Thursday, February 25, 2016

हॉकरों की हड़ताल के बहाने कुछ असलियतों का साझा

फरवरी, 2016 की 22, 23 और 24 को बीकानेर शहर के वे लोग जो रोटी, कपड़ा और मकान जैसी प्राथमिक चिन्ताओं से कुछ या पूरे मुक्त हैं, उनमें से अधिकांश के घरों की सुबह कुछ भिन्न रही। शहर में सर्वाधिक प्रसारित अखबार राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर हॉकरों की हड़ताल के चलते नहीं पहुंचे। हड़ताल की वजह थी इन अखबारों के विक्रय मूल्य में कुछ ही महीनों में पचास पैसे की दूसरी बार की बढ़ोतरी। इस बढ़ोतरी पर हॉकरों का एतराज इसलिए था कि एक तो उनसे इस बारे में न सलाह ली जाती है और न ही पूर्व में सूचित किया जाता है। यह भी कि कुछ ही महीनों में इस तरह से यह दूसरी बढ़ोतरी नाजायज है और तीसरी व्यवस्थागत आपत्ति उनकी यह है कि बजाय पहली तारीख के कीमत को बीच में बढ़ाने से उन्हें हिसाब-किताब की असुविधा होती है। छिपी आपत्ति यह भी हो सकती है कि इस बढ़ोतरी में उनकी हिस्सेदारी को न बढ़ाना। हॉकरों की हिस्सेदारी यदि बढ़ा दी जाती और अखबार मालिक अपने लालच का कुछ साझा यदि उनसे भी कर लेते तो संभवत: हड़ताल की यह नौबत नहीं आती। यानी पहले की तीनों आपत्तियां दिखाने की और चौथी और असल आपत्ति खाने वाले दांत हुई।
यह तो हुई धंधेबाजों की बात, असल जो प्रभावित हुए, वे पाठक भुगतने के अलावा कुछ न कर पाने को लाचार हैं। कुछ वे जो मात्र 'स्टेटस' दिखाने को अखबार मंगवाते हैं उन्हें तो इससे कोई खास अन्तर नहीं पड़ता। लेकिन जो विभिन्न जरूरतों को पूरा करने को मंगवाते हैं, ऐसों को कुछ छूटा हुआ सा जरूर लगा। लेकिन सबसे बड़ी परेशानी में वे देखे गए जो अखबार को पढऩा अपनी 'लत' में शामिल मान चुके हैं। असल में इनमें से ही अधिकांश लोग स्वार्थों से इतर देश, दुनिया और समाज के बारे में विचारना जारी रखने वाले होते हैं। यद्यपि अन्य अखबारों ने इसे एक अवसर मानकर पाठकों तक पहुंचने की कोशिश जरूरी की लेकिन जिन तक ये भी नहीं पहुंच पाए वे अधिकांश 'लत' संक्रमित लोग, सुबह-सवेरेे इन अखबारों की उपलब्धता वाले स्थानों तक अपनी 'लत' को शान्त करने पहुंच जाते।
फरवरी 25 को अखबारों का पूर्वत: पहुंचना सुचारु हुआ, पता किया तो मालुम हुआ कि हॉकरों की मांगें इन अखबारी धंधेबाजों ने नहीं मानी। हां, हॉकरों के इस रोष पर आश्वस्त जरूर किया कि आगे कीमत एक-डेढ़ वर्ष से पहले नहीं बढ़ाएंगे और बढ़ाने से पर्याप्त समय पूर्व हॉकरों को सूचित कर देंगे। बढ़ाने से पूर्व सलाह करने की उम्मीद तो मिशनरी व्यवसाय से धंधा बन चुके इस क्षेत्र से खत्म सी हो गई है और ऐसी हर हड़ताल के पीछे छिपे लालच ने हॉकरों की इस बात का वजन भी खत्म कर दिया कि इस अखबरी व्यवसाय की वे जरूरी कड़ी हैं, जिसके बिना यह धंधा चल ही नहीं सकता।
अखबारों के अधिकांश मालिक धंधेबाज हैं इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैंविज्ञापन, खबरों की अमानवीय प्रस्तुति, रोक के बावजूद छिपे रूप में 'पेड न्यूज', अपात्रों को सुर्खियां देकर पात्रता का सर्टिफिकेट देना समाचारीय पक्ष तो है ही। अलावा इसके एक ही अखबार दो अलग-अलग स्थानों पर दो विक्रय मूल्य रखें तो इसे फिर क्या कहेंगे। जयपुर और बीकानेर के बीच की ऐसी विक्रय कीमत दुभांत को समझें तो नियमित सभी रंगीन 28 पृष्ठों का अखबार पत्रिका व भास्कर दोनों चार रुपये में जयपुर में देते हैं और बीकानेर में अतिरिक्त विज्ञापनों के चलते कभी-कभार के अतिरिक्त चार पृष्ठों की बात छोड़ दें तो जयपुर से आधे चौदह पृष्ठों के ही यहां पांच रुपये वसूले जाने लगे हैं। व्यापार के इस गणित के माध्यम से समझना जरूरी है कि ये अपने उपभोक्ता वर्ग पाठकों के साथ दुभांत कर रहे हैं या धोखाधड़ी।
अलावा इसके लाखों प्रतियां प्रतिदिन छापकर बेचने वाले ये धंधेबाज आकार घटाने की चतुराई लगातार कर रहे हैं, जो इसके उपभोक्ता पाठकों के सीधे ध्यान नहीं आती। ब्रॉडशीट अखबर के एक पृष्ठ का स्टैण्डर्ड आकार 16 गुणा 22 इंच होता है लेकिन ये अखबार लगातार इसका आकार घटाकर रोजाना टनों कागज की बचत करके करोड़ों के अपने लालच की पूर्ति अलग कर ही रहे हैं और इस तरह अपने अखबार का आकार 16 गुणा 22 इंच से घटाते-घटाते 13.5 गुणा 21.5 इंच से कम पर ले आएं हैं। कभी-कभार साथ दिये जाने वाले सप्लीमेंट का आकार तो अब इससे भी छोटा किया जाने लगा है। इस तरह टनों कागज की रोजाना बचत से की जा रही यह मुनाफा वसूली अखबारी कीमत से अलग है। यह अलग बात है कि एक अखबार को छापने की लागत सामान्यत: इसके विक्रय मूल्य से तीन-चार गुणा और अधिक भी हो सकती है। लेकिन न केवल इस घाटे की पूर्ति ही बल्कि लाभ तो इन स्थापित अखबारों को मिलने वाले विज्ञापनों से होता है और अपने इन अखबारों की धाक से ये अखबारी धंधेबाज अन्य तौर-तरीकों से कितना कमाने लगे हैं उसकी कूंत तो आंखें फाड़ देगी। यह बात लिखने-बताने का मकसद असलियत को साझा करना है ताकि कम-से-कम अखबारी पाठक 'भोले' नहीं गिने जाएं।

