Wednesday, May 11, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-2

 आज जो भी और जैसा भी बीकानेर हमें मिला हैउसने पांच शताब्दियों से ज्यादा का सफर तय कर लिया है। यह शुरू में ऐसा नहीं था। आज जहां लक्ष्मीनाथजी का मन्दिर है उसके सामने के गणेश मन्दिर परिसर में ही छोटी-सी गढ़ी में राव बीका और उनकी तीन पीढिय़ों का ठिकाना रहा। वह तो बीकानेर के छठे शासक रायसिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर भरोसा जीत लिया तो आधे मारवाड़ सहित वर्तमान गुजरात तक की मनसबदारी मिल गई। उस मनसबदारी से हासिल आय से जूनागढ़ किले का निर्माण शुरू हुआ और शहर परकोटे का भी। 

मुगलों से आत्मीयता बढ़ाने के लिए पांचवें राव कल्याणमल ने अपने भाइयों की दो बेटियों को अकबर से ब्याहने को भेज दिया था। इस तरह अकबर के जनाना महल में अनेक रानियों-बेगमों में बीकानेर की दो बेटियां भी थीं। (स्रोत : दलपत-विलास पृ. 14) 

बड़े शासक की अधीनता स्वीकार करने का मतलब यही था कि आपकी सीमाएं सुरक्षित हैं निश्चित होकर बादशाह का कहा करें और अपने नगर और रियासत का विकास भी। इस समझ का निर्वहन 22वें और अन्तिम शासक सादुलसिंह तक बखूबी किया गया। बल्कि अंग्रेजों की अधीनता से परिवर्तन यह आया कि क्षेत्र के विकास के लिए अंग्रेज केवल दबाव बनाये रखते थे बल्कि खुद योजनाएं बनवा कर भी देते थे। यही बड़ी वजह थी कि बीकानेर पर 56 वर्ष के अपने सबसे लम्बे शासन में महाराजा गंगासिंह अंग्रेजों के कहे-कहे अनेक लोककल्याणकारी योजनाओं को अमलीजामा पहना सके। इसमें बड़ी अनुकूलता यह भी थी कि 20वीं सदी आते-आते अंग्रेजी राज ने पांव अच्छे से जमा लिए थे, ऐसे में स्थानीय रियासतों को अपने पांव जमाएं रखने की जरूरत खत्म हो गयी थी।

यद्यपि विश्व युद्धों में अंग्रेजों की तरफ से महाराजा गंगासिंह को शामिल होना पड़ा लेकिन अपने पूर्वजों की तरह बारहोमास लगातार युद्धरत रहने और युद्धों की तैयारी करते रहने जैसा नहीं था। इसीलिए आज का बीकानेर जो भी है, उसका बड़ा हिस्सा बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में विकसित है। इसमें अंग्रेजी राज, उनका स्थानीय रीजेंट और अंग्रेज रिजिडेंट्स की बड़ी भूमिका थी।

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि मुगलों के बाद देश जब एक छत्र के नीचे गया तो अन्तर्रियासती कानून व्यवस्था सुदृढ़ हुई, आवागमन सुरक्षित हुआ जिसके  चलते अन्तर्रियासती आवागमन बढ़ा, व्यापार बढ़ा और इसी के चलते व्यापार के लिए विस्थापन भी होने लगा। आवागमन के द्रुतगति के साधन नहीं होने के बावजूद वर्तमान राजस्थान के लोग खासकर वणिक समुदाय ने उत्तर मुगलकाल से ही सुदूर उत्तर-पूर्व और दक्षिण तक जाकर व्यापार करने का साहस करना शुरू कर दिया था और जहां पोलपट्टी मिली वहां स्थानीय लोगों का शोषण भी किया और ठगी भी। वणिक समुदाय अपने भरोसे के सहयोगियों को भी साथ ले जाते जिनमें बड़ी संख्या ब्राह्मण समुदाय के लोगों की होती। उसी दौरान बीकानेर के वणिक समुदाय ने भी बहुतायत में पलायन किया खासकर चूरू-रतनगढ़ क्षेत्र से। 

जो भी बाहर गये वो अतिरिक्त धन होने पर अपनी समृद्धि दिखाने के लिए अपने क्षेत्र की शिक्षा में लगाते। इसमें बाहर से, खासकर वर्तमान उत्तरप्रदेश क्षेत्र के विभिन्न विषयों के शिक्षकखासकर संस्कृत केबुलाते, उनकी सेवाओं से स्थानीयखासकर ब्राह्मण समुदाय के लोग लाभान्वित होते। 

