आज जो भी और जैसा भी बीकानेर हमें मिला है—उसने पांच शताब्दियों से ज्यादा का सफर तय कर लिया है। यह शुरू में ऐसा नहीं था। आज जहां लक्ष्मीनाथजी का मन्दिर है उसके सामने के गणेश मन्दिर परिसर में ही छोटी-सी गढ़ी में राव बीका और उनकी तीन पीढिय़ों का ठिकाना रहा। वह तो बीकानेर के छठे शासक रायसिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर भरोसा जीत लिया तो आधे मारवाड़ सहित वर्तमान गुजरात तक की मनसबदारी मिल गई। उस मनसबदारी से हासिल आय से जूनागढ़ किले का निर्माण शुरू हुआ और शहर परकोटे का भी।
मुगलों से आत्मीयता बढ़ाने के लिए पांचवें राव कल्याणमल ने अपने भाइयों की दो बेटियों को अकबर से ब्याहने को भेज दिया था। इस तरह अकबर के जनाना महल में अनेक रानियों-बेगमों में बीकानेर की दो बेटियां भी थीं। (स्रोत : दलपत-विलास पृ. 14)।
बड़े शासक की अधीनता स्वीकार करने का मतलब यही था कि आपकी सीमाएं सुरक्षित हैं निश्चित होकर बादशाह का कहा करें और अपने नगर और रियासत का विकास भी। इस समझ का निर्वहन 22वें और अन्तिम शासक सादुलसिंह तक बखूबी किया गया। बल्कि अंग्रेजों की अधीनता से परिवर्तन यह आया कि क्षेत्र के विकास के लिए अंग्रेज न केवल दबाव बनाये रखते थे बल्कि खुद योजनाएं बनवा कर भी देते थे। यही बड़ी वजह थी कि बीकानेर पर 56 वर्ष के अपने सबसे लम्बे शासन में महाराजा गंगासिंह अंग्रेजों के कहे-कहे अनेक लोककल्याणकारी योजनाओं को अमलीजामा पहना सके। इसमें बड़ी अनुकूलता यह भी थी कि 20वीं सदी आते-आते अंग्रेजी राज ने पांव अच्छे से जमा लिए थे, ऐसे में स्थानीय रियासतों को अपने पांव जमाएं रखने की जरूरत खत्म हो गयी थी।
यद्यपि विश्व युद्धों में अंग्रेजों की तरफ से महाराजा गंगासिंह को शामिल होना पड़ा लेकिन अपने पूर्वजों की तरह बारहोमास लगातार युद्धरत रहने और युद्धों की तैयारी करते रहने जैसा नहीं था। इसीलिए आज का बीकानेर जो भी है, उसका बड़ा हिस्सा बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में विकसित है। इसमें अंग्रेजी राज, उनका स्थानीय रीजेंट और अंग्रेज रिजिडेंट्स की बड़ी भूमिका थी।
यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि मुगलों के बाद देश जब एक छत्र के नीचे आ गया तो अन्तर्रियासती कानून व्यवस्था सुदृढ़ हुई, आवागमन सुरक्षित हुआ जिसके चलते अन्तर्रियासती आवागमन बढ़ा, व्यापार बढ़ा और इसी के चलते व्यापार के लिए विस्थापन भी होने लगा। आवागमन के द्रुतगति के साधन नहीं होने के बावजूद वर्तमान राजस्थान के लोग खासकर वणिक समुदाय ने उत्तर मुगलकाल से ही सुदूर उत्तर-पूर्व और दक्षिण तक जाकर व्यापार करने का साहस करना शुरू कर दिया था और जहां पोलपट्टी मिली वहां स्थानीय लोगों का शोषण भी किया और ठगी भी। वणिक समुदाय अपने भरोसे के सहयोगियों को भी साथ ले जाते जिनमें बड़ी संख्या ब्राह्मण समुदाय के लोगों की होती। उसी दौरान बीकानेर के वणिक समुदाय ने भी बहुतायत में पलायन किया खासकर चूरू-रतनगढ़ क्षेत्र से।
जो भी बाहर गये वो अतिरिक्त धन होने पर अपनी समृद्धि दिखाने के लिए अपने क्षेत्र की शिक्षा में लगाते। इसमें बाहर से, खासकर वर्तमान उत्तरप्रदेश क्षेत्र के विभिन्न विषयों के शिक्षक—खासकर संस्कृत के—बुलाते, उनकी सेवाओं से स्थानीय—खासकर ब्राह्मण समुदाय के लोग लाभान्वित होते।
16वीं शताब्दी के मध्य में बीकानेर में राजा कल्याणमल की रुचि ज्योतिष और संस्कृत में थी, इसी तरह उनके पुत्र राजा रायसिंह की भी। दोनों पिता पुत्र के नाम से सृजित ग्रंथों का उल्लेख भी मिलता है तो गोकुलप्रसाद त्रिपाठी जैसे संस्कृत विद्वानों की उपस्थिति भी। फिर अठारहवीं शताब्दी के पूवाद्र्ध में राव कल्याणमल, राजा रायसिंह और कर्णसिंह की संस्कृत की विरासत को राजा अनूपसिंह ने ना केवल अच्छे से सहेजा बल्कि उसे इतनी ऊंचाइयों तक ले गये कि उनके द्वारा बुलाये गये विद्वानों द्वारा सृजित तथा हासिल पाण्डुलिपियों के संग्रह से अनूप संस्कृत लाइब्रेरी आज भी अपनी महती उपस्थिति रखती है। यद्यपि वर्तमान में यह पुस्तकालय बन्द ही रहता है। किसी शोधार्थी को अपनी जरूरत पूरी करने के लिए कई तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। लेकिन इस पुस्तकालय की पुस्तकें हाल तक सुरक्षित हैं।
उसी मुगल काल में रियासती शासकों को मुगलों की सेवा में रहना होता था। कभी दिल्ली में तो कभी सुदूर दक्षिण तक में। अपनी रुचि अनुसार राजा विभिन्न कलाओं के कारीगरों को रियासतों में ले आते और अपने क्षेत्रों में समृद्ध करते। बीकानेर के उस्ता ईरानी शैली को यहां लाए और स्थानीय साधनों के साथ उस्ता कला के तौर पर प्रसिद्ध किया। इसी तरह पत्थरों के कारीगरों के साथ मुगल स्थापत्य, ऊनी गलीचों तथा हाथी दांत आदि के कारीगर उस समय आकर जो बसे, यहीं के होकर रह गये। यहां आकर रच-बस जाने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। इसमें यहां पहले से रह रहे बाशिन्दों की सदाशयता भी उल्लेखनीय थी। यही वजह है कि पुरानी बसावट में हिन्दू-मुसलमानों के मोहल्ले आपस में गुंथे हुए हैं। सहिष्णुता और सामाजिक समरसता की मिसालें यहां के लिए इसीलिए दी जाती है। वर्तमान में राजनीतिक कारणों से दूषित हो रहे माहौल से वैसी सहिष्णुता और सामाजिक समरसता कब तक बची रहेगी—कहना मुश्किल है। क्रमशः
—दीपचंद सांखला
12 मई, 2022