25 फरवरी, 2016

Wednesday, February 17, 2016

देश में बिगड़ते माहौल के लिए जिम्मेदार कौन

नई दिल्ली के जिस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रेडिटेशन कौंसिल (एनएएसी) की ओर से अब तक किसी विश्वविद्यालय को मिलने वाली सर्वाधिक चौथे स्केल पर 3-9 सीजीपीए की ग्रेडिंग दी गई वह विश्वविद्यालय इन दिनों देशद्रोह की गतिविधियों के आरोप को लेकर सुर्खियों में है।
देश के विभिन्न क्षेत्रों के अधिकांशत: कमजोर तबकों से आए तकरीबन आठ हजार विद्यार्थियों वाले इस विश्वविद्यालय में पढऩा कम गौरव की बात कभी नहीं रहा। वैचारिक खुलेपन के माहौल के चलते यहां से निकलने वाला लगभग प्रत्येक विद्यार्थी बौद्धिकों में शुमार हो लेता है।
ताजा विवाद इसी 9 फरवरी को तब शुरू हुआ जब परिसर में आयोजित एक गोष्ठी में पाकिस्तान जिन्दाबाद के साथ कश्मीरी अलगाववादियों के समर्थन में नारेबाजी हुई। ऐसा कभी-कभार पहले भी हुआ है लेकिन केवल इस बिना पर ऐसी हरकतों की छूट नहीं दी जा सकती। असल दोषियों को चिह्नित कर उन पर नियम और कानून-सम्मत कार्यवाही होनी चाहिए। ऐसी वारदातों से निबटने को जहां विश्वविद्यालय के अपने नियम-कायदे हैं वहीं इनके ओछे पडऩे पर पुलिस और प्रशासन के अपने कानून-कायदे हैं ही। विश्वविद्यालय प्रशासन का मानना है कि घटना की जानकारी के बाद जांच बैठा दी गई, जल्द ही रिपोर्ट आ जानी है।
घटना के तीन दिन बाद दिल्ली पुलिस विश्वविद्यालय प्रशासन के बिना बुलाए विश्वविद्यालय परिसर में घुसती है और उक्त घटना के आरोप में विश्वविद्यालय छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैयाकुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर ले जाती है। कन्हैया आज तक पुलिस रिमाण्ड पर है। जबकि उसे देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त नहीं पाया गया। इसके उलट कन्हैया का पक्ष यह है कि वह तो नारेबाजों को रोकने वालों में था। यह जरूर माना जा सकता है कि विश्वविद्यालय छात्रसंघ के चुनाव में बहुमत से जीत हासिल करने वाले कन्हैया का केन्द्र में बहुमत से सरकार में आए दल से वैचारिक विरोध है, जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संभव है।
दरअसल मामला दूसरा है, जब से केन्द्र में वर्तमान सरकार आयी है तब से देश के सभी बड़े शिक्षण संस्थानों में सत्तारूढ़ पार्टी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसे अपनी विचारधारा थोपने का अवसर मान लिया। इसके लिए उसने मोर्चा बजाय वैचारिक के, थोपने वाला खोला, जिसकी गुंजाइश विचारशील समाज में न्यूनतम होनी चाहिए। पूना फिल्म इंस्टिट्यूट में चेयरमैन के मनोनयन का विरोध, हैदराबाद के एक विश्वविद्यालय में विपरीत विचारधारा वाले विद्यार्थियों के खिलाफ ओछी कार्रवाई और परिणामस्वरूप रोहित की आत्महत्या जैसी घटनाएं उद्वेलनकारी सिद्ध हुई। इस आत्महत्या पर उपजा आक्रोश देश के कई शिक्षण संस्थानों तक फैल गया, ऐसे में जेएनयू कैसे अछूता रहता। इस घटना ने संभवत: सरकार को विचलित कर दिया और जेएनयू की इस अलगाववादी नारेबाजी की घटना को इनके दिवालिये बौद्धिकों के हुड़े में न केवल इतना प्रचारित करवाया बल्कि आनन-फानन में कन्हैया को राजद्रोह में गिरफ्तार कर माहौल को और भी खराब होने दिया। अब तो सुरक्षा एजेन्सियों ने भी गृहमंत्रालय को दी अपनी रिपोर्ट में बता दिया है कि कन्हैया उस देश विरोधी नारेबाजी में शामिल ही नहीं था। इस रिपोर्ट ने सार्वजनिक तौर पर, मीडिया और सोशल मीडिया पर उसके समर्थन में आए सभी को सही और सरकार को गलत साबित कर दिया है।
इस बीच 1617 फरवरी को लगतार दोनों दिन कन्हैया की पटियाला कोर्ट में पेशी पर वकीलों जैसे काले कोट पहने कई लोग परिसर में घुस गए और कन्हैया व उसके समर्थकों तथा पत्रकारों के साथ मारपीट व बदसलूकी की, जिसे उच्चतम न्यायालय ने तत्काल ही गंभीरता से लिया। इस कुकृत्य का नेतृत्व पहले दिन केन्द्र में सत्तासीन पार्टी के विधायक ही कर रहे थे। दिल्ली की स्थिति बड़ी विचित्र है, उपराज्यपाल और पुलिस आयुक्त दोनों की भूमिका भद्देपन की हद तक संक्रमित कर दी गई है। खैर, यह अलग मुद्दा है।
इस पूरे घटनाक्रम में मीडिया का एक हिस्सा जहां अपनी जिम्मेदारी निभाता नजर आया वहीं कोर्ट में हुई मारपीट की घटना के बावजूद मीडिया का दूसरा हिस्सा केन्द्र की सत्ता की गुलामी करता साफ दीखा। मीडिया का यह भदेसपन यदि इसी तरह बढ़ता है तो ज्यादा चिन्ताजनक है।
सोशल मीडिया की स्थिति और भी बुरी है। केन्द्र में जिस पार्टी का शासन है उसके समर्थक तो विवेक और लोकतांत्रिक मूल्यों की सारी सीमाएं लांघते हुए अशालीन नजर आने लगे हैं। ऐसा लगने लगा है कि उन्हें अपनी ही सरकार की कानून और व्यवस्था में कोई भरोसा नहीं। वे खुद ही जुर्म तय करेंगे और खुद ही सजा देंगे। ऐसी स्थितियों में बढ़ोतरी होती है तो देश को शासन-प्रेरित अराजकता की ओर बढऩे से रोका नहीं जा सकेगा। प्रधानमंत्री भी ऐसे सभी अवसरों पर चैन की बंसी बजाते ही नजर आते हैं मानों उन्होंने खुद अपने समर्थकों को रोम में आग लगाने की छूट दे दी है।
ऐसी पुनरावृति इस देश में 1975-76 (आपातकाल) के बाद पहली बार देखी गई लेकिन इस बार उग्रता ज्यादा महसूस की जा रही है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी से जो असहमति जताते हैं और सरकारी कामकाज से असंतुष्ट हैं उन्हें देश के खिलाफ माना जाने लगा है। इस तरह शासन और देश को एक मानना बेहद खतरनाक है। शासन के कामकाज और पार्टी विशेष की विचारधारा के विरोध को देश का विरोध कैसे माना जा सकता है। ऐसी परिस्थितियों के लिए न केवल राजनीतिक विचारों के प्रति अतार्किक और अलोकतांत्रिक आग्रहों को जिम्मेदार माना जा सकता हैं बल्कि धर्मच्युत मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है।