16वीं शताब्दी के मध्य में बीकानेर में राजा कल्याणमल की रुचि ज्योतिष और संस्कृत में थी, इसी तरह उनके पुत्र राजा रायसिंह की भी। दोनों पिता पुत्र के नाम से सृजित ग्रंथों का उल्लेख भी मिलता है तो गोकुलप्रसाद त्रिपाठी जैसे संस्कृत विद्वानों की उपस्थिति भी। फिर अठारहवीं शताब्दी के पूवाद्र्ध में राव कल्याणमल, राजा रायसिंह और कर्णसिंह की संस्कृत की विरासत को राजा अनूपसिंह ने ना केवल अच्छे से सहेजा बल्कि उसे इतनी ऊंचाइयों तक ले गये कि उनके द्वारा बुलाये गये विद्वानों द्वारा सृजित तथा हासिल पाण्डुलिपियों के संग्रह से अनूप संस्कृत लाइब्रेरी आज भी अपनी महती उपस्थिति रखती है। यद्यपि वर्तमान में यह पुस्तकालय बन्द ही रहता है। किसी शोधार्थी को अपनी जरूरत पूरी करने के लिए कई तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। लेकिन इस पुस्तकालय की पुस्तकें हाल तक सुरक्षित हैं।

उसी मुगल काल में रियासती शासकों को मुगलों की सेवा में रहना होता था। कभी दिल्ली में तो कभी सुदूर दक्षिण तक में। अपनी रुचि अनुसार राजा विभिन्न कलाओं के कारीगरों को रियासतों में ले आते और अपने क्षेत्रों में समृद्ध करते। बीकानेर के उस्ता ईरानी शैली को यहां लाए और स्थानीय साधनों के साथ उस्ता कला के तौर पर प्रसिद्ध किया। इसी तरह पत्थरों के कारीगरों के साथ मुगल स्थापत्य, ऊनी गलीचों तथा हाथी दांत आदि के कारीगर उस समय आकर जो बसे, यहीं के होकर रह गये। यहां आकर रच-बस जाने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। इसमें यहां पहले से रह रहे बाशिन्दों की सदाशयता भी उल्लेखनीय थी। यही वजह है कि पुरानी बसावट में हिन्दू-मुसलमानों के मोहल्ले आपस में गुंथे हुए हैं। सहिष्णुता और सामाजिक समरसता की मिसालें यहां के लिए इसीलिए दी जाती है। वर्तमान में राजनीतिक कारणों से दूषित हो रहे माहौल से वैसी सहिष्णुता और सामाजिक समरसता कब तक बची रहेगीकहना मुश्किल है। क्रमशः

दीपचंद सांखला

12 मई, 2022

Tuesday, May 10, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-1

बीकानेर की स्थापना को लेकर लोक प्रचलित है कि जोधपुर दरबार में चाचा कांधल भतीजे बीका से कुछ फुसफुसा रहे थे, राव जोधा को बेअदबी लगी। जोधा ने व्यंग्य में पूछ लिया कि चाचा-भतीजा कोई नया राज बसाने की तज्वीज में लगे हैं क्या ? कहते हैं यही बात चाचा-भतीजे को चुभ गई और निकल पड़े। बीकानेर की स्थापना को लेकर लोक प्रचलित इस कथा पर कवि-विचारक नन्दकिशोर आचार्य यह कहने से नहीं चूकते कि कांधल और बीके को बीकानेर बसाने के लिए क्या थार का यह रेगिस्तान ही मिला। गर्मी से असहज और पहाड़प्रिय आचार्य यह कहने से नहीं चूकते कि पास ही अरावली की पहाडिय़ां भी थीं—वहीं शहर बसा लेते।

लेकिन इतिहासकार उक्त अक्खाणे से सहमत नहीं लगते। बीकानेर बसने-बसाने को लेकर उनकी स्थापनाएं भिन्न हैं। 'बीकानेर इतिहास एवं संस्कृति' स्मारिका में प्रो. शिवरतन भूतड़ा 'बीकानेर राज्य का उद्भव' शीर्षक से छपे अपने आलेख में बीकानेर स्थापना का उल्लेख इस तरह करते हैं:

बीकानेर बसने से पूर्व राव जोधा इसी जांगल प्रदेश में जोधपुर बसाने की कई कोशिश कर चुके थे। जोधपुर बसाने से पूर्व राव जोधा को मेवाड़ी सेना ने मण्डोर से जब बेदखल कर दिया तो सुरक्षा हेतु उन्होंने जांगलू के काहुनी गांव में शरण ली। इसी दौरान जांगलू के शासक नापाजी सांखला ने अपनी बहिन नोरंग दे का विवाह राव जोधा से कर दिया। कहते हैं राव बीका नोरंग दे के ही पुत्र थे। राठौड़ों और सांखलों के इस रिश्ते ने जांगल देश में राठौड़ राज्य स्थापना की भावभूमि तैयार कर दी थी। जांगलू में रहते राव जोधा ने अपनी शक्ति को संगठित किया और 1453 ई. में मण्डोर पर पुन: आधिपत्य कर लिया। जोधपुर शहर बसाने की अनुकूलता इस तरह बनी। 

