत है कि हिंसा अमानवीय है और किसी हिंसक के खिलाफ भी हिंसा जायज नहीं है। पीड़िता के पिता भी हिंसक होने की अपील लगातार कर रहे हैं। दिल्ली के शासक-प्रशासक और केन्द्र की सरकार तो इस मुद्दे पर अपना माजना दे चुके हैं।
25 दिसम्बर, 2012

Monday, December 24, 2012

उबलता गुस्सा और अपरिपक्व शासक-प्रशासक


रिचर्ड एटनबरो की फिल्मगांधीमें दक्षिण अफ्रीका का एक दृश्य है। तब मोहनदासगांधीबनने की प्रक्रिया में थे। अंग्रेजों के अमानवीय कानूनों के खिलाफ कुछ प्रदर्शनकारी बारी-बारी से आगे बढ़ते हैं, पुलिस उन्हें लाठियों से घायल करती है। अन्य आंदोलनकारी घायलों को तुरन्त उठाते हैं और पास ही लगे तम्बुओं में ले जाकर उनकी मरहम-पट्टी, दवा-दारू करते हैं। सत्याग्रहियों का एक और जत्था लट्ठ खाने को आगे बढ़ता है। पर्दे पर इस सिलसिले को इस तरह दिखाया गया कि लगे यह सिलसिला लम्बा चला। इस सत्याग्रह का नेतृत्व और मार्गदर्शन मोहनदास गांधी कर रहे थे।
गांधीका यह दृश्य आज अचानक स्मृति के आगे चलायमान हो आया। कल के नहीं उससे पिछले रविवार की  रात दिल्ली में एक बस में एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, यह युवती अचानक इस अमानुषिक कृत्य के खिलाफ लड़ाई की प्रतीक बन गई। प्रतीक इसलिए कहा कि इसी दिल्ली में वर्ष 2012 में ही बलात्कार के औसतन दो मामले तो प्रतिदिन दर्ज हैं। पता नहीं बलात्कार हुए तो कितने होंगे। उक्त घटना के छठे दिन इसी शुक्रवार को सैकड़ों युवक-युवतियां, किशोर-किशोरियां बिना किसी नेतृत्व के इण्डिया गेट, राजपथ होते हुए राष्ट्रपति भवन के केवल मुख्य द्वार तक पहुंच गये बल्कि चाक-चौबन्दी को धता बताकर एक किशोरी तो गेट के अन्दर कुछ दूरी तक दौड़ते हुए चली भी गई। स्वतःस्फूर्त कहे जाने वाले इस प्रदर्शन को संचार की उत्तरआधुनिक तकनीक ने सहयोग दिया, कहा जा रहा है कि एसएमएस, ईमेल और सोशल साइट्स के जरीये इन युवाओं ने अपने उद्वेलन को केवल संचारित किया बल्कि योजनाबद्ध तरीके से अंजाम तक भी पहुंचाया। इन शनिवार, रविवार को प्रदर्शनकारी हजारों में हो गये! प्रदर्शनकारी युवक-युवतियों के उद्वेलन के आगे उनके परिजन भी बेबस देखे गये, पहले तो मना किया होगा, नहीं मानने पर कुछ के माता-पिता युवक-युवतियों के साथ राजपथ पर डटे। नेतृत्वहीन हजारों की भीड़ में कुछ अति उत्साही तो कुछ उग्र भी हो सकते हैं, हुए भी। दिल्ली पुलिस ने तो समझदारी नहीं दिखाई लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठे सोनिया गांधी और मनमोहनसिंह भी स्थिति को शनिवार से लेकर आज तक नहीं भांप पाये। यदि वे इसे पहचानते और किसी विचारविशेष या राजनीतिक पार्टी से प्रेरित इन प्रदर्शनकारियों के बीच पहुँच कर आश्वस्त कर देते तो यह गतिरोध करिश्माई ढंग से खत्म हो सकता था। कुयोग यह कि सोनिया राजनीतिक परिवार से जरूर हैं पर राजनीति में दीक्षित होने के बावजूद उन्होंने शनिवार की देर रात अपने घर के आगे एकत्रित प्रदर्शनकारियों के बीच पहुंच कर उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की। मनमोहनसिंह भी जमीन से जुड़े नेता नहीं हैं। अच्छे ब्यूरोक्रेट्स रहे, सेवानिवृत्ति के बाद उनकी काबिलीयत की जरूरत समझ कांग्रेस का नेता बना दिया और विकल्पहीनता की स्थिति में प्रधानमंत्री भी बन गये। आठ साल से ज्यादा समय से प्रधानमंत्री हैं, लेकिन इन तीन दिनों में उनकी सीमाएं और राजनीति में जमीनी समझ की कमी से कोफ्त होने लगी है। दिल्ली पुलिस दिल्ली की सरकार के अधीन होकर केन्द्र सरकार के अधीन है, आन्दोलनकारियों के साथ सख्ती बरतने के कोई निर्देश ऊपर से नहीं भी हैं तो वे इनसे जिस तरह निबट रही है वह दिल्ली पुलिस कमिश्नर की अपरिपक्वता को दर्शा रहा है। यही वजह है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे और जमीनी राजनीति करने वाले नेता संदीप दीक्षित दिल्ली पुलिस के रवैये से कुण्ठित देखे गये।
शुरुआत मेंगांधीफिल्म के दृश्य का जिक्र इसलिए किया था कि गुलाम दक्षिणी अफ्रीका की पुलिस और आजाद भारत की राजधानी की पुलिस में इतना भर अन्तर जरूर देखा गया कि तब मरहम-पट्टी की व्यवस्था आन्दोलनकारियों ने खुद की थी और अभी चल रहे आन्दोलन में घायलों को अस्पताल पहुंचाने की व्यवस्था पुलिस खुद कर रही है। स्वतंत्र और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इतना भर अन्तर ऊंट के मुंह में जीरे से भी कम है, सोनिया गांधी, मनमोहनसिंह और शिन्दे से लेकर दिल्ली पुलिस कमिश्नर को यह समझने की जरूरत है। अन्यथा ऐसा कुछ घटित हो जाये कि बाद में पछताना पड़े! असामाजिक तत्त्वों के और विपक्षी पार्टियों के हाथों में आन्दोलन के चले जाने के बहाने से दिल्ली पुलिस आज तड़के से ही दमन के बैरिऍर-उपायों को अपना रही है, इससे गुस्सा ठण्डा तो नहीं होगा हो सकता है और सुलगने लगे। आन्दोलनकारियों को भी समझना होगा कि फांसी की सजा पर अड़ना भी एक प्रकार की अमानवीयता ही है!
24 दिसम्बर, 2012