18 फरवरी, 2016

Thursday, February 4, 2016

दुश्मन की गरज साजते हैं हमारे नुमाइंदे

राजस्थान के सन्दर्भ में बात करें तो प्राकृतिक रूप से पहले से ही समृद्ध 'अपने' क्षेत्र उदयपुर को मोहनलाल सुखाडिय़ा ने बबुआ बना दिया। पिछली सदी के छठे-सातवें दशक में सूबे के मुख्यमंत्री रहे सुखाडिय़ा की आलोचना इसीलिए भी हुई कि वे अपने क्षेत्र पर ही ज्यादा ध्यान देते थे, यह उलाहना तो आया गया हो गया पर तब विकसित हुए उदयपुर का सुख वहां के बाशिन्दों की कई पीढिय़ां भोगती रहेंगी।
इसी तरह मुख्यमंत्री रहे हों या नहीं, अशोक गहलोत अपनी चतुराई से न केवल 'अपने' जोधपुर का डोळिया लगातार सुधारते रहे बल्कि वहां कई प्रकार की सुविधाएं बढ़ाने में भी सदा सचेष्ट रहे हैं। गहलोत के लिए चतुराई का प्रयोग इसलिए किया कि जहां आधारभूत रूप से अधिकांश लक-दक उदयपुर उसी काल में हुआ जब सुखाडिय़ा सूबे के मुख्यमंत्री रहे लेकिन गहलोत की जोधपुर के साथ ट्यूनिंग ऐसी है कि भले वे सत्ता में रहे या नहीं और यह भी कि केन्द्र और प्रदेश में उनकी पार्टी की सरकारें भी चाहे न हों, अपने प्रबन्धकीय कौशल से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जोधपुर को संवारने में सचेष्ट रहे हैं।
ठीक सुखाडिय़ा-सा उलाहना जोधपुर को लेकर गहलोत को भी मिलता रहा है लेकिन तब हम यह भूल जाते हैं कि गहलोत ने 'अपने' दूसरे घर जयपुर के लिए भी बहुत कुछ किया और यह भी कि सत्ता में न रहते हुए भी वे जोधपुर के लिए लगे रहते हैं। हालांकि केवल इस कारण भर से गहलोत को बरी इसलिए नहीं किया जा सकता कि सूबे के मुखिया होने से प्रदेश के दूसरे क्षेत्रों से दुभान्त में फासला इतना भी नहीं होना चाहिए। उन्नीस-इक्कीस का अन्तर तो समझ में आता है।
ऊपर बताई बातों के अनुसार यह तो हुई मुख्यमंत्रियों की बात जोधपुर-गहलोत पर यद्यपि उस तरह लागू नहीं होती जिस तरह सुखाडिय़ा पर हुई। इसके ठीक उलट अपने शहर से प्यार करने का बड़ा उदाहरण शान्ति धारीवाल का दे सकते हैं। उन्होंने मात्र कैबिनेट मंत्री रहते अपने शहर कोटा का वर्ष 2008 से 2013 में जो हुलिया बदला अन्य जनप्रतिनिधियों के लिए यह बड़ा उदाहरण है। धारीवाल के उदाहरण से यह जाहिर होता है कि आप मुख्यमंत्री न भी हों, अपने क्षेत्र से यदि प्यार करते हैं तो केवल मंत्री रहते भी उसका काया-कल्प कर सकते हैं और जो मंत्रालय सीधे आपके अधीन नहीं हैं, अंगुली टेढी कर उन मंत्रालयों से सम्बन्धित जरूरी विकास भी 'अपने' शहर में करवा सकते हैं।
अब आते हैं अपने क्षेत्र बीकानेर की ओर। आजादी बाद के शुरू के बीस वर्ष में यह मान लें कि लोकतंत्र के लिए जरूरी विपक्ष को बीकानेर ने ताकत दी लेकिन फिर उसके बाद से तो यह क्षेत्र अधिकांशत: सत्ता पक्ष के साथ ही रहा है। इस क्षेत्र में 1980 के बाद कहने को दो पावरफुल मंत्री दोनों मुख्य दलों के रहेडॉ. बीडी कल्ला और देवीसिंह भाटी, लेकिन अपने क्षेत्र के लिए इनके दाय पर बात करें तो सिफर ही निकलेगा।
पहले डॉ. बीडी कल्ला की बात कर लें, वे अपने खाते में जो काम गिनवाते हैं उनमें से अधिकांश वे ही हैं जो सूबे के बीकानेर जैसे बड़े शहर या संभागीय मुख्यालय के नाते वैसे ही होने थे। उनके गिनवाए कामों के काल का अन्य बड़े शहरों में वैसे ही कामों के होने के काल से तुलना करें तो अधिकांश कामों के यहां होने की बारी अंत में ही आई। ऐसे में कल्ला किस बात का श्रेय लेना चाहते हैं। उनके काल में हुए कामों के लिए यथा इंजीनियरिंग कॉलेज, सदर जेल और परिवहन कार्यालय इन तीनों को जंगलों में स्थान दिलवाया गया जबकि वे निहित लोभ छोड़ कर बाशिन्दों के व्यापक हित की सोचते तो यह तीनों वहां नहीं होते जहां आज हैं। इसमें परिवहन कार्यालय (आरटीओ) का स्थान चयन तो उनकी संवेदनशून्यता को ही जाहिर कर रहा है। इस कार्यालय से जिन अधिकांश का साबका पड़ता है वे उनमें अधिकांश किशोर-किशोरियां होते हैं जिन्हें अपना लाइसेंस दो बार बनवाना होता है। अब बताएं उन्हें इस काम के लिए कहां जाना पड़ता है। इसी तरह जेल के अधिकांश सजायाफ्ता गरीब और कमजोर वर्ग से होते हैं, अब हो यह गया कि उनका परिजन कभी अपने प्रियजन से मिलना भी चाहे तो जेल तक पहुंचना काफी खर्चीला है और पहुंच जाएं तो मुलाकात उससे भी ज्यादा खर्चीली होगी।
