Wednesday, January 2, 2013

विधानसभा चुनाव और बीकानेर पूर्व क्षेत्र


इस साल के अन्त में प्रदेश की विधानसभा के चुनाव होने हैं। सूबे के मुख्यमंत्री और सरकार दोनों की चाल-ढाल चुनावी हो गई है। पर अभी तक दोनों मुख्य पार्टियों-भाजपा और कांग्रेस के संगठन ठन-ठन हैं। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के प्रदेश पार्टी मुखिया पार्टी का काम-काज मात्र कार्यवाहक के रूप में अंजाम दे रहे हैं, पिछले लगभग एक वर्ष से वे इसी आशंका में पार्टी चला रहे हैं कि उन्हें यह पद कभी भी छोड़ना पड़ सकता है। पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा तो अपने तेवर छोड़ना चाहती हैं और ही काम-काज का ढंग। वसुन्धरा को चुनौती दे सकने वाले सूबे में दो ही नेता हैं-गुलाबचन्द कटारिया और घनश्याम तिवारी। तिवारी तेल और तेल की धार देखने में लगे हैं तो कटारिया के हाथ जरूर ताल ठोकने को फड़फड़ाते रहते हैं। यह नजारा अभी कुछ महीनों और तब तक चलने वाला है जब तक उनकी पार्टी का हाईकमानआलानहीं हो जाता है। स्थानीय भाषा में बात करें तो फिलहाल इस पार्टी का कोई धणी धोरी नहीं है।
सूबे की सरकार के मुखिया अशोक गहलोत के लिए भाजपा की यह स्थितियां बड़ा सुकून देने वाली हैं। क्योंकि गहलोत खुद यूं ही रह रहे हैं कि तबला ना जाए, पर उनका पार्टी संगठन और अधिकांश कार्यकर्ता अगले चुनाव में अपनी सरकार को बचाए रखने की बजाय खुद को ही बनाये रखने और जो बने हुए हैं वे अपने को बनाने में लगे हुए हैं। सरकार ने लोकहितकारी क्या-क्या काम किया है, इसका ढिंढोरा पीटने का अवकाश गहलोत और उनके कुछेक मंत्रियों को छोड़ कर किसी के पास नहीं है। तीसरे मोर्चे के नगाड़ों की आवाज तो दूर, छम-छम भी अभी सुनाई देने नहीं लगी है।
ये तो हुई सूबे की बात। अब थोड़ी पड़ताल अपने शहर की कर लेते हैं। बीकानेर (पूर्व) और बीकानेर (पश्चिम), ये दो विधानसभाई क्षेत्र हैं यहां के। आज पूर्व की बात कर लेते हैं। 2008 के चुनावों में चुने जाने के बाद से ही विधायक सिद्धीकुमारी कभी-कभार ही रियाया को दर्शन देने या सम्हालने के अन्दाज में प्रकट होती हैं या विधायक कोटे से जिन्हें कृतार्थ किया उनके फीते काटने, पत्थर अनावृत करने या ईंट थरपने के आयोजनों में जरूर शामिल हुई हैं। रही बात अपने वोटरों के लिए सुलभ होने की तो विनायक इस बारे में पहले ही बता चुका है कि पहले तो वह शहर में रहती ही कम हैं और रहती भी हैं तो उनके निवास शिवविलास तक पहुंचना और कोई पहुंच भी जाए तो उनसे मिलना टेढी खीर से कम नहीं है! यह भी निश्चित नहीं माना जा रहा है कि अगला चुनाव सिद्धीकुमारी लड़ेंगी ही। दो सम्भावनाओं पर बात होने लगी है, एक तो यह कि वे अपने दादा की तरह चुनाव लड़ना तय कर लें यद्यपि दादा की यह मनःस्थिति पांच चुनाव लड़ने और उन्हें जीतने के बाद बनी थी। हो सकता है कि सिद्धीकुमारी की यह मनःस्थिति एक कार्यकाल के बाद ही बनने लगी हो। क्योंकि वह उन लोगों में नहीं कि हार कर मैदान छोड़ें। दूसरी सुगबुगाहट कुछ माह पहले तब शुरू हुई जब प्रदेश के खबरिया चैनलईटीवी राजस्थानपर एक शाम यह ब्रेकिंग न्यूज फ्लैश शुरू हुई कि बीकानेर की विधायक शादी करने वाली हैं यद्यपि चैनल ने इस ब्रेकिंग न्यूज को तत्काल ब्रेक भी कर दिया था। पर लोक में यह माना जाता है कि बिना चिनगारी के धुआं नहीं उठता है। सो हो सकता है कि वह शादी करके यह क्षेत्र बदल लें।
कांग्रेस की बात करें तो विनायक पहले ही बता चुका है कि सिद्धीकुमारी से भारी वोटों से हारे तनवीर मालावत के चुनाव बाद के रंग-ढंग यह नहीं बताते हैं कि वह उनकी उम्मीदवारी के चलते चुनाव फिर लड़ना चाहेंगे। वह गुड़ी-गुड़ी राजनीति में विश्वास रखते हैं और राजनीति उनका प्रोफेशन भी नहीं है। वह राजनीति शायद इसलिए कर रहे हैं कि इसके सहारे वे अपने धन्धों को बिना बाधा के फलने-फूलने दें। यदि वे इस क्षेत्र से अगला चुनाव लड़ेंगे भी तो पार्टी पर एहसान जता कर ही! कांग्रेस में इस सीट के लिए दावेदारी तो कई कर सकते हैं लेकिन वे ऐसा तभी करेंगे जब सिद्धीकुमारी इस चुनाव क्षेत्र से लड़ना तय कर ले। बीकानेर (पश्चिमी) की बात फिर करेंगे।
2 जनवरी, 2013