इतिहासकार प्रो. भूतड़ा इसके बाद की घटना को लिखते हुए बताते हैं कि मुस्लिम बिलोचों से पराजित होकर नापा सांखला राव जोधा के पास गये। राव जोधा ने पुत्र बीका और भाई कांधल को जांगल देश में राज्य स्थापित करने के उद्देश्य से भेज दिया। 1465 ई. में बीका ने बिलोचों को पराजित कर जांगलू अपने मामा को दे दिया। नापा ने इसके बाद बीका की अधीनता स्वीकार कर इस जांगल देश में राठौड़ राज्य स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। 

इस समय तक जैसलमेर के रावल केहर के पुत्र केल्हण पूगल क्षेत्र को जीत कर भाटी राज्य की स्थापना कर चुके थे। बीका जब जांगल-प्रदेश में अपना राज स्थापित करने की जुगत में थे, तब पूगल के शासक राव शेखा थे। जैसलमेर-पूगल जैसे अनउपजाऊ क्षेत्र में राज करना आसान नहीं था तो शासक अपना काम लूट और धाड़ेती से चलाते थे। लूट के मकसद से मुल्तान गये राव शेखा को मुस्लिम सूबेदार ने पकड़ कर कैद कर लिया। राज कायम करने की तजवीज में भटक रहे बीका से राव शेखा की पत्नी ने अपने पति को छुड़ा लाने का अनुरोध किया। मुल्तान पर आक्रमण कर राव बीका ने राव शेखा को मुक्त करवा दिया। क्षेत्र की लोकदेवी करणीजी राव शेखा की धर्मबहिन थी। इस रिश्ते का लाभ राव बीका को मिला। बीका ने जांगल देश में अपने राज्य की स्थापना हेतु आशीर्वाद प्राप्त कर लिया। करणीजी के कहने पर राव शेखा ने न केवल अपनी पुत्री रंगकुंवरी का विवाह राव बीका से कर दिया बल्कि बीका की अधीनता भी स्वीकार कर ली। 

नये शहर और गांव पानी के स्रोत के पास ही बसाये जाते थे। बीका ने कोडमदेसर तालाब के पास गढ़ बना कर शहर बसाने की योजना बनायी। क्षेत्र के भाटियों को इसकी भनक लग गयी। जैसलमेर के भाटी रावल कलिकर्ण की सहायता से बीका पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में कलिकर्ण मारे गये और बीका ने जीत हासिल की। लेकिन बीका ने भांप लिया कि भाटियों के दामाद होते हुए भी उनके नजदीक राजधानी बसाना सुरक्षित नहीं है। उन्हें ज्ञात था कि पिता राव जोधा ने अपने राज्य के विस्तार के लिए पड़ौस के मोहिलवाटी पर कब्जा करने की नीयत से वहां के शासक अजीतसिंह—जो जोधा के दामाद भी थे—को बुलाकर मार डालने की कोशिश की थी। पता लगने पर अजीतसिंह भाग लिए। लेकिन राठौड़ों ने पीछा कर उसे मार ही दिया। बीका चतुर थे सो भाटियों से दूर रहना ही तय किया। लेकिन ज्यादा दूर जाने की गुंजाइश नहीं थी। आवागमन के द्रुत गति के साधन तब नहीं थे। 15-20 मील की दूरी भी सुरक्षित मानी जाती थी। वर्तमान बीकानेर जिस टीबे पर बसा है वहां पहले से कुछ बसावट थी। भाण्डाशाह जैन मन्दिर की स्थापना बीकानेर की स्थापना से पूर्व की माना जाना इसका प्रमाण है। मामा नापाजी सांखला की सलाह पर संवत् 1545 की वैशाख शुक्ल पक्ष की दूज को राव बीका ने वहीं बीकानेर नगर की विधिवत् स्थापना की।

शहर का नाम रखने पर अलग-अलग मान्यताएं है, जिसमें यह भी कि इस टीबे की भूमि नेर नाम जाट ने इस शर्त पर दी कि शहर के नाम में उसका नाम भी हो। कुछ इसे बीका के पुत्र और उत्तराधिकारी नारोजी से जोड़ते हैं लेकिन कुछ इतिहासकार मानते हैं कि नेर का अर्थ नगर भी है, जैसे भटनेर-जोबनेर आदि—जो बीकानेर बसने से पहले के हैं— इसलिए बीकानेर का मतलब बीकानगर से ही है। इस तरह यह बीकानेर शहर अस्तित्व में आया। जब बीका से पूर्व उनके पिता जोधा को भी इस थार रेगिस्तान में राज्य स्थापना के लिए इतने पापड़ बेलने पड़े तो नन्दकिशोर आचार्य की ठठेबाजी के हिसाब से पूर्व में अच्छे से काबिज हो चुकी अरावली पर्वत शृंखलाओं में नगर बसाने की राव बीका सोच भी कैसे सकते थे। क्रमश:

—दीपचंद सांखला

05 मई, 2022