इसी तरह यहां के जो कॉलेज-विश्वविद्यालय हैं, ये सब गोशाला की तर्ज पर यहां के नेताओं के हाजरियों की हाजरिया-शाला से कम नहीं हैं। इनमें अधिकांश लोग यहां के जनप्रतिनिधियों के हाजरिए ही ठूंसे गये हैं।
देवीसिंह भाटी भी कल्ला की तरह 1980 से अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते रहे। इस बार जनता ने उन्हें हराकर ठिठकाया भर है। लेकिन खुद उनके विधानसभा क्षेत्र कोलायत की गिनती प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रों में होती है। खनिज सम्पदा लूट का बड़ा क्षेत्र भी कोलायत गिना जाने लगा है। ये देवीसिंह भाटी ही हैं जिन्होंने अपने क्षेत्र में कुछ किया नहीं किया पर बढ़ते बीकानेर क्षेत्र की महती जरूरत जोधपुर-जैसलमेर मार्ग को जोडऩे वाले सड़क बाइपास निर्माण को गोचर के नाम पर अंडग़ा लगवा कर रुकवा दिया और शहर ने बर्दाश्त भी कर लिया।
गोपाल जोशी की दूसरी बार जनप्रतिनिधि होने की आस उस उम्र में पूरी हुई जब सक्रियता और विजन दोनों ही सिमटने लगते हैं। इस दूसरी पारी का उनका पहला कार्याकाल विपक्ष में निकला और दूसरा कार्यकाल उनकी नेता वसुंधरा राजे की काम के प्रति अरुचि की भेंट चढ़ रहा है। बीकानेर से ही दूसरी सिद्धीकुमारी को जनता जितवाती ही सत्ता भोगने को है तो फिर उनसे कुछ उम्मीद करना ज्यादती होगी।
नोखा के जनप्रतिनिधियों की लड़ाई हमेशा नाक की लड़ाई की भेंट चढ़ती रही है। रामेश्वर डूडी सिर्फ नेताई के लिए नेताई करते हैं उन्होंने न तब कुछ किया जब सांसद थे तो अब क्या करेंगे। उनकी रुचि इस शहर के लिए इतनी है कि नोखा जाने वाली बसें शहर के हर उस चौराहे पर बेतरतीबी बढ़ाए जहां से उसे गुजरना है। अन्यथा शहर से निकलने वाले चारों बड़े मार्गों पर अलग-अलग बस अड्डे विकसित हों तो शहर का यातायात कुछ सुधर सकता है।
सच्चे जनप्रतिनिधि की भूमिका निभाने को सचेष्ट मानिकचन्द सुराना अपने क्षेत्र ही नहीं पूरे सूबे के लिए उदाहरण हैं। अपने क्षेत्र के विकास हेतु लगातार सक्रिय रहने के बूते ही इस उम्र में हाल का चुनाव निर्दलीय रूप में लड़कर जीत लिया। सुराना ने बीकानेर शहर के प्रति अपने लगाव को तब जाहिर किया जब कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के समाधान के लिए एलिवेटेड रोड का पक्ष उन्होंने दृढ़तापूर्वक लिया। ठीक इनके उलट जिन डॉ. कल्ला की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है वे बाइपास की झक झाले रखकर अपनी भद्द पिटवा ही चुके हैं।
कोलायत के विधायक भंवरसिंह भाटी को अभी समय मिलना चाहिए वहीं खाजूवाला के डॉ. विश्वनाथ अपना पहला चुनाव अपने राजनीतिक गॉडफादर देवीसिंह भाटी के प्रभाव से जीते तो दूसरा देश में कांग्रेस के खिलाफ बने माहौल के बूते। इस तरह की लॉटरियां हमेशा नहीं निकलती और राजनीति में तो हरगिज नहीं। इस सरकार ने उन्हें संसदीय सचिव जैसा गैर प्रभावी पद जरूर दे दिया है। यदि उन्हें लम्बी पारी खेलनी है तो अपने क्षेत्र के गांवों की चार मूलभूत जरूरतों को पुख्ता करवाएंपानी-बिजली के आधारभूत ढांचे के अलावा सरकारी-स्कूलों और सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों की सेवाएं यदि वे चाक-चौबंद करवा पाते हैं तो न केवल अन्य जनप्रतिनिधियों के लिए वे उदाहरण बन सकते हैं बल्कि अपनी सीट को पक्की रख सकेंगे। नहीं तो 'उतर भीखा म्हारी बारी' को हासिल होते देर नहीं लगेगी।
श्रीडूँगरगढ़ के किसनाराम नाई हों या मंगलाराम गोदारा इनकी राजनीति के तौर तरीके अपने क्षेत्र के अन्य अधिकांश राजनेताओं की तर्ज पर मात्र क्षेत्र को उपनिवेश समझने से ज्यादा नहीं हैं। इनसे जनता छुटकारा लेवे तो कुछ बात बने अन्यथा भुगतते रहना जनता की मजबूरी है। इन दोनों ही ने अपने क्षेत्र के लिए उल्लेखनीय कुछ करवाया हो ऐसा दीखता नहीं है।
इन जनप्रतिनिधियों से अपने क्षेत्र के लिए कुछ करवाना तो दूर अधिकांश तो कुछ होने में या तो अड़ंगे लगाते नजर आते हैं या उसका कबाड़ा करते। रही बात यहां आने वाले अफसरों की तो उनमें से अधिकांश धापकर यहां तक कहने लगे हैं कि आप जिन नेताओं को जिताकर ताकत देते हैं जब उनकी ही रुचि यहां के विकास और सुधारे में नहीं है तो हमारे बाप का क्या जाता है, हमें तो साल दो साल ही गुजारना है।