Tuesday, January 1, 2013

‘तीन-तेरह, घर बिखेरै’


ईसवी सन् 2013 का आज पहला दिन है। अंग्रेजों के यहां आने से पहले इस कालगणना की जानकारी बहुत कम को रही होगी। भारतीय भू-भाग में इससे पहले भिन्न-भिन्न कारणों से अलग-अलग समूहों-अनुशासनों में कालगणना के जुदा-जुदा मानक तय थे-विक्रम संवत्, शक संवत्, वीर संवत आदि-आदि। मुगलों के यहां आने के बाद हम कालगणना के हिजरी तरीके से भी वाकिफ हुए।
कभी कहा जाता था कि अंग्रेजों के राज में कभी सूर्य अस्त नहीं होता है। तब इसके मानी यह नहीं थे कि सूर्य बदचलन हो गया था। सूर्य तो अपनी गति से चला है हमेशा, पर अंग्रेजों का राज घूमती हुई पृथ्वी के उन कई हिस्सों पर था जिनमें से कोई कोई हिस्सा सूर्य के सामने रहता ही था। चूंकि अंग्रेज अपने रंग-ढंग और अपनी कालगणना पद्धति से ही चलते थे सो जहां-जहां उन्होंने राज किया वहां-वहां के लोगों ने अपनी-अपनी अनुकूलताओं से उनका खान-पान का ढंग, पहनावा तो अपनाया, पर सबसे ज्यादा जो अंग्रेजों से अपनाया गया वह ईसवी कालगणना पद्धति ही थी। हमारे यहां भी ऐसा ही हुआ है। कालगणना, पहनावा और एक हद तक खान-पान का ढंग हमने अंग्रेजों से लिया यद्यपि खान-पान हमारा मुगलों से ज्यादा प्रभावित है।
देश की आबादी के बड़े हिस्से (निम्न और निम्न मध्यम वर्ग) को छोड़ दें तो उत्तर-आधुनिक संचार साधनों के इस युग में शेष उस छोटे समूह के रंग-ढंग, खान-पान, पहनावे को तय करवाने में मीडिया के, टीवी और अखबारी दोनों रूप सफल होते दीखते हैं। बाजार को मीडिया का माई-बाप कहें या आका, तो आका ही उचित जान पड़ता है। क्योंकि मीडिया के सारे जतन बाजार को ही रोशन करने में लगे दीखते हैं। यद्यपि अमरीकी और कई यूरोपीय दुनिया के टीवी कार्यक्रमों से विज्ञापनों को हटाने का दौर शुरू हो गया है। देर-सबेर यह दौर हमारे यहां भी आयेगा ही। अमरिकी और यूरोपीय देशों से अब तक लगभग पचास साल पीछे चलने वाली तकनीक से प्रभावित हमारी मानसिकता का यह काल-अन्तराल यद्यपि लगातार कम हो रहा है लेकिन फिर भी हमारा संस्कार इस अन्तराल को बनाये तो रखेगा ही।
काल-क्षेत्र के हिसाब से मीडिया जिस तरह त्योहार-तिथियों को भुनाने लगा है उससे लगता है कि वह साल के 365 दिन ही कुछ कुछ निकाल लाने में सफल हो जायेगा। इस सारे तामझाम में एक बात तो ठीक यह लगी कि 2013 को मीडिया ने शुभ और उम्मीदों भरा बता दिया। जबकि तीन तेरह को लेकर पूरी दुनिया के लोक में कई भ्रान्तियां और आशंकाएं प्रचलित हैं और इनके चलते ही कई मुहावरे-कहावतें और घटनाएं भी प्रचलित हैं। जैसे तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा, तीन-तेरह घर बिखेरै, तीन-तेरह होना या करना आदि-आदि। इन मुहावरों, कहावतों, घटनाओं ने इन अंकों का हाल भी वैसा ही किया है जैसा कुछ स्त्रियों या कुछेक पुरुषों को खुरपगा/खुरपगी, डाकण, खराब पगफेरे (का या की) आदि-आदि कह दिया जाता है।
1 जनवरी, 2013