4 फरवरी, 2016

Thursday, January 28, 2016

गणतंत्र दिवस पर तमाशा, डॉ. कल्ला का फ्लॉप-शो और सूने तमाशबीन हम

पिछले लगभग एक माह से शहर में हलचल इसलिए थी कि गणतंत्र दिवस का इस बार का राज्य स्तरीय समारोह बीकानेर में रखा जाना है। सूबे की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस तरह के आयोजनों से किसी शहर-विशेष से अपने लगाव को जताने की कोशिश करती हैं लेकिन इस बार ऐसी छाप वह कहीं भी नहीं छोड़ पा रही। अपने पिछले कार्यकाल में वह जब ऐसा कुछ करतीं तो छाप भी छोड़ती थीं। उनके इस बदले रुख का असर उलटा होने लगा है। जहां आयोजन होता है वहां के लोग भारी उम्मीदें बांध लेते हैं और, जितनी भारी उम्मीदें होती हैं, निराशा की लम्बाई उतनी ही बढ़ जाती है।
बीकानेर शहर की सबसे बड़ी समस्या रेलफाटकों के चलते कोटगेट क्षेत्र की यातायात व्यवस्था है। इस आयोजन से पहले इसके लिए जिस तरह की कवायद चल रही थी, उससे यहां के बाशिन्दों को लगने लगा था कि मुख्यमंत्री इसके समाधान की कोई घोषणा जरूर करेंगी। हां, मंशा जरूर जताई, हो सकता है अगले माह आने वाले राज्य के बजट में इसके लिए प्रावधान किए जाएं।
दूसरा मुद्दा यहां के तकनीकी विश्वविद्यालय का है जिसे इस सरकार ने आते ही बन्द कर दिया। शहर के तमाम नेताओं नेजिनमें दोनों ही मुख्य पार्टियों के नेता शामिल हैंइसे अपनी नाक का सवाल बना लिया। बनाएं भी क्यों नहीं जब यहां के इंजीनियरिंग कॉलेज का शैक्षणिक-गैर शैक्षणिक और जरूरत-बिना जरूरत का अधिकांश स्टाफ इन्हीं नेताओं के अपने लोग हों। और इसी के चलते इस कॉलेज ने न केवल अपनी साख खोई बल्कि इसे चलाने के लिए फिजूल का धन हर महीने इतना चाहिए कि यह कॉलेज इसी बोझ के तले बैठ जाये। इन नेताओं को लगता है कि यह कॉलेज यदि तकनीकी विश्वविद्यालय का संगठक कॉलेज बनेगा तो धन आने के कई रास्ते खुल जाएंगे, नहीं तो वर्ष-दो वर्ष में इनके घुसाए लोग बेकार होकर इनकी छाती पर आ बैठेंगे। तकनीकी विश्वविद्यालय की मांग के साथ इसके अलावा कोई अन्य सवाल नाक का हो तो इन नेताओं को जाहिर करना चाहिए। अन्यथा जब पिछली विधानसभा के आखिरी सत्र के एजेन्डे में इस तकनीकी विश्वविद्यालय का विधेयक रखा जाना तय था और तब के नेता प्रतिपक्ष भाजपा के कटारिया को इसे रोकने से सदन में न गोपाल जोशी ने रोका और न ही सिद्धीकुमारी ने, फिर देवीसिंह भाटी और डॉ. विश्वनाथ को इससे मतलब ही क्या था। अब अनशन का शो करने वाले डॉ. बीडी कल्ला ने भी तब अपनी पार्टी की सरकार के चलते इस विधेयक को रखवाने और उसे पारित कराने का राई-रत्ती भी कोई प्रयास किया हो तो जरूर बताएं।
खैर! लोक में कैबत है कि गई बातों तक घोड़े भी नहीं पहुंच पाते तो इन बातों से भी क्या बटेगा। 1967 से पहले कांग्रेस यह कहती थी कि बीकानेर विकास में इसलिए पिछड़ा है कि यह हमेशा विपक्ष को जिता कर भेजता है। उसके बाद से अधिकांशत: यह शहर सरकार में शामिल रहा। लेकिन इसे कभी उससे ज्यादा कुछ हासिल हुआ क्या जो एक संभागीय मुख्यालय को उसकी बारी के अंत में हासिल होता रहा है। कहने को सब जनप्रतिनिधि अपनी उपलब्धियों की लम्बी फेहरिस्त गिनवाते हैं और मतदाताओं को बेवकूफ बनाते रहते हैं।
शहर की शेष छिट-पुट जरूरतें अपनी जरूरतों के ही दबाव में जैसे-तैसे भी कभी पूरी हो लेगी लेकिन फिलहाल जो सबसे बड़ी जरूरत कोटगेट क्षेत्र की यातायात व्यवस्था है और जिसके समाधान की यह शहर पिछले पचीस वर्षों से बाट जोह रहा है, उसका निकट भविष्य में कुछ होना-जाना है क्या?
यह तो हो ली वर्तमान शासन की बात। लगे हाथ बात इस शहर के अपने होने का दावा करने वाले डॉ. बीडी कल्ला की भी कर लेते हैं कि वे अपने इसी दावे को पुष्ट करने के लिए उक्त में से एक बड़ी और दूसरी नाक की मांग के साथ अन्य कई मांगों को लेकर 21 जनवरी से सत्याग्रह पर बैठे और इसी क्रम में सांकेतिक भूख हड़ताल के रास्ते होकर हबीड़े में कहें या अपरिपक्वता के चलते 23 जनवरी से अपना घोषित आमरण अनशन भी कर बैठे।
पता नहीं उनकी इन मांगों में सत्य का आग्रह कितना है क्योंकि ये मांगें पिछले दो वर्ष की तो हैं नहीं। पिछली सरकार डॉ. कल्ला की थी और यह भी कि कोटगेट यातायात समस्या शुरू होने के पहले से भी वे सत्ता में थे और बाद में भी कई बार रहे। दो बार हार लिए हैं तो बैराग उमड़ा और सत्याग्रह पर बैठ लिए। पहले तो उन्हें आमरण अनशन जैसा अपरिपक्व निर्णय करना ही नहीं था क्योंकि यह गांधीवादी अनुष्ठान सचमुच के आग्रह के बिना पूरा नहीं होता। दूसरा बैठ गए तो मुख्यमंत्री के बुलावे पर उन्हें खुद न जाकर पार्टी के उन वरिष्ठों को भेजना चाहिए था जो अनशन पर नहीं थे। खुद उनके 'भाईजी' जनार्दन कल्ला और भानीभाई को भेजा जा सकता था, और आमरण अनशन से उठकर मुख्यमंत्री से मिलने चल ही दिए तो फिर सत्य पर आग्रह कैसा। डॉ. कल्ला समझदारी दिखाते तो मुख्यमंत्री से टका-सा जवाब सुनकर नहीं लौटते। इसके बाद भी दो दिन और धैर्य रखते, पुलिस द्वारा जबरन उठाकर ले जाने का इंतजार करते तो कुछ तो मान बना रहता। यह क्या हुआ कि कोई छिट-पुट बहाना लेकर ज्यूस पी लिया। जिस तरह की छोटी राजनीति खुद डॉ. कल्ला जीवनभर करते रहे हैं ऐसे में उन्होंने यह कैसे मान लिया कि उनके विरोधी दल की घाघ मुख्यमंत्री इस सबका श्रेय उन्हें लेने देगी। भारत के प्रसिद्ध शायर अल्लामा इकबाल का यह शेर शायद डॉ. कल्ला जैसे लोगों के लिए ही है :
मुझे रोकेगा तू ए नाखुदा, क्या गर्क होने से
कि जिसे डूबना हो, डूब जाते है सफीनों में
रही हम बाशिन्दों की बात तो जब तक हम अपनी सून से निकलेंगे नहीं, तमाशाबीन बनकर भुगतना यूं ही होगा।

28 जनवरी, 2016

Thursday, January 21, 2016

सरकार! पुलिस महकमें में इतना सुधारा तो हो/ बीकानेर के शहरी थानों का पुनर्सीमांकन जरूरी

पुलिस महकमें में सुधार की बातें और जरूरतें जब-तब बखानी जाती रही हैं। कई कमेटियां व आयोग बने, उनके सुझाव और रिपोर्टें बर्फ में इसलिए लगाई जाती रही कि जिन्हें इस महकमें के लिए कुछ करना है, उन राजनेताओं को इन सुझावों से अपनी ताकत कम होने का भय दीखने लगता है। कहा जाता है कि इस महकमें के लकवाग्रस्त होने के सर्वाधिक जिम्मेदार कोई है तो राजनीतिक हस्तक्षेप और राजनेताओं के चंगुल में इसका फंसे होना है। आजादी बाद शुरू के वर्षों में अधिकतर कांग्रेस इसका इस्तेमाल करती रही। पिछली सदी के आठवें दशक के बाद आई गैर कांग्रेसी सरकारों के ढंगढाळे भी वैसे ही रहे जैसे कांग्रेस के थे। सरकारों की अदला-बदली से पहले तो पुलिस महकमा चकबम्ब रहा लेकिन धीरे-धीरे वह भी सभी पार्टियों के राजनेताओं को उनके माजने अनुसार परोटना सीख गया।
इस महकमें को इस सबसे कभी मुक्ति मिलेगी और आमजन को वह बिना राग-द्वेष के अपनी नैष्ठिक सेवाएं देने की स्थिति में आ पाएगा इसके आसार फिलहाल दूर-दूर तक नहीं दिखते। क्योंकि इसके लिए पूरी तरह बदली राजनीतिक तासीर की जरूरत होगी। वैसे सुधार की कुछ गुंजाइश अन्ना आन्दोलन से टिमटिमाई जरूर थी लेकिन अनुगामी और सहयोगी अरविन्द केजरीवाल जिस ढंग से राज और राजनीति को हांक रहे हैं उनसे उम्मीदें काफूर ही हुई हैं।
बावजूद इस सबके इस महकमें में प्रशासनिक स्तर पर कुछ सुधारों की जरूरत महसूस की जाती रही है। सरकार सरकार चाहे तो प्रदेश स्तर पर इस महकमें में ही एक अलग अनुभाग बनाकर स्थानान्तरण, समानीकरण व नये थानों की जरूरत और थाना क्षेत्रों के पुनर्सीमांकन की गुंजाइश की पड़ताल लगातार करवाकर इसके क्रियान्वयन की प्रक्रिया जारी रख सकती है।
बीकानेर शहर और सदर के सन्दर्भ से ही बात करें तो इनके थानों के पुनर्सीमांकन की सख्त जरूरत है। सरकार 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस पर शहर में होगी और इस तरह के काम में कोई बड़ी पेचीदगी इसलिए भी नहीं है कि इसमें धन की कोई खास जरूरत नहीं होगी।
'विनायक' के पाठकों से कुछ थाना क्षेत्रों की विसंगतियां और सुधार यहां साझा करें तो खुद उन्हें लगेगा कि इससे न केवल यहां के बाशिन्दों को राहत मिलेगी बल्कि कानून और व्यवस्था बनाए रखने में भी चाक-चौबन्दी बढ़ेगी।
सबसे ज्यादा जिन दो शहरी थानों के पुनर्सीमांकन की जरूरत है उनमें गंगाशहर और नयाशहर थानों के इलाके हैं। उसके बाद बीछवाल, सदर और जयनारायण व्यास कॉलोनी थाना क्षेत्रों में परिवर्तन जरूरी लगते हैं।
गंगाशहर थाने के छोटा रानीसरबास, कादरी कॉलोनी, जनता प्याऊ, बंगलानगर, रंगा कॉलोनी व मुरलीधर व्यास कॉलोनी क्षेत्रों को नयाशहर थाने के अन्तर्गत लाया जाना चाहिए। इसी तरह कोटगेट थाना क्षेत्र के रानी बाजार इंडस्ट्रियल एरिया के रोड नम्बर पांच के इर्द-गिर्द क्षेत्र को गंगाशहर थाना क्षेत्र में शामिल किया जाना चाहिए।
वहीं रामपुरा, मुक्ताप्रसाद कॉलोनी क्षेत्र में नये थाने के सृजन की जरूरत है, जिसकी सीमा पूगल रोड के पूर्वी हिस्से तक रखी जा सकती है। शहर की यह सबसे बड़ी बसावट जिस तरह अपराध का अड्डा बनती जा रही है उसे देखते हुए यह जरूरी भी है। इस नये सृजित थाने में सदर थाना क्षेत्र का सुभाषपुरा वाला पूरा हिस्सा शामिल किया जा सकता है। बीछवाल थाने के एकदम असंगत इलाकोंबजरंगधोरा, इंजीनियरिंग कॉलेज, ख्वाजा कॉलोनी को इस नये सृजित थाने के अंतर्गत लिया जावे। बीछवाल थाना क्षेत्र के समतानगर, गांधी कॉलोनी, करणीनगर, रोडवेज बस अड्डा और इन्द्रा कॉलोनी आदि सभी अब घनी आबादी क्षेत्र बन चुके हैं। अत: इन इलाकों को वहां के बाशिन्दों की सुविधा और कानून-व्यवस्था के मद्देनजर सदर थाना क्षेत्र में शामिल किया जाना जरूरी लगता है।
बीकानेर-आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग पर उत्तरी हिस्से के सांगलपुरा से सोफिया स्कूल तक के हिस्से को जयनारायण व्यास कॉलोनी थाना क्षेत्र में शामिल किया जाना तार्किक है। यह इलाके फिलहाल सदर थाना क्षेत्र में आते हैं। इसी तरह इस राष्ट्रीय राजमार्ग पर रायसर गांव तक के क्षेत्र को भी नापासर थाने से हटाकर जयनारायण व्यास कॉलोनी थाना क्षेत्र में शामिल करना इस मार्ग पर तेजी से बढ़ रही रिहाइशी कॉलोनियों के बाशिन्दों के लिए सुविधाजनक होगा। यातायात थाना व आदर्श कॉलोनी के छोटे हिस्से को संतुलन के लिए व्यास कॉलोनी थाना क्षेत्र से हटाकर कोटगेट थाना क्षेत्र में शामिल किया जा सकता है।
ऐसे किंचित लेकिन जरूरी परिवर्तनों पर न तो चुने हुए जनप्रतिनिधियों ने सुध ली और न ही सरकार ने। सून को हासिल जनता इन क्षेत्रीय विसंगतियों को भुगतती तो रहती है, पता नहीं आवाज क्यों नहीं उठाती। सरकार और यहां से चुने और चुने जाने की आस में बैठे नेता क्या इस ओर भी ध्यान देंगे?

21 जनवरी, 2016

Thursday, January 14, 2016

डॉ. बीडी कल्ला का मसाणिया बैराग

पिछले विधानसभा चुनावों में लगातार दूसरी बार हार जाने के कुछ समय बाद डॉ. कल्ला ने सक्रियता फिर दिखानी शुरू की तो लोगों ने इस कैबत को याद किया कि 'पहली रहता यूं तो तबला जाता क्यूं'
प्रदेश में भाजपा राज के दो वर्ष जिस तरह से गुजरे हैं और केन्द्र की मोदी सरकार ने जिस तरह उम्मीदें बंधा फिर उनसे मुंह फेरा उससे प्रदेश के कांग्रेसियों में हौसला लौटने लगा है। कांग्रेसियों में यह आश्वस्ति भी दीखने लगी कि केन्द्र और सूबे की सरकार से निराश हुए लोग 2018 के विधानसभा चुनावों में उनकी वैसी गत तो नहीं करेंगे जैसी 2013 में की थी। कांग्रेसी ही क्यों, राजनीति करने वाले सभी ऐसा मानते हैं कि जनता की स्मृति इतनी टिकाऊ नहीं होती कि वह चार-पांच वर्ष पुरानी बातों को पकड़े रखे। जनता वोट ताजी निराशा देने वालों के खिलाफ करती है। इस तरह कल्ला की दी निराशाओं को जब अगले विधानसभा चुनावों तक लोग भूल जाएंगे तो उनका पलड़ा और भी भारी यूं ही हो जाएगा। और यदि वर्तमान राजे-राज के बाकी के तीन वर्ष भी यदि वैसे ही गुजरेंगे जैसे बीते दो वर्ष गुजरे हैं तो फिर कहना ही क्या।
डॉ. कल्ला यह मानकर चल रहे हैं कि आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी बीकानेर पश्चिम से चुनाव उन्हें ही लड़वाएगी। ऐसी उम्मीद पर भरोसा इसलिए भी किया जा सकता है कि बावजूद दो बार लगातार और कुल जमा तीसरी बार हार चुके कल्ला ने पार्टी में प्रदेश स्तर पर अपनी इतनी हैसियत तो बना ही ली कि बिना किसी तात्कालिक कारण के कल्ला की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वैसे भी बीकानेर पश्चिम में किसी राजनेता ने अपनी धाक ऐसी नहीं  बना ली है कि उसका दावा कल्ला के दावे से इक्कीस पड़े।
कांग्रेस के इस अकाल समय में डॉ. कल्ला की बात इसलिए हो रही है कि प्रदेश स्तरीय गणतंत्र दिवस के आयोजन पर सूबे का राज बीकानेर में रहेगा। ऐसे अवसर को तब कोई अवसरवादी क्यों छोड़ेगा जब सत्ता पक्ष दो वर्ष में कुछ कर ही न पाया हो। कल्ला ने मांगों की एक फेहरिस्त रख कर घोषणा की है कि शहर की कुछ जरूरतों के लिए 21 जनवरी से वे क्रमिक अनशन करेंगे और सरकार ने उनकी मांगों पर चौबीस-छत्तीस घंटों में ध्यान नहीं दिया तो 23 जनवरी से ही अनिश्चितकाल के लिए अनशन पर बैठ जाएंगे। अनिश्चितकाल के लिए अनशन की घोषणा करना जितना आसान है उसे निभाना ऐसे समय में उतना ही मुश्किल है जब सरकारें पिछले दशकों से असंवेदनशीलता और हेकड़ी से चलाई जाने लगी हों। ऐसा कांग्रेस और भाजपा पर समान रूप से लागू होता है।
कल्ला के इस घोषित सत्याग्रह का ऊंट किस करवट बैठता है या खड़ा ही रहेगा कह नहीं सकते लेकिन उन्होंने जो मुद्दे उठाए हैं उनकी पड़ताल कल्ला के पक्ष से एक बार पुन: कर लें कि जब वे इन मुद्दों पर कुछ करने की हैसियत में रहे थे तब शुतुरमुर्ग क्यों बने रहे।
                —तकनीकी विश्वविद्यालय की घोषणा कांग्रेस की पिछली सरकार ने भागते चोर की लंगोटी ही सही की तर्ज पर शासन की अंतिम छ: माही में की। लेकिन तत्परता नहीं दिखाई कि इस अध्यादेश का विधेयक पारित करवाना है। क्या कल्ला बताएंगे कि अपनी सरकार के समय इसके लिए वे आना-पायी जितने भी सक्रिय हुए थे क्या?
                —कल्ला की दूसरी मांग है: कोटगेट और सांखला रेल फाटकों की समस्या के समाधान के लिए बाइपास का निर्माण शीघ्र करवाया जाए। पिछले पचीस वर्षों से शहरी इस समस्या पर उद्वेलित हैं। बीते इन पचीस वर्षों में लगभग दस वर्ष से ज्यादा समय तो उस कांग्रेस का ही शासन रहा जिसमें कल्ला प्रदेश स्तर की हैसियत बना चुके हैं, पांच वर्ष तो वे मंत्री भी रहे। अलावा इसके इन पचीस वर्षों में वे तेरह वर्ष यहां से विधायक भी रहे। इस समस्या को किसी परिणाममूलक समाधान तक पहुंचाने के लिए कल्ला सक्रिय रहते तो यह समस्या आज रहती ही नहीं।
                —बीकानेर संभाग में उच्च न्यायालय बैंच की मांग वर्षों पुरानी है। इस बीच कांग्रेस की सरकार कई बार रही कल्ला क्या इस हैसियत में नहीं थे कि वे कुछ करवा पाते?
                —रवीन्द्र रंगमंच के लिए कल्ला ने कभी रुचि इसलिए नहीं दिखाई क्योंकि उनका स्वभाव ही रहा है कि अपने विधानसभा क्षेत्र के बाहर नाली भी बने-न-बने, फूटे उनके। पिछले बाइस वर्षों में कल्ला ने इस निर्माणाधीन रंगमंच के लिए कोई प्रयास किया हो तो बताएं। इस रंगमंच की बड़ी प्रतिकूलता यह भी रही कि जिन देवीसिंह भाटी ने अपने विधानसभा क्षेत्र में इसका शिलान्यास किया, खुद उन्होंने ही कभी इसकी सुध नहीं ली तो कल्ला भला क्यों लेते।
                —कल्ला ने शिक्षा निदेशालय को कमजोर करने का मुद्दा भी उठाया है। 1980 में कल्ला जब से शहर की राजनीति में सक्रिय हुए तभी से ही इसे कमजोर करने का सिलसिला लगातार जारी है। स्वयं कल्ला के पास अधिकांशत: शिक्षा मंत्रालय रहा है, कल्ला चाहे न बताएं कि उन्होंने इसे मजबूती देने का क्या प्रयास किया, क्योंकि ऐसा कुछ उन्होंने किया भी नहीं है। लेकिन वे यह तो बता सकते हैं कि इसे कमजोर होने से रोकने के लिए ही कभी कुछ किया है क्या। सभी राजनेता जनता को इसी तरह बरगला कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। कल्ला की यह कवायद भी वैसी ही है।
दो बार हारे कल्ला की स्थिति अन्तिम संस्कार में गए उन मसानियां बैरागियों सी है जिन्हें संसार निस्सार लगने लगता है और वहां थेपड़ी देने के इंतजार में कुछ धर्म या कर्म की घोषणा तो कर देते हैं पर बाहर आने से पहले धोती और पेंट को झाडऩे के साथ ही उन घोषणाओं को झाड़ देते हैं। कल्ला व उन जैसे ही अन्य नेताओं के संदर्भ से बात करें जो चुनाव जीतने के बाद मसाणियां बैराग की तर्ज पर घोषणाओं को झाड़ देते हैं और जीतने के बाद उस जीत को भोगने के अलावा उन्हें कुछ सूझता ही नहीं। व्यावहारिक भारतीय राजनीति की विडम्बना यह भी हो गई है कि कल्ला की हाल की जैसी सक्रियता पर सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो विरोधी पार्टी की ऐसी 'ठक-ठकों' पर वह 'ठठेरे की बिल्ली' हो लेती हैं।

14 जनवरी, 2016

Thursday, January 7, 2016

गणतंत्र दिवस समारोह : हरी होती दीखती उम्मीदें

सूबे के संवैधानिक मुखिया राज्यपाल और कामकाजी मुखिया मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, दोनों को 26 जनवरी पर्व पर इस बार बीकानेर में होना है। गणतंत्र दिवस के राज्य स्तरीय समारोह का आयोजन यहां तय किया गया है। अत: हो सकता है कि मुख्यमंत्री कम से कम एक दिन पहले तो बीकानेर आ ही जायें।
दीपावली पूर्व आसोज में जिस तरह साफ-सफाई और रंगरोगन का दौर-दौरा घरों में चलता है, कुछ-कुछ वैसा ही माहौल खासकर शहर के उन क्षेत्रों में दिखाई देने लगा है, जहां-जहां इन अतिविशिष्टों को जाना या जिन-जिन स्थानों से गुजरना है। जून, 2014 में 'सरकार आपके द्वारÓ के समय मुख्यमंत्री यहां कई दिनों तक रहीं, यद्यपि उन्होंने तब कुछ खास ऐसी उम्मीदें नहीं दी कि उन्हें फिर आगामी यात्रा में बगलें झांकनी पड़े। लेकिन शहर की कुछ जरूरतें और कुछ नाक के सवाल ऐसे हैं जिन पर वसुंधरा को ध्यान यहां आने पर देना होगा।
शहर की पहली और बड़ी जरूरत तो कोटगेट और सांखला रेल फाटकों के चलते दिन में कई-कई बार लगने वाले जाम का समाधान देना हैं। इसके समाधान की यहां के शहरी लगभग पिछले पचीस वर्षों से बाट जोह रहे हैं। लेकिन बाइपास, अण्डरपास और एलिवेटेड रोड के समाधानों में से कोई-सा भी सिरे नहीं चढ़ रहा। इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार तो यहां के नेता और चुने जनप्रतिनिधि हैं जिन्होंने इस समस्या को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। जो लेते तो जनता की एकराय बनवाते और फिर उसकी क्रियान्विति के लिए प्रयास ही करते। इसके प्रस्तावित समाधानों पर हुआ यह कि कुछ मुखर लोग सबसे खर्चीले-बाइपासी-समाधान पर अड़े हैं जिसे अंजाम तक पहुंचाना इतना दूभर है कि यह नामुमकिन सा हो गया। अन्यथा सात से पन्द्रह वर्ष के बीच निर्माण की यह योजना इन पचीस वर्षों में कभी जमीन पर आ लेती और यहां के बाशिंदे सुकून का अनुभव कर लेते। इस पर अटके लोग आज भी इसी समाधान को झाले बैठे हैं। वे यह भी समझना नहीं चाह रहे हैं कि आर्थिक तंगी का रोना-रोने वाली सरकारें दो हजार करोड़ राशि के इस समाधान को मंजूर भी कर लेगी तो इसके क्रियान्वयन तक शहर पंद्रह वर्षों तक क्या यंू हीं और भी बदतर तरीके से भुगतता रहेगा।
बाइपासी समाधान के आग्रह को कायम रखते हुए भी जब तक यह समाधान जमीन पर उतरे तब तक एलिवेटेड रोड जैसी डेढ़-दो वर्षीय योजना पर अब शहरियों को एकराय हो लेना चाहिए और इसके शिलान्यास का उचित अवसर भी गणतंत्र दिवस समारोह के आगामी राज्य स्तरीय आयोजन पर हासिल कर लेना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो सूबे की यह सरकार 2018 के चुनावों में अपनी पार्टी का मुंह लेकर शहर के दोनों विधानसभा क्षेत्रों में आसानी से जा सकेगी।
दूसरा, नाक का सवाल बन चुके तकनीकी विश्वविद्यालय की पुनस्र्थापन की उम्मीद है। हो सकता है सरकार इसकी घोषणा अब 2017 में करे, तब तक पिछली कांग्रेसी सरकार का इसके लिए किया-धरा सब धुल जायेगा और इस विश्वविद्यालय की चमक का श्रेय अकेले इसी सरकार को हासिल हो जाए।
तीसरा, एक और मुद्दा जिसे समर्थों और उनसे हांके जाने वाले मीडिया ने नाक का सवाल बनाया है, वह हवाई सेवा शुरू करने का है। 'सरकार आपके द्वार' कार्यक्रम के समय संबंधित मंत्रालय के दो केन्द्रीय मंत्रियों और स्वयं मुख्यमंत्री ने आकर नाल सिविल टर्मिनल का उद्घाटन किया था और सभी संभावनाओं को टटोलने का पूरा भरोसा दिलाते हुए कहा भी कि निजी क्षेत्र की कोई कंपनी भले यह सेवा शुरू न करे पर एयर इण्डिया को इसके लिए राजी कर लिया जायेगा। पहले से भारी घाटे में चल रही एयर इण्डिया भी अब इतनी सयानी हो गई है कि महीने में दो-पांच दिन की फायदे की उड़ानों की नियमित सेवा वह भी अब शुरू करती नहीं। ऐसे में निजी एयरलाइनों से कुछ उम्मीद करना दिवास्वप्न-सा ही है। इसके उद्घाटन के समय ही ऐसी सभी आशंकाएं 'विनायक' ने जाहिर करते हुए जता दिया था कि जब तक उड़ानों का असल समय आएगा तब तक इस टर्मिनल के नवीनीकरण का समय आ लेगा। यह आशंका आज डेढ़ वर्ष बाद भी कायम है।
खैर, अपने शहर से सचमुच प्रेम करने वालों को इस पूरे महीने मुस्तैदी दिखानी चाहिए और कोटगेट और सांखला रेल फाटकों की समस्या का समाधान ले पडऩा चाहिए।

7 जनवरी, 2016